वर्तमान में विश्व मेंहिंसा और विध्वंस का जो ज्वार उमड़ पड़ा है, उसे रोकने व उससे वापस मुड़ने की कोई कार्यवाही यदि है तो वह है, कैसे भी करके भावी पीढ़ी के लिए ऐसी परिस्थिति का निर्माण करें कि वह प्राणियों के शोषण से मुक्त रहे। इसीलिए यह अत्यावश्यक है कि बच्चों में ऐसी आदतें डालें कि जिससे वे मनोरंजन के लिए भी किसी को हानि पहुँचाने का विचार तक न करें। दशकों से मनोविज्ञान, समाज विज्ञान व अपराध विज्ञान में हो रहे अध्ययन ने दर्शाया है कि मनुष्यों के विरुद्धहिंसा का प्रारंभ पशुओं के विरुद्ध कीहिंसा से होता है। उम्र के साथ साथ शौक और दिलचस्पी के विषय बदलते जाते हैं। जैसे कि बचपन में डाक टिकट या मुद्रा के सिक्के संग्रहित करने से प्रारंभ हुआ शौक आगे जाकर अविचारी रूप से कवच संग्रह में परिर्वितत होता है। न तो बच्चे इस पर अधिक विचार करते हैं, न माता—पिता। बड़े भी तो ट्रोफी के रूप में पशुओं के सिर, खाल, आदि इकट्ठा करते होते हैं। कभी भी ऐसी चीजों के मूल पर विचार ही नहीं किया जाता है।
चोट पहुँचाने की आदत आगे’ चलकर शिकार करने तक ले जाती है
माता—पिता को यह कठोरतापूर्वक सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके बच्चे गुलेल से छोटे—पशु—पक्षी को मारने जैसे शौक के अनिष्ट को न पालें। यह एक ऐसी गतिविधि है, जोकि बच्चों के अपक्व मन को अन्य प्राणियों की पीड़ा के प्रति संवेदनहीन बनाने में सर्वाधिक खतरनाक खेल के रूप में भूमिका अदा करता है। यह शिकार के लघु रूप से कुछ कम नहीं है। इसे बिना किसी शर्त पूर्णतया प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। बच्चों को कभी भी खिलौना पिस्तोल नहीं देनी चाहिए। न ही किसी अन्य को ऐसा उपहार हमारे बच्चों को देने की छूट देनी चाहिए। अनुचित लगे तो भी उपहार देने वाले को हमारा दृष्टिकोण समझाते हुए ऐसे उपहार अस्वीकृत कर देने चाहिए। ऐसे खिलौने से बच्चों के मानसिक अभिगम पर एक हिंसक प्रवृत्ति की अमिट छाप पड़ जाती है। उपकारकर्ता को हमारे अस्वीकार के पीछे का तात्पर्य विनम्रता से समझायेंगे तो वह इसका औचित्य समझते हुए हमारा दृष्टिकोण स्वीकार कर हमारी बात का बुरा नहीं मानेगा और वह ऐसे हिंसक मनोवृत्ति के खिलौने के स्थान पर यथोचित खिलौना देगा।
गोलीबारी और युद्ध जैसी गतिविधि पर आधारित खिलौने व वीडियों गेम का अनुकरण बच्चों में हिंसक मनोवृत्ति विकसित करता है। इसलिए इसे शुरू से ही दृढ़तापूर्वक रोके। इससे होने वाली हानि तुरन्त नहीं दिखती है, पर भविष्य के लिए मन में इसके बीज पनपते हैं। ऐसे गेम में शिरच्छेदन, खून का बहाव, आदि वास्तविक दिखने वाली गतिविधियों को प्रभावी रूप से एनिमेट किया जाता है कि मारधाड़, मनुष्य या पशु का कत्ल और बाद में खून का बहना, बच्चों के कोमल दिमाग परहिंसा की गहरी अमिट छाप छोड़ जाते हैं। उनके संवदेन तंत्र को मृत्यु और विध्वंसकता के प्रति जड़ बना देता है। हमें उन्हें समझाना चाहिए कि ऐसे गेम उन्हें क्यों नहीं खेलना चाहिए। एसोसिएटेड चेंबर ऑफ कोमर्स एंड इण्डस्ट्री इन इंडिया (एसोचेम) के सोश्यल डेवलपमेन्ट फाउन्डेशन के अंतर्गत २०११ में किये गये एक सर्वेक्षण में पाया गया कि पूणे, दिल्ली, मुम्बई, गोवा, कोच्ची, चेन्नई, अहमदाबाद, हैदराबाद, इंदौर, पटना, चंडीगढ़ और देहरादून जैसे महानगरों में ५ से १७ की आयु के बच्चों में से ७५ प्रतिशत हिंसक वीडियो गेम खेलने में नियमित रूप से लिप्त थे।
