प्रवक्ता प्राचीन इतिहास पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग,
उदय प्रताप स्वायत्तशासी कॉलेज, वाराणसी।
सारांश
राजगृह (राजगिरि) की पंच पहाड़ियों की प्राकृति स्थिति में दुर्ग का रूप दे दिया है। इस प्राकृतिक दुर्ग की पंच पहाडियों पर स्थित जैन पुरातात्विक अवशेषों, जिन प्रतिमाओं का विस्तृत सर्वेक्षण प्रस्तुत आलेख में अंकित है।
—सम्पादक
राजगृह (नालन्दा जिलान्तर्गत, बिहार) की स्थिति भौगोलिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण थी। यह स्थल अनेक पहाड़ियों से घिरा होने के कारण अत्यधिक सुरक्षित था। जैन साहित्य में राजगृह की पांच प्रमुख पहाड़ियों के नाम वैभारगिरि, विपुलगिरि (विपुल पर्वत), रत्नगिरि, उदयगिरि और सोनागिरि मिलते हैं। इन पहाड़ियों के ये नाम आज भी प्रचलित हैं। शिल्प ग्रंथों में ‘दुर्ग’ की व्याख्या करते हुए कहा गया है—‘दु:खेन गच्छत्यत्र’ अर्थात् जहाँ दु:खपूर्वक पहुँचा जाए अथवा जहाँ पहुँचने में कठिनाई हो, उसे ‘दुर्ग’ कहते हैं। इस प्रकार स्थिति एवं निर्माण की दृष्टि से राजगिरि दुर्ग शास्त्र सम्मत है। जैन अभिलेखों में वैभारगिरि को वैभार या व्यवहार कहकर संबोधित किया गया है। यहाँ दिगम्बर साधु रहते हैं और लगातार कठिन तपस्या करते रहते हैं। वे सूर्य के उदय होने से लेकर अस्त होने तक उसे देखते हुए उसके साथ घूमते रहते हैं। यह जैन ग्रंथ में र्विणत वैभारगिरि का ही वर्णन प्रतीत होता है, जिसे ह्वेनसांग ने विपुल नाम से प्रस्तुत किया है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि महाभारत में वैभारगिरि (वैहार) को ‘विपुल शैल’ कहा गया है। यहाँ पर एक प्राचीन स्तूप वर्तमान में भी स्थित है। इसके अतिरिक्त (संभवत: गुप्तकालीन) प्राचीन जैन प्रतिमाओं से युक्त एक जैन मंदिर भी है। जैन परम्परा के अनुसार राजगृह को घेरने वाली सात पहाड़ियाँ थी। उनकी स्थिति इस प्रकार बताई गई है। यदि कोई व्यक्ति उत्तर से राजगृह में प्रवेश करे तो दाहिनी ओर स्थित पहाड़ी वैभारगिरि है, इसकी बांयी ओर विपुलगिरि, इसके समकोण पर वैभारगिरि के समानान्तर दक्षिण की ओर नाले की तरह वाली पहाड़ी रत्नगिरि है। रत्नगिरि का पूर्वी प्रसार चठागिरि और चठागिरि के बाद स्थित पहाड़ी शैलगिरि है। चठागिरि के सामने उदयगिरि और रत्नगिरि के दक्षिण और उदयगिरि के बाद स्थित पहाड़ी सोमगिरि है। जैन परम्परा के अनुसार महावीर का निवास स्थल विपुलगिरि के गुणशीलक (गुणशील) चैत्य में था।
उन्होंने अपने चौदह वर्षावास राजगृह में व्यतीत किये थे। दिगम्बर परम्परा के अनुसार महावीर ने अपना प्रथम धर्मोपदेश विपुलगिरि पर दिया था। वे अनेक बार इस पहाड़ी पर आये और अपना धर्मोपदेश दिया। प्राचीनकाल में राजगृह (राजगीर) या गिरिव्रज मगध महाजनपद की राजधानी थी। राजगृह का शाब्दिक अर्थ है ‘राजा का निवासगृह।’ संभवत: यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि यहाँ राज और उसके परिवार के लोग रहते थे। राजगृह का प्रारंभिक इतिहास महाभारत के सभापर्व में मिलता है। उस समय इसे पहाड़ियों से घिरा होने के कारण ‘गिरिव्रज’ कहा जाता था। राजगृह में बहुत से प्राचीन स्मारक तथा पुरावशेष प्राप्त हुए हैं। इनमें से कुछ स्मारक ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं तथा कुछ का र्धािमक एवं सांस्कृतिक महत्व है। इनमें से कुछ ऐसे भी हैं, जिनका संबंध जैन धर्म से रहा है। पांच पहाड़ियों से घिरे इस प्राकृतिक दुर्ग में केवल दो प्रवेश मार्ग है—एक उत्तर में तथा दूसरा दक्षिण में। पुराने नगर की पाषाण रक्षा प्राचीर राजगृह के प्राचीनतम अवशेषों में से एक हैं। पांचों पर्वतों के ऊपर बनी हुई इस रक्षा प्राचीर शृंखला की परिधि प्राय: ४०-४८ किमी. है।१० पुरातत्ववेत्ताओं ने इस रक्षा प्राचीर का नाम ‘साइक्लोपीडियन वाल’ रखा है। इस रक्षा प्राचीर का निर्माण ३ फीट से ५ फीट लम्बे पत्थरों को एक दूसरे से फसा कर किया गया था और बीच के छेदों में छोटे—छोटे पत्थरों को भरा गया था। वर्तमान में इन पाषाणों के बड़े—बड़े ढ़ेर मिलते हैं। प्राचीन रक्षा प्राचीर के सर्वाधिक अवशेष ऊँचे बाणगंगा दर्रे के पूर्व एवं पश्चिम में मिले हैं।
पांचों पर्वतों पर यह प्राचीर लगभग ११—१२ फीट की ऊँचाई तक उठी थी।।११ यद्यपि अब इन दीवारों के अवशेष ७—८ फीट से अधिक ऊँचे नहीं हैं। पुरातत्ववेत्ताओं का अनुमान है कि इस दीवार के ऊपर एक और दीवार छोटे पत्थरों अथवा लकड़ी से बनायी गई होगी, जो वर्तमान में नष्ट हो चुकी थी। रक्षा प्राचीर की मोटाई प्रत्येक पहाड़ियों पर अलग—अलग है। सामान्यत: इस रक्षा प्राचीर की मोटाई १७ फीट है। इस रक्षा प्राचीर को और सुदृढ़ करने के लिए अंदर और बाहर से असमान दूरियों पर १६ अट्टालिकाओं (बुर्ज) का निर्माण किया गया था। इनकी योजना आयताकार है और निर्माण शैली प्राचीर के सदृश है। यह ४७ से ६० फीट लम्बे और ३४ से ४० फीट तक चौड़े हैं। इनके ऊपर भी संभवत: लकड़ी का एक और बुर्ज रहा होगा जो अब नष्ट हो चुका है। ऊपर चढ़ने के लिए अंदर की ओर से ढलुआ मार्ग बने थे। रक्षा प्राचीर में सुरक्षा/सैनिक कक्षों का भी निर्माण किया गया था।१३ रक्षा प्राचीर में एक प्रवेशद्वार (गोपुर) के अवशेष उत्तरी दिशा में मिले हैं। साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अन्य प्रवेशद्वार भी रहे होंगे लेकिन सम्प्रति प्रवेशद्वारों के अवशेष नष्ट हो चुके हैं। पांच पहाड़ियों से आवृत्त राजगृह दुर्ग के भीतर जाने पर जो सर्वप्रथम स्माकर दिखाई देता है, वह मनियार मठ के नाम से प्रसिद्ध है। इसका निर्माण कब हुआ ओर इसके निर्माता कौन थे, इतिहासकारों में यह विषय पर मतभेद हैं। किंनघम के अनुसार यह एक जैन स्मारक था और जैनियों ने इनका निर्माण करवाया था।
