प्रस्तुत आलेख में हमने संक्षेप में जड़ आदि लोक में विद्यमान सभी द्रव्यों के सामान्य— विशेष गुणों—पर्यायों का वर्णन किया फिर रसायन विज्ञान की भाँति पुद्गल पदार्थ का विश्लेषण उनके विशेष गुणों के आधार पर किया ताकि विद्वत्जन पुद्गल द्रव्य पर और अधिक शोध कर सके।जैन दर्शन के अनुसार यह विश्व द्रव्यों की अरचित रचना है। ये छह द्रव्य हैं, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। विश्व में दो प्रकार के जीव हैं। मुक्त जीव अर्थात् वे जीव जो सभी प्रकार के कर्मों से मुक्त होकर लोकाकाश के अग्र भाग में सदैव के लिए स्थापित हो गये हैं, दूसरे संसारी जीव जो चारों गतियों की ८४ लाख योनियों में अपने—अपने कर्मानुसार परिभ्रमण कर रहे हैं। इसी प्रकार पुद्गल द्रव्य भी दो प्रकार के हैं। परमाणु/अणु अर्थात् पुदगल द्रव्य का वह छोटे से छोटा भाग जो पुन: विभाजित न किया जा सके। विज्ञान की भाषा में एक ऋण आवेशीय अथवा एक धन आवेशीय कण, दूसरा स्कन्ध अर्थात् दो या दो से अधिक परमाणुओं का पिण्ड इसमें समस्त सूक्ष्म से लेकर (जैसे विज्ञान का परमाणु) स्थूल इंद्रियगम्य पदार्थ। धर्म द्रव्य जो जीव और पुद्गल को चलने में उदासीन कारण है। अधर्म द्रव्य जो जीव और पुद्गल को रुकने में उदासीन कारण है। आकाश द्रव्य के दो भाग हैं एक लोकाकाश जिसमें शेष सभी पांच द्रव्य रहते हैं, जिसका परिमाप ३४३ घन राजू का है, दूसरा अलोकाकाश अर्थात् एक प्रकार से अनन्त या जिसका कोई माप नहीं इसमें कोई द्रव्य नहीं पाया जाता है। काल द्रव्य के भी दो प्रकार हैं, व्यवहार काल जैसे दिन, रात, घंटे, मिनट, सैकेड तथा दूसरा निश्चय काल अर्थात् सदैव वर्तंना/परिवर्तन करना जिसका स्वभाव है। प्रस्तुत लेख में हम केवल पुद्गल की चर्चा जैनागम तथा आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से करेंगे, जिससे जनसाधारण एवं वैज्ञानिक वस्तु स्वरूप को जानकर अपने कल्याण का मार्ग प्रशस्त कर सके। पुद्गल जैन दर्शन का परिभाषिक शब्द है, विज्ञान की शब्दावली में इसे पदार्थ (Metter of Energy) कहते हैं।
आधुनिक विज्ञान ने इसका वर्णन तरंग यान्त्रिकी में भौतिक विखण्डन (Wave mechanics of quantum theory) के रूप में किया है। ‘पुद्गल’ शब्द की व्युत्पत्ति के विषय में तत्वार्थ राजवार्तिक में कहा है ‘ ‘पूरणद गलानाद पुद्गल इति संज्ञा’। पूरणत का ‘पुत’ और गलयतीति का ‘गल’ मिलकर पुद्गल बना। पूरण या संयुक्त होना संयोजन होना/षट्स्थान पतित वृद्धि होना Fusion/Combination होना और गलन यानि वियुक्त होना/विभाजन होना, षट्स्थान पतित हानि होना, Fission/Disintigration/ Dissociation होना/ आधुनिक विज्ञान में रेडियो एक्टिवता (Radio activity/Radiation Activity)) घटना में अल्फा, बीटा, गामा आदि विकिरणों के द्वारा उत्सर्जन या अवशोषण की क्रियाएँ पूरण और गलन के सटीक उदाहरण हैं।
इस प्रकार विदारण या संयोगदि निमित्तों से जो टूटते—फूटते भी रहते हैं—उपचित होते हैं, उन्हें पुद्गल कहते हैं। ऐसा पुद्गल स्वभाव ज्ञाता जिनेन्द्र ने पुद्गल का यह शब्दार्थ कहा। मेरी दृष्टि से यह पूरण एवं गलन द्रव्यमान तथा ऊर्जा का स्थानान्तरण है, क्योंकि यहाँ पर पूर्व र्विणत सद् द्रव्यं लक्षणम् और उत्पादव्ययध्रौव्ययुत्तं सत्, सूत्र सत्यापित होते हैं। इस प्रकार पूर्व अध्ययन से ज्ञात हुआ कि प्रत्येक द्रव्य अनन्त गुणात्मक है। प्रत्येक गुण की अनन्त पर्याय हैं। इसी प्रकार पुद्गल द्रव्य भी अनन्त गुणात्मक है। प्रत्येक गुण की अनन्त पर्याय है, अत: पुद्गल की सभी पर्यायों का वर्णन सम्भव नहीं है, परन्तु आचार्य उमास्वामी ने मोक्षशास्त्र (तत्त्वार्थ सूत्र) के पाँचवें अध्याय के सूत्र २४ में पुद्गल की १० विशेष विभाव पर्यायों का वर्णन किया है जो ऊर्जा के ही भेद हैं। इन विशेष पर्यायों के भी अनेक भेद—प्रभेद होते हैं, जो मोक्षशास्त्र में इस प्रकार वार्णित है।
शब्द (Sound) बन्ध (Union) सूक्ष्त्व (Fine ness) स्थूलत्व (Grossmen) संस्थान (Figure) भेद (Divisibility), अन्धकार (Darkness), छाया (Shade or Image), आतप (Sunshine), और उद्योत (Moon Light), ।भौतिक विज्ञान की विभिन्न शाखाओं जैसे पदार्थ के सामान्य गुण (General properties of Matter), ऊष्मा (Heat), प्रकाश (Spectroscopy), ध्वनि (Sound waves), तथा इलेक्टेनिक्स आदि, रसायन विज्ञान की शाखाएँ कार्बनिक रसायन, अकार्बनिक रसायन तथा भौतिकी रसायन आदि तथा सूक्ष्म जीव विज्ञान आदि की अनेक शाखाओं में पुद्गल द्रव्य/ मैटर या ऊर्जा का एक अवस्था से दूसरी में पर्याय परिवर्तन हैं।