जिसके कारण उन्हें बाद के जीवन में मनोवैज्ञानिक व व्यक्तिगत समस्याओं का सामना करना पड़ा था। एसोचेम ने एक बयान जारी करते हुए कहा किहिंसा से वास्ता पड़ने पर बच्चे अपनी भावुकता खो बैठते हैं और सरलता से हिंसक प्रवृत्ति से जुड़ जाते हैं। उन्होंने यह भी कहा है कि इसके कारण बच्चों का आचरण बाध्यकारी हो जाता है। अन्य व्यसनियों के साथ मेलजोल के कारण अन्य गतिविधियों के प्रति नरिसता आ जाती है। इसका मुख्य कारण यह है कि बच्चों को वास्तविकता व कल्पना के बीच का फर्क करने में कठिनाई होती है। इसके चलते परदे पर दिखाई गईहिंसा को अपने जेहन में उतार लेते हैं। यदि विडियो गेम में अत्यधिकहिंसात्मक दृश्य देखने में आते हैं तो वे स्वयं अधिक आक्रामक और भयभीत हो जाते हैं। इसमें कोई शक नहीं है किहिंसात्मक कम्प्यूटर गेम के चलते बच्चों पर गहरा प्रभाव पड़ने के कारण उन पर प्रतिकूल व अत्यधिक बुरा असर पड़ता है। वास्तव में काफी अध्ययनों ने यह दर्शाया है कि टीवी के कारण बच्चों में मानसिक व शारीरिक दुष्प्रभाव पड़ने के कई तरीके हैं। उदाहरण के तौर पर ‘एनाकोंड’, जुरासिक पार्व, ‘गोड़ाजिला’ प्रकार की फिल्में प्राणी को दानव के रूप में दिखाती हैं, जिन्हें ढूंढ कर मार डालने का सन्देश दिया जाता है। इसके विपरीत, ‘प विली’, ‘होमवर्ड बाउण्ड—दी इनव्रेडिबल जर्नी’, महचिको, ‘मार्ली एंड मी’ प्रकार की फिल्मों में प्राणी और मनुष्य के बीच बिना शर्त प्यार और स्नेह दर्शाया गया है। (जिसके चलते बच्चों को कुत्ते पालने का मन करता है, उसे परिवार का हिस्सा बना लेते हैं। उनके बीच का स्नेह कल्पनातीत होता है, जोकि बच्चे के लिए लाभदायी और शुभ परिणामी होता है।) हालांकि, हम नहीं चाहते हैं, कि शाकाहारी परिवार के बच्चों को शिकार, गोलीबारी, मछली पकड़ने प्राणियों के प्रति व्रूरता वाली गेम खेलने या प्राणियों को मारकर उत्पादित वस्तुओं (उदाहरणतया, चमड़े की क्रिकेट गेंद और पंख से बने शटल कोक) का उपभोग करने के लिए प्रोत्साहित किया जाये ये ऐसी गतिविधियाँ व गेम हैं, जो पशुओं को हानि पहुँचाती हैं।
पतंग उड़ाना
भारत में १४ जनवरी को मकरसंक्रांति का पर्व पतंग पर्व के रूप में, विशेषकर गुजरात, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और राजस्थान के कुछ भागों में मनाया जाता है। दिन भर अहमदाबाद, बड़ोदरा, सूरत, राजकोट, धनबाद, जयपुर और हैदराबाद के आकाश पतंग से छाये रहते हैं। पतंग को जिस डोर से उड़ाया जाता है, उसे मांजा कहते हैं। वैसे डोर सूत की होती है। परन्तु, उस पर कूटे हुए कांच की परत गोंद से लगाई जाती है, जो उसे उस्तरे की भाँति तेज बनाती है। पतंग उड़ाते समय पेंच लड़ाए जाते हैं। अंत में एक पतंग कटने पर वह धीरे धीरे नीचे जाता है ऐसे समय आकाश में उड़ने वाले पक्षी तेज मांजे के संपर्व में आने से कटकर घायल होते हैं। राह पर चलने वाले लोग और दुपहिया सवार भी ऐसे मांजे की चपेट में आकर चोटग्रस्त होते हैं। कितनी भी सावधानीपूर्वक पतंग उड़ाये जाएँ, मांजे के कारण पक्षी के पंख, पैर या गला कट जाता है। फलत: कभी कभी वे दर्दनाक मौत के शिकार होते