एक दिन महाराजा श्री रामचन्द्र ने अपने भाई शत्रुघ्न से कहा- ‘‘शत्रुघ्न! इस तीन खण्ड की वसुधा में तुम्हें जो देश इष्ट हो उसे स्वीकृत कर लो। क्या तुम अयोध्या का आधा भाग लेना चाहते हो? या उत्तम पोदनपुर को? राजगृह नगर चाहते हो या मनोहर पौंड्र नगर को?’’ इत्यादि प्रकार से श्री राम और लक्ष्मण ने सैकड़ों राजधानियाँ बताई तब शत्रुघ्न ने बहुत कुछ विचार कर मथुरा नगरी की याचना की। तब श्री राम ने कहा- ‘‘मथुरा का राजा मधु है वह हम लोगों का शत्रु है यह बात क्या तुम्हें ज्ञात नहीं है? वह मधु रावण का जमाई है और चमरेन्द्र ने उसे ऐसा शूलरत्न दिया हुआ है जो कि देवों के द्वारा भी दुर्निवार है, वह हजारों के भी प्राण हरकर पुनः उसके हाथ में आ जाता है। इस मधु का लवणार्णव नाम का पुत्र है वह विद्याधरों के द्वारा भी दुःसाध्य है उस शूरवीर को तुम किस तरह जीत सकोगे?’’ बहुत कुछ समझाने के बाद भी शत्रुघ्न ने यही कहा कि- ‘‘इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ? आप तो मुझे मथुरा दे दीजिए। यदि मैं उस मधु को मधु के छत्ते के समान तोड़कर नहीं फैक दूँ तो मैं राजा दशरथ के पुत्र होने का ही गर्व छोड़ दूँ। हे भाई! आपके आशीर्वाद से मैं उसे दीर्घ निद्रा में सुला दूँगा।’’ अनन्तर श्री राम के द्वारा मथुरा नगरी को प्राप्त करने की स्वीकृति मिल जाने पर शत्रुघ्न वहाँ जाने के लिए तैयार हुए तब श्री रामचन्द्र ने शत्रुघ्न को एकांत में ले जाकर कहा- ‘‘हे धीर! मैं तुमसे कुछ याचना करता हूँ तुम मुझे एक दक्षिणा दो।’’ शत्रुघ्न ने कहा-‘‘आप असाधारण दाता हैं फिर भी मुझसे कुछ मांग रहे हैं इससे बढ़कर मेरे लिए और क्या प्रशंसनीय होगा? आप मेरे प्राणों के भी स्वामी हैं, एक युद्ध के विघ्न को छोड़कर आप कहिए मैं आपकी क्या सेवा करूँ?’’ तब श्री राम ने कुछ चिंतन करके कहा- ‘‘हे वत्स! जब मधु शूलरत्न से रहित हो तभी तुम अवसर पाकर उससे युद्ध करना अन्य समय में नहीं……।’’ तब शत्रुघ्न ने कहा-‘‘जैसी आपकी आज्ञा है ऐसा ही होगा।’’ इसके बाद शत्रुघ्न ने जिनमंदिर में जाकर सिद्ध परमेष्ठियों की पूजा करके घर जाकर भोजन किया पुनः माता के पास पहुँचकर प्रणाम करके मथुरा की ओर प्रस्थान के लिए आज्ञा माँगी। माता सुप्रभा ने पुत्र के मस्तक पर हाथ फैरकर उसे अपने अर्धासन पर बिठाकर प्यार से कहा- ‘‘हे पुत्र! तू शत्रुओं को जीतकर अपना मनोरथ सिद्ध कर। हे वीर! तुझे युद्ध में शत्रु को पीठ नहीं दिखाना है। हे वत्स! जब तू युद्ध में विजयी होकर आयेगा तब मैं सुवर्ण के कमलों से जिनेन्द्रदेव की परम पूजा करूँगी।’’ इसके बाद अनेक मंगल कामना के साथ माता ने शत्रुघ्न को अनेक शुभ आशीर्वाद प्रदान किये ।
करस्थामलकं यद्वल्लोकालोकं स्वतेजसा। पश्यंतं केवलालोका भवंतु तव मंगलम्।।१।।
कर्मणाष्टप्रकारेण मुक्तास्त्रैलोक्यमूद्र्धगाः। सिद्धाः सिद्धिकरा वत्स! भवन्तु तव मंगलम् ।।२।।
कमलादित्यचंद्रक्ष्मामन्दराब्धिवियत् समाः। आचार्याः परमाधारा भवन्तु तव मंगलम् ।।३।।
परात्मशासनाभिज्ञाः कृतानुगतशासनाः। सदायुष्मनुपाध्यायाः कुर्वन्तु तव मंगलम् ।।४।।
तपसा द्वादशांगेन निर्वाणं साधयन्ति ये। भद्र! ते साधवः शूरा भवन्तु तव मंगलम् ।।५।।
जो अपने तेज से समस्त लोक-अलोक को हाथ पर रखे हुए आंवले के समान देख रहे हैं ऐसे केवलज्ञानी अर्हन्त भगवान् तुम्हारे लिए मंगल स्वरूप होवें। जो आठ प्रकार के कर्मों से रहित होकर त्रिलोक शिखर पर विराजमान हैं, सिद्धि को करने वाले ऐसे सिद्ध भगवान् हे वत्स! तुम्हारे लिए मंगल स्वरूप होवें। जो कमल के समान् निर्लिप्त, सूर्य के समान तेजस्वी, चन्द्रमा के समान शांतिदायक, पृथ्वी के समान निश्चल, सुमेरु के समान उन्नत, समुद्र के समान गंभीर और आकाश के समान निःसंग हैं तथा परम आधार स्वरूप हैं ऐसे आचार्य परमेष्ठी तुम्हारे लिए मंगल रूप होवें। जो स्व-पर के शासन के जानने वाले हैं जो अपने अनुगामी जनों को सदा धर्मोपदेश देते हैं। ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी हे आयुष्मन्! तुम्हारे लिए मंगल स्वरूप होवें। जो बारह तप के द्वारा मोक्ष की सिद्धि करते हैं ऐसे शूरवीर साधु परमेष्ठी हे भद्र! तुम्हारे लिए मंगल स्वरूप होवें।’’ इस प्रकार से विघ्नों के नाशक दिव्य स्वरूप ऐसे आशीर्वाद को प्राप्त कर माता को प्रणाम कर शत्रुघ्न घर से बाहर निकले। सुवर्णमयी मालाओं से युक्त हाथी पर सवार होकर मथुरा की ओर प्रस्थान कर दिया। उस समय भ्रातृ प्रेम से प्रेरित हुए श्री राम और लक्ष्मण भी शत्रुघ्न के साथ-साथ तीन पड़ाव तक गये थे। अनन्तर सैकड़ों राजाओं से घिरे हुए थे। इस समय लक्ष्मण नारायण ने अपना सागरावर्त धनुषरत्न और अग्निमुख नाम के अनेक बाण उसे दे दिये। श्री राम ने अपने सेनापति कृतांतवक्त्र को ही उनका सेनापति बना दिया था। बहुत बड़ी सेना के साथ शत्रुघ्न ने क्रम-क्रम से पुण्यभागा नदी को पार कर आगे पहुँचकर अपनी सेना ठहरा दी और गुप्तचरों को मथुरा भेज दिया। उन लोगों ने आकर समाचार दिया- ‘‘देव! सुनिए, यहाँ से उत्तर दिशा में मथुरा नगरी है वहाँ नगर के बाहर एक सुन्दर राजउद्यान है। इस समय राजा मधुसुन्दर अपनी जयंत रानी के साथ वहीं निवास कर रहा है। कामदेव के वशीभूत हुए और सब काम को छोड़कर रहते हुए आज छठा दिन है। तुम्हारे आगमन का उसे अभी तक कोई पता नहीं है।’’ गुप्तचरों के द्वारा सर्व समाचार विदित कर शत्रुघ्न ने यही अवसर अनुकुल समझकर साथ में एक लाख घुड़सवारों को लेकर वह मथुरा की ओर बढ़ गया। अर्धरात्रि के बाद शत्रुघ्न ने मथुरा के द्वार में प्रवेश किया।
