१५ – चम्पापुर में अवधिज्ञानी महामुनि का आगम राजा श्रीपाल द्वारा
मुनि से अपने एवं मैना सुन्दरी पूर्वभवों का श्रवण
महाराजा श्रीपाल अपने सिंहासन पर विराजमान हैं। उनकी बाई ओर भद्रासन पर महासती मैनासुंदरी बैठी हुईं हैं। राजसभा लगी हुई है। वंदीजन महामंडलेश्वर श्रीपाल का यशोगान कर रहे हैं और वीरांगनाएँ चंवर ढोर रही हैं। उसी समय वनमाली आकर महाराज के सन्मुख भेंट में छहों ऋतुओं के फलफूल एक साथ रख देता है और हाथ जोड़कर निवेदन करता है— ‘हे देव! अपने नगर के उपवन में महामुनि पधारे हुए हैं। उनकी तपश्चर्या के प्रभाव से वन के जातविरोधी सभी हिंसक व्रूर पशु भी वहाँ शांति से विचरण कर रहे हैं।’ इत्यादि शुभ समाचार सुनते ही राजा श्रीपाल अपनी महारानी मैनासुंदरी के साथ अपने सिंहासन से उठ खड़े हुए और जिस दिशा में महामुनि विराजमान थे, उसी दिशा में सात पैंड आगे बढ़कर उन्हें प्रणाम किया पुन: प्रसन्न हो वनमाली को बहुत कुछ पुरस्कार देकर विदा किया और आप स्वयं गुरु की वंदना के लिए जाने को तैयार हो गए। उसी समय मंगल प्रस्थान के बाजे बजने लगे। आनंदभेरी को सुनते ही सभी प्रजा के लोग उत्साहपूर्वक घर से निकल पड़े। राजा ने उपवन मे पहुँचकर विधिवत् मुनिराज की वंदना की। पूजन-सामग्री लेकर रत्न आदि बहुमूल्य वस्तुओं के साथ-साथ अष्टद्रव्य से उनके चरणों की पूजा की पुन: नाना स्तोत्रों से स्तुति करके उनके चरण सानिध्य में बैठ गए, गुरुदेव का दिव्य उपदेश सुना। अनंतर श्रीपाल ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की— ‘हे भगवन्! अब मैं आपके श्रीमुख से अपने पूर्व के भवों को सुनना चाहता हू। प्रभो! किस पाप के उदय से मुझे कुष्ठरोग से ग्रसित होना पड़ा? किस पुण्योदय से मुझे सिद्धचक्र व्रत धारण करने के लिए प्रेरणा मिली? पुन: कौन से पापोदय से मैं समुद्र में गिरा? किस पुण्योदय से समुद्र से बाहर निकलने में समर्थ हुआ? भांड़ों ने मुझे अपना कुटुम्बी क्यों बताया? और किस कारण से उस मिथ्या आरोप का निराकरण हुआ? मैनासुंदरी जैसी पतिव्रता, रयनमंजूषा जैसी शीलशिरोमणि आदि आठ हजार सुंदरी रानियों की प्राप्ति, मेरे में कोटिभट का बल तथा यह महामंडलेश्वर का ऐश्वर्य भी मुझे किस पुण्य से प्राप्त हुआ है? हे देव! यह सब आपके मुखारिंवद से सुनने की मुझे उत्कट अभिलाषा हो रही है। सो कृपाकर मुझे आप सुनाइए।’ राजा के आग्रहपूर्ण निवेदन को स्वीकार कर महामुनि अपने दिव्य अवधिज्ञान से सारी बातें जानकर स्पष्ट कहने लगे— ‘हे वत्स! तुम अपने प्रश्नों का उत्तर सुनो। जम्बूद्वीप के इसी भरत क्षेत्र में रत्न संचयपुर नाम का एक सुंदर नगर है। वहाँ का राजा श्रीकण्ठ विद्याधर था, वह चतुरंग सेना का स्वामी महाबलवान् और नीतिवान् भी था। उसकी पट्टरानी का नाम श्रीमती था, वह रूपवती, गुणवती और धर्मात्मा थी। प्रतिदिन चार प्रकार के संघ को चार प्रकार का दान देना यह उसकी दैनिक चर्या थी। एक दिन ये राजदम्पत्ति जिनमंदिर गये थे। वहाँ से वंदना कर वापस लौटते समय उन्हें एक दिगम्बर मुनि के दर्शन हुए। उनकी वन्दना, स्तुति करके उनसे धर्मोपदेश सुना। पश्चात् उन दोनों ने गुरु से कुछ व्रत ग्रहण कर लिए। राजा ने जो श्रावक के व्रत लिए थे, तीव्र मोह और मिथ्यात्व के उदय से उसने उन व्रतों को तो छोड़ दिया प्रत्युत् धन, ऐश्वर्य, यौवन और शक्ति आदि के मद में चूर होकर तथा मिथ्यावादियों के चक्कर में आकर मिथ्यादेव-गुरु और धर्म की उपासना करना शुरू कर दिया। परिणाम- स्वरूप वे जैनधर्म की निंदा करने में रुचि लेने लगे। एक दिन की बात है, वे राजा अपने सात सौ (७००) वीरों के साथ वन में क्रीड़ा के लिए गये। वहाँ एक गुफा में महान् परीषह विजयी एक दिगम्बर मुनि ध्यान में विराजमान थे। उनका शरीर अत्यंत कृश था, धूलि से मलिन था। वे डांस-मच्छरों के काटने का कष्ट झेलते हुए भी शरीर से पूर्ण नि:स्पृह थे। राजा श्रीकण्ठ उन मुनि को देखते ही अपनी क्रीड़ा में अपशकुन समझकर घृणा से चिल्ला पड़े—‘यह कोढ़ी है।’ इतना कहकर उन्होंने मुनि को वहाँ से उठवाकर पास के समुद्र में गिरवा दिया। समुद्र में गिरने के बाद भी उन महामुनि की ध्यानमुद्रा जरा भी चलायमान नहीं हुई। इस चमत्कार को देखकर उस राजा के हृदय में दया का कुछ स्त्रोत बहा और उसने सेवकों को आज्ञा देकर मुनि को बाहर निकलवा दिया। पश्चात् वे अपने राज्य में वापस आ गये। कुछ दिनों बाद राजा पुन: वन में क्रीड़ा को गये। उस समय भी उन्होंने वन से आहार के लिए आते हुए अत्यंत कृशकाय परम तत्त्वज्ञानी एक महामुनि को देखा। अपने सन्मुख मुनि को देखकर राजा ने क्रोधित होकर कहा— ‘ऐ बेशर्म निर्लज्ज! दिगम्बर! नंगे घूमते हुए तुझे शरम नहीं आती? धूलि से मलिन शरीर करके ऐसा घृणित रूप बनाकर तू क्यों घूम रहा है? तुझे तो मरना चाहिए, तेरा मस्तक काट डालना चाहिए।’ इतना कहते हुए राजा ने मुनि को मारने के लिए अपनी तलवार उठाई कि सहसा उसके हृदय में दया का उद्रेक हो आया। वे तत्क्षण ही तलवार म्यान में रखकर वापस घर लौट आये। ऐसे परमतपस्वी दिगम्बर मुनि पर दो बार उपसर्ग करने से ही उस राजा को महान् पाप का बंध हो गया था। एक दिन सहजभाव से अपनी विशेषता बतलाते हुए राजा श्रीवंâठ ने अपनी महारानी श्रीमती से ये सब बातें बता दीं। सुनते ही रानी को बहुत ही खेद हुआ। वह मन में सोचने लगी— ‘हे भगवन्! मैंने कौन से ऐसे पाप किये थे कि जिससे मुझे ऐसा विवेकहीन मिथ्यादृष्टि पति मिला है। अब मैं क्या करूँ? किससे अपनी व्यथा कहूँ?’ इस प्रकार खेद-खिन्न होती हुई रानी उदास हो गई और भोजनपान छोड़कर अपनी शय्या पर सो गई। कुछ ही देर बाद राजा को महल में रानी की उदासी का पता चला। उसकी सखी ने कहा— ‘महाराज! आपने जो दिगम्बर मुनियों को कष्ट दिया है और मुनि से श्रावक के व्रत लेकर उन्हें छोड़ दिया है, इसी कारण से रानी का मन दु:खी हो रहा है। उन्होंने तो आज भोजन भी नहीं किया है।’ इस बात को ज्ञात कर राजा बहुत ही लज्जित हुए। वे रानी के पास पहुँचे और मधुर शब्दों में उन्हें सान्त्वना देते हुए बोले— ‘प्रिये! निश्चित ही मुझसे महान भूल हुई है। मैंने मिथ्यादृष्टियों के बहकावे में आकर दिगम्बर मुनियों पर उपसर्ग करके महान अनर्थ किया है। ओह! मैंने स्वयं ही नरक पथ का मार्ग खुला कर लिया है। प्रियतमे! मुझे अब दुर्गति में जाने से बचाओ। मैं जो कुछ भी कर चुका हॅूँ, उसकी निंदा करता हूँ।’ राजा ने इस प्रकार के पश्चात्तापपूर्ण वचनों को सुनाकर रानी को कुछ शांति मिली। वह बोली— ‘हे नाथ! आपने सम्यक्त्व को छोड़कर मिथ्यात्व का सेवन किया है सो निश्चित ही संसार में अनंत दु:खों का कारण है। जैन शास्त्रों में यह लिखा है कि जो कोई भी दिगंबर मुनियों को कष्ट पहुँचाते हैं, वे नरक-निगोदों को प्राप्त कर लेते हैं अत: हे स्वामिन्! यदि आपको संसार से भय हुआ है तो अब आप इन दिगंबर मुनियों के पास चलें। उनसे पुन: जिनधर्म ग्रहण कर इस किए गए पाप से छूटने का उपाय पूछें, तभी भविष्य में दु:खों से बचा जा सकता है।’ रानी की बात सुनकर राजा ने गुरु के पास चलना स्वीकार किया और रानी की संतुष्टि के लिए वे रानी को साथ लेकर जिनमंदिर गए। वहाँ जिनप्रतिमाओं की वंदना स्तुति करके वहीं पर विराजमान दिगम्बर महामुनि के पास पहुँचे। उन्हें नमस्कार करके उनके पास बैठ गए पुन: सरलभाव से मुनि के समीप अपने द्वारा किए गए सभी दुष्कृत्यों को कह सुनाया और पुन: प्रार्थना करने लगे— ‘हे दयानिधे! अब आप मुझे इन पापों की निवृत्ति का उपाय बताइए और मुझे घोर नरक में जाने से बचा लीजिए।’ यह सुनकर मुनिराज ने कहा— ‘राजन्! यदि तुम वास्तव में अपने पापों का प्रायश्चित करना चाहते हो तो सिद्धचक्र का विधान करो, इसी से तुम्हारे अशुभ कर्मों का नाश होगा और तुम दुर्गति में जाने से बच सकते हो।’ राजा ने सिद्धचक्र विधि समझने की इच्छा प्रगट की, तब मुनिराज ने उन्हें सिद्धचक्र विधान, उसके अनुष्ठान और व्रत की सारी विधि समझा दी। राजा ने बड़े ही आदर से मुनिराज से सम्यक्त्व ग्रहण करके यह सिद्धचक्र व्रत भी ग्रहण कर लिया। वे अपने राजमहल आ गए और उस दिन से प्रतिदिन ही जिनेन्द्र भगवान की पूजा करने लगे, मुनियों को आहार आदि देने लगे तथा आष्टान्हिक पर्व में व्रत ग्रहण कर सिद्धचक्र विधान का अनुष्ठान करना शुरू कर दिया। इस प्रकार से आठ वर्ष तक व्रत का पालन कर अंत