यह प्राणी संसार सागर में परिभ्रमण करता हुआ अनेक कष्ट झेल रहा है, कुछ प्राणी हैं, जो इस संसार-सागर से पार होकर स्थायी सुख की खोज में हैं। धर्मों और दर्शनों का उदय यहीं से माना जाना चाहिए। आज संसार में जितने धर्म और दर्शन है कुछेक को छोड़कर प्राय: सभी का उद्देश्य/लक्ष्य दु:खों की निवृत्ति कराकर स्थायी सुख की प्राप्ति कराना हैं। भारत में प्राय: नौ दर्शन पल्लवित-पुष्पित हुए। वेद प्रामाण्य और वेद अप्रामाण्य को बिन्दु बनाकर इन्हें आस्तिक और नास्तिक इन दो भागों में विभक्त कर दिया गया है। चार्वाक, जैन और बौद्ध जहाँ नास्तिकों में परिगणित हैं वहीं सांख्य—योग, न्याय वैशेषिक, मीमांसा — वेदांत आस्तिकों में गिने जाते हैं। बाद के काल में यह परिभाषा असमीचीन हो गई और ईश्वर में आस्था और अनास्था आस्तिक और नास्तिक के विभाजक तत्त्व बने। इस दृष्टि से चार्वाक को छोड़कर बाकी आठ आस्तिक और चार्वाक नास्तिक दर्शन के रूप में जाना गया है। जैन दर्शन / धर्म सभी में इसलिए श्रेष्ठ है क्योंकि उसने जीवमात्र की स्वतंत्रता का द्वार खोला है यहाँ प्रत्येक जीव या आत्मा किसी के अधीन नहीं है, अपने कर्म का कर्ता और भोक्ता वह स्वयं है। सृष्टि को बनाने वाला या सुख-दुख देने वाला कोई ईश्वर नहीं है। सृष्टि अनादि और अनन्त है, जीव अपने कर्मों के अनुसार सुख-दु:ख प्राप्त करता है। यह आत्मा ही अपने गुणों का विकास कर परमात्मा बन सकता है। अनादि निधन जैन धर्म में निश्चय नय से चौबीस तीर्थंकर या मोक्षगामी, सिद्ध पूज्य हैं किन्तु व्यवहार से अन्य देवी-देवता या महापुरुष भी सम्मान के पात्र हैं। तथापि उनकी पूजा तीर्थंकरों के समकक्ष नहीं है। जैन धर्म / दर्शन सम्यव्दर्शन, सम्यव्ज्ञान एवं सम्यव्चारित्र की एकरूपता को मोक्ष का मार्ग निरूपित करता है। आचार्य उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र का पहला सूत्र है ’सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग:’। सिद्धान्तानुसार सम्यव्दर्शन और सम्यव्ज्ञान एक साथ उत्पन्न होते हैं” किन्तु सम्यकचारित्र के संबंध में अनियम है वह कभी दर्शन और ज्ञान के साथ उत्पन्न होता है और कभी कुछ समय बाद भी किन्तु होता दर्शन और ज्ञानपूर्वक ही है। ज्ञान और ज्ञानी की महिमा प्राकृत, संस्कृत और सभी क्षेत्रीय भाषाओं में विशद रूप से वर्णित है। हिन्दी में पं. दौलत राम जी ने छहढ़ाला में लिखा है—
‘ज्ञान समान न आन जगत में सुख को कारण।
इह परमामृत जन्म जरा मृत्य रोग निवारण।।’
कोटि जन्म तप तपैं ज्ञान बिन कर्म जरें जे।
ज्ञानी के छिन मांहि त्रिगुप्ति से सहस टरें जे।।
जैन दर्शन में संशय, विपर्यय आदि से रहित ज्ञान अथवा श्रुतज्ञानावरण के क्षय से होने वाले ज्ञान को श्रुतज्ञान कहा गया है। इसी से मिलता—जुलता शब्द श्रुत केवली है। आत्मा को जानने वाले अथवा सफल श्रुत को जानने वाले अथवा अष्ट प्रवचन मातृका को जानने वाले श्रुतकेवली कहलाते हैं। श्रुत के अधिष्ठाता देव (जिनवाणी) शास्त्र हैं। कहा भी गया है—
‘अरिहन्त भासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सव्वं।
पणमामि भत्तिजुत्तो सुदणाणमहोवयं सिरसा।।