द्रव्य दृष्टि / सरल या आण्विक दृष्टि से पुद्गल के भेद : द्रव्य दृष्टि से पुद्गल के दो भेद हैं, परमाणु और स्कन्ध (यौगिक या अनेक परमाणुमय पर्याय)। ‘परमाणु जैन दर्शन तथा विज्ञान का परिभाषिक शब्द है। परन्तु दोनों की परिभाषा में बहुत अन्तर है। जैन दर्शन में एक प्रदेश में स्पर्शादि पर्याय को उत्पन्न करने की सामथ्र्य वाले अविभाज्य प्रारंभिक कण Ultimate / Indivisible elementary particle (atom) को परमाणु कहते हैं। परम + अणु अर्थात् पुद्गल का सबसे छोटा भाग जिसका आदि—मध्य—अन्त एक बिन्दु के समान हो या जिसका परिमाप स्वयं में इकाई हो। परमाणु पुद्गल द्रव्य की स्वाभाविक पर्याय है, अभेद (Impenetrable), अदाह्य (Imcubastible), अग्राह्य (Impectrable), अप्रतिघात/अबाधिक अर्थात् किसी भी मोटी दीवार, पर्वत आदि से पार जा सकता है। किसी प्राकृतिक तथा कृत्रिम प्रक्रिया से खण्डित नहीं किया जा सकता। कोई एक वर्ण, एक गंध, कोई एक रस तथा स्पर्श में शीत स्निन्ध (धनात्मक), शीत ऋणात्मक, ऊष्ण—स्निन्ध व ऊष्ण—रुक्ष इन चार युगलों में कोई एक युगल सहित ५ गुण युक्त हो, इंद्रियग्राह्य नहीं, अतीन्द्रिय ज्ञान से जाना जा सकता हो। अपने कार्यों का अंतिम कारण हो, परिणामी हो तथा कुछ ही समय तक स्वतंत्र अवस्था में रह सकता है, उसे परमाणु जानो। पुद्गल के भेद—गोम्मटसार जीवकाण्ड में पुद्गल के छ: भेद इस प्रकार से कहे गये हैं—
१. पृथ्वी, २. जल, ३. छाया, ४. चार इन्द्रियों के विषय (स्पर्श, रस, गंध, वर्ण), ५. कार्मण वर्गणा, ६. महास्कन्ध वर्गणा परमाणु जिन्हें श्री जिनेन्द्र ने छ: प्रकार से र्विणत किया है—
१. बादर बादर (Solids), जैसे लकड़ी, पत्थर, धातु आदि
२. बादर (Liquid) जैसे जल, तेल आदि
३. बादर सूक्ष्म (Visible energies) जैसे छाया, प्रकाश, अन्धकार
४. सूक्ष्म बादर (Ultra visible) जैसे गैस, ध्वनि, वायु आदि
५. सूक्ष्म (Ultra visible matter) जैसे इलेक्ट्रोन, प्रोटोन, वर्गणा
६. सूक्ष्म सूक्ष्म (Extra fine matters which is responsible for thought activities and beyond sence perception) जैसे कार्मण वर्गणा, प्रत्येक शरीर एवं सूक्ष्म निगोद वर्गणा आदि।
पुद्गल द्रव्य के गुण धर्म— स्पर्श रस गन्ध वर्णवन्त: पुद्गल। पुद्गल द्रव्य के स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण गुण धर्म हैं।
इनके विस्तार में जैनाचार्यों ने कहा कि आठ प्रकार के स्पर्श, पांच प्रकार के रस, दो प्रकार की गंध और पाँच प्रकार के रंगों का शास्त्रों में विस्तार से वर्णन किया है, जो संक्षेप में इस प्रकार है—
१. स्पर्श (Touch) : मुदु, कठोर, शीत, ऊष्ण, गुरु, लघु, स्निग्ध, रुक्ष, आठ प्रकार के रस है। छहढ़ाला में अत्यन्त शीत, ऊष्ण के विषय में कहा नरक में मेरु समान लोह गल जाय, ऐसी शीत ऊष्णता थाय।१३ आधुनिक विज्ञान इनके चार विभाग करता है। मृदु—कठोर (कठोरता का मापदंड)
२. गुरु— लघु (घनत्व),
३. शीत— ऊष्ण (तापमान)
४. स्निग्ध— रूक्ष (स्टालाईन, स्ट्रेक्चर, रवा प्रारूप) जैसे क्रमश: अभ्रक—जिप्सम—कोकपिट, प्लोअरस्पार एपेटाईट orthoclase, Felsper (d). Quartz (d) Topaz (d) Corundum (d) D और Dimond ( (हीरा) आदि को वैज्ञानिक कठोरता के मापदंड के रूप में प्रयोग करते हैं।
२. रस (Taste) : तीखा Bitter, जैसे कुनैन, कडुवा जैसे कच्चा अधपका आम फल, मीठा जैसे चीनी, खट्टा जैसे नींबू और कसैला जैसे लाल मिर्च को स्वाद रूप जिव्हा के द्वारा स्वाद मात्र से अनुभव किया जाता है जिसे वैज्ञानिकों ने जिह्वा के भाग पर लैंस द्वारा देखा है, जिसका सम्बन्ध नसों द्वारा मस्तिष्क में जाता है। इनको वैज्ञानिक तत्वों के समायोजन के रूप में करके पाँच भागों में माना है।
३. वर्ण (Colour) : काला, नीला, पीला, श्वेत और लाल पाँच मूल रंग हैं, जिससे हजारों रंग बनाये जा सकते हैं। W. Burton नामक वैज्ञानिक ने बताया कि जब किसी पदार्थ को गर्म किया जाता है। तब सर्पप्रथम इन्प्र रेड विकरण (Intra Red Rediation) निकलते हैं, फिर क्रमश: लाल, पीला, नीला और अन्त में श्वेत रंग का प्रकाश निकलता है। ऑप्टीकल—सोसायटी अमेरिका ने बताया कि ‘रंग एक सामान्य शब्द है, जो संवेदनशीलता के कारण हमारी आँख के रेटिना पर अनुभव किया जाता है। जिन्हें सर्वार्थसिद्धि में कहा है वर्ण: स पंचविध:। कृष्ण नील पीत शुक्ल लोहित भेदात्।
४. गंध (Smell) : सुगंध या दुर्गंध दो भाग है, जिन्हें नाम के द्वारा अनुभव किया जाता है। वैज्ञानिकों ने इलेक्ट्रो—बोलपँक्टरी नामक यंत्र से इनकी न्यूनाधिक क्षमता का अध्ययन किया है। उनका माननना है कि नाक के अंदर के बालों में विशेष प्रकार के (cell) होते है, जो लगभग एक इंच के क्षेत्र में होते हैं। कुत्तों में १० वर्ग इंच तथा शार्क में २४ वर्ग इंच होते हैं। सेना (Military) के कुत्ते गंध द्वारा अपराधी तथा वस्तु की जानकारी इन्हीं बालों के सेल के माध्यम से देते हैं। पर्याय दृष्टि से पुद्गल भेद :