उन्होंने इस मत के पक्ष में दो तर्क दिये हैं। (१) इस स्मारक का आकार जैन मंदिरों से मिलता जुलता था और (२) यहाँ उत्खनन में स्मारक के भीतर से जैन तीर्थंकर पाश्र्वनाथ की मूर्ति प्राप्त हुई हैं। कनिंघम के अनुसार मनियार मठ मूलत: एक जैन मंदिर था जो एक २० फीट ऊँचे टीले पर स्थित था। इसकी खोज उन्होंने सर्वप्रथम १८६१-१८६२ ई. में की थी और टीले के भीतर ३ मी. व्यास के कुएं के आकार की दीवार है जिसमें मलबा भरा हुआ है। टीले पर बने मंदिर को नष्ट किये बिना उन्हें और उत्खनन करवाने पर गहराई से कुछ मूर्तियां मिली है एक मूर्ति में बुद्ध की माता माया देवी को लेटे हुए दिखाया गया था और मूर्ति के ऊपरी भाग में बुद्ध को अंकित किया गया था। दूसरी मूर्ति में नग्न पुरुष की स्थानक मूर्ति थी, जिसके शीर्ष पर सप्तमुखी सर्प का फण अंकित था। यह संभवत: पाश्र्वनाथ की मूर्ति थी, जिसके शीर्ष पर सप्तमुखी सर्प का फन अंकित था। यह संभवत: पाश्र्वनाथ की मूर्ति थी। तीसरी अन्य मूर्ति बहुत खंडित अवस्था में मिली। अत: उसकी पहचान सम्भव नहीं हो सकती। राजगृह की दो पहाड़ियों का संबंध भगवान महावीर से स्थापित होने के प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रमाण उपलब्ध हैं। प्राचीन राजगृह या गिरिव्रज के पश्चिमोत्तर में स्थित वैभारगिरि का संबंध जैन परम्परा में महावीर से स्थापित किया जाता है। विविध तीर्थकल्प में इसे एक पवित्र पहाड़ी बतलाया गया है, जिसमें गरम और शीतल जल कुण्डों का निर्माण था। इस पहाड़ी पर कुछ अंधेरी गुफाएं भी थी। जैनों ने इस पर र्नििमत चैत्यों (मंदिरों) में तीर्थंकरों की मूर्तियां स्थापित की थी।
वैभारपर्वत पर एक ध्वस्त प्राचीन मंदिर की गुप्त और गुप्तोत्तर कालीन कुछ जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां प्राप्त हुई है, जिनमें ऋषभनाथ, संभवनाथ, नेमिनाथ, पाश्र्वनाथ और महावीर की प्रतिमाएँ उल्लेखनीय हैं। ये मूर्तियां इस पहाड़ी के प्राचीन जैन संबंधों को व्यक्त करती हैं। विपुल पर्वत का उल्लेख करने वाला प्राचीनतम जैन अभिलेख कुषाण काल का प्राप्त हुआ है। इसी पर्वत पर ‘गुणशील’ चैत्य स्थित था, जहाँ महावीर ने अपने शिष्यों को उपदेश दिया था। राजगृह में जैन धर्म और कला की परम्परा गुप्त ओर गुप्तोत्तर काल तक बनी रहीं। यहाँ के वैभार पर्वत पर एक ध्वस्त मंदिर के अवशेष प्राप्त हुए हैं जिसमें अनेक जैन प्रतिमाएं भी उपलब्ध हैं। इस मंदिर का मुख्य कक्ष पूर्वाभिमुख है। मंदिर की दीवारों पर अनेक रथिकाएं बनी हैं। इन रथिकाओं में मूर्तियां स्थापित थी, जिनमें से अब अधिकांश मूर्तियां लुप्त हो गई हैं, परन्तु कुछ मूर्तियां अभी शेष हैं। एक रथिका में पद्मासन में बैठी हुई ध्यान मुद्रा में एक प्रतिमा है जिसकी चौकी के दोनों छोरों पर सिंह प्रर्दिशत हैं तथा केन्द्र में धर्मचक्र बना है। इस मूर्ति के बायीं ओर की रथिका में ऋषभनाथ को बैठे हुए दिखलाया गया है। इसकी पाद पीठ पर दो वृष और एक चक्र प्रर्दिशत है। साथ में लगभग आठवीं शताब्दी ई. का एक अभिलेख भी है जिसमें आचार्य बसंतनंदी का उल्लेख किया गया है। एक दूसरी भग्र प्रतिमा में केवल पद्मासन में पैर और वृष का चित्रण दिखाई पड़ता है। साथ ‘देवधर्मों’ लेख अंकित है। कुछ अन्य रथिकाओं में पाश्र्वनाथ, महावीर और संभवनाथ की प्रतिमाएं दर्शनीय हैं।
