श्रीपाल जैसे ही समुद्र में गिरे सहसा वे महामंत्र का स्मरण करने लगे। एक साधारण सा पत्थर का टुकड़ा भी पानी के ऊपर नहीं तैर सकता, वह डूब जाता है, किन्तु सैंकड़ों मन पत्थर यदि नाव में भरा हुआ है तो एक भी नहीं डूबेगा। श्रीपाल भी जिनेन्द्रभक्तिरूपी नाव पर बैठे हुए थे अत: वे डूबे नहीं।
समुद्र के सदृश ही गंभीर, साहसी, उस धीर-वीर को उसी समुद्र में एक लकड़ी की पटरी बहती हुई मिल गई, उसके सहारे ही वे इतना विशाल समुद्र तैरकर तट पर आ पहुँचे और वहाँ आकर के श्रम से थके हुए एक वृक्ष के नीचे अचेत हो गए। जब श्रीपाल को होश आया तो देखते है कि अनेक राज- अनुचर उन्हें घेरे खड़े हैं। पूछने पर वे कहते हैं— ‘हे नरोत्तम! यह कुंकुम द्वीप है।
इस द्वीप के राजा सत्तराज की रानी वनमाला के एक कन्या है उसका नाम ‘गुणमाला’ है। राजा ने किसी समय एक अवधिज्ञानी मुनिराज से पूछा था कि— ‘प्रभो! मेरी सर्वगुणसंपन्न कन्या का वर कौन होगा? उत्तर में मुनिराज ने कहा था कि—‘जो पुरुष इस महासमुद्र को अपनी भुजाओं से तैर कर आएगा, वही इसका पति होगा। अत: हे देव! हम लोग आपकी प्रतीक्षा में ही यहाँ पर रह रहे हैं।’
इतनी ही देर में राजा स्वयं अपने भावी जामाता के स्वागत के लिए वहाँ आ पहुँचे। श्रीपाल को स्नान कराकर वस्त्रालंकारों से अलंकृत कर वे बड़े ही उत्सव के साथ अपने शहर में लिवा लाए तथा शुभ मुहूर्त में जिनेन्द्रदेव एवं विनायक यंत्र आदि की पूजा करके अग्नि की साक्षी में कन्या का विवाह सम्पन्न कर दिया। श्रीपाल भी राजा से बहुत कुछ सन्मान और कन्यारत्न प्राप्त कर वहीं सुख से रहने लगे। किसी दिन गुणमाला के अतीव आग्रह से उन्होंने अपना सविस्तार परिचय बता दिया।
कुछ दिनों बाद धवल सेठ अपने जहाजों के साथ उसी द्वीप में आ गया। वह बहुत कुछ रत्नों का उपहार लेकर राजा के दरबार में आया। वहाँ राज सन्मान प्राप्त कर जब जाने लगा, तब सहसा उसकी दृष्टि वहाँ पर बैठे हुए श्रीपाल पर पड़ी। वह काँप उठा और जैसे-तैसे अपने स्थान पर आकर सोचने लगा— ‘अहो! यदि यहाँ मेरा रहस्य खुल गया तो मैं कैसे जीवित बच सकूगा?’ उसने तुरंत मंत्रियों को बुलाकर मंत्रणा करना शुरू कर दिया।
किसी ने तो उसे श्रीपाल की शरण में जाकर अपराध क्षमा कराने के लिए कहा, किसी ने वहाँ से शीघ्र प्रस्थान कर देने को कहा। अनेक विचार-विमर्श के बाद एक मंत्री ने कहा— ‘हे सेठ! सुनो, अनेक भांडों को बुलाकर उन्हें राज दरबार में नाचने, गाने के लिए भेज दो और उन्हें अच्छी तरह समझा दो कि जिससे श्रीपाल का काम ही तमाम हो जाए….।’ सेठ ने होनहार के अनुसार वैसा ही किया। कुछ भांड राज दरबार में पहुँच गए।