१. समान जाति पुद्गल पर्याय, २. असमान जाति पुद्गल पर्याय।
१. समान जाति पुद्गल पर्याय : (Modification/change of state in simillar type substance) जैसे निर्जीव पुद्गल पर्याय। जड़ पदार्थ जैसे र्इंट, पत्थर, लकड़ी, सोना, चाँदी, भुना हुआ चना आदि पदार्थ जिसमें उर्वरक शक्ति न हो। इसे निर्जीव पुद्गल पर्याय/अचित्त पुद्गल पर्याय भी कह सकते हैं।
२. असमान जाति पुद्गल पर्याय : (Modification/change of states in different type substance) जैसे संसारी जीव अर्थात् एकेन्द्रिय जीव से लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव तक अथवा चारों गतियों के जीव। तात्पर्य यह है कि चारों गतियों के जीव अपनी—अपनी पर्यायों में पौद्गलिक शरीर कार्माण—तेजस शरीर तथा औदायिक शरीर के साथ पर्याय परिवर्तन करते हैं। अर्थात् जीव और पुद्गल साथ—साथ पर्याय परिवर्तन करते हैं। संक्षेप में इस सजीव पुद्गल पर्याय/सविचार पुद्गल पर्याय कह सकते हैं। इसमें निगोदिया (Unicellular living being) जीव, अमीबा आदि से लेकर समस्त एकेन्द्रिय जीव (पेड़—पौधे आदि) तथा दो इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीव (कीट, पतंगे, पशु पक्षी से लेकर मनुष्य तक के शरीर की शारीरिक ग्रंथि, तंत्रिका तन्त्र, मस्तिष्क, D.N.A. R.N.A. जीनोम आदि देव नारकी तक पर्याय के रूप में समझ सकते हैं। जड़—चेतन के तादात्म्य को जीव कहते हैं। ये दो प्रकार से कार्य करते हैं—होना और करना, जैसे बालक, जवान और वृद्ध होना, दिन—रात आदि का होना तथा खाना—पीना आदि क्रियाएं करना। इस प्रकार हमने देखा कि पुद्गल द्रव्य के द्रव्य दृष्टि तथा पर्याय दृष्टि अनेक भेद—प्रभेद हो सकते हैं तथा गुणों की अपेक्षा से तो दोनों के मिल—जुलकर असंख्य भेद—प्रभेद हो सकते हैं। पूर्व से ही हमें ज्ञात है कि प्रत्येक द्रव्य अनन्त गुणात्मक हैं।पुद्गल द्रव्य के लक्षणों का विवेचन—पुद्गल द्रव्य के चार भेद हैं परन्तु इन सबके अलग—अलग संख्यात, असंख्यात और अनन्त भेद होते हैं। जैसे रस में मधुर रस को लें, चावल भी मधुर, केला भी मधुर है, गन्ने का रस भी मधुर हे, गुड़, शक्कर तथा सेकरीन भी मधुर है, परन्तु प्रत्येक के मधुर रस में जो अनुभाग प्रतिच्छेद है उसमें हीनाधिकता है। इसी प्रकार पुद्गल द्रव्य के चारों भेदों में शक्ति—अंश की अपेक्षा के अनन्त भेद—प्रभेद किये जा सकते हैं। वैज्ञानिक चार भेदों का सम्बन्ध हमारी ज्ञानेन्द्रियों आँख, नाक, कान द्वारा तरंग विज्ञान से परिभाषित कर रहे हैं। वे मानते हैं, सारी ज्ञानेन्द्रियाँ यान्त्रिक रूप में विभिन्न तरंग दैघ्र्य की तरंग उत्पन्न करके, मस्तिष्क को भेजकर सारे पौद्गलिक शरीर को क्रियान्वित करके जीव का सुख—दु:ख, जीवन मरण का अनुभव कराती है।
आचार्य उमास्वामी ने इस सम्बन्ध में बड़ा मार्मिक सूत्र दिया है। सुखदु:ख:जीवितमरणोपग्रहाश्च। स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, मूर्तत्व और अचेतनत्व ये पुद्गल द्रव्य के विशेष गुण हैं। बन्ध के हेतुभूत स्निग्ध व रूक्ष गुण पुद्गल का धर्म है। पुद्गल के भेद, परिणमन और विश्व व्यवस्था—जैन आगम के अनुसार प्रत्येक द्रव्य में, प्रत्येक समय सूक्ष्म परिवर्तन परिणमन होता है। यह परिणमन स्वाभाविक और वैभाविक(Unnatural) दो प्रकार का है। पूर्वोक्त के अनुसार धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य सदैव स्वाभाविक परिणमन ही करते हैं परन्तु जीव और पुद्गल इन दोनों द्रव्यों में स्वाभाविक—वैभाविक परिणमन होता है। इसलिए सृष्टि का आरम्भ, विनाश और संचालन इन ही द्रव्यों के परिणमन पर निर्भर करता है।
पुद्गल द्रव्यमूर्तिक होने के कारण हमारी ज्ञानेन्द्रियों (आँख, नाक, कान, जिह्वा और स्पर्श) द्वारा इसका परिणमन प्रत्येक समय अनुभव में आता रहता है।
१. संख्याताणु (Numerable atoms) : जैसे दो या दो से अधिक उत्कृष्ट संख्या से सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण स्कन्ध जो ज्ञानेन्द्रियों से परे हैं अर्थात् किसी यंत्र आदि के माध्यम से भी दिखाई नहीं देते हैं परन्तु अनुभव में आते हैं। जैसे सूक्ष्म स्कन्ध संख्याताणु (वर्गणा आदि) तथा विज्ञान र्विणत परमाणु निहित इलेक्ट्रोन, प्रोटोन आदि मौलिक कण—प्रतिकण।
२. असंख्याताणु (In Numerable atoms) : ये सूक्ष्म स्कन्ध कण भी हमारी ज्ञानेन्द्रियों के परे हैं परन्तु उनके प्रभाव, अनुभव में आते हैं जैसे ८ प्रकार की ग्राह्य वर्गणाएँ जिनका वर्णन आगे हैं आदि किरणें तथा विद्युत—चुम्बकीय किरणें और गुरुत्वाकर्षण बल इत्यादि।
