सुन हीरा! अच्छी कन्या पसंद करना जो कि मेरी कुछ सेवा भी कर सके।
इसी प्रकार से सारे परिवार के लोग उससे रागात्मक वार्तालाप करने लगे किन्तु जैसे कमल कीचड़ में रहकर उससे सदैव अलग ही रहता है, वैसे ही हीरालाल इन सबकी बातों में संसार की असारता ढूँढते रहते थे। आखिर एक दिन पुत्र हीरा ने संकोच छोड़कर माता-पिता के सामने अपने मन की बात कह ही डाली, पिताजी के चरण स्पर्श करते हुए हीरालाल बोले-
पिताजी! आप व्यर्थ ही मेरी शादी के लिए परेशान हो रहे हैं। शादी तो संसार की अनादिकालीन श्रुत और परिचित परम्परा है मुझे तो भगवान महावीर के पथ पर चलकर अपनी आत्मा का कल्याण करना है अतः मेरा दृढ़ निश्चय है कि मुझे शादी नहीं करना है।
माता-पिता पत्थर की प्रतिमा सदृश स्तब्ध खड़े रह गए। ओह! माँँ ने मौन तो़ड़ा-
हीरा! मैंने अपनी छोटी बहू पाने के लिए न जाने कितने अरमान संजोए हैं। (प्यार से डाँटती हुई) एक शब्द कहकर तू हम लोगों को निराश करना चाहता है? शादी करने का कार्य तुम्हारा नहीं, यह तो माता-पिता का परम कर्तव्य होता है और आज्ञाकारी बेटा माँ-बाप की आज्ञा का सदैव पालन करना ही अपना कर्तव्य समझता है। मुझे अपने लाडले से ऐसा ही विश्वास है।
हीरालाल माँ की इतनी बड़ी चुनौती से भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने कहा –
यह तो मोह की लीला है। माँ! वास्तव में तो न कोई किसी का पुत्र है न माता-पिता। प्रत्येक प्राणी का चैतन्य तो परम वीतरागी होता है और मुझे उसी चैतन्य की खोज करने में अपने कर्तव्य की सार्थकता प्रतीत होती है। वे माँ से बोले-
मैं ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा कर चुका हूँ अपने मन में। आपसे मेरी विनम्र प्रार्थना है कि आप मेरे द्वारा सांसारिक बहू लाने की आशा सर्वथा छोड़ दें। मैं तो मुक्तिकन्या को बहू बनाने का आह्वान कर चुका हूँ जो सदा अनंतकाल अखंड सुख को प्रदान करने वाली होती है।
मां! मुझे आशीर्वाद दो। मैं अपने पथ को निष्कंटक बना सकूँ। (झुकते हुए) पिता रामसुख दुख के असीम सागर में डूबे हुए हैं। उन्हें हीरालाल की शादी नहीं करने से अधिक दुख इस बात का है कि क्या बेटा हम सबको छोड़कर चला जाएगा?