(मुनि श्री क्षीरसागर कृत
शत इन्द्रनि के मुकुट जु नये, पाप विनाशक जग के भये |
ऐसे चरण ऋषभ के नाय, जो भवसागर तिरन सहाय ||१||
तत्व ज्ञान से जो थुति भरी, बुद्धि चतुर सुरपति सो करी |
ते पद सब जन के मन हरें, सो थुती हम उस जिन की करें ||२||
ज्यों नभ में शशि को लख बाल, पकड़न चाहें होय खुश्याल |
त्यों मैं थुति वरणों मति हीन, जिसमें गणधर थके प्रवीण ||३||
हे गुण निधि तुम गुण शशि कान्त, कहि न सके ऋषि सुर लौकांत,|
प्रलय पवन उद्धत दधि नीर, तर सकता को भुजबल वीर ||४||
मै मति हीन रंच नहीं डरों, भक्ति भाव वश तुम थुति करों |
तुमहिं कहो जिन निज सुत काज, मृग न लड़ें मृगपति से गाज ||५||
अल्प शास्त्र का ज्ञात जान, हँसी करेंगें बहु श्रुतवान |
पर मो बुद्धि करे वाचाल, कोयल को ज्यों मधु ऋतु काल ||६||
यह थुति अल्प रचित भगवान, तुम प्रसाद हो निपुण सामान |
ज्यों जल कमल पत्र पे परे, मोती वत् सो शोभा धरे ||७||
तुम थुति गावत ही क्षण माहि -जन्म जन्म के पाप नशाहिं |
ज्यों दिनकर के उदय वशात, अंधकार तत्काल नशात ||8||
तुम निर्दोष रहो थुति दुर, कथा मात्र से ही अधचूर |
ज्यों रवि दूर किरण के जोर, कमल प्रफुल्लित सरवर ओर ||९||
क्या अचरज जो तुम सम बनें, कारण निश दिन तुम गुण भनें |
ज्यों निरधन धनपति को पाय, धनी होए तो कहे बड़ाय ||१०||
शांति रूप तुम मूरत धनी, क्या अद्भुभूत परमाणु बनी |
वे परमाणु रहे ना शेष, इससे तुम सम दुतिय ना भेष ||११||
तुम मुख उपमा सब जग वरे,सुर नर नाग नयन मन हरे |
तुम सम उपमा चन्द न रखे, वह दोषी दिन फीका दिखे ||१२||
सब शशि मंडल मे शशि कला,त्यों तुम गुण सब जग मे फला |
जो ऐसे के आश्रित होय, उस विचरत को रोके कोय ||१३||
देवांगना न मन को हरें, क्या अचरज हम इसमें करें |
प्रलय पवन से अचला चले,किन्तु मेरु गिरी रंच न हिलें ||१४||
तेल न बत्ती धुआं न पास ,जगमग जगमग जगत प्रकाश ||
प्रलय पवन से बुझे न खंड , ज्ञान दीप तुम जले अखंड ||१५||
राहू ग्रसे न हो तू अस्त , युगपत भाषे जगत समस्त |
तुझ प्रभाव नहीं बद्दल छिपे , तू रवि से अधिकारी दिपे ||१६||
ताप विनाशक तू नित दिपे , राहू ग्रसे न बद्दल छिपे |
तुम मुख सुन्दर ज्योति अमंद , शांति विकासी अद्भूत चंद ||१७||
क्या दिन रवि क्या निश शशि होय ,जब तेरा मुख जग तम खोय |
जब पक जाय धान्य सब ठाम ,फिर घनघोर घटा बे काम ||१८||
जो सु ज्ञान सोहे तुम माहिं , हरि हरादि पुरुषों में नाहिं |
सूर्यकांत में जो थुति कढ़े , सो नं कांच मे रवि से बढ़े ||१९||
हरि हरादि उत्तम इस रीति , उनको लख तुमसे है प्रीति |
तुमरी रति से फल यह हमें , जो न भावांतर पर मे रमें ||२०||
तुम को इकटक लखे जु कोय , अवर विषें रति कैसे होय |
को कर पान मधुर जल क्षीर , फिर क्यों पीवे खारा नीर ||२१||
सब नारी जननी सुत घने, पर तुमसे सुत नाहीं जने |
सर्व दिशा से तारे मान , किन्तु पूर्व दिश उगें भान ||२२||
परम पुरुष जाने मुनि तुमें , तम से परे तेज रवि समें |
तुम्हे पाय सब मृत्यू हरें , मोक्ष मार्ग इससे नहीं परें ||२३||
तुम अचिन्त्य व्यापक ध्रुव एक , मुनिवर विदित असंख्य अनेक |