में अच्छे समारोह के साथ व्रत का उद्यापन किया। जीवन के अंत में सल्लेखना विधि से मरण करके उन्होंने स्वर्ग में देवपद प्राप्त कर लिया। इसी प्रकार व्रत के अनुष्ठान से रानी श्रीमती भी मरण के बाद उसी स्वर्ग में, उन्हीं देव की देवांगना हो गई। वे दोनों देव दम्पत्ति स्वर्ग के दिव्य सुखों को भोगकर अंत में वहाँ से च्युत होकर यहाँ पर आप राजा श्रीपाल और मैनासुंदरी हुए हैं।’ हे राजन्! तुमने पूर्व भव में अपने ७०० वीरों के साथ-साथ मुनिराज को ‘कोढ़ी है, कोढ़ी है’ कहा था। उसी के पाप से तुम इस भव में ७०० उन्हीं वीरों सहित ‘कोढ़ी’ हुए हो। मुनिराज को समुद्र में गिरवाने के पाप से तुम्हें भी समुद्र में गिराया गया है तथा मुनि को पुन: समुद्र से निकालने के पुण्य से तुम भी समुद्र से तिर सके हो। तुमने मुनिराज को ‘मलिन, नंगे, निर्लज्ज’ आदि कह कर उपहास किया था, इसी पाप के फल से भांडों ने भी तुम्हें ‘अपना पुत्र, भाई आदि कहकर उपहास किया है। तुमने मुनि को ‘मारो, मारो’ कहकर तलवार निकाल कर उन्हें मारना चाहा था, उसी पाप से तुम्हें फाँसी का आदेश सुनाया गया था किन्तु तुमने मुनि पर दया कर दी थी, मारा नहीं था अत: तुम्हारी भी रक्षा हो गई है। अनंतर तुमने सम्यक्त्वी श्रावक बनकर सिद्धचक्र विधान और आष्टान्हिका व्रत का अनुष्ठान किया था, उसी के पुण्य प्रभाव से इस भव में तुमने अपार यश और विपुल वैभव प्राप्त किया है। साथ ही पूर्व भव की रानी श्रीमती का जीव पूर्व के संस्कार से ही इस भव में मैनासुंदरी के रूप में तुम्हारा उपकार कर रहा है। हे महानुभाव! तुमने जो गुरु के पास अपने दुष्कृत्यों की आलोचना करके प्रायश्चित्त ग्रहण कर लिया था, उसी के फलस्वरूप तुम नरकों में जाने से बच गये हो, प्रत्युत् स्वर्ग में देवपद के अनुपम सुखों को भोगकर यहाँ आकर भी महामंडलेश्वर राजा हुए हो किन्तु मुनिनिंदा और मुनि के ऊपर किया गया उपसर्ग, इनसे जो पाप बँध जाता है वह ‘निकाचित’ कहलाता है अर्थात् उसका कितना भी प्रायश्चित्त कर लिया जाए फिर भी उसका कडुवा फल भोगना ही पड़ता है, बिना भोगे नहीं छूटता है। उसी के कारण तुम्हें इस जीवन में ये कष्ट भोगने पड़े हैं इसलिए हे भव्य! तुम्हें मुनियों के प्रति किंचित् मात्र अपकार के भाव कभी मन में भी नहीं लाना चाहिए और तो क्या, स्वप्न में भी गुरुओं की निंदा न करनी चाहिए, न सुननी ही चाहिए तथा गृहस्थाश्रम में रहते हुए सतत ही श्रावक के व्रतों का पालन करते हुए सिद्धचक्र मंत्र, यंत्र, विधान और आष्टान्हिक व्रत के अनुष्ठान में श्रद्धा रखनी चाहिए।’ इस प्रकार विस्तार से मुनिराज के मुख से अपने पूर्वभव सुनकर राजा श्रीपाल बहुत ही संतुष्ट हुए पुन: मुनिराज की बार-बार वंदना करके अपने राजप्रसाद में वापस आ गये।