वहाँ वे नाचते-गाते रहे, जैसे ही सभा में श्रीपाल ने प्रवेश किया कि सब के सब एक साथ उनसे चिपट गए और कहने लगे— ‘अरे, मेरे बेटे! तू यहाँ कैसे आ गया?’ कोई बोला— ‘मेरे भइया! तुम समुद्र में बचे कैसे?’ एक स्त्री के वेष में बोला— ‘अहो! मेरे भाग्य से मेरे पति मिल गए?’ ऐसी नाना चेष्टाएँ देखकर राजा ने भांडों को फटकारा फिर भी वे सब एक से एक कुशल थे अत: उन्होंने अनेक युक्तियों से यह समझा दिया कि ‘यह मेरा साथी है।’
राजा ऊहापोह में पड़ गया। अंत में राजा ने कुपित हो यह आदेश दे दिया कि— ‘मंत्रियों! चांडाल को बुलाकर इस दुष्ट, नीच को फाँसी पर लटका दो।’ श्रीपाल में यद्यपि उन भाँडों को तथा चांडालों को भी मार डालने की शक्ति थी, पर वे कर्मोदय की विचित्रता को देखते हुए फाँसी के स्थान पर पहुँच गए। उसी क्षण गुणमाला रोते हुए वहाँ आकर कहने लगी— ‘हे नाथ! यह क्या हो रहा है? आपका पराक्रम आज कहाँ चला गया? मेरा क्या होगा और उस मैनासुंदरी तथा रयनमंजूषा का क्या होगा?….।’
अंततोगत्वा श्रीपाल ने गुणमाला को आश्वासन देते हुए कहा—‘प्रिये! इसी समुद्र के तट पर एक जहाज में ‘रयनमंजूषा’ होगी। जाओ, तुम उससे साक्षात्कार करो, तभी हमारे कुल जाति का सही प्रमाण मिलेगा।’ इतना सुनते ही गुणमाला ने वहाँ जहाज के निकट पहुच कर रयनमंजूषा को ढूँढ़ा। रयनमंजूषा ने भी इस राजकन्या की ऐसी व्याकुलता देखकर पूछा— ‘बहन! तुम कौन हो? और यहाँ अपरिाचत देश में तुम्हें मेरा नाम कैसे मालूम हुआ?’ गुणमाला ने कहा— ‘बहन! मेरे पतिदेव के प्राण संकट में हैं, आप शीघ्र ही चलकर सही स्थिति का बोध कराएँ।’
पुन: रयनमंजूषा को उसने श्रीपाल के वहाँ आने से लेकर उस क्षण का सारा वृत्तांत सुना दिया। तब रयनमंजूषा ने प्रसन्न होकर कहा— ‘बहन! तुम चिंता मत करो, वे चरम शरीरी हैं, महाबली हैं और उत्तम राजवंशी क्षत्रिय पुत्र हैं। जब समुद्र उन्हें नहीं डुबो सका तो भला कौन उन्हें मार सकता है?’ फिर भी गुणमाला के आग्रह से और पति के दर्शन की अभिलाषा से रयनमंजूषा वहाँ से चलकर राज दरबार में आ गई। गुणमाला ने पिता से निवेदन किया— ‘हे पूज्य पिताजी! आपके द्वारा यह घोर अन्याय किया जा रहा है। आप इन रयनमंजूषा की सारी बातें सुनिए।’
तब राजा ने शांति से बैठकर रयनमंजूषा के मुख से आद्योपांत श्रीपाल का परिचय सुना। ये चंपापुरी के राजा अरिदमन के पुत्र हैं। उज्जैन के राजा पुहुपाल की पुत्री मैनासुंदरी ने अपने सिद्धचक्र के अनुष्ठान से इन्हें कुष्ठरोग से मुक्त किया है इत्यादि इतिहास सुनकर राजा को बहुत पश्चात्ताप हुआ। वे शीघ्र ही श्मशानभूमि में पहुँचकर श्रीपाल से क्षमा याचना करते हुए बोले— ‘हे राजकुमार! अज्ञानता से आज मेरे से बहुत बड़ा अपराध बन गया है।