एक प्रतिमा काले पत्थर से र्नििमत है, जिस पर गुप्त लिपि में ‘महाराजधिराज श्री चन्द्र’ लिखा हुआ है। आर. पी. चंदा ने इसे चन्द्रगुप्त द्वितीय माना हैं यह अभिलेख युक्त प्रतिमा पद्मासन में स्थित है। उसके आसन के नीचे मध्य में चक्र बना है। चक्र के बीच में एक पुरुष खड़ा है, जिसका बायाँ हाथ अभयमुद्रा में है और दायीं खंडित है। चक्र के दोनों ओर शंख हैं तथा दोनों पाश्र्वों में एक जिन प्रतिमा पद्मासन में बैठी हैं। आसन के दोनों, छोरों पर सिहों का अंकन दर्शनीय है। मुख्य प्रतिमा का सिर खंडित है। नीचे शेष के अंकन के आधार पर इसकी पहचान नेमिनाथ से की गई है। आर. पी. चंदा ने चक्र के भीतर खड़ी आकृति को राजकुमार अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) होने का अनुमान किया है किन्तु उमाकांत शाह के अनुसार यह चक्र पुरुष हैं आर. पी. चंदा ने इस अभिलिखित प्रतिमा के आधार पर उपरोक्त जैन प्रतिमाओं को गुप्तकालीन होने का अनुमान किया है। चक्रपुरुष के कुन्तलकेश तथा उसके द्वारा धारण की गई एकावली आदि विशेषताए। नेमिनाथ प्रतिमा के नि:संदेह गुप्तकालीन होने का संकेत देती हैं। संभव है कुछ जैन प्रतिमाएं भी गुप्तकालीन हो।१७ वैभवगिरि के दक्षिण अंचल की सोन भंडार गुफा के प्रवेश द्वार के अंदर जाने पर लेख मिलता है जो इस प्रकार है—
अर्थात् अत्यन्त तेजस्वी आचार्य प्रवर वैरदैव ने निर्वाण प्राप्ति के लिए तपस्वियों के योग्य दो गुफाओं का निर्माण कराया।
अर्थात् अत्यन्त तेजस्वी आचार्य प्रवर वैरदैव ने निर्वाण प्राप्ति के लिए तपस्वियों के योग्य दो गुफाओं का निर्माण कराया। उपरोक्त शिलालेख से स्पष्ट होता है कि जैनियों के आचार्य भैरवदेव या वैरदैव ने साधना करने के लिए इन दो गुफाओं का निर्माण करवाया था और इनमें जैन अर्हंतों की मूर्तियां स्थापित करायी थी। इस शिलालेख की लिपि तीसारी—चौथी शताब्दी ई. की प्रतीत होती है। इस बड़ी गुफा में काले पत्थर की एक मूर्ति मिली है जो अब चौमुखी मूर्ति के नाम से प्रसिद्ध है क्योंकि मूर्ति के चारों फलकों पर एक—एक तीर्थंकर की नग्न आकृति उत्कीर्ण है। प्रत्येक तीर्थंकर की मूर्ति के नीचे क्रमश: वृषभ, गज, अश्व और कपि पशुओं की आकृतियाँ र्नििमत है, जो यह प्रमाणित करती है कि ये चार तीर्थंकर मूर्तियां प्रथम चार जैन तीर्थंकरों ऋषभदेव, अजितनाथ, सम्भवनाथ और अभिनन्दन की है। प्रत्येक तीर्थंकर की मूर्ति के नीचे दो पशु आकृतियों के बीच में धर्मचक्र बना है। इस मूर्ति और अभिलेख से यह प्रमाणित होता है कि सोनभंडार गुफा तीसरी—चौथी शताब्दी ई. में जैन आचार्यों के आवास हेतु बनवाई गयी होगी। दूसरी गुफा पहली गुफा के पूर्व में है। यह भी प्रथम गुफा के समकालीन रही होगी। इसका फर्श थोड़ा नीचा है। यह गुफा साढ़े बाइस फुट लंबी और सत्रह फुट चौड़ी है। इस गुफा की छत पूर्णरूपेण नष्ट हो चुकी है। सम्भवत: इस गुफा के ऊपर जाने के लिए दायी और पहाड़ी में सीढ़ियाँ कटी हुई है।