३. अनन्ताणु (Infinite atoms) : वे सूक्ष्म, स्थूल कण / स्कन्ध जो सामान्य रूप से अनुभव में आते हैं जैसे पूर्व र्विणत में शब्द, बन्ध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान आदि। वैज्ञानिक दृष्टि से विभिन्न प्रकार की ऊर्जायें जैसे ताप, प्रकाश, विद्युत आदि। प्राय: दैनिक जीवन में पुद्गल द्रव्य तीन रूपों / अवस्थाओं में दृष्टिगोचर होते हैं।
१. प्रयोग परिणत : ऐसे पुद्गल जो जीव द्वारा ग्रहण किये गये हैं व प्रयोग परिणत हैं। जैसे जीव के भौतिक शरीर में इंद्रियाँ, रक्त कर्माण, तेजस आदि वर्गणाएँ।
२. मिश्र परिणत : ऐसे पुद्गल जो जीव द्वारा परिणत होकर पुन: मुक्त हो चुके हैं जैसे मृत शरीर, नाखून, बाल निर्झरित वर्गणाएँ।
३. वैस्त्रसिक परिणत : ऐसे पुद्गल जिनमें जीव सहायक नहीं हैं और जो स्वयं परिणत हैं, उन्हें विस्त्रसा परिणत / स्वभाव प्रतिपात कहते हैं। जैसे प्राकृतिक मौसमों में बादल, इन्द्र, धनुष, ओस आदि। इस प्रकार स्वाभाविक परिवर्तन की दृष्टि से विश्व स्वयं संचालित है, परन्तु वैभाविक परिवर्तन की दृष्टि से विश्व जीव और पुद्गल के संयोग—वियोग से प्रजनित विविध परिणतियों द्वारा संचालित है। सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें तो हमने देखा अमूर्त जीव द्रव्य के गुण—पर्याय तथा मूर्त पुद्गल द्रव्य के गुण—पर्याय बिल्कुल अलग—अलग हैं। अनादिकाल से इस जीव ने पुद्गल द्रव्य को अपना माना, जाना और अपना बनाने की कोशिश की जो तीन काल में सम्भव नहीं है। ऐसा हो भी नहीं सकता क्योंकि ऐसी प्राकृतिक व्यवस्था है, सरल शब्दों में जैसे मरणोपरान्त यह जीव एक सुंई की नोक भी अपने साथ नहीं ले जा सकता। यही इस जीव का अपराध है। इसी अपराध की सजा अनन्त संसार है। जीव पुद्गल को प्रभावित करता है और पुद्गल जीव को। अत: इन दोनों में स्वाभाविक तथा वैभाविक दोनों प्रकार के परिवर्तन होते हैं। दृश्य जगत जो है वह पौद्गलिक है किन्तु इनका निमित्त जीव है। जितने भी पुद्गल द्रव्य हैं वे या तो जीव के शरीर रूप परिणत हैं या हो चुके हैं। प्रयोग परिणत पुद्गल सबसे कम हैं, मिश्र परिणत पुद्गल अनन्त गुणे हैं और उनसे अनन्त गुणे विस्त्रसा परिणत पुद्गल हैं। आचार्यों ने कहा कि वस्तुओं और उसके गुण—पर्यायों का ज्ञान दोष नहीं यह जीव का स्वभाव है, प्रत्युत वस्तुओं में राग—द्वेष होना दोष है। आगे कहते हैं कि मूर्त—अमूर्त सभी द्रव्यों का आविष्कार अमूर्त जीव ही करता है।
पुद्गल परमाणु का स्वभाव—परमाणु का स्वरूप समान होने पर भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव (गुण), गति (श्दूग्दह) तथा पर्यायों आदि की अपेक्षा से परमाणु का स्वरूप अनन्त प्रकार का हो सकता है। जिन सबका वर्णन सम्भव नहीं है। द्रव्य की अपेक्षा स्पर्श, रस, गंध और वर्ण वाला है, क्षेत्र की अपेक्षा एक प्रदेश वाला है, इसके प्रदेश शेष समस्त द्रव्यों के प्रदेश पाये जाते हैं, काल की अपेक्षा एक काल में एक रस, एक वर्ण, एक गंध और परस्पर बाधा नहीं करने वाले दो स्पर्शों को धारण करता हुआ काल के परिवर्तन से स्पर्शादि सभी गुणों में परिवर्तन होता है। अभेद्य है, शब्द धारण करता हुआ काल के परिवर्तन से स्पर्शादि सभी गुणों में परिवर्तन होता है। अभेद्य है, शब्द रहित है परन्तु शब्द का कारण है। इसकी परिणमन शीलता को षडगुण हानि वृद्धि से समझा जा सकता है। जब शेष सभी द्रव्य अनन्त—गुणात्मक अनन्त धर्मात्मक हैं तो पुद्गल परमाणु भी अनन्त धर्मात्मक गुणात्मक हैं।
१. द्रव्य परमाणु (Primary unit of matter of energy) जैसे विभिन्न प्रकार के परमाणुओं का भार।
२. क्षेत्र परमाणु (Primary unit of space)
३. काल परमाणु (Primary unit of time)
४. भाव परमाणु (Primary unit of strength of degree)
१. किसी बाह्य निमित्त के अभाव में परमाणु की गति अनुश्रेणी (linear motion)होगी।
२. बाह्य निमित्त के प्रभाव से दिशा तथा वेग में अन्तर जा सकता है।
३. जीव का परमाणु की गति पर कोई प्रभाव नहीं होता।
४. वेग एक समय में चौदह राजू अर्थात् लोक के एक सिरे से दूसरे सिरे तक का गमन।
५. परमाणु का निष्क्रिय अवस्था का अधिकतम काल ‘असंख्यात समय’ तथा सक्रिय अवस्था में अधिकतम काल ‘आवलिका के संख्यातवां अंश जितना भी होगा।