अरिहंत द्वारा भाषित होने से इस श्रुतज्ञान को अरिहंतवाणी, अरहन्त वाणी, जिनवाणी, सरस्वती, भारती, शारदा, श्रुतदेवी वाग्देवी, द्वादशांगवाणी आदि अनेक नामों से अभिहित किया गया है। यथा-‘
प्रथमं भारती नाम द्वितीयं च सरस्वती।
तृतीयं शारदा देवी चतुर्थं हंसगामिनी ।।
पञ्चमं विदुषां माता षष्ठं वागीश्वरी तथा।
कुमारी सप्तमं प्रोक्ता अष्टमं ब्रह्मचारिणी।।
नवमं च जगन्माता दशमं ब्राह्मिणी तथा।
एकादशं तु ब्रहाणी द्वादशं वरदा भवेत्।।
वाणी त्रयोदशं नाम भाषा चैव चतुर्दशम्।
पञ्चदशं श्रुतदेवी षोडशं र्गौिनगद्यते’।।
कोषकारों ने भी सरस्वती के अनेक नामों का उल्लेख किया है। यथा—
‘ब्राह्मी भाषा ब्राह्मणी गौर्गिरागी- र्वाणी वाव् सरस्वत्यपीड़ा।
भारत्युक्ता शारदा शब्द देवी भेद्यधीनं वाङ्मय तद्विकारे।।’ (कोषकल्पतरू:)
‘ब्राह्मी तु भारती भाषा गीर्वाग्वाणी सरस्वती’ (अमरकोष )
‘बुद्धिर्मनीषा धिषणा: धी: प्रज्ञा शेमुषी मति:।।’ (अमरकोष )
जैन साहित्य में द्वादशांगवाणी को ‘सुददेवदा’ (श्रुतदेवता), सुददेवी (श्रुतदेवी) आदि शब्दों से अभिहित किया गया है। महाबंध के मंगल स्मरण में लिखा गया है-
‘बारह अंग गिज्झा वियलियमलमूढ़दंसणुत्तिलया।
विविह वर चरण भूसा पसियदु सुददेवदा सुचिरं।।’
आचार्य नेमिचन्द्र ने श्रुतदेवी का सुंदर रूपक द्वारा चित्रण करते हुए कहा है कि श्रुतदेवी सम्यग्दर्शन को तिलक रूप में धारण करने वाली, सम्यव्चारित्र आदि रत्नत्रयय रूपी वस्त्र को धारण करने वाली है। सरस्वती देवी का आचारांग सिर, सूत्रकृतांग मुख मण्डल, स्थानांग सुन्दर कण्ठ, समवायांग और व्याख्या प्रज्ञप्ति दो सुन्दर भुजाएं ज्ञातृकथांग तथा उपासकाध्ययनांग दो स्तन युगल, अंत:कृतदशांग और अनुत्तरोपपादिकांग सुन्दर नाभि, प्रश्नव्याकरणांग सुन्दर नितम्ब एवं जघन तथा दृष्टिवाद चरण हैं। कहा गया है कि सरस्वती जिनेन्द्र देव द्वारा दृष्ट सभी द्रव्यों और पर्यायों की अधिष्ठात्री देवी है। यह संसार सुख और मोक्ष को देने वाली तथा सभी दर्शनों और मतों के मानने वाले लोगों, विद्याधर आदि से पूजित विश्व की माता हैं। यही जगत् माता हैं। यह हमारी रक्षा करें। प्रतिष्ठासारोद्धार में वाग्वादिनी देवी सरस्वती को भगवती तथा मयूरवाहिनी कहा गया है यथा-
‘वाग्वादिनी भगवती सरस्वती, ह्नीं नम: इत्ययेन मूलमन्त्रेणवेष्टयेत्।
ओं ह्नीं मयूरवाहिन्यै नम:, इति वाग्देवतां स्थापयेत्।।
’जैनागम में चार प्रकार के देवों या उनकी देवियों में श्रुतदेवता या श्रुतदेवी का कोई अलग उल्लेख या स्वरूप नहीं बताया गया है क्योंकि श्रुतदेवता इन सबसे ऊपर हैं वह तो भगवान की दिव्यध्वनि है, जो साक्षात् भवपार लगाने वाली है। आचार्य वीरसेन ने ‘जयदु सुददेवदा’ कहकर श्रुतदेवता/ श्रुतदेवी को एक अलग ही रूप दिया गया है आचार्य पद्मनंदी ने भी इस तथ्य का उद्घाटन किया है। जिनवाणी/ सरस्वती/ वाग्देवी/ श्रुतदेवी को लेकर प्राकृत-अपभ्रंश,संस्कृत, हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं में अनेक सूक्तियाँ पूजायें लिखी गई हैं। जिस प्रकार तीर्थंकर भगवन्तों की प्रतिमायें स्थापना निक्षेप से र्नििमत हुई, उसी प्रकार तीर्थंकर देवों के परिकर रूप में यक्ष-यक्षणियों की मूर्तियों का भी विपुल मात्रा में ही हुआ। वाग्देवी सरस्वती की मूर्तियों का निर्माण अल्प मात्रा में ही हुआ। इसका कारण यह हो सकता है कि