मानव संसाधन के विकास में जैन पारर्मािथक संस्थाओं के योगदान का मूल्यांकन
मनीषा जैन
जैन विद्या संगोष्ठी, १२-१४ मार्च २००५ में पठित आलेख
शोध छात्रा—कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, ५८४, मात्मागांधी मार्ग, तुकोगंज, इन्दौर।
निवास : ३२ सुखशान्तिनगर, इन्दौर
सारांश
इस आलेख में मुख्य रूप से मानव संसाधन के विकास में जैन पारमार्थिक संस्थाओं के योगदान का मूल्यांकन किया गया है। इसके लिये इन्दौर शहर की चुनी हुई जैन पारमार्थिक संस्थाओं का चयन कर उनके १५० हितग्राहियों की आयु, लिग, शिक्षा के आधार पर सर्वेक्षण किया गया।
आर्थिक विकास में मानव संसाधन की भूमिका समझने के लिये यह जानना आवश्यक है कि जनसंख्या की वृद्धि के कारण उत्पादन तथा उपभोग के साथ क्या अन्त: सम्बन्ध है। हर्षमेन के अनुसार जनसंख्या का दबाव आर्थिक विकास को उत्तेजित करेगा। जनसंख्या में जैसे जैसे वृद्धि होगी लोग अपने जीवन स्तर को बनाये रखने के लिये आर्थिक विकास को प्रेरित होंगे। प्रो. अमत्र्य सेन के अनुसार भारत नई सहस्राब्दी में प्रवेश कर चुका है। नई सहस्राब्दी में भारत की अर्थव्यवस्था को मानव संसाधन विकास और आर्थिक क्षेत्र में चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। अर्थशास्त्रियों का मत है कि अल्प विकसित देश में मानव पूंजी में निवेश की कमी होने के कारण शिक्षा, तकनीकी ज्ञान, कुशलता तथा शारीरिक क्षमता का स्तर बहुत निम्न होता है, जिस कारण भौतिक पूंजी की उत्पादकता बहुत कम होती है। वास्तव में देश के पास पर्याप्त मानव पूंजी के रूप में इंजीनियर, तकनीकी निरीक्षक, प्रबंधकीय और प्रकासकीय मानवशक्ति, वैज्ञानिक, नर्सें, पशु चिकित्सक, कृषि विशेषज्ञ होने पर भौतिक पूंजी अधिक उत्पादक बन जाती है। एक देश की स्वस्थ जनता इस देश की बहुत बड़ी पूंजी अधिक उत्पादक बन जाती है। एक देश की स्वस्थ जनमा इस देश की बहुत बड़ी पूंजी है। यदि जनशक्ति स्वस्थ है तो उनसे प्रति व्यक्ति अधिक उत्पादन किया जा सकता है। प्रो. व्हिपल की दृष्टि में एक राष्ट्र की वास्तविक सम्पत्ति उसकी भूमि, जल, वनों, खानों, पशु सम्पत्ति या डालरों में निहित नहीं होती है बल्कि उस राष्ट्र के समूह एवं प्रसन्नचित्त बच्चों में निहित होती है। मानव संपदा के विकास के लिये विभिन्न संस्थाएँ तथा संगठन अलग अलग प्रकार से प्रयास कर रहे हैं। जैन पारर्मािथक संस्थाएँ भी इस ओर काफी सजग हैं। ये संस्था, बिना किसी लाभ के प्रयोजन से सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक, स्वास्थ्य, सांस्कृतिक उन्नयन की गतिविधियों का संचालन करती हैं। इससे मानव सम्पदा का विकास होता है। इनके गठन का उद्देश्य मूलत: मानव सम्पदा तथा सामाजिक पूंजी का विकास करना होता है। पारर्मािथक संस्थाओं द्वारा दिये गये सहयोग से समाज का विशेष रूप से निर्धन एवं जरूरतमंद वर्ग लाभान्वित होता है। ये संस्थाएँ जन भागीदारिता तथा जन सहयोग के माध्यम से चलाई जाती है। इस आलेख में मुख्य रूप से मानव संसाधन के विकास में जैन पारमार्थिक संस्थाओं के योगदान का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। इसके लिये इन्दौर शहर की चुनी हुई जैन पारर्मािथक संस्थाओं का चयन कर उनके कार्यों का मूल्यांकन मानव सम्पदा के विकास के सन्दर्भ में किया गया है। मानवीय पूंजी से अर्थ देश विशेष की जनसंख्या, उसकी शिक्षा कुशलता, दूरर्दिशता एवं उत्पादकता से है। अर्थात् मानवीय पूंजी की गणना करते समय केवल वहाँ रहने वाली की न केवल संख्या वरन उनके गुणों पर भी विचार करना होता है। मानवीय पूंजी का विकास उस प्रक्रिया को निश्चित करना होता है, जिससे समाज के व्यक्तियों के ज्ञान कौशल एवं उत्पादकता में वृद्धि हुआ करती है। मानवीय पूंजी एक ऐसा संचय है जिसको अर्थ व्यवस्था के विकास करने में प्रभावी रूप से विनियोग किया जा सकता है। सामाजिक, आर्थिक सन्दर्भ के महत्व को स्वीकार करते हुए वर्तमान अध्ययन में जैन पारमार्थिक संस्थाओं से विभिन्न सुविधा प्राप्त कर रहे १५० हितग्राहियों को आयु के आधार पर विश्लेषित किया गया है। आर्थिक तथा सामाजिक विश्लेषणों में आयु एक महत्वपूर्ण कारक है। सर्वप्रथम स्वर्नििमत प्रश्नावली द्वारा १५० हितग्राहियों का साक्षात्कार विधि पृथक—पृथक ही कथन प्रश्न के लिये दिये गये विकल्पों पर आवृत्तियों की गणना की गई। जैन पारमार्थिक संस्थाओं द्वारा हितग्राहियों को जो सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं, उन्हें पाँच भागों में विभाजित किया गया है। जैसे—चिकित्सा सुविधा, आवास सुविधा, शिक्षा एवं पुस्तकालय सुविधा, भोजन एवं अन्य सुविधा, महिला प्रशिक्षण तथा रोजगार सुविधा। पारमार्थिक संस्थाओं द्वारा इन सुविधाओं को अलग—अलग आयु समूह के लोगों को प्रदान की जाती है। हितग्राहियों की आयु—हितग्राहियों की आयु से तात्पर्य है जैन पारमार्थिक संस्थाओं से सुविधाएँ प्राप्त कर रहे हितग्राहियों की उम्र क्या है ? विभिन्न आयु वर्ग के हितग्राहियों ने इन संस्थाओं से सुविधाएँ प्राप्त की। सर्वेक्षण के दौरान इस बात को ज्ञात करने का प्रयत्न किया गया कि विभिन्न चयनित हितग्राही किस आयु समूह के हैं ? विभिन्न चयनित हितग्राहियों का आयु समूह जानकारी तालिका से स्पष्ट है— नोट : कोष्ठक में दी गई संख्याएँ प्रतिशत दर्शाती हैं। उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि सबसे अधिक चिकित्सा सुविधा प्राप्त करने वाले लोग सामान्य रूप से ४० वर्ष से कम आयु के हैं। ११ प्रतिशत लोग ऐसे भी हैं जो ६० वर्ष से ऊपर के हैं और इन सुविधाओं का लाभ लेते हैं। इन सुविधाओं का सबसे कम लाभ लेने वाला वर्ग ५१-६० वर्ष की आयु का है। सामान्य रूप से यह कहा जा सकता है कि इन संस्थाओं से वृद्धजनों की अपेक्षा युवा वर्ग के लोग अधिक लाभ ले रहे हैं, यह प्रवृत्ति लगभग सभी सुविधाओं के अन्तर्गत देखने को मिलती है। केवल चिकित्सा सुविधा और आवास सुविधा ही ऐसी थी जिनमें वृद्धजनों का अनुपात ठीक था। विभिन्न सुविधाओं तथा हितग्राहियों के आयु वितरण में स्वतंत्रता की जाँच के लिर्ए का परीक्षण किया गया जिसके लिये यह परिकल्पना की गई कि सुविधाओं को प्रदान करने में आयु वर्ग का कोई ख्याल नहीं रखा जाता है। अर्थात् सभी आयु वर्ग में ये सुविधाएँ समान रूप से प्रदान की जाती हैं। ५ प्रतिशत सार्थकता के स्तर पर तथा १६ स्वतंत्र संख्या के लिर्ये का सारणी मूल्य २६.३० है। जो कि परिकलिर्त के मूल्य २६.६७ से कम है। अर्थात् हमारी गुण स्वातंत्र्य की मान्यता गलत है। अर्थात् सुविधा प्रदान करने में आयु वर्ग को ध्यान में रखा जाता है।