इस प्रकार निष्क्रिय परमाणु असंख्यात समय के बाद अवश्य सक्रिय होगा तथा सक्रिय परमाणु आवलिका के असंख्यातवें अंश के बाद निश्चित रूप स्थिर होगा। स्थिर परमाणु, किस दिशा में, किसी प्रकार वेग कर सकता है। अर्थात् कम्पन या धूर्णन (Rotation) या किसी भी प्रकार की क्रिया प्रारम्भ कर सकता है। इसी प्रकार सक्रिय परमाणु भी न्यूनतम, मध्यम या तीव्रतम किसी भी वेग से गति कर सकता है, अनियत है। अब से कुछ वर्षों तक विज्ञान के परमाणु में विद्यमान प्रारंभिक कणों जैसे इलेक्ट्रोन, प्रोटोन, न्यूट्रोन आदि का भौतिक तथा रसायन विज्ञान में प्रयोग किया जाता रहा परन्तु आज जैविक प्रौद्योगिकी (Bio technology) में क्वांटम भौतिकी और रसायन शास्त्र की सभी शाखाओं का बहुत बड़ा महत्व हो गया है, जिससे विज्ञान प्रारम्भिक कणों का गति माध्यम, स्थिति माध्यम, लोकाकाश और काल के निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध बन गया है। इस अपेक्षा से जैन दर्शन के पुद्गल परमाणु का बहुत अधिक महत्व हो गया है।
आधुनिक विज्ञान (Electronic Theory of Valencies) में परमाणुओं की संघात की तीन विधि बताई गई है।
१. अणुओं का इलेक्ट्रोवेल्ट संघात आयनीकरण से ठोस अवस्था के अकार्बनिक क्षारों के इलेक्ट्रोवेल्ट यौगिकी के रूप में होता है।
२. परमाणु, स्थित्व प्राप्त करने के लिए इलेक्ट्रोन्स को ग्रहण करते हैं जैसा कि कार्बनिक यौगिकों में पाया जाता है।
३. परमाणु इलेक्ट्रोन देकर भी स्थायित्व प्राप्त करते हैं। इस प्रकार आधुनिक तरीके से परमाणुओं का आदान तथा प्रदान व दोनों आदान—प्रदान इकट्ठा भी होता है।
परमाणुवीय विखंडन (विज्ञान अनुसार) की चार विधियाँ है—
१. द्रव में अणुओं को आयनीकरण द्वारा अलग करना।
२. उच्च ताप के द्वारा हाइड्रोजन के परमाणु को हीलियम, लीथियम तथा बेरियम आदि अनेक तत्वों में परिर्वितत किया जा सकता है।
३. उच्च दाब द्वारा अलग करना।
४. परमाणुवीय विखंडन इलेक्ट्रोन—प्रोटोन की संख्याओं का वियुक्त होने से पुद्गल में एक अवस्था से दूसरी अवस्था में परिवर्तन स्वयं भी होता है और कृत्रिम विधि द्वारा भी किया जाता है जैसे चित्र में दर्शाया गया है कि यूरेनियम तथा सीसे में परिवर्तन रेडियोऐक्टिव परिवर्तन है।
भूगर्भीय अनुसंधान से ज्ञात हुआ है कि पृथ्वी की चट्टानों में रेडियोएक्टिव विखंडन से अल्फा — बीटा आदि किरणें निकलती रहती हैं क्योंकि इनमें निश्चित मात्रा में यूरेनियम होता है और अन्त में सीसा बच जाता है वास्तव में इस क्रमिक विलगीकरण द्वारा यूरेनियम तथा सीसे के अनुपात से किसी चट्टान की आयु का अनुमान लगाया जाता है। इससे ज्ञात होता है कि परमाणुवीय कणों का निर्माण इलेक्ट्रोन, प्रोटोन, न्यूट्रोन के ‘संघात’ से होता है।
पृथग्भूतानामेकत्वापत्ति: संघात:। पृथम्भूतानामेकत्वापत्ति:‘भेद’
और संघात दोनों के स्कन्ध की उत्पत्ति होती है।
भेदसंघाताम्यामेक समयिकाभ्यां द्वि प्रदेशाय:
स्कन्धा उत्पद्यन्त। अन्यतो भेदेनान्यस्य संघातेनेति।।
अर्थात् अणुओं के दो प्रदेशों के मिलने— बिछुडने से स्कन्ध की उत्पत्ति होती है। जैसा कि गैसों में आयनीकरण होता है। गैसों के आयनीकरण में वास्तव में एक इलेक्ट्रोन गैस के उदासीन परमाणु से निकलकर जाता है तो घनात्मक आयन बनता है तब वह तुरन्त दूसरे उदासीन परमाणु से जुड़ जाता है तो ऋणात्मक आयन बन जाता है इस प्रकार धनात्मक—ऋणात्मक आयनों का निर्माण होता रहता है। इससे ज्ञात होता है आयनीकरण का सिद्धान्त कोई नया नहीं है बल्कि अत्यन्त प्राचीन है।
परमाणु की उत्पत्ति का कारण— जिस प्रकार स्कन्ध की उत्पत्ति भेद से, संघात से तथा भेद—संघात दोनों से होती है। इसी प्रकार परमाणु की उत्पत्ति केवल भेद से ही होती है, न संघात से होती और न भेद संघात होती है। सर्वार्थ सिद्धि से भी इसकी पुष्टि की है।अणोरुत्पत्तिर्भेदादेव, न संघातान्नापि भेद संघाताभ्यामिति।।पूर्व में कहा कि विज्ञान परमाणु, बिन्दु के आकार का एक स्निग्ध (धनात्मक आवेशित जैसे निआन के परमाणु में पोजीट्रान) गुण, एक रूक्ष (ऋणात्मक आवेशित इलेक्ट्रोन) गुण वाला है, इन्द्रिगम्य नहीं, अतीन्द्रिय गम्य है। इस सम्बन्ध में मियागम विश्वविद्यालय—अमेरिका के प्रसिद्ध वैज्ञानिक C.L. Ritz and L.S. Bartell k कहते हैं आज तक कोई ऐसा यन्त्र नहीं बना (जैसे इलेक्ट्रोनिक माइक्रोस्कोप जो परमाणु कण स्कन्ध के पचास करोड़वे भाग को दिखाने की क्षमता तो रखता है परन्तु निओन और आर्गन आदि गैसों के परमाणु का फोटो उतारने सक्षम नहीं हो सका) जो विज्ञान के परमाणु में अर्थात् इलेक्ट्रोन, प्रोटोन आदि कणों के पिड (स्कन्ध) को दिखा सके, तो फिर जैन दर्शन में र्विणत परमाणु को दिखाने का तो प्रश्न ही नहीं होता। इससे ज्ञात होता है चाक्षुष स्कन्ध का निर्माण भेद और संघात से होता है।
