तीर्थयात्रा
प्र. ५७६ : यात्राओं का जीवन में क्या महत्व है?
उत्तर : यात्राओं की जीवन में महती आवश्यकता है। तीर्थों के नाम से अंतरंग सुप्त प्रमाद सिंह गर्जना करता हुआ भाग खड़ा होता है। वीरत्व की ज्योति जागती है, उत्साह के सुमन खिलने लगते हैं। प्रयाण करते ही आनंदधारा छलछलाती-उछलती हुई प्रवाहित होने लगती है। हर्ष के झरने लगते हैं। हृदय से आनंद विकसित होता है। एक विचित्र प्रकार की चाह जागृत होती है दर्शन की। दर्शन से नयन तृप्त होंगे। मस्तक झुकते ही पवित्र होगा। करकमल जोड़ते ही पावन हो जायेंगे। इन शुभ विचारों से अनेकों कोटि-कोटि भव के दुष्कर्म अनायास ही नष्ट हो जाते हैं। साक्षात दर्शन होते ही तो मानो स्वयं के आत्मदर्शन हो रहे हैं ऐसा प्रतीत होता है। क्योंकि यहाँ आत्मा का एकाकार-सा प्रतीत होने लगता है।
प्र. ५७७ : तीर्थ वंदना का क्या फल है?
उत्तर : तीर्थ भूमि सिद्ध हुये जीवों की परम विशुद्धवर्गणाओं से अंकित होती है। वहाँ के दर्शन-स्पर्शन से उनका ग्रहण होता है। जिससे उन परम औदारिक शरीर वर्गणाओं के आश्रय से हमारे शरीर में भी पवित्रता व लाघवता आती है। फलतः परिणाम विशुद्धि, निर्मल बुद्धि, शांतपरिणति होती है तथा लोभ निवृत्ति और मनो-व्यापार की अनर्गल प्रवृत्ति का संचार निवृत्त होता है। पाप-पुंज की निर्जरा और पुण्यार्जन होकर परम्परा से सिद्धावस्था प्राप्त होती है।
प्र. ५७८ : क्षेत्रों की वंदना से क्या विशेष लाभ है?
उत्तर : बात स्पष्ट है भगवान की प्रतिमा उसी एक नाम की होती है। सर्वत्र २४ तीर्थंकरों की ही स्थापना की गई है। परन्तु सिद्धात्माएँ केवल २४ ही हों, यह नहीं है। अनंत सिद्ध अनेकों भिन्न स्थानों से शिवपुर सिधारे हैं। यद्यपि उनकी प्रतिमाएँ नहीं है। परन्तु उनके परमौदारिक, परमपुनीत शरीर वर्गणाओं के बिखर जाने से वह क्षेत्र भी पवित्र और पूज्य हो जाता है। जिसके दर्शन मात्र से परमानंद होता है। उन-उन सिद्धात्माओं का स्मरण, ध्यान, स्तवनादि करने से परमाल्हाद, सुखानुभूति, संतोष, वैराग्यादि होते हैं, जिससे अनंत कर्मों की निर्जरा सहज हो जाती है। मिथ्यात्व, मोह नष्ट होता है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति और पुष्टि भी होती है। विभिन्न स्थानों पर विविध प्रकार से शुभ परिणाम बनते जाते हैं। धर्मध्यान सुस्थिर होता है। आर्त रौद्रध्यान नष्ट होते हैं।
प्र. ५७९ : मुनि सुदर्शन स्वामी के निर्वाणस्थल का नाम बतलाओ।
उत्तर : पटना, (गुलजार बाग, बिहार) से महामुनि सुदर्शन स्वामी ने निर्वाण प्राप्त किया था।
प्र. ५८० : अतिशय क्षेत्र और क्षेत्रस्थ जिनबिम्ब के दर्शन करने से लाभ बतलाओ।
उत्तर : हे भव्यात्मन् ! अतिशय क्षेत्रों और क्षेत्रस्थ जिनबिम्बों के दर्शन करने से मन पावन होता है। पाप भार हलका होता है और पुण्य का वर्द्धन होता है जीवन में शान्ति आती है। वैराग्य पुष्ट होता है। संयम की वृद्धि होती है। ज्ञान का विकास और ध्यान की सिद्धि होती है। मिथ्यात्व का नाश एवं सम्यक्त्त्व की वृद्धि होती है। सम्यक् दर्शन के पोषण से संसार शरीर भोगों के प्रति विरागभाव जागृत होता है, पुष्ट होता है, वर्द्धन होता है। चमत्कारों के पुञ्जों की ज्योति से आलोक मिलता है। जिससे श्रद्धा अकाट्य रूप धारण करती है। संसार के प्रलोभन अपना असर नहीं डाल सकते। मिथ्या चमत्कार से रक्षण होता है।
साधु जीवन निखरता है। संयम को बल मिलता है। त्याग भाव वृद्धि को प्राप्त होता है। वाह्य जड़रूप वैज्ञानिक क्षणिक चमत्कारों में किसी प्रकार का आकर्षण नहीं रहता, आध्यात्मिक शक्ति बढ़ाने का अनायास प्रयास होने लगता है। अध्यात्म ज्योति चमकती है। अंतरात्मा, परमात्मा की ओर प्रयाण करती है। जड़ के अंदर चैतन्य प्रकट झाँकने लगता है। उसकी किरणों से मन आलोकित हो उठता है। क्षणिक इन्द्रिय विषयों का प्रलोभन नहीं रहता है। विषयातीत आनंद की चाह आपत हो उठती है।
प्र. ५८१ । उर्जयन्त नाम गिरनार पर्वत कैसे हो गया?