१९ इस गुफा की दीवारों पर भी जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां बनी है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन गुफाओं के सामने बरामदे भी थे।
गुफाओं की दीवार के ऊपर एक ओर से दूसरी ओर तक छिद्र बने हैं। इनमें संभवत: लकड़ी की धन्नियाँ लगाई गई होगी। इस प्रकार सोनभंडार गुफाएँ केवल पहाड़ को काटकर ही नहीं बनाई गई वरन इसमें धन्नियों का प्रयोग करके संरचनात्मक निर्माण शैली का प्रयोग भी हुआ था। अधिकांश इतिहासकारों ने सोनभंडार गुफाओं को पूर्व गुप्तकालीन और जैन धर्म से संबंधित मानते हैं। परन्तु यहाँ यह उल्लेखनीय है कि पश्चिमी गुफा का प्रवेश द्वार बराबर की पहाड़ी पर र्नििमत मौर्यकालीन लोमश ऋषि के समन है तथा इसकी भी द्वार शाखाएँ भीतर की ओर झुकाव लिए हुए ढालू या तिरछी बनाई गई है। और आधार की अपेक्षा प्रवेश द्वार के भीत की चौड़ाई लगभग १५ सेमी. से कम है। द्वार शाखा की ऊँचाई लगभग २ मी. है। गुफा की छत ३.४५ मी. ऊँची है। जिसका ढोलाकार भाग लगभग डेढ़ मी. ऊँचा है। डी. आर. पाटिल के अनुसार इस गुफा की वास्तुगत विशेषताएँ बराकर की गुफा में उपलब्ध है, जो राजगृह से लगभग ३० किमी. की दूरी पर स्थित है। इस प्रकार लोमश ऋषि गुफा से सोनभण्डार गुफा की तुलना करने पर ये दोनों गुफाएं समकालीन प्रतीत होती हैं और इस आधार पर इस गुफा की तिथि मौर्य काल या इससे पूर्व निर्धारित की जा सकती है। गुप्तयुग से लेकर बारहवीं शती ई. तक राजगृह (वैभार पहाड़ी और सोनभण्डार गुफा) में जैन मूर्तियों का निर्माण निरन्तर होता रहा। मध्य युग में जैन धर्म को किसी भी प्रकार का शासकीय समर्थन नहीं मिला जिसका प्रमुख कारण पालों का प्रबल बौद्ध धर्मावलम्बी होना था।
इसी कारण इस क्षेत्र में राजगृह के अतिरिक्त कोई दूसरा विशिष्ट एवं लम्बे इतिहास वाला कला केन्द्र स्थापित नहीं हुआ। जिनों की जन्मस्थली और भ्रमण स्थली होने के कारण राजगृह पवित्र माना गया है। पाटलिपुत्र (पटना) के समीप राजगृह की स्थिति भी व्यापार की दृष्टि से महत्वपूर्ण थी। गुप्तकाल में जैन मूर्तियों की प्राप्ति का क्षेत्र विस्तृत हो गया। कुषाणकालीन कलावशेष जहाँ केवल मथुरा एवं चौसा से मिले हैं वहीं गुप्तकाल की जैन मूर्तियों मथुरा और चौसा के अतिरिक्त राजगृह, विदिशा, उदयगिरि, अकोटा, कहौम और वाराणसी में मिली हैं। राजगृह के वैभार पर्वत से ध्वस्त मंदिर की दीवारों में लगी कुल चार जिन मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। इन मूर्तियों में तीन तीर्थंकरों की खड़ी मूर्तियां बलुए पत्थर से र्नििमत हैं। बालू पर पत्थर से बनी हुई मूर्तियों के स्कन्द भारी हैं