अनन्तानन्त परमाणुओं से उत्पन्न होकर भी कोई स्कन्ध चाक्षुस और अचाक्षुस होता है। इसका अर्थ यह है कि सूक्ष्म स्कन्ध से कुछ अंश अलग होने पर भी उसने सूक्ष्मता का परित्याग नहीं किया है तो स्कन्ध अचाक्षुष ही बना रहता है। सूक्ष्म परिणत पुन: दूसरा स्कन्ध उसका भेद होने पर भी अन्य के संघात से सूक्ष्मता का परित्याग करके स्थूलता को प्राप्त हो जाता है तब चाक्षुष हो जाता है अर्थात् आँखों से दिखने लगता है। कोई भी गतिशील परमाणु जब उच्च रुक्षता (ऋणात्मक) की चरम सीमा में पहुँच जाता है, तब उसकी गति निम्न रुक्षता परमाणु की गति से स्वत: कम हो जाती है। इसलिए उत्कृष्ट रुक्षता वाले परमाणु की गति निम्न तक होती है। स्नेह गुण (धनात्मक) गति में सहायक होता है और रुक्षागुण अवस्थिति में स्निग्ध और रुक्ष गुण परमाणु स्वत: बदलते रहते हैं। जब परमाणु जिस रूप में परिणत होता है तब वह तदनुरूप ही क्रिया करता है।
परमाणु के भेद : नयचक्र वृत्ति में आचार्यों ने परमाणु के दो भेद बतायें हैं— कारणरुवाणु, कज्जरूवोवा। कारण रूप और कार्य रूप—जो (पृथ्वी, जल, तेज और वायु) इन चार धातुओं का हेतु है वह कारण रूप परमाणु जानना तथा स्कन्धों के अवसान को (पृथक् हुए अविभागी अन्तिम अंश के) कार्य रूप परमाणु जानना। पंचास्तिकाय तात्पर्य वृत्ति के अनुसार परमाणु के भेद द्रव्य परमाणु एवं भाव परमाणु २ भेद हैं—द्रव्य परमाणुं भाव परमाणुं। द्रव्य परमाणु से द्रव्य की सूक्ष्मता और भाव परमाणु से भाव की सूक्ष्मता कही गयी है। उसमें पुद्गल परमाणु का कथन नहीं है। योडसो स्कन्धानां भेद को भणित: सकार्य परमाणु रुच्यते यस्तु कारक स कारणंपरमाणुरिति। स्कन्धों के भेद को करने वाला परमाणु तो कार्य परमाणु है और स्कन्धों का निर्माण करने वाला कारण परमाणु है, अर्थात् स्कन्ध के विघटन से उत्पन्न होने वाला परमाणु और जिन परमाणुओं के मिलने से कोई स्कन्ध बने, वे कारण परमाणु है। वही (कारण परमाणु), एक गुण स्निग्धता या रूक्षता होने से सम या विषम बन्ध को अयोग्य ऐसा जघन्य परमाणु है—ऐसा अर्थ है। एक गुण स्निग्धता या रुक्षता के ऊपर दो गुण वाले और चार गुण वाले का सम्बन्ध होता है, तथा तीन गुण का और पांच गुण वाले का विषम बन्ध होता है—यह उत्कृष्ट परमाणु है। वास्तव में स्कन्धों के समान परमाणु भी पूरते (पूरण) हैं और गलते हैं। इसलिए पूरण—गलन क्रियाओं के रहने से वे भी पुद्गल के अंतर्गत हैं, ऐसा दृष्टिवाद अंग में निर्दिष्ट है। जैसे रसायन विज्ञान में हाईड्रोजन गैस के परमाणु तथा क्लोरीन गैस के परमाणु दिखाई नहीं देते परन्तु दोनों के दो—दो परमाणु मिलकर नमक का तेजाब बनाते हैं, जो नेत्रों से दिखाई देता है। मर्हिष कणाद कहते हैं कि द्रव्य की दो स्थितियाँ है।
एक आणविक (परमाणुवीय) ओर दूसरी महत् (स्कन्ध) द्रव्य क्या है ?पृथिव्यायस्ते जोवापुराकाशं कालोदिगात्मा मन इति द्रव्याणिवे कहते हैं पृथ्वी माने द्रव्य ठोस रूप, जल यानि द्रव रूप तथा वायु रूप। आगे कहते हैं तेज भी द्रव्य है। २०वीं सदी में पदार्थ—ऊर्जा के रूप है, आकाश भी द्रव्य है परमाणु रहित है इसके लिए घटाकाश, महाकाश, हृदयाकाश आदि शब्दों को प्रयोग करते हैं। इनके मत में मन और आत्मा भी द्रव्य है, गतिशील है परिमण्डलाकार स्थिति में है। नित्यं परिणमण्डम३३ दिक् तथा काल भी द्रव्य है। ब्रह्म सूत्र में कहा है कि—महद् दीर्घ यद्वा हृस्व परिमण्डलाभ्याम्अर्थात् महद से हृस्व तथा दीर्घ की भाँति परिमण्डल बनते हैं। परमाणुओं से सृष्टि की प्रक्रिया के विषय में कणाद कहते हैं कि पाकज क्रिया। पीलुपाक क्रिया के द्वारा अर्थात् अग्निताप के द्वारा परमाणुओं का संयोजन होता है तो दो परमाणु मिलकर एक द्विय अणु, तीन मिलकर एक त्रयणुक इस प्रकार स्थूल पदार्थों का निर्माण होता है।
वे कुछ समय रहते हैं। बाद में पुन: उनका क्षरण होता है और मूल रूप में लौटते हैं। इस प्रकार परमाणु को अंतिम तत्त्व मानते हुए, परमाणु के लिए पलिव: शब्द का प्रयोग किया। सर रदरफोर्ड कहते है कि ‘परमाणु एक क्रिकेट की गेंद की तरह ठोस नहीं है बल्कि सोल सिस्टम की तरह है।’ जैसे भौतिकी में ताप नामक ऊर्जा संचात्मक पदार्थों में, संचालन, संवाहन विधि से कार्य करती है। इसका युक्तियुक्तपूर्वक विश्लेषण तथा अनुभव के साक्ष्य के साथ वेदांत ने कहा कि ‘मूलभूत ज्ञान शक्ति सूक्ष्म परमाणु से लेकर संपूर्ण ब्रह्माण्ड तक का नियमन कर रही है। यद्यपि जैन आगम, विज्ञान तथा वैदिक आदि दर्शनों में र्विणत परमाणु की परिभाषा में विशेष अंतर नहीं है, परन्तु स्वरूप परिभाषा में बहुत अंतर है। इस दृष्टि से जैनाचार्यों ने परमाणु के दो भेद बताये हैं। सूक्ष्म परमाणु और व्यवहार परमाणु। भार रहित परमाणु का पूर्वोक्त स्वरूप सूक्ष्म परमाणु का है। व्यवहारिक परमाणु का विश्लेषण करते हुए कहा व्यवहारिक परमाणु अनंत परमाणुओं के समुदाय से बनता है। वस्तुत: वह स्वयं भार सहित परमाणु है,पिंड साधारण दृष्टि से ग्राह्य नहीं होता। जैसे विज्ञान तथा अन्य दर्शनों में। इस प्रकार भार रहित सूक्ष्म परमाणु तथा भार सहित व्यवहारिक (अणु) की चर्चा केवल जैन दर्शन में उपलब्ध है।