उत्तर : जैन दर्शन में भगवान नेमिनाथ के समय की एक घटना है। एक महिला का पति बड़ा नास्तिक था और महिला आस्तिक एवं धानिक थी। पुरम कहता था मैं तुझे दान, पूजा, पाठ नहीं करने दूँगा। मैं जो पाप करता जिला मजिक धार्मिक भी पहनी। एक दिन उस महिला ने कोई दान पुण्य कर दिया। जब पुरुष आया है उसकी तुझे अनुमोदना करवा लिया। तूने दान, पुण्य, धर्म कैसे किया और उसे बहुत वेदना हुई, तब वह उसको पता जाता तो उसने बाजी का मोह छोड़, दोनों को वात्सल्य भाव से देखकर गिरनार पर्वत के पहाड़ पर सात साल के देव को अवल आयी कि इन बच्चों को कौन पालेगा, घर की व्यवस्था कौन सम्हालेगा? सोचा, पत्नी ही तो हैं, चलकर मना लाऊँ। जैसे ही बच्चों को लेकर पर्वत के ऊपर जाता है जिस गिरनारे पर पचानेमिनाथ से दीक्षा ले चुकी थी और राजुल आर्थिका बन चुकी थी। उस नारी ने जैसे ही देखा कि पति पर रहा है, सोचा बच्चों को भी मुझे यहाँ सौंपकर मारेगा। सोचा पति के हाथ से मरने की अपेक्षा मैं ही मर जाती हैं। वह पहाड़ से कूद गई और आर्त रौद्र ध्यान से मरकर वहाँ व्यन्तर हुई। पति वहाँ आकर कहता है कहाँ गई? अभी तो थी। पुकारता है, बच्चे रोने लगते हैं, माँ कहाँ हो? बच्चों और पति का रुदन सुनकर उस व्यन्तरनी ने स्वर्ग में अवधिज्ञान से जाना और उसे दया आई। वह उसी रूप को धारण कर बच्चों के पास आती है और बच्चों को उठा लेती है। पति कहला है, घर चल, वह कहती है, नहीं जा सकती। घर जाने वाली तो पहाड़ के नीचे पड़ी है। मैं तो मात्र बच्चों की दया के कारण भेष बदलकर आयी हूँ। बच्चों को दूध के स्थान पर फल लेकर आयी हूँ, क्योंकि देवियों के स्तन में दूध होता ही नहीं है।
देवगढ़ के अंदर हजारों प्रतिमाओं में ये चित्र वने हैं, एक बच्चे को गोदी में लिये, एक जमीन पर खड़ा है। हाथ में आम, अंगूरादि फल लिये हुये हैं। बच्चों को पालती रही और बच्चों के बड़े होने के बाद चली गयी। वहीं नेमिनाथ भगवान तपस्या कर रहे थे वहाँ उनकी शासनदेवी बनी। उसी समय से (पहले गिरनार का नाम उर्जयन्त था) उसका नाम जहाँ से गिरी नारी वह गिरनारी तथा गिरनार पड़ा। (संस्कृति – पृ.१२)
प्र.५८२ : तीर्थ वंदना का फल क्या है?