उसे आप क्षमा कर दीजिये और महल में पधारिये।’ इतना सुनकर श्रीपाल ने कहा— ‘राजन्! इसमें आपका कोई दोष नहीं, यह तो मेरे पूर्वकृत कर्मों का ही फल है। ….अस्तु, राजाओं को बिना विचारे शीघ्रता में कोई भी निर्णय नहीं देना चाहिए।’ अंत में राजा ने सम्मानपूर्वक श्रीपाल को उत्तम हाथी पर बिठाकर सोत्साह राजमहल में प्रवेश कराया। वहाँ गुणमाला और रयनमंजूषा ने पति के चरणों की वंदना कर अपना मन शांत किया। तत्पश्चात् रयनमंजूषा ने धवल सेठ की दुश्चेष्टा तथा देव द्वारा अपने शील की रक्षा की सारी आत्मकथा श्रीपाल को सुनाई। सुनकर श्रीपाल ने कहा— ‘प्रिये! मुझे भी यह अनुमान था कि यह सब समुद्र में गिराने की घटना इसी सेठ के षड्यंत्र का ही रूप है। वह आज आपके मुख से स्पष्ट हुआ।’ इधर राजा सत्तराज ने अपने किंकरों द्वारा उस धवल सेठ को बुलवा लिया था।
उसे सेवकों ने बहुत ही पीटा था वह सभा में लज्जित हुआ माथा नीचा किये राजा के तिरस्कारपूर्ण शब्दों को सुन रहा था। तभी राजा के आदेश से श्रीपाल वहाँ पहुँचे। उसकी इस दुरवस्था पर श्रीपाल को दया आ गई और वे बोले— ‘राजन्! मैंने इन्हें अपना धर्मपिता माना है। यद्यपि इन्होंने मेरे साथ घोर अन्याय किया है फिर भी इनके द्वारा किये गये दुष्कार्य मेरे लिए मंगल एवं आनंद के कारण ही हुए हैंं अत: इन्हें प्राणदण्ड न देकर इन्हें बंधनमुक्त कर दिया जाए।’ इतना सुनकर राजा ने उसे मुक्त कर दिया और श्रीपाल ने उसका बहुत कुछ सम्मान किया।
श्रीपाल की इस दयालुता, उदारता, क्षमाशीलता और गंभीरता से धवल सेठ बहुत ही प्रभावित हुआ, पुन: अपने दुष्कृत्यों को सोचकर उसका हृदय आत्मग्लानि से भर गया। उसके हृदय में गहरा पश्चात्ताप हुआ, वह सोचने लगा— ‘अहो! कहाँ इस श्रीपाल की करुणा की पराकाष्ठा? और कहाँ हमारी नीचता? आहे!! मुझ जैसे पापी की क्या गति होगी?’ इतना सोचते-सोचते शोक से अनुतप्त हो उसने एक लम्बी सांस ली कि उसका विशाल उदर विदीर्ण हो गया और उसकी मृत्यु हो गई। पापोदय के कारण मरकर वह नरक में चला गया।
सेठ की मृत्यु का समाचार सुनकर श्रीपाल को बहुत ही दु:ख हुआ। वे सेठानी के पास पहुँचकर उन्हें सान्त्वना देते हुए बोले— ‘हे मात:! मैं आपका धर्मपुत्र हूँ, भविष्य में चाहे जब भी आप मुझे स्मरण करें, मैं आपकी आज्ञा पालन के लिए तैयार हूँ।’ इत्यादि मृदु शब्दों को सुनकर सेठानी ने अपना शोक हल्का करके कहा— ‘हे पुत्र! तुम्हारे गुणों की जितनी भी प्रशंसा की जाए, वह थोड़ी ही है।…..जो होना था, हो गया। अब आप मुझे मेरे देश पहुँचा दीजिये।’ सेठानी की इच्छानुसार श्रीपाल ने सारे जहाजों और रत्नों सहित सेठानी को उनके देश पहुँचा दिया और आप अपनी दोनों रानियों सहित वहीं द्वीप में सुखपूर्वक अपना कालयापन करने लगे।