१६ – महाराज श्रीपाल को वैराग्य एवं पुत्र धनपाल का राज्याभिषेक
महाराज श्रीपाल अपने महल की छत पर बैठे हुए चारों दिशाओं की प्राकृतिक शोभा का अवलोकन कर रहे थे कि छाये हुए बादलों में सहसा बिजली चमकी और क्षण भर में लुप्त हो गई। बिजली की इस क्षणभंगुर प्रक्रिया को देखकर वे मन में सोचने लगे— ‘अहो! इस बिजली की चमक के समान ही ये मेरे धन, वैभव और यौवन आदि क्षणभंगुर हैं। ये सब नियम से नष्ट होने वाले हैं। संसार में कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है। मैंने स्वयं भी अपने जीवन में कितने परिवर्तन देखे हैं अत: इस परिवर्तनशील जगत में भला मोह करना कहाँ तक उचित है? ये विषयभोग आदि स्वेच्छा से नहीं छोड़े जाते हैं तो स्वयं ही एक दिन जीव का साथ अवश्य छोड़ देते हैं।’ इस प्रकार मन में वैराग्य भावना के उदित होते ही राजा श्रीपाल बैठे-बैठे ही बारह भावनाओं का चिंतवन करने लगे। अनंतर उन्होंने राज्य वैभव को छोड़कर दीक्षा लेने का दृढ़ संकल्प कर लिया और अपने बड़े पुत्र को बुलाकर बोले— ‘हे पुत्र! मैंने चिरकाल तक इस राज्य का संचालन किया है, अब मैं अपने शेष जीवन को तपश्चर्या में लगाकर कर्मों का नाश करना चाहता हूँ जो कि अक्षय सुख का कारण है अत: अब तुम यह राज्यभार सँभालो।’ पिता के मुख से इतना सुनते ही धनपाल एकदम हतप्रभ हो गया और घबराया हुआ बोला— ‘हे पिताजी! आज आप क्या कह रहे हैं? क्या आपके बिना मैं इस राज्य को सँभालने में समर्थ हूँ? क्या आपके वियोग में यह वैभव, यह परिवार और यह सारी प्रजा सुख का अनुभव कर सकती है?…. इतना सुनकर महाराज श्रीपाल ने पुत्र को धैर्य देते हुए अनेक प्रकार से शिक्षायें दीं पुन: मंत्रियों को बुलाकर पुत्र के राज्याभिषेक के लिए तैयारी करने का आदेश दे दिया। अनंतर वे अपनी माता कुंदप्रभा और प्रियतमा मैनासुंदरी, रयनमंजूषा आदि से भी मिले। माता ने एक क्षण के लिए कुछ सोचा किन्तु पुन:— ‘यही सनातन परम्परा है।’ ऐसा निर्णय कर स्वयं भी दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया। मैनासुंदरी ने भी पति के वैराग्य की सराहना करते हुए कहा— ‘स्वामिन्! आज आपने ही बहुत अच्छा विचार किया है। अहो! मनुष्य पर्याय का सार तो इसी में है कि जैनेश्वरी दीक्षा लेकर अक्षय-अविनाशी मोक्ष सुख प्राप्त किया जा सके। जिन्होंने अंत तक अपने को सांसारिक भोगों में ही फसा रक्खा है वे बेचारे दीन प्राणी अपनी संसार परम्परा को भला कैसे नष्ट कर सकते हैं? हे देव! आपके साथ ही मैं भी आर्यिका दीक्षा लेकर अपनी स्त्री पर्याय का छेद करूँगी। अनंतर सम्यक्त्व के बल से दो-तीन भवों में ही अपने लक्ष्य- भूत निर्वाण को प्राप्त कर लूँगी।’ इसी प्रकार से अन्य कई रानियों ने तो पति के वैराग्य को अच्छा कहा तथा कितनी एक रानियों ने तो पति के वियोग का स्मरण कर सिहर उठीं और पति के समक्ष कुछ दिन और घर में रहने के लिए अनुनय-विनय करने लगीं किन्तु श्रीपाल ने शांत भाव से सभी को संसार की नश्वरता का बोध कराया। साथ ही मैनासुंदरी ने भी अपने मधुर शब्दों से अपनी बहनों को (सौतों को) संबोधन करके धैर्य बँधाया।
महाराज श्रीपाल का ७०० वीरों सहित मुनि दीक्षा, माता कुंदप्रभा और
