तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित जैनधर्म अनादिनिधन धर्म है। संसार में अनंतानंत जीव जन्म मरण के दुखों से सन्तप्त हैं। भव भ्रमण का मूल कारण अनादिकालीन कर्मबन्धन हैै। यह कर्मबन्धन मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचरित्र के कारण संभूत है। जैन मान्यतानुसार जीव, पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छः द्रव्यों का समुदाय ही लोक या विश्व कहलाता है। चेतना युक्त जीव (Soul) है तथा जो पूरण-गलन स्वभाव सहित है वह पुद्गल (Matter) कहलाता है। पुद्गल के अतिरिक्त “ द्रव्य अमूर्तिक हैं। विशेष यह है कि जीव द्रव्य ज्ञानावरण, दर्शनावरण,वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम,गोत्र और अन्तराय इन अष्ट कर्मों से घन संश्लिष्ट बन्धन युक्त होने के कारण संसार अवस्था में मूर्त्तिक भी है एवं स्वभाव की दृष्टी से अमूर्तिक है। जीव में ये दोनों परस्पर विरोधी स्वभाव सापेक्षता से एक साथ एक ही समय में है। ये दोनों जैन दर्शन के मूल अनेकान्त से सिद्ध होते हैं। जो स्वयं गतिपरिणत जीव पुद्गलों को चलने में सहायक है, वह लोकाकाश प्रमित असंख्यात प्रदेशी धर्मद्रव्य है तथा जो ठहरने में कारण है वह अधर्म द्रव्य है ” समस्त द्रव्यों और स्वयं को अवकाश देने में समर्थ लोकाकाश और अलोकाकाश दो भेदों से युक्त अखण्ड आकाश द्रव्य सम्बद्ध है। काल द्रव्य लोकाकाश प्रदेश के समान असंख्यात प्रमाण है। यह काल द्रव्य समस्त द्रव्यों के परिणमन में सहकारी कारण है। उपर्युक्त छः द्रव्यों के परस्पर सहकारिता रूप परिणाम ही विश्व है। विश्व अकृत्रिम, अनादि है। इसका कोई कर्ता ईश्वर नहीं है, न ही कोई रक्षक या संहारक, सभी द्रव्य अविस्थत एवं स्वयं की सत्ता-युक्त होने से स्वतन्त्र हैं। जो ये 1- जीव ;(Soul) 2- अजीव ;(Non-soul), 3- आस्रव ;(Inflow of Karmas) 4- बन्ध ;(Bondage) 5- संवर ;(Stoppage of Karmas) 6- निर्जरा ;(Shedding of Karmas) 7- मोक्ष (Salvation)। जीव के रागद्वेष आादि परिणामों के निमित्त से अथवा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं योग के कारण पुद्गल कर्म रूप परिणत होता है। पूर्वबद्ध कर्मों के उदय से जीव भी रागद्वेष आदि विकारी भाव से परिणत होता है। कर्मो का जीव प्रदेशों में आना आस्रव है ” जीव पुद्गल का परस्पर में दूध-पानी की तरह क्षेत्रावगाह सम्बन्ध होना बन्ध संज्ञा को प्राप्त है। आस्रव का निरोध संवर हैं तथा पूर्व बद्ध कर्मो का आत्मा से एक देश झड़ना निर्जरा है। जीव प्रदेशों से कर्म का सर्वथा क्षय होना मोक्ष है। यह दग्ध बीज की अनुर्वरता की भांति है। मुक्त होने के पश्चात् जीव पुनः संसार में जन्म धारण नहीं करता। चतुर्गति, चौरासी लाख योनियों के दुखः से सदैव के लिए मुक्त हो जाता है। यह ही परमार्थ सुख की अवस्था है, इसे ही ईश्वर, शिव, परम कल्याण या निर्वाण कहते है। ईश्वर के संसार में अवतारवाद एवं सृश्टि कर्तृत्व की मान्यता जैन दर्शन को स्वीकार नहीं है। ईश्वर, लोक – परलोक की स्वीकृति के कारण जैन दर्शन आस्तिक है। जीव मात्र अपने विकारो को नष्ट कर ईश्वरत्व प्राप्त कर सकता है। एकैश्वरवाद ओैर कोश समस्त जीवों का उसके आधीनपन होना न्याय विरूद्ध है। अनन्तानन्त जीवों का पृथक्-पृथक् तथा स्वतन्त्र अस्तित्व है। जीव स्वयं अपने कर्मो का