हितग्राहियों का लिंग
भारतीय समाज पुरुष प्रधान है। सम्पत्ति पर स्वामित्व महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों का अधिक है। ऐतिहासिक तथ्य इस बात को स्वीकारते हैं कि आर्थिक व सामाजिक क्षेत्र में महिलाओं का योगदान किसी दूसरे से कम नहीं रहा। सर्वेक्षण के आधार पर यह ज्ञात करने का प्रयास किया गया है कि हितग्राहियों में से महिला और पुरुषों का अनुपात समान है अथवा नहीं। सर्वेक्षित न्यादर्श हितग्राहियों की स्थिति निम्नवत् है— पारमार्थिक संस्थाओं द्वारा प्रदत्त सुविधाओं को लिंग के आधार पर तालिका द्वारा प्रस्तुत किया गया है। सबसे अधिक चिकित्सा सुविधा प्राप्त करने वाले पुरुषों की संख्या ४२ है और महिलाओं की संख्या ३६ है। आवास सुविधा, शिक्षा एवं पुस्तकालय सुविधा, भोजन एवं अन्य सुविधा, महिला प्रशिक्षण एवं रोजगार में पुरुष वर्ग महिलाओं की अपेक्षा कम लाभ प्राप्त कर रहा है। सामान्य रूप से यह कहा जा सकता है कि महिलाएँ ६०.७ प्रतिशत व पुरुषों का ३९.३ प्रतिशत पारमार्थिक संस्था द्वारा प्रदत्त सुविधाओं का लाभ प्राप्त कर रहे हैं। विभिन्न सुविधाओं तथा हितग्राहियों के लिंग के आधार पर वितरण में स्वतंत्रता की जाँच के लिर्ए का परीक्षण किया गया जिसक लिए यह परिकल्पना की गई कि सुविधाओं को प्रदान करने में का आधार नहीं माना जाता। अर्थात् संस्थाओं द्वारा स्त्री पुरुषों को समान रूप से सुविधाएँ प्रदान की जाती है। आंकलिर्त २ का मान १४.०० है जबकि ५ प्रतिशत सार्थकता स्तर तथा ४६ स्वतंत्रता कोटि पर इसका मान ९.४९ है। इससे यह स्पष्ट होता है कि हमारा आंकलित मान सारणीयन के मान से अधिक है। इसलिए शून्य परिकल्पना अर्थात् सभी सुविधाएँ सभी हितग्राहियों को समान रूप से दी जाती है को निरस्त करते हैं। अर्थात् शून्य परिकल्पना गलत है। संस्थाओं द्वारा दी गई सुविधाएँ महिला और पुरुष हितग्राहियों में समान नहीं है तथा हितग्राहियों के चयन में महिलाओं को प्राथमिकता प्रदान की जाती है।
हितग्राहियों की शिक्षा—== शिक्षा उपभोक्ता सेवा भी है और निवेश सेवा भी। जहाँ तक शिक्षा निवेश है यह प्रत्यक्ष रूप से उत्पादकता बढ़ाता है। निरक्षर तथा अप्रशिक्षित व्यक्तियों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे जटिल मशीनरी का संचालन और देखरेख कर लेंगे। शिक्षा कार्यक्रम विस्तृत तथा विविध होना आवश्यक है। मानवीय पूँजी के निर्माण में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान है। इसलिए जैन पारर्मािथक संस्थाएँ भी शिक्षा के विस्तार तथा अवसर उपलब्ध कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जैन संस्थाओं से सुविधाएँ प्राप्त करने वाले लार्भािथयों की शिक्षा की स्थिति सारणी से स्पष्ट है। पारर्मािथक संस्थाओं द्वारा प्रदत्त सुविधाएँ के अन्तर्गत सबसे अधिक चिकित्सा सुविधा प्राप्त करने वाले हितग्राही सामान्य रूप से २७.३ प्रतिशत हितग्राही कॉलेज शिक्षा प्राप्त कर रहे एवं उच्च शिक्षित हैं। इन सभी सुविधाओं का सबसे कम वर्ग साक्षर ७.