परमाणु का विशेष विवेचन— गति संबंधी नियम जो और ने स्वीकार किये वे केवल स्थूल पदार्थों पर ही लागू होते हैं। ये नियम सौरमण्डल के नक्षत्रों तथा परमाणु के भीतर के कणों पर लागू नहीं होते हैं। जैसे थर्मामीटर से एक गिलास पानी का तापमान तो ज्ञात कर सकते हैं, परन्तु दो बूंद पानी का नहीं। इस प्रकार बहुत लम्बे समय बाद जर्मन वैज्ञानिक हाइजन वर्ग ने ‘अनिश्चितता का सिद्धान्त’ के माध्यम से बताया कि परमाणु तथा सौरमण्डल स्तर पर होने वाली घटनाएं, परिवर्तन और गति, स्थूल पदार्थ की भाँति नहीं और स्थूल प्रयोगों के द्वारा नहीं जानी जा सकती। उन्होंने आगे कहा कि परमाणु तथा सौरमण्डल के नक्षत्रों के विषय में जानने के लिए परमाणु अथवा सौर मण्डल आकार के उपकरण होना चाहिए जो कभी संभव नहीं है। अत: सार यह है कि हमें सर्वज्ञ/केवली की वाणी पर श्रद्धा और विश्वास करना होगा। अति सूक्ष्म दृष्टि से आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार में परमाणु के दो भेद बताये हैं। एक कार्य परमाणु, दूसरा कारण परमाणु, इस सम्बन्ध में वैज्ञानिकों का मत है। कार्य परमाणु (पॉजीट्रोन) हमेशा कारण (इलेक्ट्रोन) के साथ रहता है। तात्पर्य है कि बिना कारण के कोई कार्य सम्पन्न नहीं होता है।
स्कन्ध (malecab) — दो या दो से अधिक परमाणुओं के समूह को स्कन्ध कहते हैं। जैसे वर्गणाओं सूक्ष्म तथा स्थूल पदार्थ जैसे ऊर्जा के भेद, प्रभेद आदि। जिनका वर्णन द्रव्य संग्रह नामक ग्रंथ में आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धांतचक्रवर्ती द्वारा इस प्रकार किया गया है। पुद्गल स्कन्ध के भेद दार्शनिक एवं वैज्ञानिक दृष्टि से—दो से अधिक परमाणुओं के समूह को स्कन्ध कहते हैं,जैसे वर्गणाएं, सूक्ष्म तथा स्थूल पदार्थ जैसे ऊर्जा तथा ऊर्जा के भेद, प्रभेद आदि। जिनका वर्णन द्रव्य संग्रह नामक ग्रंथ में आचार्य नेमिचन्द सिद्धांतचक्रवर्ती ने भी इस प्रकार किया है।
शब्द बधं — सौक्षम्य स्थौदय — भेद तमच्छाया तपोद्योतवन्तश्चसद्दो
बंधो सुदुमो थूतो संठाण—भेद—तम—छाया।
अज्जोदादवसहिया पुग्गल दव्यस्स पज्जया।।
शब्द :— शब्द, बन्ध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, तम, छाया, उद्योत और आतप इनके सहित जो है, वे सब पुद्गल द्रव्य का पर्याय है।
वैज्ञानिक दृष्टि से मौलिक परमाणु कण
मौलिक अणु क्रम के तीन वर्ग हैं : क्वार्कस, लेपटोन्स और गेज बोसंस।
१. क्वार्वस के १२ प्रकार हैं— ऊपर, नीचे, आकर्षण, विचित्र, शिखर, तल और इनमें से प्रत्येक के विपरीत अणु। ये सब मिलकर तीन वर्ग बनाते हैं और बेरीओंस नामक भारी अणु कण की रचना करते हैं। दो वर्ग मिलकर मध्यम भार वाले मेसंस नामक अणु कणों को बनाते हैं। उन पर और उनके सामूहिक अणु कण पर शक्तिशाली परमाणु बल काम करता है।
२. लेपटोन्स हल्के अणुकण होते हैं। इनके भी १२ प्रकार हैं— इलेक्ट्रान मुओन, टो तथा इनके न्यूट्रीनो—इलैक्ट्रान न्यूट्रीनो, मुओन न्यूट्रीनो और टो न्यूट्रीनो और इनमें से प्रत्येक के विपरीत अणुकण/इन अणुकणों पर मन्द परमाणु बल का प्रभाव होता है।
३. गेज बोसंस : ये दूसरे अणुओं में शक्ति ले जाने का कार्य सम्पादित करते हैं। ये चार प्रकार के होते हैं—ग्लुओन, फोटोन, वीकोन तथा ग्रैवीटोन। ग्लूओन शक्तिशाली परमाणु बल के वाहक है। फोटोन विद्युत चुम्बकीय तथा वीकोन मन्द परमाणु बल तथा ग्रैवीटोन गुरुत्वाकर्षण बल के वाहक हैं। मौलिक परमाणुओं के प्रकारों की संख्या २०० है। जैसे कि प्रत्येक परमाणु का अपना स्वाद (पाँच स्वादों में एक), अपना विशेष रंग (पांच रंगों में एक), अपनी विशेष गंध (दो गंधों में एक) अपनी विशेष चार्ज शक्ति (सकारात्मक / धनात्मक एवं नकारात्मक / ऋणात्मक) और अपना विशेष ताप संबंधी स्पर्श (ठण्डा या गर्म) होता है।
इस प्रकार हमारे पास 5 x 5 x 2 x 2 x 2 = 200 समूह हुए। इस विखण्डन से कुल ऊर्जा २०१ मेगा इलेक्ट्रोन—बोल्ट निकली। एक ग्राम अणु ळ२३५ के विखण्डन से औसत र्२ े १०७ किलो वैलोरी ऊर्जा प्राप्त होगी। इस ऊर्जा का प्रयोग विद्युत शक्ति पैदा करने के लिए किया जाता है। इस घटना से ‘गुण पर्याय वद्द्रव्यम् ’ ‘सदद्रव्यलक्षणाम्’ और ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुत्तं सत्’ की पुष्टि होती है।