कर्ता, उसके फल का भोक्ता है। कोई परमात्मा अलग से फल देने वाला नहीं है। जैन धर्म वैज्ञानिकता एवं यर्थाथ की पृष्ठ भूमि पर अवस्थित है। मोक्ष प्राप्ति का उपाय सम्यग्दरर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र अर्थात् रत्नत्रय है। उपरोक्त प्रयोजन भूत सात तत्वों के ओैर परमार्थ भूत आप्त, आगम एवं गुरु के श्रद्वान को सम्यग्दर्शन, इन्हीं के संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रहित ज्ञान को सम्यग्ज्ञान तथा रागद्वेषादि की निवृति को सम्यक् चारित्र कहते है। इन्हीं को नियम या मोक्ष मार्ग कहा गया है। रत्नत्रय के प्रखरत्व के लिए तप आराधना को सम्मलित कर चार आराधना को अति महत्व दिया गया है। जैन धर्म में जीव दया (अहिंसा), दशलक्षण अर्थात उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, संयम, तप, त्याग, आाकिचन्य और ब्रह्मचर्य, रत्नत्रय एवं वस्तु स्वभाव को धर्म की परिभाषा से परिगणित किया गया है। इन्हीं से जीव दुःखों से निवृत्ति पाकर सांसारिक अभ्युदय प्राप्त करता हुआ पारमार्थिक अनाकुलता रूप, मोक्ष सुख (निःश्रेयस) प्राप्त करता है। अहिंसा अनेकान्त (स्याद्वाद) तथा अपरिग्रह जैन धर्म के मुख्य चिन्ह हैं। अहिंसा की सूक्ष्मातिसूक्ष्म व्याख्या इसमें समाविष्ट की गई है। जीव मात्र की रक्षा रूप अहिंसा के पालन से ही विश्व शान्ति सम्भव है। अहिंसा की सिद्वि हेतु साक्षात् मुक्ति पात्र श्रमण एवं परम्परा पात्र श्रावक धर्म का उपदेश है। तिल तुश मात्र भी परिग्रह के त्याग से श्रमण होता है। बाह्य नग्नता रागद्वेष, क्रोधादि तथा ममत्व के सम्पूर्ण त्याग, से अन्तर अपरिग्रह कहलाता है। विश्व अनंत अलोककाश के ठीक मध्य में स्थित हैं। यह 14 राजू ऊँचा पुरुषाकार है। यह उर्ध्व, मध्य और अधोलोक के भेद से तीन प्रकार का है। मध्यलोक में असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं। सबसे मध्यवर्ती या प्रथम जम्बूद्वीप का विस्तार एक लाख योजन का है। उर्ध्व लोक में स्वर्ग, मध्यलोक में द्वीप, समुद्र एवं सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिष्क लोक तथा अधोलोक में नरक भूमियाँ है। जम्बूद्वीप के ठीक मध्य में धुरी या नाभि के समान एक लाख योजन ऊँचा सुमेरु पर्वत है। जम्बूद्वीप को वेष्टित करते हुऐ गोल आकार (चूड़ी सम) दूने विस्तार का लवण समुद्र तथा उसे घेरे हुए धातकीखंड द्वीप है पुनः कालोदधि समुद्र तथा उसे वेष्टित करने वाला पुष्कर द्वीप है। पुष्कर द्वीप के मध्य में मानुषोत्तर पर्वत है। मध्यलोक में द्वीप समुद्र क्रमश: दूने, दूने विस्तार वाले तथा असंख्यात प्रमाण है। मानुषोत्तर तक ढाई द्वीप क्षेत्र मनुष्य लोक हैं। ढाई द्वीप में पाँच ऐरावत क्षेत्र हैं तथा बीस विदेह क्षेत्र है। इन्ही में कर्मभूमि हैं। जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में अवसर्पिणी के छः भेदो में सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमादुषमा, दुषमासुषमा, चार भेद व्यतीत हो चुके हैं। यह हुण्डावसर्पिणी है तथा इसमे चमकाल दुषमा प्रवर्तित है आगे दुषमादुषमा का आगमन होगा। पंचमकाल 21 हजार वर्ष का है। इसमें लगभग 2520 वर्ष बीत चुके हैं। अवसर्पिणी काल में आयु वैभव, सुख, शरीर आदि की हीनता होती जाती है। पंचम और छठे काल के पश्चात महाप्रलय एवं तत्पश्चा त् उत्सर्पिणी