उत्तर : तीर्थ भूमि सिद्ध हुये जीवों की परम विशुद्ध वर्गणाओं से अंकित होती है। वहाँ के दर्शन-स्पर्शन से उनका ग्रहण होता है, जिससे उन परम औदारिक शरीर में भी पवित्रता व लाघवता आती है। फलतः परिणाम, विशुद्धि, निर्मल बुद्धि, शांतपरिणति होती है तथा लोभी निवृत्ति और मनो-व्यापार की अनर्गल प्रवृत्ति का संचार निवृत्त होता है। पाप-पुंज की निर्जरा और पुण्यार्जन होकर परम्परा से सिद्धावस्था प्राप्त होती है।
प्र. ५८३ : वास्तविक तीर्थयात्रा करना किसकी सफल है?
उत्तर : सा तीर्थयात्रा यस्यामकृत्यनिवृतिः ।
अर्थ जहाँ जाकर लोग पाप में प्रवृत्ति नहीं करते, वही उनकी वास्तविक तीर्थयात्रा है। अभिप्राय यह है
कि तीर्थस्थान का पाप वज्रलेप की तरह अमिट होता है अतः वहाँ पर पाप क्रियाओं का त्याग करना चाहिये।
प्र. ५८४ : अयोध्या नगरी की रचना किस प्रकार है?
उत्तर : अयोध्या नगरी की रचना भगवान ऋषभदेव की माता मरुदेवी के गर्भ में आने के ६ माह पूर्व इन्द्र की आज्ञा से देवों ने स्वर्गपुरी के समान की। इसे साकेता, विनीता, सुकोशलापुरी भी कहते हैं। देवों ने उस नगरी को विशेष मनोहर बनाया, इसका कारण यह प्रतीत होता है कि देवताओं की यह इच्छा थी कि मध्यलोक में स्वर्ग की एक प्रतिकृति हो।
उस नगरी के मध्य में सुरेन्द्र भवन से स्पर्धा करने वाले महाराज नाभिराज के निवासार्थ सुरेंद्र धवन की रचना की गई थी। उनकी दीवारों में अनेक प्रकार के दीप्तिमान मणि लगे थे। सुवर्णमय स्तम्भों से वह समलंकृत था। पुष्प, मूंगा, मुक्तादि से शोभायमान था। हरिवंशपुराण में लिखा है कि उस राजभवन का नाम सर्वतोभद्र था। उसका (८१ मंजिलें थी। वह परकोटा, वापिका उद्यानादि से शोभायमान था। अयोध्या १२ योजन प्रमाण विस्तार से युक्त थी।
प्र. ५८५ : भगवान आदिनाथ के सुपुत्र भरतेश्वर ने कहाँ से निर्वाण प्राप्त किया?
उत्तर : भरतेश्वर मुनि ने कैलाश पर्वत से निर्वाण प्राप्त किया।
प्र. ५८६ : शिखरजी के पहाड़ की कितने लाख व्यंतर देव सेवा करते हैं?
उत्तर : सम्मेदाचल की १० लाख व्यंतर देव सदैव सेवा करते हैं और उन व्यंतरों का अधिपति महाप्रभुत नाम का इन्द्र है। वे भी शिखरजी का रक्षक हैं।
प्र. ५८७ : कोटिशिला से एक करोड़ मुनिराज मोक्ष पधारे हैं, उस कोटिशिला को नारायण उठाते हैं, कोटिशिला कहाँ है?
उत्तर : वह कोटिशिला नाभिगिरी पर्वत के मस्तक पर है। वह एक योजन ऊँची और आठ योजन चौड़ी है तथा अनेक मुनिराजों का वह सिद्धस्थान है। ऐसी कोटिशिला को हमारा नमस्कार हो! यही बात सोमसेन कृत पद्मपुराण में २२वें अधिकार में लिखी है।
प्र. ५८८ : किनके पद पद पर तीर्थ है?