सरस्वती किसी तीर्थंकर की परिकर देवी के रूप में चित्रित नहीं की गई है अपितु उसे जिनवाणी/ द्वादशांगवाणी के रूप में अलग सम्मान दिया गया है। संभवत: इसी कारण कुछ मूर्तियो में (जिनका दर्शन आप इसी अंक में करेंगे) सरस्वती की मूर्ति के दोनों ओर उसकी भी परिकर देवियों और ऊपर जिनबिम्ब का अंकन हुआ है। जैन सरस्वती की सबसे बड़ी पहचान है कि उसके हाथ में कमण्डलु अक्षमाला, कमल आदि के साथ सिर पर जिनबिम्ब का और एक हाथ में शास्त्र लेने का अंकन हुआ है। ये दोनों चिह्न पहचान ही जैन सरस्वती को अन्य सरस्वती बिम्बों से अलग करते हैं। वैदिक / जैनेत्तर परम्परा में सरस्वती को वीणा हाथ में लिए हुए तथा हंस पर बैठे हुए दर्शाया गया है। इसीलिए उसे हंसासना, हंसवाहिनी कहा गया है। शारदा आदि नाम तो उसके हैं ही। ऊपर जो भारती आदि नामों का उल्लेख किया गया है प्राय: दो-चार को छोड़कर वही नाम वैदिक सरस्वती के भी मिलते हैं। उसे श्वेत हंसवाहना, श्वेत पद्मासना, वीणावादिनी तो कहा ही गया है। मयूरवाहिनी भी कहा गया है। यद्यपि मयूरवाहिनी सरस्वती का कोई प्राचीन मूर्ति शिल्प उपलब्ध नहीं हो सका है। सरस्वती शब्द का प्रयोग ऋग्देव में भी हुआ है। उसे वाजिनीवली (अन्नोत्पादन वाली देवी) कहा गया है। सरस्वती शब्द की-‘सर्वविषयेषु सरणं गतिरस्या अस्तीति वागधिष्ठात्री देवता’ ऐसी व्युत्पत्ति प्राप्त होती है। आप्टे के अनुसार सरस् शब्द से मतुप् प्रत्यय से सरस्वत् शब्द बनता है।
सरस्वत् शब्द में ङीप् प्रत्यय लगाकर सरस्वती शब्द बना है जिसका अर्थ है वाणी और ज्ञान के अधिष्ठाता देवता।सरस्वती का वर्णन ब्रह्मा की पत्नी के रूप में भी किया गया है। सरस्वती एक नदी के रूप में भी उल्लिखित है जो अब लुप्त हो गई है। सरस्वती शब्द के अन्य अर्थों में गाय, श्रेष्ठ स्त्री, दुर्गा का एक नाम, बौद्धों की एक देवी, सोमलता, ज्योतिष्मती नामक पौधा आदि अर्थ भी हैं। जैन साहित्य के अनुसार भी व्यन्तरेन्द्र गीत रीत की वल्लभिका नं. १ का नाम सरस्वती है। इसी प्रकार विदेहक्षेत्रस्थ तीर्थंकर वङ्काधर की माता सरस्वती है। जैन साहित्य की तरह संस्कृत काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में सरस्वती के शरीर की कल्पना एक रूपक के द्वारा की गई है। काव्यमीमांसा में काव्यपुरूष का निरूपण किया गया है। यहाँ प्राकृत भाषा का भी उल्लेख हुआ है। जैन मूल्यांकन परम्परा में सरस्वती के विभिन्न रूप प्राप्त होते हैं। जैन साहित्य विशेषत: श्वेताम्बर साहित्य में विद्या की सोलह देवियों का निरूपण किया गया है। ज्येष्ठशुक्ला पंचमी को ‘श्रुत पंचमी’ कहा गया है। इस दिन दिगम्बर परम्परा में आचार्य पुष्पदन्त और भूतबली द्वारा श्रुतलेखन का कार्य प्रारम्भ किया गया था इस दिन सरस्वती की विशेष रूप से पूजा होती है किन्तु जिनवाणी को या अन्य किसी आगम ग्रन्थ को उच्चासन पर रखकर उसकी पूजा होती है सरस्वती की मूर्ति की पूजा दिगम्बर परम्परा में प्राय: नहीं देखी जाती न ही मंदिरों में सरस्वती की मूर्ति रखने का विधान है। सरस्वती को जो प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं कुछेक को छोड़कर वे मंदिरों के बाह्य भाग में प्राप्त हुई हैं। मन्दिरों के अन्दर भी वेदी पर उनकी स्थिति नहीं दिखाई गई है प्राचीन जैन र्मूित परम्परा में वीणा हाथ में लिए हुए सरस्वती का अंकन प्राय: नहीं हुआ है। हाथ में शास्त्र और सिर पर जिन प्रतिमा जैन सरस्वती की मूल पहचान है। जैन सरस्वती की मूर्तियाँ खडगासन और पद्मासन दोनों आसनो में मिली हैं। कुछ मूर्तियां त्रिभंग खडगासन में अपनी अलग ही छटा बिखेरती हैं।
