-गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी
महिला- प्रियतम! देखो तो सही, हम कितने भाग्यशाली हैं। इस मंगलपुर शहर में आकर रहते हुए हम लोगों को कितने दिन हो गये। घर-घर में मेरे सतीत्व की चर्चा चल रही है किन्तु अभी तक यहाँ का राजा मेरा गाना सुनना, मेरा दर्शन करना महापाप समझता है।
चूँकि वह स्त्रीमात्र का मुख ही नहीं देखता है। सुनने में तो ऐसा आया है कि कोई चाहे जैसी अतिशय रूपवती स्त्री हो, या महागुणवती हो या विदुषी हो किन्तु वह किसी का न मुख देखता है, न उनके शब्द ही सुनता है और न उनकी छाया या चित्रों का ही अवलोकन करता है।
पंगु- अरे! इतना स्त्री-विरक्त (जोरों से हँसकर) मालूम पड़ता है कि उसने स्त्रियों के भोग-सुख का आस्वाद नहीं लिया है। नहीं तो, अवश्य ही स्त्री का दास बन जाता। खैर! यदि वह एक बार भी मेरा मनमोहन गायन सुन ले और उसके साथ-साथ ही तुम्हारे रूप को देख ले तो उसकी सारी स्त्रीविरक्त भावना कहीं की कहीं पलायमान हो जायेगी।
महिला- हाँ, हाँ प्रियतम! अपनी मनोकामना सफल हो गई। अभी कर्मचारीगण बहुत कुछ भेंट लेकर अपने को आमंत्रित करने आये थे कि चलो राजा तुम्हारे सतीत्व से प्रभावित हो गया है और अब वह तुम्हें राजदरबार में पधारने की स्वीकृति दे चुका है अत: अब हमें जल्दी ही तो वहाँ पहँुचना है, इसीलिये तो मैं सज-धज रही हूँ।
पंगु- किंतु मैंने तो सुना था कि यहाँ का राजा सभी को खूब दान देता है। जन्मों-जन्मों की गरीबी को धो डालता है। लेकिन…..
महिला- लेकिन क्या? प्रियतम जल्दी बताइये।
पंगु- प्रिये! क्या बताऊँ। सचमुच में मुझे तो अतिविश्वस्त राजदरबार के ड्योढ़ीवान ने ही बताया है कि आज तक उसने पंगुओं को, अपंगों को, लंगड़ों को, एक कण भी अन्न नहीं दिया बल्कि उन्हें देखते ही अपने राज्य से निकलवा देता है।
इस गाँव में कोढ़ी हैं, अन्धे हैं, तमाम अंगहीन और भिखारी हैं किन्तु यही कारण है कि इतने दिन हो गये, यहाँ आकर अपने को भी कोई पंगु दिखाई नहीं दिया अत: वह राजा हमें राजदरबार में कैसे बुलायेगा?
महिला- ओहो! यह बात तो हमें भी मालूम है कि यहाँ का राजा महिलाओं का और पंगुओं का द्वेषी है, फिर भी उसने अपने को बुलाया है इसीलिये तो मैंने पहले ही आपसे निवेदन किया है कि अपने अहोभाग्य दिख रहे हैं, जिससे आज ऐसा प्रभावशाली राजा भी अपने माहात्म्य को समझ चुका है।
पंगु- प्रिये! यह तो बताओ कि क्या इस राजा के रानी नहीं है।
महिला- नहीं, नहीं प्रियतम! स्त्रीमुख को भी नहीं देखने वाले के भला रानी का क्या काम है?
पंगु- तो फिर इसके सन्तान भी नहीं होगी?
महिला- यह भी क्या सोचने की बात है? रानी के बिना राजा के सन्तान कहाँ से होगी?
पंगु- तो पुन: भविष्य का राज्य-भार कौन सँभालेगा?
महिला- प्राणेश्वर! इसकी अपन को क्या चिन्ता? अरे! अपने को तो पुरस्कार पाना है और यश लूटना है। अपने सतीत्व का झण्डा देश-देश में, गाँव-गाँव में, नगर-नगर में और डगर-डगर में फहराना है। बस चलो, चलें, जल्दी करो, अब देरी न करो, कहीं राजा के भाव पुन: बदल गये तो मुश्किल हो जायेगा।
पंगु- हूँ, किन्तु प्रियतमे! मुझे डर लग रहा है।
महिला- डर! अरे! क्यों क्या बात है प्राणनाथ? बतलाइये तो सही।
पंगु- महारानी जी! मैं क्या कहूँ मेरे मन में यह आ रहा है कि ऐसा स्त्रीद्रोही और पंगु-द्रोही राजा भी यदि अपने गायन को सुनना चाहता है, अपने दर्शन करना चाहता है तो फिर यदि कहीं वह तुम पर आसक्त हो गया तो मेरा क्या होगा?