३ प्रतिशत है। इसी प्रकार से प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षित वर्ग मध्यम अनुपात में सुविधाओं का लाभ उठाते हैं। सामान्य रूप से यह कहा जा सकता है कि पारर्मािथक संस्थाओं द्वारा प्रदत्त सुविधाओं से उच्च शिक्षित वर्ग अधिक लाभान्वित है। निरक्षर व साक्षर हितग्राहियों का अनुपात अन्य हितग्राहियों की अपेक्षा कम है। विभिन्न सुविधाओं तथा हितग्राहियों के लिंग के आधार पर वितरण में स्वतंत्रता की जाँच के लिर्ए का परीक्षण किया गया। जिसके लिए यह परिकल्पना की गई कि सुविधाओं को प्रदान करने में शिक्षा का कोई ख्याल नहीं रखा जाता है। अर्थात् सभी हितग्राहियों को समान रूप से सुविधाएँ प्रदान की जाती है। आंकलिर्त का मान ४२.१३ है जबकि ५ प्रतिशत सार्थकता स्तर पर २० स्वतंत्रता कोटि पर इसका मान ३१.४१ है। इससे यह स्पष्ट होता है कि हमारा आंकलित मान सारणीयन के मान से अधिक है। इसलिए शून्य परिकल्पना गलत होगी। अर्थात् पारमार्थिक संस्थाओं द्वारा प्राप्त सुविधाओं को देने में हितग्राहियों की शिक्षा का स्तर महत्वपूर्ण है। इससे यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सामान्य रूप से शिक्षित व्यक्तियों में अवसरों को भुनाने की अधिक क्षमता होती है, इसलिए वह भी इन संस्थाओं से सुविधाओं को लेने में आगे निकल सकता है। निष्कर्ष—प्रस्तुत शोध आलेख से प्राप्त परिणाम परिकल्पना के अनुरूप प्राप्त हुए हैं। अत: कहा जा सकता है कि जैन पारर्मािथक संस्थाओं द्वारा प्रदत्त सुविधाओं का लाभ प्रदान करने में आयु वर्ग को ध्यान में रखा जाता है। इसी प्रकार संस्थाओं द्वारा दी गई सुविधाएं महिला और पुरुष चयनित हितग्राहियों में समान नहीं है। क्योंकि शून्य परिकल्पना अर्थात् सभी सुविधाएँ सभी हितग्राहियों को समान रूप से दी जाती है को निरस्त करते हैं।
निष्कर्षत
यह कहा जा सकता है कि पारमार्थिक संस्थाओं द्वारा प्रदत्त सुविधाओं से उच्चशिक्षित वर्ग अधिक लाभान्वित है। निरक्षर व साक्षर हितग्राहियों का अनुपात अन्य हितग्राहियों की अपेक्षा कम है। विभिन्न सुविधाओं तथा हितग्राहियों के शिक्षा के आधार पर वितरण में स्वतंत्रता की जाँच के आधार पर वितरण में स्वतंत्रता की जाँच के लिर्ए २ का परीक्षण किया गया। इससे यह स्पष्ट होता है कि हमारी शून्य परिकल्पना गलत है अर्थात् पारमार्थिक संस्थाओं द्वारा प्राप्त सुविधाओं को देने में हितग्राहियों की शिक्षा का स्तर महत्वपूर्ण हैं। सुझाव—जैन पारमार्थिक संस्थाओं द्वारा प्रदत्त सुविधाओं के सम्बन्ध में समाज के लोगों की धारणा है कि यह संस्थाएँ हितग्राहियों को पर्याप्त सुविधाएँ नहीं दे पाती है। प्रस्तुत शोध आलेख से जो परिणाम प्राप्त हुए है वे सकारात्मक हैं। उनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि समाज को जैन पारमार्थिक संस्थाओं के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलना पड़ेगा। आभार—प्रस्तुत आलेख के सृजन में मार्गदर्शन हेतु लेखिका प्रो. गणेश कावड़िया, प्राध्यापक—अर्थशास्त्र एवं डॉ. अनुपम जैन, प्राध्यापक—गणित की आभारी है।
सन्दर्भ
१.भारतीय अर्थव्यवस्था, रूद्र दत्त एवं के. पी. एम. सुन्दरम, २००२, पृ. ४१
२.भारतीय अर्थव्यवस्था नई शताब्दी में, RBSA Publishers, S.M.S. Highway Jaipur पृ. ३७
३.आर्थिक विकास और स्वातंत्र्य : वैयक्तिक स्वातंत्र्य, अमत्र्य सेन, पृ. ३०६
४. आर्थिक विकास एवं नियोजन, एम. एल. हिंगन
५. Economics of Amartya sen, Editor-Ajit Kumar Sinha, P175
६.समाज दर्पण (दिगम्बर जैन समाज का इतिहास एवं जनगणना)