उत्तर : परद्रव्येषुह्यन्धाः परस्त्री नपुंसकाः । परोपवादने मुकास् तेषां तीर्थ पदे पदे।।
अर्थ- जो दूसरे के धन में अंधे हैं, परस्त्रियों के विषय में नपुंसक हैं और दूसरों की निंदा करने में गूंगे हैं, उन्हे पद पद पर तीर्थ है।
प्र. ५८९ : दो प्रकार के तीर्थ का स्वरूप बतलाओ।
उत्तर : दानतीर्थ व धर्मतीर्थ की अपेक्षा तीर्थ दो प्रकार का है। दानतीर्थ के माध्यम से शरीर की रक्षा होती है और शरीर के माध्यम से धर्मपालन होता है। शरीर माध्यं धर्मासाधनम् । धर्मपालन से इल्लोक, परलोक एवं अलौकिक सुख मिलता है, इसलिये श्रावकों को धर्म प्रवर्तन के लिये दान देना चाहिये। (धर्मरत्नाकर से)
प्र. ५९० : श्रवणबेलगोला तीर्थक्षेत्र का दूसरा नाम बतलाओ।
उत्तर : जैनबद्री ।
प्र. ५९१ : गोमटेश्वर बाहुबली की प्रतिमा जिस पर्वत पर है, उसका नाम बतलाओ।
उत्तर : विन्ध्यगिरि ।
प्र. ५९२ : सिद्धक्षेत्र कहाँ है?
उत्तर : सर्वार्थसिद्धि से १२ योजन ऊपर सिद्धक्षेत्र है।
प्र. ५९३ : किसी ऐसे स्थान का व भगवान का नाम बतलाओ जहाँ उनके पाँचों कल्याणक हुये हैं?
उत्तर : चम्पापुरी (जिसका प्राचीन नाम नाथनगरी है) यहाँ पर १२वें वासुपूज्य भगवान के पांचों कल्याणक हुये थे।
प्र . ५९४ : उदयगिरि अतिशय क्षेत्र का प्राचीन नाम बतलाओ।
उत्तर: उदयगिरी अतिशय क्षेत्र का प्राचीन नाम कुमारी पर्वत है। यहाँ भगवान महावीर का समवशरण आया था, इसलिये यह स्थान अतिशय क्षेत्र माना जाता है।
प्र. ५१५ : भगवान बाहुबली का गोमटेश नाम क्यों पड़ा?
उत्तर: चामुण्डराय का नाम गोमटेश भी था और इसलिये उनके द्वारा प्रतिष्ठित बाहुबली की मूर्ति गोमटेश नाम से प्रसिद्ध हुई।
प्र. ५९६ : श्रीप्रभु नामक पर्वत पर कौनसे मुनिराज को केवलज्ञान प्राप्त हुआ था?
उत्तर : श्रीप्रभु नामक पर्वत पर प्रीतिकर मुनिराज को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
प्र .५९७ . तीर्थयात्रा करने से क्या लाभ है? वैसे तो उन्हीं भगवान की मूर्ति हमारे नगर में भी होती हैं, क्यों?
उत्तर :• तीर्थयात्रा करने के लिये मनुष्य घर-गृहस्थी की झंझटें छोड़कर निराकुल होकर जाता है तथा उस पवित्र भूमि से संबद्ध उन महापुरुयों का स्मरण करने से परिणामों में विशेष निर्मलता आती है। इसी से यात्रा का विशेष लाभ प्राप्त होता है।
प्र. ५९८ : खण्डगिरि और उदयगिरि से कितने मुनि निर्वाण को प्राप्त हुये?
उत्तर : खण्डगिरि व उदयगिरि से ५०० कलिंग देश के मुनि निर्वाण को प्राप्त हुये।
प्र. ५९९ : राजा श्रेणिक की राजधानी के नाम बतलाओ।
उत्तर : राजा श्रेणिक की राजधानी पावापुरी है।
प्र. ६०० : श्री सेठ सुदर्शन किस स्थान से मोक्ष गये?
उत्तर : श्री सेठ सुदर्शन पटना शहर से मोक्ष गये।
प्र. ६०१ : भगवान पार्श्वनाथ पर कमठ ने उपसर्ग किया था, उस स्थान का नाम बतलाओ।
उत्तर : अहिच्क्षेत्र।
प्र. ६०२ : द्रोणागिरि से कौनसे मुनि मोक्ष गये?
उत्तर : गुरुदत्तादि मुनि मोक्ष गये।
प्र. ६०३ : नैनागिरि से कौनसे मुनि मोक्ष गये?
उत्तर: वरदत्तादि मुनि नैनागिरि से मोक्ष गये।
प्र. ६०४ : शत्रुंजय सिद्धक्षेत्र से कौन-कौन व कितने मुनि निर्वाण पधारे?