ब्रह्मा ईश्वर आद्य अनंत ,अमल ज्ञान मय कहते संत ||२४||
तुम सुबुद्दी से बुद्ध प्रसिद्ध , अघ संहारक शंकर सिद्ध |
धर्म प्रवर्तक ब्रह्मा आप , जग पालक नारायण थाप ||२५||
तुम्हे नमों हे पर दुख हार , तुम्हें नमों जग भूषण सार |
तुम्हे नमो जग नायक धार , तुम्हे नमों भव शोषण हार ||२६||
क्या अचरज सब गुण तुम पास , जबकि न उनको अन्य निवास |
दोष गर्व बहु थल को पाय , सपने भी तुम पास न आय ||२७||
तरु अशोक ऊँचे के तीर , तुमरो सोहे विमल शरीर |
ज्यों तम हर अरु तेजस खास , रवि दीखे घन घट के पास ||२८||
रतन जड़ीत सिंघासन ऊप , तुम तन सोहे कनक स्वरुप |
पूरब दिश उदयाचल पास , सोहे किरण लता रवि खास ||२९||
कुंद पुष्प सम चौसठ चमर , तुम तन ऊपर ढोरें अमर |
शशि सम श्वेत बहे जल धार , ऊँचे कनक मेरु दिश चार ||३०||
शशि सम तीन छत्र सिर आप , जो रोके रवि का आताप |
मोती झालर शोभे घना , जिससे प्रकटे ईश्वर पना ||३१||
दश दिश मे धुनि उच्च अभंग, जग जन को सूचक शुभ संग |
तुमरी बोलें जय जय कार , नभ मे यस को बजे नकार ||३२||
पारी जात सुन्दर मंदार , वर्षे फूल अनेक प्रकार |
मंद पवन गंधोदक झिरें ,मानों तुम बच नभ से खिरें ||३३||
तुम भामंडल तेज अपार , जीते सब जग तेजस धार |
कोटि सूर्य से बढ़ कर कांति लज्जित भई चन्द्र की शांति ||३४||
स्वर्ग मोक्ष पथ सूचक शुद्ध , तत्व कथन में सबको बुद्ध |
प्रकट अर्थ तुम धुनि से होय , सब भाषा गुण परजय जोय ||३५||
फूले कनक कमल की ज्योति , चहुँ ओर त्यों नख द्युति होति |
ऐसे चरण धरो तुम जहाँ , झटपट कमल रचें सुर तहां ||३६||
जैसा विभव तुम्हारे लार , वैसा विभव न कोई धार |
जैसे तम हर सूर्य प्रकाश , तैसा अन्य न ज्योतिष पास ||३७||
हो उन्मत मद झरे अपार , जो क्रोधित सुन अलि गुंजार |
ऐसा सुर गज सन्मुख आय ,भय न करे तुम आश्रित पाय ||३८||
खेंचे कुम्भस्थल गज मत्त , भूमें बिखरे मोती रत्त |
ऐसा सिंह न पकडे खाय , जो तेरे पद आश्रित आय ||३९||
प्रलय पवन सम अग्नि हले, तड़तड़ाय दावानल जले |
जगदाहक सन सन्मुख आय , तब तुम थुति जल देई बुझाय ||४०||
लाल नेत्र अरु काला अंग , धाय उच्च फण कुपति भुजंग |
उसको लांघे निर्भय राम , जिस पर अहिऔषध तुम नाम ||४१||
हय उछलें गज गरजें घोर , सेना चढ़ी नृपति के जोर|
तुम कीर्तन से शीघ्र पलाय , ज्यों रवि ऊगत तम विनशाय ||४२||
भाले छिदें बहें गज रक्त , चल फिर सकै न जोधा मत्त |
तब रिपु प्रबल न जीता जाये , सो जय तुम पद आश्रय पाय ||४३||
दधि मे मगर मच्छ उद्दण्ड , -बद्वानल या पवन प्रचंड |
अथवा नाव भंवर मे आय,तब तुम सुमिरत विघ्न नाशाय ||४४||
घोर जलोदर पीड़ा सहे , आयु न आशा चिन्ता रहे |
जब तन लेपे तुम पद धूल, कामदेव सम होय समूल ||४५||
नख शिख अंग सांकलें ठिलीं,दृढ़ बेडिनि सों टांगें छिलीं |
जब तुम नाम मंत्र सुमिराय , बंधन रहित शीघ्र हो जाय ||४६||
गज केहरि दावानल नाग , रण दधि रोग बन्ध बहु लाग |
ये भय भजें स्वयं भय खाय , जब इनको तुम व्रतधर पाय ||४७||
तुम स्तोत्र जिनेश महान , भक्ति विवश कछु रचा अजान |
पर जो पाठ पढ़े मन लाय , ‘मानतुंग‘ अरु लक्ष्मी पाय ||४८||