और इनका मूर्तन भली प्रकार से नहीं किया गया है। काले पत्थर से र्नििमत्त मूर्ति पद्मासन मुद्रा में बैठी है। आसन के नीचे मध्य में चक्र है और चक्र के बीच में एक पुरुष खड़ा है जिसका बायां हाथ अभयमुद्रा में है। दायें हाथ के टूट जाने के कारण उसकी स्थिति स्पष्ट नहीं है। चक्र के दोनों ओर शंख है। इस चक्र पुरुष के दोनों ओर एक—एक पद्मासन मुद्रा में बैठे जिन प्रतिमाएँ हैं। आसन के दोनों छोरों पर खड़े सीटों का अंकन है। शंख के अंकन के आधार पर इस प्रतिमा की पहचान नेमिनाथ या अरिष्टनेमि से की गई है क्योंकि शंख नेमिनाथ का लांछन है। चक्र के बीच में खड़ी आकृति को आर. पी. चंदा ने राजकुमार अरिष्टनेमि या नेमिनाथ माना है किन्तु उमाकांत शाह इसकी पहचान ‘चक्रपुरुष’ से करते हैं।२१ यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जिन लांछन शंख के साथ प्रर्दिशत इसे प्राचीनतम मूर्ति कहा जा सकता है।२२ इस प्रतिमा पर गुप्त लिपि में ‘महाराधिराज श्रीचन्द्र’ लिखा हुआ है।
यह चन्द्रगुप्त द्वितीय प्रतीत होता है। इस आधार पर इस प्रतिमा की तिथि गुप्तकालीन निर्धारित की गई है। अभिलेख के अतिरिक्त इस प्रतिमा के साथ अंकित चक्रपुरुष के कुन्तल केश एकावली आदि चिन्ह भी इसके गुप्तकालीन होने के संकेत करते हैं। इस मूर्ति के अतिरिक्त तीन अन्य मूर्तियों में जिन कायोत्सर्ग मुद्रा में निर्वस्त्र खड़े हैं। इनकी तिथि भी ने गुप्तकाल निर्धारित की है। राजगृह के मनियार मठ के उत्खनन से अनेक जैन मूर्तियां प्राप्त हुई थी। इनमें से कुछ नालन्दा के संग्रहालय में सुरक्षित हैं। यहाँ आधुनिक जैन मंदिर के एक कमरे में सात खंडित मूर्तियां रखी हैं, जो मध्यकालीन प्रतीत होता है। ये मूर्तियां ऋषभनाथ, पाश्र्वनाथ, महावीर एवं जैन युगलों की हैं। वैभार पहाड़ी की सोनभंडार गुफाओं पर भी नवीं—दसवीं शताब्दी ई. की कुछ जिन मूर्तियां मिली थी जिनमें एक चौमुखी प्रतिमा नालंदा संग्रहालय में है। उदयगिरि पहाड़ी के आधुनिक जैन मंदिरों में लगभग नवी—दसवीं शताब्दी ई. की एक पाश्र्वनाथ की मूर्ति सुरक्षित है। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि राजगृह के स्मारकों का निर्माण छठी—पाँचवी शताब्दी ई. पू. के पहले से ही प्रारम्भ हो चुका था। यहाँ पर सुरक्षा प्राचीरों के अतिरिक्त अनेक आवासीय भवनों, मंदिरों, गुफाओं, कन्दराओं, विहारों, जलाशयों और वनों का निर्माण किया गया। इनका ऐतिहासिक एवं र्धािमक दृष्टि से विशेष महत्व है। गुप्तकाल के पश्चात् राजगृह में जैन धर्म और कला से संबंधित अन्य साक्ष्यों का अभाव है। ऐसा प्रतीत होता है कि इसके बार एक बड़े अंतराल के बाद ही यहाँ आधुनिक काल में प्राय: सभी पहाड़ियों पर जैन मंदिरों का निर्माण कर उनमें प्राचीन एवं नवीन मूर्तियां स्थापित की गई हैं। इनमें से कुछ को सम्प्रति में भी देखा जा सकता है।
संदर्भ—
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