काल अस्तित्व में आवेगा। इसमें उत्तरोतर अपेक्षित विषयों में वृद्धि होगी। वर्तमान अवसर्पिणी काल के तृतीय भेद सुखमा दुखमा के अन्त में भगवान ऋशभदेव प्रथम तीर्थंकर का जन्म हुआ जिनका समादृत उल्लेख जैनेतर ग्रन्थों में भी सनातन आठवें अवतार के रूप में किया गया है। इस विषय में हम आगे श्रीमद्भागवत में ऋषभदेव, “शार्शक के अन्तर्गत प्रकाष डालेंगे। भगवान ऋषभदेव ने कृतियुग में सर्वप्रथम तीर्थ प्रवर्तन किया। इनका जन्म अयोध्या में राजा नाभिराय और माता मरुदेवी के यहाँ हुआ था। इनकी आयु 84 लाख पूर्व की थी। इन्होंने केवल ज्ञान की सिद्धि की। पुनः देवों द्वारा रचित समवशरण में दिव्यध्वनि द्वारा भव्य जीवों को मुक्ति मार्ग का उपदेश देकर एक लाख पूर्व तक विहार करके कैलाश पर्वत से मोक्ष प्राप्त किया। इनके पश्चात् अजित, संभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व एवं महावीर नाम वाले 23 तीर्थंकर नाथों का अवतरण हुआ। अन्तिम चौबिसवें तीर्थंकर भ० महावीर का वर्ममान में तीर्थकाल चल रहा है। इन तीर्थंकर महाप्रभुओं ने स्वयं उत्कृष्ट त्याग तपस्या से आत्म कल्याण किया। तीर्थकर नामक अतिशय पुण्य प्रकृति के उदय के कारण विश्व के समस्त नरसुर शश्रेष्ठों के द्धारा पूज्य होने से अर्हत् कहलाये। घातिया कर्मो का नाशकर कैवल्य (सम्पूर्ण ज्ञान) प्राप्त करने के कारण इन्हें अरिहन्त भी कहते है। वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होने से इन्हें आप्त संज्ञा प्राप्त है। इन्होंने विश्व हिताय ऋषभदेव की भाँति ही धर्म तीर्थ का प्रवर्तन किया। “ देवेन्द्रों द्धारा इनके गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण कल्याणक सम्पन्न किये गये हैं ” 34 अतिशय, 8 प्रातिहार्य एवं अनन्त चतुष्टय (4) कुल छियालीस मूलगुण अरिहन्त तीर्थंकरों के होते हैं। केवलज्ञान प्राप्ति पर देवों द्वारा भगवान की धर्मसभा या समवशरण की रचना की जाती है। भगवान अपने उपदेश से भव्य जीवों को मोक्ष मार्ग मे संलग्न करते हैं। उस उपदेश को देव, मनुष्य एवं तिर्यन्च अपनी भाषा में समझते हैं और कल्याण मार्ग प्राप्त कर यथा योग्य श्रमण अथवा श्रावक का धर्म अंगीकार करते हैं। तीर्थंकर दिव्यात्माओं ने स्वयं रागद्धेष, अज्ञान, इन्द्रिय, मन और कर्मों पर विजय प्राप्त की अतः जिन कहलाये। इनके द्वारा प्रवर्तित धर्म जैन धर्म कहलाता है। लौकिक शिक्षण के इतिहास विषयक अन्यथा प्रकाशन के कारण प्रायः जन सामान्य में यह भ्रान्ति फैली कि जैन धर्म भ० महावीर ने चलाया अथवा यह बौद्धधर्म की शाखा है। जबकि वस्तुस्थिति यह है कि अनन्तों ने पूर्व से ही अनादीनिधन धर्म की व्याख्या या प्रचार किया है। हर्ष का विषय है कि पू० आर्यिका ज्ञानमती जी की पावन प्रेरणा से यह वर्ष प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के विषय में जन जागरण वर्ष घोषित किया गया है। त्रिलोक शोध संस्थान के नेतृत्व में भ. ऋषभदेव के स्वरूप को प्रचारित किया जा रहा है। सबसे प्रमुख कार्य हस्तिनापुर में अ. भा. कुलपति सम्मेलन के रूप में हुआ, जिसमें माता जी के जन्म दिवस “शरद पूर्णिमा सन् 1998 के अवसर पर कुलपति वर्ग ने अपने विश्व विद्यालयो में भ. ऋषभदेव के विषय में परिज्ञान हेतु प्रचारार्थ विशिष्ट कार्यक्रम आयोजित करने का संकल्प व्यक्त किया था। मुझे भी इस अवसर पर