महिला- (हँसकर) प्रियतम! आपके लिए तो मैंने अयोध्या के नरेश देवरति महाराज को जलांजलि दे दी। अहो! देखो तो सही, वे मेरे प्राणवल्लभ मुझे कितना प्यार करते थे। मेरे ही मोह में उन्होंने अपने राज्यपाट को छोड़ा।
मेरे ही प्रेम में वे इतने अंधे हो रहे थे कि चाहे राज्य पर कोई आक्रमण करे, चाहे कुछ भी अनर्थ हो, प्रजा में अन्याय हो किन्तु उन्हें तो मेरे आगे किसी की परवाह ही नहीं थी।
यही कारण हुआ कि मन्त्रियों ने अनेक प्रकार से महाराज को शिक्षाएँ दीं। अनेक अनुनय-विनय किये और जब महाराज देवरति ने एक भी न मानी, तब मंत्रियों ने उन्हें और हमें राज्य से निकाल दिया तथा मेरे पुत्र जयसेन को अयोध्या का राजा बना दिया। बताइये! क्या हमारे यहाँ राज्य- वैभव कम था?
क्या हमें राजा का प्यार कम था? क्या हमें उत्तम-उत्तम भोग सामग्री उपलब्ध नहीं थी? फिर भी मैंने क्या किया? आपको तो मालूम है वन में आकर भी राजा मुझमें इतना आसक्त था कि जिसकी कोई सीमा नहीं थी।
एक दिन मैंने तुम्हारे मधुर गायन को सुना और तुम्हारे प्रति आसक्त हो गयी। फिर देखा कि नहीं, मैंने राजा को वैâसी युक्ति के साथ समाप्त किया! मुझमें विद्या, बुद्धि की कुछ भी कमी नहीं है। हाँ! तो मैं अपने पतिदेव के सामने रोने लगी-नाथ! आज आपके जन्मगाँठ का दिन है और मैं अभागी क्या करूँ?
यहाँ तो एक पैसा भी नहीं है। इस पर मेरे स्वामी ने मुझे समझाया कि प्रिये! तुम्हीं मेरे लिए सब कुछ हो। मैंने जब तुम्हारे लिये राज्यभार, अयोध्या के आधिपत्य को भी छोड़ दिया है, तो फिर वर्षगाँठ वगैरह उत्सव क्या मायने रखता है? मेरे लिये स्वर्ग से भी बढ़कर तुम्हारा अनुराग है।
अस्तु, फिर भी मैंने एक फूलों की माला बनाई और उसके धागे में एक कांटा लगा दिया पुन: राजा के सत्कार के बहाने उन्हें यमुना नदी के किराने बिठाकर माला पहनाकर वह काँटा उनके गले में ऐसा चुभोया कि वे व्याकुल हो उठे। फिर उन्होंने समझा कि मेरी वल्लभा मेरे जन्मगाँठ के उपलक्ष्य में यह कोई विलक्षण विधि कर रही है।
इसी बीच में आपने देखा कि मैंने राजा को नदी में डाल दिया और सदा-सदा के लिये उनको जलांजलि दे दी।
प्रियतम! तभी से तो मैं आपकी दासी हो गयी हूँ। आपकी सेवा में तत्पर रहती हूँ और सेवा करते-करते आज मैं महासती प्रसिद्ध हो गई हूँ।
आपको टोकरे में रखकर सिर पर उस टोकरे को विराजमान कर देश-देश में घूमकर गाना गाकर अपना और आपका पेट भर रही हूँ। अरे! देखो तो सही! मैं आपके ऊपर अपने सौभाग्य को, अपने राजरानी के सुख को और अपने धर्म का बलिदान कर चुकी हूँ। फिर भी आप आज मुझ पर शंका कर रहे हैं। अरे! ऐसे-ऐसे सैकड़ों राजा भी मेरी दृष्टि में धूल हैं।
पंगु- (प्रसन्न होकर गले लगाकर) हाँ, हाँ प्रिये! सचमुच तुम मेरी प्राणप्यारी हो लेकिन आशंका इसीलिए हो उठती है कि जब तुमने अपने पतिदेव को कुछ नहीं गिना तो मैं तो एक भिखारी, अपंग और कुरूप हूँ, निर्धन हूँ, हीन हूँ, महा नीच हूँ, दीन हूँ और आपके पतिदेव अयोध्या के अधिपति अचिन्त्य वैभव के धनी थे, अनेक गुणों के पुँज थे, देवों से भी अधिक सुन्दर थे और क्षत्रिय वीर थे, तेजस्वी थे, महाप्रतापी थे और आपमें इतने आसक्त थे कि अपने राज्य को भी ठुकरा दिया किन्तु आप जैसी महारानी ने मुझ जैसे अपंग पर आसक्त होकर उनको नदी में ढकेल दिया, तब आप क्या अन्य किसी राजा पर आसक्त होकर मुझ जैसे व्यक्ति को नहीं छोड़ सकती हैं?