विश्व में केवल पुद्गल द्रव्य ही रूपी (रुपिणा: पुद्गला) है, मूर्त (स्पर्श, रस, गंध, वर्ण) गोल त्रिकोण है, लम्बाई चौड़ाई सहित साकार हैं। इन्द्रिय गम्य हैं। शेष सभी द्रव्य अमूर्त हैं। तत्वार्थ सूत्र (मोक्ष शास्त्र) के पांचवें अध्याय में पुद्गल द्रव्य का विशेष वर्णन है, जो आधुनिक विज्ञान का मूल आधार है। इसलिए धर्मात्माओं, दार्शनिकों, वैज्ञानिकों आदि सभी के लिए जड़—मूर्त—पुद्गल को जानना अत्यन्त सरल एवं जीवनोपयोगी है। अत: प्रस्तुत आलेख में पुद्गल के स्वरूप की चर्चा की गई है।
१. स्वतन्त्रता के सूत्र— मोक्ष शास्त्र टीका, लेखक व समीक्षक—वैज्ञानिक धर्माचार्य श्री कनकनन्दी, धर्म, दर्शन, विज्ञान शोध संस्थान, बड़ौत (बागपत), १९९२
२. ब्रह्माण्डीय जैविक, भौतिक एवं रसायन विज्ञान, वैज्ञानिक धर्माचार्य श्री कनकनन्दी, धर्म दर्शन, विज्ञान शोध संस्थान बड़ौत , उदयपुर, २००४
३. तत्वार्थसार— आचार्य अमृतचन्द्र, हिन्दी टीका सम्पादन मुनिश्री अमित सागर, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ल, २०१०
४. विश्वद्रव्य विज्ञान— (द्रव्य संग्रह), लेखक एवं समीक्षक उपाध्याय कनकनन्दी, धर्म, दर्शन, विज्ञान, शोध प्रकाशन, बडौत (बागपत), ग्रन्थाक—७४, १९९६
५. पूर्णाघ्र्य (जैन ज्ञान कोश) प्रमुख सम्पादिका ब्र. सुमति बाई शाह, पी. एस. विद्यापीठ ट्रस्ट, बुधवार पैठ, सोलापुर, वीर निर्वाण संवत् २५०४।
६. षट् द्रव्य की मीमांसा, डॉ. नारायणलाल कछारा, डॉ. देवेन्द्र राज मेहता, प्राकृत भारती अकादमी १३—ए, गुरु नानक पथ, मेन मालवीय नगर, जयपुर, २००४
७. गोम्मटसार जीवकाण्ड, आचार्य नेमिचन्द सिद्धान्तचक्रवर्ती, सम्पादक : ब्रह्मचारी खूबचन्द्रजी, प्रकाशक, श्री मद् राजचन्द आश्रम, अगास, १९५९ ८. छहडाला, पंडित दौलतराम
९. कास्मोलोजी ओल्ड एवं न्यू : जी. आर. जैन, भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली, १९९१
१०. व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र, भाग—२ समालोचक तथा प्रधान सम्पादक (स्व.) युवाचार्य श्री मिश्रीमल जी महाराज ‘मधुकर’प्रकाशक:श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राज.) १९८५
११. योगसार प्रामृत, आ. अमित गति, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, १९९८
१२. अननत शक्ति सम्पन्न परमाणु से परमात्मा तक, वैज्ञानिक धर्माचार्य कनक नन्दी, धर्म—दर्शन, विज्ञान शोध संस्थान बड़ौत/उदयपुर, ग्रथांक ११८, २००४
१३. नय दर्पण, श्री जिनेन्द्र वर्णी, श्री जिनेन्द्र वर्णी ग्रंथमाला, पानीपत, २००२
१४. जैनेन्द्र सिद्धांत कोष (भाग ३), क्षु. जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली।
१५. जैन धर्म में विज्ञान, सम्पादक डॉ. नारायणलाल कछारा, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, २००६
१. स्वतन्त्रता के सूत्र, अ. ५, सूत्र ५, २३
२. ब्रह्माण्डीय जैविक, भौतिक एवं रसायन विज्ञान, (५/५) पृ. ५७
३. तत्वार्थसार, तृतीय अधिकर, सूत्र ५५
४. स्वतन्त्रता के सूत्र (मोक्षशास्त्र), अध्याय ५, सूत्र २३ से २५, पृ. ३०८ से ३११ तक
५. विश्व द्रव्य विज्ञान, पृ. ११३ ६. पूर्णाध्र्य, पृ. ४२६ से ४२९
७. षट्द्रव्य की वैज्ञानिक मीमांसा, पृ. ४० से ४३ तक
८. योगसार प्राभृत, अजीव अधिकार, गा. ३
९. तत्वार्थ सूत्र, अ. ५, सूत्र २६
१०. ब्रह्माण्डीय जैविक, भौतिक एवं रसायन विज्ञान, पृ. १५०
११. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा नं. ६०२, ६०२
१२. पूर्णाध्र्य, ४२५, ६६९
१३. स्वतंत्रता के सूत्र, अ. ५, सू. २३, पृ. ३०८
१४. छहडाला, पंडित दौलतराम
१५. कास्मोलोजी, ओल्ड एण्ड न्यू, पृ. १२२
१६. वही, पृ. १२४
१७. सर्वार्थ सिद्धि, ५, २३ १७.तत्वार्थ सूत्र, अ.—५, सू १९
१८. स्वतंत्रता के सूत्र अ. ५, सूत्र २०, १९, ५/२०
१९. व्याख्या प्रज्ञप्ति, सूत्र भाग पृ. २०८
२०. षट्द्रव्य की मीमांसा, पृ. ४३, ४४
२१. वही, पृ. ३८
२२. कास्मोलोजी ओल्ड एवं न्यू, पृ. ८, ९, ११
२३. वही पृ. १३२, ४२
२४. सर्वार्थसिद्धि, सूत्र ५, २६
२५. स्वतंत्रता के सूत्र, पृ. ३१८, ३१९
२६. कास्मोलोजी ओल्ड एवं न्यू, पृ. १३८
२७. सर्वार्थ सिद्धि, ५, २७
२८. स्वतंत्रता के सूत्र, पृ. ३१९
२९. नयचक्र वृ. १०१, प्र. सा. १ ता. वृ. ८०/१३६/१८
३०. नियमसार तात्पर्यवृत्ति, १२५
३१. पंचास्तिकाय तात्पर्यवृत्ति, १५२/२१९/१६
३२. नियमसार तात्पर्यवृत्ति, १२५
३३. नियमसार तात्पर्यवृत्ति, १३५ ३३. वैदिक दर्शन १/५ ३३. वही ७/२० ३३. ब्रह्म सूत्र, २-२-११
३४. तिलोयपण्णत्ती गाथा १/९९-१०० ३५. अनन्त शक्ति सम्पन्न परमाणु से परमात्मा तक, पृ. २०४, २०७
३५. तत्वार्थ सूत्र ५/२४, द्रव्य संग्रह, १६वीं गाथा
३६. अनन्तशक्ति सम्पन्न परमाणु से परमात्मा तक पृ. ४८०
३७. जैन धर्म में विज्ञान लेखक डॉ. सी. देव कुमार
३८. वही, पृ. १६२, १६३
सुशीलचन्द्र जैन सर्राफ