सम्मलित होने का अवसर मिला था। दशावतार व्याख्यान माला तथा अन्य कार्यक्रमों के आयोजनों द्धारा भी वर्तमान अवसर्पिणी के आद्य तीर्थंकर के प्रति भक्ति अनुराग का वातावरण निर्माण किया गया। जो अत्यन्त उपयोगी रहा। विद्यालयों के पाठ्यक्रम में से जैन धर्म तथा तीर्थंकरों विषयक विसंगतियों को दूर करने हेतु भी कुलपतियों ने प्रयत्न किया है, जो “लाघ्य है। अपने पावन जन्म से कुण्डलपुर (नालंदा बिहार) में अब से 2597 वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन राजा सिद्धार्थ एवं रानी त्रिशला के राजमहल में हर्ष बिखेरते हुए भ० महावीर ने स्र्वग से अवतरण किया। तीस वर्ष की आयु में वैराग्य हुआ और स्वयं ही प्रव्रजित होकर मुनिदीक्षा अंगीकार कर बारह वर्ष तपश्चरण कर कैवल्य प्राप्ति की। पुनश्च तीस वर्ष तक भव्य जीवों को धर्म मार्ग में लगाकर 72 वर्ष की आयु में पावापुरी (बिहार) से निर्वाण प्राप्त किया। कार्तिक कृष्णा अमावस्या को प्रातः देवों ने आकर भगवान का निर्वाण कल्याणक मनाया जो प्रतिवर्ष आज तक दीपावली के रूप में मनाया जाता है। इनके प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम थे। गौतम ने भगवान की अनक्षर वाणी केा द्वादषांग में गूंथकर बडा उपकार किया ” भ० महावीर के मोक्ष गमन के पश्चात् गौतम स्वामी सुधार्माचार्य और जम्बू स्वामी ने 62 वर्ष अवधि में मोक्ष प्राप्त किया। आगे मोक्ष की व्युच्छिति हुई। इसके पश्चात् विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु श्रतुकेवली हुए इनके समय तक श्रतुज्ञान पूर्णरूप से विद्यमान रहा, अनन्तर अंग उपांग और श्रुतांश के आचार्य 683 वर्ष की अवधि तक हुए। बाद के काल में धरसेनचार्य पुष्पदंत भूतबली एवं आ० कुन्दकुन्द आदि ने श्रुत रक्षा तथा मूल दि० संघ को यथावत् स्वरूप देने का महत्प्रयत्न किया। आगे चलकर आ० उमास्वामी, समंतभद्र, यतिवृषभ, पूज्यपाद वीरसेन, जिनसेन, रविषेण, अकलंकदेव, विद्यानन्दि, अमृतचन्द्र, जयसेन, नेमिचन्द्र आदि महान आचार्याे ने श्रमण परम्परा को समीचीन गति प्रदान की। ऋषियों की इस अविच्छिन्न परम्परा में वर्तमान में प्रमुख चारित्र चक्रवर्ती आ० शान्तिसागर महाराज का नाम अत्यन्त आदर के साथ लिया जाता है। इन्होंने कालदोष से विकृत श्रमणचर्या में सुधार कर स्वंय दृढता से पालन किया तथा भट्टारकीय रूप में ही रत श्रमणत्व का उद्धार कर शिष्य परम्परा हेतु तदनुरूप ही मार्ग प्रशस्त किया जो अद्यावधि विद्यमान है इसी परम्परा में आचार्य वीरसागर, आ० शिव सागर जी, आ० धर्म सागर जी, आ० अजित सागर जी, आ० अभिनन्दन सागर जी जैन धर्म की प्रभावना करते रहे हैं। अन्य कुछ प्रसिद्ध नाम है। आ० देषभूशण जी, आ० विद्यानन्द जी, आ० महावीर कीर्ति जी, आ० विमल सागर जी, आ० सुमति सागर जी; आचार्य विद्यासागरजी आदि वर्तमान में पाँच सौ के लगभग पिच्छिधारी मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका स्वपर कल्याण के मार्ग में रत रहकर महती धर्म प्रभावना कर रहे है। प० पू० 108 आचार्य श्री वीर सागर जी महाराज से दीक्षित बालब्रहाचारिणी न्याय प्रभाकर पू० 105 गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी का नाम वर्तमान इतिहास का स्वर्णाक्षरवर्ग है। इस प्रकार भगवान महावीर और उनकी आचार्य परम्परा से प्रवाहित शासन वर्तमान तक अक्षुण रूप में प्रवर्तमान है।