इधर शत्रुघ्न के बंदीगणों ने- ‘‘राजा दशरथ के पुत्र शत्रुघ्न की जय हो।’’ ऐसी जयध्वनि से आकाश को गुंजायमान कर दिया था। तब मथुरा के अन्दर किसी शत्रुराजा का प्रवेश हो गया है ऐसा जानकर शूरवीर योद्धा जग पड़े। इधर शत्रुघ्न ने मधु के राजमहल में प्रवेश किया और मधु की आयुधशाला पर अपना अधिकार जमा लिया। शत्रुध्न को मथुरा में प्रविष्ट जानकर महाबलवान् राजा मधुसुन्दर रावण के समान क्रोध को करता हुआ उद्यान से बाहर निकला किन्तु शत्रुघ्न से सुरक्षित मथुरा के अन्दर व अपने महल में प्रवेश करने में असमर्थ ही रहा तब वह अपने शूलरत्न को प्राप्त नहीं कर सका फिर भी उसने शत्रुघ्न से सन्धि नहीं की प्रत्युत् युद्ध के लिए तैयार हो गया। वहाँ दोनों की सेनाओं में घमासान युद्ध शुरू हो गया। इधर मधुसुन्दर के पुत्र लवणार्णव के साथ कृतांतवक्त्र सेनापति का युद्ध चल रहा था। बहुत ही प्रकार से गदा, खड्ग आदि से एक-दूसरे पर प्रहार करते हुए अन्त में कृतांतवक्त्र के द्वारा शक्ति नामक शस्त्र के प्रहार से वह लवणार्णव मृत्यु को प्राप्त हो गया। पुनः राजा मधु और शत्रुघ्न का बहुत देर तक युद्ध चलता रहा। बाद में मधु ने अपने को शूलरत्न से रहित जानकर तथा पुत्र के महाशोक से अत्यंत पीड़ित होता हुआ शत्रु की दुर्जेय स्थिति समझकर मन में चिंतन करने लगा- ‘‘अहो! मैंने दुर्दैव से पहले अपने हित का मार्ग नहीं सोचा, यह राज्य, यह जीवन पानी के बुलबुले के समान क्षणभंगुर है। मैं मोह के द्वारा ठगा गया हूँ। पुनर्जन्म अवश्य होगा ऐसा जानकर भी मुझ पापी ने समय रहते हुए कुछ नहीं सोचा। अहो! जब मैं स्वाधीन था तब मुझे सद्बुद्धि क्यों नहीं उत्पन्न हुई? अब मैं शत्रु के सन्मुख क्या कर सकता हूँ? अरे! जब भवन में आग लग जावे तब कुआ खुदवाने से भला क्या होगा…..?’’ ऐसा चिंतवन करते हुए राजा मधु एकदम संसार, शरीर और भोगों से विरक्त हो गया। तत्क्षण ही उसने अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पाँचों परमेष्ठियों को नमस्कार करके चारों मंंगल, लोकोत्तम और शरणभूत की शरण लेता हुआ अपने दुष्कृतों की आलोचना करके सर्व सावद्य योग-सर्व आरंभ-परिग्रह का भावों से ही त्याग करके यथार्थ समाधिमरण करने में उद्यमशील हो गया।
उसने सोचा- ‘‘अहो! ज्ञान-दर्शन स्वरूप एक आत्मा ही मेरा है वही मुझे शरण है। न तृण सांथरा है न भूमि, बल्कि अंतरंग-बहिरंग परिग्रह को मन से छोड़ देना ही मेरा संस्तर है।…..।’’ ऐसा विचार करते हुए उस घायल स्थिति में ही शरीर से निर्मम होते हुए राजा मधुसुन्दर ने हाथी पर बैठे-बैठे ही केशलोंच करना शुरू कर दिया। युद्ध की इस भीषण स्थिति में भी अपने हाथों से अपने सिर के बालों का लोच करते हुए देखकर शत्रुघ्न कुमार ने आगे आकर उन्हें नमस्कार किया और बोले- ‘‘हे साधो! मुझे क्षमा कीजिए…..। आप धन्य हैं कि जो इस रणभूमि में भी सर्वारंभ-परिग्रह का त्याग कर जैनेश्वरी दीक्षा के सन्मुख हुए हैं।’’ उस समय जो देवांगनाएं आकाश में स्थित हो युद्ध देख रही थीं उन्होंने महामना मधु के ऊपर पुष्पों की वर्षा की। इधर राजा मधु ने परिणामों की विशुद्धि से समता भाव धारण करते हुए प्राण छोड़े और समाधिमरण-वीरमरण के प्रभाव से तत्क्षण ही सानत्कुमार नाम के तीसरे स्वर्ग में उत्तम देव हो गये। इधर वीर शत्रुघ्न भी संतुष्ट हुआ और युद्ध को विराम देकर सभी प्रजा को