उत्तर : शत्रुंजय सिद्धक्षेत्र से युद्धिष्ठिर, भीम, अर्जुन व ८ करोड़ मुनि मोक्ष गये।
प्र. ६०५ : पावागढ़ से कितने मुनियों ने निर्वाण पद को प्राप्त किया?
उत्तर : पावागढ़ से लव, अंकुश आदि ५ करोड़ मुनिराज मोक्ष गये।
प्र. ६०६ : अक्रमपूर्वक कैवल्य उपार्जन करने वाले अंतिम केवली व उनके निर्वाण स्थली का नाम बतलाओ।
उत्तर : अंतिम केवली श्रीधर मुनि कुण्डल गिरि से मुक्ति प्राप्त हैं।
प्र. ६०७ : ऐसे दो स्थानों का नाम बतलाओ जहाँ पर आचार्य विमलसागरजी महाराज की मूर्ति बनी है।
उत्तर : सम्मेदशिखरजी व सोनागिरिजी।
प्र. ६०८ : जहाँ पर सेठ मरकर मेंढक हुआ था, उस स्थान का नाम बतलाओ ।
उत्तर : राजगृहीजी।
प्र. ६०९ : चंदनबाला ने भगवान महावीर का पड़गाहन किया था, उस स्थान का नाम बतलाओ।
उत्तर : कौशाम्बी।
प्र. ६१० : वह कौनसा स्थान है, जहाँ पर भगवान पार्श्वनाथ का प्रथम आहार हुआ था?
उत्तर : गजपुर।
प्र. ६११ : उस सिद्धक्षेत्र का नाम बतलाओ, जिसका दूसरा नाम ऊन है।
उत्तर : पावागिरिजी।
प्र. ६१२ : जम्बू स्वामी के मोक्ष स्थान का नाम बतलाओ।
उत्तर : विपुलाचल पर्वत (पटना)।
प्र. ६१३ : आचार्य कल्प चंद्रसागरजी की पाषाण की पद्मासन मूर्ति कहाँ पर है, उस स्थान का नाम बतलाओ।
उत्तर : इंदौर (बीसपंथी मंदिर), शांतिनाथ दिगंबर जैन मंदिर औरंगाबाद।
प्र. ६१४ : जहाँ पर राजुल की गुफा है, ऐसे स्थान का नाम बतलाओ।
उत्तर : गिरनारजी।
प्र. ६१५ : अनादि निधन सिद्धक्षेत्र का नाम बतलाओ।
उत्तर : सम्मेदशिखरजी।
प्र. ६१६ : वह कौनसा स्थान है, जिसको दक्षिण भारत का सम्मेदशिखर कहते हैं?
उत्तर : मांगीतुंगीजी।
(११) शरीर
प्र. ६१७ : शरीर का स्वरूप उदाहरण के द्वारा स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर : कविवर भूधरदासजी ने शरीर के स्वरूप का वर्णन करते हुये बताया है कि माता-पिता रजवीरज सों उपजी, सब धातु कुधातु भरी है। माखिन के पर माफिक बाहर चर्म की बेठन बेड़ धरी है। नाहि तो आय लगें की बकवायस जीव वचें न धरी है। देह दशा यहि दीखत भ्रात, घिनात नहीं बुद्धि हरी है।
यह शरीर माता के रज व पिता के वीर्य से मिलकर बना है। इसमें अस्थि, मांस, मज्जा, मेद आदि भरे हुये हैं। मक्खियों के पंख जैसा बारीक चमड़ा चारोंओर से लपेटा हुआ है। अन्यथा बिना चमड़े के मांस पिंड
को क्या कौवे छोड़ देते? (रत्नाकर शतक पृष्ठ १०२ से) प्र. ६१८ : शरीर से किस तरह काम लेना चाहिये?
उत्तर : इस शरीर को नौकर के समान आज्ञाकारी रखने के लिये सदैव नीरस आहार ही देना चाहिये। इस शरीर से आत्मसाधन का काम लेना, सात तत्वों के विचार में मन को लगाने, सदैव शास्त्र चर्चा, जिनागम
में निरन्तर रुचि रहे ऐसा काम लेना चाहिये। इस प्रकार प्रवृत्ति करने वाले विवेकी के क्षण-क्षण में सचित कर्मों का नाश नहीं होगा क्या? अवश्य होगा। H. ६११ : रावण की मृत्यु हुई, उसके दाह-संस्कार के पश्चात् कितनी रानियों ने दीक्षा धारण को
थी?