हैं। मनुष्यों को भी कभी कभार अनपेक्षित चोट पहुँचती है। बच्चे मांजा लूटने की हडबड़ी में गिरकर या किसी वाहन से टकरा कर चोटग्रस्त हो जाते हैं। सामान्य धागे में भी यदि पक्षी का पैर फस जाता है तो पक्षी को हानि होती है। तो मांजे का हानिकारी प्रभाव कितना हो सकता है, यह समझा जा सकता है। दिल्ली का सुख्यात जैन चेरिटी अस्पताल वर्ष के दौरान कपोत, चिल, आदि हजारों पक्षियों का इलाज करता है, जोकि पतंग के कांच की परत वाले मांजे और गुलेल और एयर गन से घायल होते रहते हैं। वर्षों से ब्यूटी विदाउट व्रुएल्टी के द्वारा मुंबई स्थित कबूतरखाने में मकरसंक्रांति के दिन उपचार के लिए लाये जाने वाले पक्षियों पर किये गए अध्ययन में पाया गया था कि भले ही इरादनतन न हो, लेकिन, पतंग उड़ाने के दौरान पतंग के मांजे के कारण पक्षियों को चोट पहुँचती है। अत: बीडब्ल्यूसी के द्वारा इसे रोकने के लिए व्यापक रूप से दो हल प्रचारित किये गये। पतंग उड़ाने के लिए मांजे का प्रयोग न किया जाये। भीड़भाड़ वाले इलाके और पक्षियों की कालोनी से दूर रहकर पतंग उड़ायें। सरकार से भी अनुरोध किया गया कि मकर संक्रांति की छुट्टी घोषित न करें, ताकि, उस दिन कम लोग पतंग उड़ा पायें। बीडब्ल्यूसी की इस मुहीम का सुखद परिणाम वह रहा है कि २००५ की मकर संक्राति के दौरान उपचार के लिए लाये जाने वाले घायल पक्षियों की तादाद में कमी आई। इसका कारण शायद यह है कि अब शायद बहुमंजिला भवनों की गच्ची के बजाय जमीन पर लोग बिना मांजे के पतंग उड़ाते हैं। दुर्भाग्यवश, ऐसा अन्य शहरों में नहीं हो रहा है। चीन के घातक मांजे के बढ़ते प्रयोग के चलते पतंग उड़ाते समय अनजाने में पक्षियों को चोटग्रस्त करने के हादसे बढ़ते जा रहे हैं।
सही मांग पर
पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने कहा है : ‘‘न्यायसंगत हृदय ही सुन्दर चरित्र निर्माण करता है। घर पर संवादिता होने पर अंतत: राष्ट्र में संवादिता का निर्माण होता है। और जब राष्ट्र में शांति होगी, तो विश्व में भी शांति होगी। इस प्रकार, माता—पिता और शिक्षकों के द्वारा बच्चों में आध्यात्मिक परिवेश में न्यायसंगतता का सिंचन करने से शांतिमय विश्व का निर्माण होगा।’’ न्यायसंगतता और जीवन के प्रति आदर साथ साथ चलते हैं। मूलभूत मूल्यों का सिंचन बचपन से ही किया जाना चाहिए। प्रत्येक अवसर पर बच्चों को जीवन में अहिंसक मार्ग का स्पष्टीकरण देना चाहिए, ताकि वे अपने लिए सही रास्ते का चुनाव कर सके। अंत में, पर आखिरी नहीं, २०११ में रीडर्स डाइजेस्ट के द्वारा किये गये सर्वेक्षण में एक प्रश्न था—आपके बच्चों को सर्वप्रथम क्या सीखना चाहिए ? इसके प्रत्युत्तर में चीन, जर्मनी, रशिया सहित सभी देशों से यह प्रत्युत्तर पाया गया कि दयालुता सर्वोपरि होनी चाहिए। परिवार में मंगल अवसर पर, त्यौहार पर या अन्य किसी शुभ—अशुभ अवसर पर प्राणी—पक्षी के लिये संस्थाओं को दान देने की प्रथा कुछेक परिवारों में आज भी जीवित है। हम अपने बच्चों को बचपन से ही संस्कार दें, समय समय पर प्राणी सेवी संस्थाओं को दान देकर अच्छी संस्थाओं की बच्चों के साथ मुलाकात कर संस्थाओं को व बच्चों को प्रोत्साहन दें कि यह कार्य अच्छा है, सहायता करने पात्र है, बच्चे केवल सुनने से नहीं, देखने से सिखते हैं।