महिला-प्रियतम! देखो, देखो पुन: कर्मचारीगण आ रहे हैं। जल्दी करो और चलो अपने सतीत्व को विश्वव्यापी बनाएँ।
रक्तारानी शीघ्र ही पंगु को टोकरे में बैठाकर टोकरे को मस्तक पर धारण कर चल पड़ती है और राजदरबार में पहउचते ही ‘‘महासती की जय, महासती की जय’’ के नारे गूँज उठते हैं। महाराज पर्दे की आड़ में उन्हें बिठाते हैं और आप उन दोनों महाभाग्य का मुख न देखकर मात्र गाना सुनाने का आदेश देते हैं।
सभा में बैठे हुए महामात्य सेनापति और सभासदगण गाना सुनकर झूम उठते हैं तथा मुक्तकण्ठ से भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगते हैं। महाराजा उसी समय अपनी प्रिय महारानी के स्वर को पहचान कर शीघ्र ही पर्दा खोलकर पर्दाफाश कर देते हैं।
राजा-मंत्रियों! सभासदों! आप लोग ध्यान से सुनें। यह महासती हैं और सचमुच में यह एक चमत्कारी गाना हुआ है। यह चमत्कार युग-युग तक विश्व में सर्वत्र फैलता ही चला जायेगा।
अहो! यह मेरी रक्ता नाम की महादेवी थी। इसी के प्रेम में पागल होकर मैंने अपने अयोध्या के राज्य को ठुकराया था और इसी ने अपंग में आसक्त होकर मेरी जन्मगाँठ मनाते हुए मेरे गले में हार का फन्दा लगाकर मुझे नदी में धकेल दिया था।
फिर भी आयु कर्म शेष था, मैं बच गया और आपके पट्टहाथी ने इस मंगलपुर के बगीचे में वृक्ष के नीचे बैठे हुए मेरा अभिषेक करके लाकर मुझे यहाँ का राजा बना दिया है।
बस अब मैं राज्य सुख से तृप्त हो चुका हूँ। अब मुझे केवल अपनी आत्मा का उद्धार करना है। जिस पुण्य ने मेरी यमुना नदी में रक्षा की थी, आज उसी पुण्य के फल से मैंने इतने दिन आप लोगों की सेवा की है। अब मैं जैनेश्वरी दीक्षा लेकर अपनी आत्मा का हित करूँगा।
मंत्रीगण- महाराज! आपकी इस न्यायपूर्ण राज्य व्यवस्था में हम लोग और यहाँ की प्रजा अतीव सन्तुष्ट थी, अब हमें ऐसा योग्य राजा कहाँ मिलेगा?
राजा- मंत्रियों, तुम अयोध्या से मेरे सुपुत्र जयसेन को बुला लो।
अयोध्या नरेश राजा जयसेन आते हैं और पिता के दर्शन से अपने को परम सन्तुष्ट करते हुए पिता के द्वारा प्रदत्त मंगलपुर के राज्य का भी भार संभाल लेते हैं। इधर महाराज देवरति महासती रक्तादेवी के सतीत्व का पर्दाफाश करके जैनेश्वरी दीक्षा लेकर अपनी आत्मा का कल्याण करते हैं।
घोराघोर तपश्चरण करते हुए अन्त में समाधिपूर्वक मरण करके स्वर्ग के उत्तम सुखों को प्राप्त कर लेते हैं। इधर महासती के सतीत्व के पर्दाफाश की चर्चा सारे मंगलपुर शहर में व्याप्त हो जाती है जोकि आज तक ग्रन्थों में चली आ रही है।