सुप्रसिद्ध विद्वान डाँ मारूतिनन्दन तिवारी के अनुसार ‘सरस्वती की प्राचीनतम मूर्ति जैन परम्परा की है, जो मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त हुई और सम्प्रति राज्य संग्रहालय लखनऊ में संग्रहीत है। इसका समय १३२ ई. है। सरस्वती का लाक्षणिक स्वरूप आठवीं शती ई. के बाद के जैन ग्रंन्थों में विवेचित है। जैन शिल्प में यक्षी, अम्बिका एवं चव्रेश्वरी के बाद सरस्वती ही सर्वाधिक लोकप्रिय देवी रही है।’ कंकाली टीले से प्राप्त सरस्वती का सिर खंडित है, चौकोर आसन पर बैठी इस मूर्ति के बांये हाथ में बंधी पुस्तक है, दायां हाथ खंडित है, जिसमें अक्षमाला थी, अक्षमाला के कुछ मोती स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं दोनों कलाईयों पर एक-एक चूड़ी है। दोनों ओर केश सज्जा से युक्त दो उपासक खड़े हैं। लाल पत्थर से निर्मित मूर्ति के नीचे पादपीठ पर ब्राह्मी लिपि में लेख स्पष्ट पढ़ा जा रहा है जिसमें तिथि (१३२) ई. अंकित है। यह समय मथुरा के कुषाण शासक कुविष्क का रहा है। देवगढ़ (ललितपुर-उ.प्र.) के १९वें मंदिर के बाहृय बरामदे के सरदल में सरस्वती की एक प्रतिमा का अंकन है, जिसकी चार भुजायें हैं। इसका समय ग्याहरवीं शताब्दी है। सरस्वती की एक अत्यन्त आकर्षक प्रतिमा लाडनूं (राजस्थान) के दि.जैन बड़ा मंदिर में विराजमान है जो अपनी भाव-भंगिमा के कारण अलग ही छटा बिखेरती है। इसका समय बारहवीं शताब्दी है। श्वेत संगमरमर से बनी यह प्रतिमा एक फलक पर उत्कीर्ण की गई। खडगासन इस प्रतिमा की ऊँचाई लगभग ३.५ फुट है। त्रिभंग मुद्रा में खड़ी मूर्ति के पीछे किरणों से युक्त एक आभा मण्डल दिखाई दे रहा है। सिर पर एक मुकुट है। जिसमें हीरा मोती आदि जड़े हुए प्रतीत होते हैं। पाषाण फलक के बीचों-बीच एक छोटी सी जिनप्रतिमा है, जो इस मूर्ति को सरस्वती की मूर्ति घोषित करती है। कान, गले, तथा कटि भाग में अलंकारों से अलंकृत देवी के ऊपरी दोनों हाथों के पास दोनों ओर उड़ते हुए दो मालाधर उत्कीर्ण हैं। हाथ में माला, कमण्डलु, पुस्तक व कमल हैं। जैनागम के अनुसार उसके चार हाथ प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग तथा चरणानुयोग इन चार अनुयोगों के प्रतीक हैं। नीचे पादपीठ पर लेख हैं, जिसमें सरस्वती शब्द आया है लेख इस प्रकार है- ‘संवत् १२१९ वैशाखसुदी ३, शुक्रवारे श्री माथुर संघे आचार्य श्री अनन्तकीर्ति भक्त श्रेष्ठी बहुदेव पत्नी आशादेवी सकुटुम्ब सरस्वतीम् प्रणमति।।’ ‘शुभमस्तु’।।