उत्तर : रावण के दाह-संस्कार के पश्चात् मन्दोदरी, चंद्रनखा आदि १८ हजार रानियों ने शशिकांत
आर्थिका के पास दीक्षित हो कठोर तप किया, ज्ञान, ध्यान, तप के द्वारा स्त्री पर्याय का छेदन कर कल्पवाली
देवपर्याय को प्राप्त हुई। से प्र. ६२०: तेजस, कार्मण शरीर के अंदर रहते हैं तो फिर बाहर का शरीर (औदारिक) तो उन कनॉ बाहर है, ऐसा अर्थ हुआ अर्थात् औदारिक शरीर के लिये कर्मों का कोई संबंध नहीं है?
उत्तर : सात कर्म तो अंदर के तेजस कार्मण शरीर से संबंध रखते हैं परन्तु नामकर्म तो बाहर व अंदर के दोनों शरीर से संबंध रखता है अर्थात् सात कर्म तो तेजस कार्मण में रहते हैं। परन्तु नामकर्म तो औदारिक व
उन अंतरंग शरीरों से भी रहता है।
प्र. ६२१ : इस प्राप्त शरीर को छोड़कर आगे के शरीर को न लेने का उपाय क्या है?
उत्तर : बीज की अंकुरोत्पत्ति की सामर्थ्य जब तक मूल से नष्ट नहीं की जाती है, तब तक वह अंकुरोत्पत्ति का कार्य जरूर करेगा। मूल से उसकी शक्ति नष्ट करने पर फिर उसमें यह कार्य नहीं दिखेगा। इसी प्रकार शरीर की उत्पत्ति का कारण जो कर्म है, उस कर्मबीज का मूल से नाश करना चाहिये। इससे आगे का शरीर उत्पन्न नहीं हो सकता। यदि कर्मवीज को अच्छी तरह से जला दिया तो शरीर की उत्पत्ति होना असंभव है। परन्तु कौनसी अग्नि से जलना है? सम्यग्ज्ञान अथवा विवेकरूपी अग्नि से कर्म जलाया जा सकता है फिर
देव की उत्पत्ति असंभव है। तब आत्म-मुक्ति स्थान को प्राप्त कर अनंत सुखी बन सकता है। प्र. ६२२ : शरीर संबंधी सुख में पागल होकर आत्मसुख का स्वाद जो नहीं लेते, उनकी गति कैसी
है? उत्तर : जो लोग शरीर संबंधी सुख में पागल होकर आत्मसुख का स्वाद नहीं लेते हैं और इन्द्रिय सुख को ही भोगते हैं, उनकी गति ठीक वैसी ही है जैसे कोई पागल भूसे को बचाकर रखता हो और चांवल को फेंक रहा हो। यह अज्ञानी भी सारे आत्मसुख को छोड़कर असार इन्द्रिय सुख को ग्रहण करता है।
प्र. ६२३ : शरीर का स्वरूप बतलाइये।
उत्तर : भोगायतनं शरीरम् । अर्थ जो शुभ-अशुभ भोगों का स्थान है वह शरीर है।
प्र. ६२४ : प्रमत्त नाम के छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों के आहारक शरीर होता है, ऐसे इस आहारक शरीर की उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति कितनी है?
उत्तर : चैत्यवन्दना करने यात्रा करने या पदार्थों का निर्णय करने के लिये मस्तक से एक हाथ प्रमाण श्वेत पुरुषाकार प्रदेश निकलते हैं, केवली के दर्शन कर अथवा यात्रादि का अपना कार्य कर फिर वहीं आकर प्रवेश कर जाते हैं। ऐसे आहारक शरीर की उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त है तथा आहारक शरीर पर्याप्ति की पूर्णता होने पर आहारक योग वाले छठे गुणस्थानवर्ती साधु की आहारक काययोग के समय में यदि साधु का अंत हो जाये तो उनका मरण भी हो जाता है।
-104)
ReplyForwardAdd reaction |
– 103 )
ReplyForwardAdd reaction |
-03 102 200
ReplyForwardAdd reaction |
1
ReplyForwardAdd reaction |
03100
ReplyForwardAdd reaction |
99
ReplyForwardAdd reaction |