मैनासुन्दरी आदि आठ हजार रानियों की आर्यिका दीक्षा
मंत्रियों के द्वारा राज्याभिषेक की तैयारी हो जाने पर महाराज ने विधिवत् पुत्र का राज्यपट्ट पर अभिषेक करके उसे अपना मुकुट पहना दिया और आप स्वयं मुख्य-मुख्य प्रजा के लोगों से अनुमति लेकर वन में चले गये। वहाँ पर महामुनिराज विराजमान थे। ये सभी लोग उनके चरणों की वंदना करके नाना स्तोत्रों से स्तुति करने लगे। अनंतर श्रीपाल ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की— ‘हे प्रभो! मैं अनादिकाल से इस संसार में परिभ्रमण करता आ रहा हूँ। मैं अब इन जन्म-मरण के दु:खों से मुक्त होना चाहता हूँ अत: हे दयासिन्धो! मुझे संसार से पार करने वाली ऐसी जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान कीजिए।’ मुनिराज ने शांत तथा गंभीर स्वर में कहा— ‘वत्स! तुमने बहुत ही उत्तम निर्णय लिया है। यह जैनेश्वरी दीक्षा ही संसार के दु:खों से छुटाने वाली है।’ इसी बीच चम्पापुर की सारी जनता तथा श्रीपाल के कुटुम्बीजन माता, स्त्रियाँ, पुत्र, पौत्रादि आदि सभी लोग वहाँ पर आ पहुँचे। श्रीपाल ने सबके समक्ष अपने वस्त्र-आभूषण आदि उतारकर अपने ही हाथों से अपने केशों का लोच करके गुरु के सानिध्य में दिगम्बर मुद्रा ग्रहण कर ली। गुरु ने भी विधिवत् उन्हें अट्ठाईस मूलगुण प्रदान किए और उत्तरगुणों के भी अनेक भेद समझा दिए। राजा श्रीपाल के साथ ही उनके सात सौ (७००) वीरों ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली। माता कुंदप्रभा और मैनासुंदरी आदि आठ हजार (८०००) रानियों ने भी मात्र श्वेत साड़ी धारण करके आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ली। उस समय चम्पानगरी के अनेक भव्य जीवों ने मुनि, आर्यिका और श्रावक-श्राविका के व्रत ग्रहण कर अपने को मोक्षमार्ग में लगा लिया। सर्वत्र जैनधर्म की ‘जय जयकार’ होने लगी। इतने विशाल चतुर्विध संघ (मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका) के दर्शन करके लोगों ने अपने को धन्य माना और चम्पानगरी को भी पूज्य समझने लगे।
महामुनि श्रीपाल का दुर्धर तपश्चरण
श्रीपाल महामुनि अपने गुरु की आज्ञा लेकर सिंह के समान एकाकी होकर वनों में, निर्जन प्रदेशों में, पर्वतों पर और गुफाओं में ध्यान का अभ्यास करने लगे। ये महामुनीश्वर उत्तम संहनन के धारी थे, सभी परीषहों को सहने में धीर- वीर गम्भीर थे। इस प्रकार दुर्धर तपश्चरण करते हुए ये मुनिराज कभी वृक्ष के नीचे योग धारण कर लेते थे, कभी पर्वत के शिखर पर आतापन योग से स्थिर हो जाते हैं और कभी नदी के किनारे अभ्रावकाश योग में लीन होकर अपनी शुद्ध आत्मा का ध्यान करते थे।
महामुनि श्रीपाल को केवलज्ञान एवं निर्वाण