राजस्थान के पल्लू (बीकानेर) से दो सरस्वती प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं जिनमें एक राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में सुरक्षित है। त्रिभंग युक्त अत्यन्त कलात्मक इस सरस्वती के हाथ में कमण्डलु, शास्त्र, अक्षमाला और कमल हैं। मुकुट के ऊपर छोटी सी जिनप्रतिमा विराजमान है। चेहरे पर सौम्यता एवं नवयौवन की आभा से युक्त यह मूर्ति आभूषणों एवं वस्त्रोें से सुसज्जित है। पल्लू से ही प्राप्त दूसरी सुन्दर मूर्ति राजकीय संग्रहालय, बीकानेर में प्रदर्शित है। त्रिभंग मुद्रा में खड़ी सरस्वती के हाथों में कमल, शास्त्र, अक्षमाला और कमण्डलु हैं। दोनों ओर चार-चार अन्य देवियों बनी हुई हैं। ऊपर शिरोभाग के दोनों ओर तथा सिर पर तीर्थंकर मूर्तियां विराजमान हैं। उमता, जिला-मेहसाणा (गुजरात) से तथा फतेहपुर सीकरी (आगरा) उ.प्र. से दो खड्गासन सरस्वती देवी की सुन्दर मूर्तियां हाल ही में खुदाई में प्राप्त हुई हैं। इनका समय भी लगभग ११-१२वीं शती है। धार (म.प्र.) की भोजकालीन एक सरस्वती प्रतिमा ब्रिटिश म्यूजियम, लंदन में है। इस प्रकार अनेक जैन सरस्वती मूर्तियों का निर्माण हुआ। ये पाषाण तथा धातु दोनों में ही निर्मित हैं। दक्षिण में कुछ काष्ठ की मूर्तियां भी प्राप्त हुई हैं। राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली की जैन सरस्वती पर विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर १० जनवरी, १९७५ को था विश्व तेलुगु सम्मेलन के अवसर पर १२ अप्रैल १९७५ को भारत सरकार द्वारा डाक टिकट भी जारी किये गये थे। इससे संबंधित ब्रोशर में लिखा है- इस डाक टिकट में वाणी और विद्याओं की अधिष्ठात्री सरस्वती का चित्र राष्ट्रीय संग्रहालय,दिल्ली द्वारा बीकानेर से प्राप्त बारहवीं शताब्दी की चौहानकालीन शिल्पकृति का है।…’ भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के ख्यातनामा अध्यक्ष परम मुनिभक्त, धर्मनिष्ठ श्रावक श्री आर.के.जैन, मुंबई के नेतृत्व में कमेटी ने नये कीर्तिमान स्थापित किये हैं। कमेटी द्वारा प्रकाशित ‘जैन तीर्थवंदना’ में भी निखार आया है। श्री जैन की हार्दिक इच्छा थी कि जैन सरस्वती पर ‘जैन तीर्थवंदना का ‘जैन सरस्वती विशेषांक’ प्रकाशित किया जाय। चर्चा -प्रचर्चा में उन्होंने यह कार्य हमें सौंपा। तदनुसार यह अंक आपके कर-कमलों में हैं। इस अंक में श्रुतदेवी -वाग्देवी -जैन सरस्वती के परिचय के साथ जैन सरस्वती की मूर्तियों के चित्र भी दिये जा रहे हैं। ग्रंथों में द्वादशांग जिनवाणी को सुयदेवदा (श्रुतदेवता) और ‘सुयदेवी’ (श्रुतदेवी) दोनों शब्दों का प्रयोग हुआ है। अत: हमने भी इन दोनों शब्दों का प्रयोग किया है। जैन सरस्वती की मूर्ति के निर्माण की परम्परा प्रचीनतम है। यह बात मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त कुषाणकालीन (दूसरी शती ई.) मूर्ति से सिद्ध होती है। ११-१२ वीं शती के बाद की अनेक जैन सरस्वती की मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। इनमें से कुछ के चित्र इस अंक में दिये जा रहे हैं। हमारी इच्छा थी कि प्रत्येक मूर्ति का विस्तृत परिचय दिया जाता, किन्तु दो – तीन तरह की ही मूर्तियां प्राय: मिलती हैं। प्राय: चार हाथों में कमल, अक्षमाला, शास्त्र तथा कमण्डलु वाली ही र्मूितया हैं। एक दो मूर्तियों के हाथ में वीणा भी है। इस विषय में गहन शोध की आवश्यकता है। आज भी जैन सरस्वती की मर्तियों के निर्माण और स्थापना की परम्परा विद्यमान है। हस्तिनापुर के जम्बूद्वीप तथा कुन्दकुन्द भारती, नई दिल्ली में हाल ही में स्थापित मूर्तियां इसका प्रमाण हैं।