इस प्रकार से धर्मध्यान करते हुए वे महामुनि शुक्लध्यान में लीन हुए और तत्क्षण ही मोहनीय कर्म का नाश कर बारहवें गुणस्थान में आ गये। वहाँ पर बहुत ही लघु अंतर्मुहूर्त में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय का नाश कर तेरहवें गुणस्थान में पहुँचते ही केवली भगवान हो गये। उसी समय देवों के आसन कंपायमान हो उठे। इंद्र की आज्ञा से कुबेर ने अर्धनिमिषमात्र में गंधकुटी की रचना कर दी। सौधर्म इंद्र स्वयं असंख्य देव-देवियों के साथ वहाँ आ गया। उसने केवली भगवान की पूजा करके वहाँ गंधकुटी में बैठकर भगवान का दिव्य उपदेश श्रवण किया। देव, मनुष्य और विद्याधर सभी ने मिलकर भगवान श्रीपाल के केवलज्ञान का महामहोत्सव मनाया था। इसी प्रकार श्रीपाल स्वामी दिव्य केवलज्ञान के द्वारा तीनों लोकों के समस्त पदार्थों को हस्तरेखावत् देखने में समर्थ हो गए। उन्होंने बहुत काल तक भव्यजीवों को कल्याण मार्ग का उपदेश दिया। अंत में सर्व अघाति कर्मों का भी नाश करके एक समय मात्र में शरीर से रहित अशरीरी होते हुए लोक के अग्रभाग पर जाकर विराजमान हो गये। सर्व कर्मांजन से रहित निरंजन परमात्मा कृतकृत्य हो गये। देवों ने आकर उनके निर्वाण समय की पूजा की।
आर्यिका मैनासुन्दरी आदि आर्यिकाओं को देवपद की प्राप्ति
मैनासुंदरी ने भी घोर तपश्चरण करते हुए अपने शरीर को अत्यन्त कृश कर दिया था। अंत में सल्लेखना विधि से शरीर का त्यागकर आर्यिका मैनासुंदरी ने सम्यक्त्व और संयम के प्रभाव से स्त्रीलिंग का छेद कर दिया और सोलहवें स्वर्ग में बाईस सागर की आयु को धारण कर उत्तम देवपद प्राप्त कर लिया। माता कुंदप्रभा ने भी आर्यिका जीवन में उत्तम तप को करते हुए संन्यास विधि से मरण कर सोलहवें स्वर्ग में ही उत्तम देवपद प्राप्त कर लिया। इसी प्रकार रयनमंजूषा, गुणमाला आदि आर्यिकाओं ने भी अपने-अपने शुभ भावों के अनुसार स्वर्ग में देवपद प्राप्त किया था।
मैनासुन्दरी का बचपन में आर्यिका के पास विद्याध्ययन से दृढ़ र्धािमक संस्कार का फल
इस प्रकार मैनासुंदरी ने बचपन में आर्यिका के पास विद्या अध्ययन करके धार्मिक संस्कारों को दृढ़ किया था पुन: कर्मसिद्धांत पर अटल रहकर पिता के रोष को सहन किया। कुष्ठी पति को पाकर भी दु:खी न होकर अपने पातिव्रत्य गुण से नारी सृष्टि में मणि के समान सुशोभित हुई। पतिसेवा आदि कर्तव्य के पालन से वे आज भी भारतीय नारियों के लिए उदाहरण बनी हुई हैं पुन: सिद्धचक्र की आराधना के प्रभाव से पति के कुष्ठ को दूर करने से प्रत्येक आष्टान्हिक पर्व में प्रतिदिन जैन समाज की महिलाएँ मैनासुंदरी के गुणों का गान करती हैं। ‘श्री सिद्धचक्र का पाठ, करो दिन आठ, ठाठ से प्राणी। फल पायो मैनारानी।।’
सिद्धचक्र विधान की महिमा
ये पंक्तियाँ प्राय: घर-घर में गुनगुनाई जाती हैं। इसी तरह इस सिद्धचक्र के प्रभाव से राजा श्रीपाल भी करोड़ो योद्धाओं के सदृश बल को प्राप्तकर ‘कोटिभट’ कहलाये। अतुल राज्य संपदा के धनी होकर ‘महामंडलीक’ महाराजा प्रसिद्ध हुये। आठ हजार रानियों के स्वामी हुए तथा मैनासुंदरी भी उन आठ हजार सपत्नियों (सौतों) में प्रधान पट्टरानी हुई। चिरकाल तक इन दंपत्ति ने राज्य सुख पुत्र-पौत्रादि के सुखों का उपभोग किया। अनंतर धर्म को न भूलते हुए जैनेश्वरी दीक्षा लेकर अपना अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष उसे प्राप्त कर लिया है। श्रीपाल तो साक्षात् मोक्ष में विराजमान हो चुके हैं। मैनासुंदरी भी स्वर्ग से आकर मनुष्य पर्याय प्राप्त कर पुन: दैगंबरी दीक्षा लेकर सर्व कर्मों का नाश करके मोक्ष को प्राप्त करेंगी, ऐसा जैन इतिहास के पृष्ठों में अंकित है।