सारांश भगवान जिनेन्द्रदेव की मूर्ति के साथ अष्ट मंगल या अष्टप्रातिहार्यों का अंकन पारंपरिक रूप से होता रहा है। प्रस्तुत आलेख में शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर अष्ट मंगलों का स्वरूप विवेचित किया गया है।
प्राचीन काल से जैन मंदिरों में अष्ट मंगल प्रातिहार्य का जिन प्रतिमाओं के साथ अंकन होता आ रहा है। अष्ट मंगल प्रातिहार्य मंगल स्वरूप बनाये जाते हैं। जिनेन्द्र भगवान की समवशरण स्थली में अनेंक मंगल द्रव्य रूपी सम्पदायें थीं। अष्टमंगल प्रातिहार्य उन्हीं सम्पदाओं में से हैं समवशरण तीर्थंकरों के धर्मोपदेश देने का पवित्र स्थान होता है, जिसे देवों द्वारा निर्मित किया जाता है। अष्ट मंगल प्रातिहार्य पूजनीय व पवित्रता के प्रतीक स्वरूप समवशरण स्थली में इस प्रकार समलंकृत हैं:-
तरू अशोक के निकट में सिंहासन छविदार।
तीन छत्र सिर पर लसैं भा-मण्डल पिछवार।।
दिव्य ध्वनि मुख से खिरे, पुष्प वृष्टि सुर होय।
ढोरें चौंसठ चमर जख , बाजे दुन्दुभि जोय।।
सुख व शांति का प्रतीक अशाेक वृक्ष शोक रूपी अंधकार को नष्ट करता हुआ शोभायमान हो रहा है, जिसके नीचे आकर सारे शोक दूर हो जाते हैं। जिन वृक्षों के नीचे तीर्थंकरों को केवलज्ञान हुआ था वे ही वृक्ष अशोक वृक्ष हैं। न्यग्रोध, सप्तपर्ण, शाल, सरल, प्रियंगु, शिरीष, नागवृक्ष, अक्ष (बहेडा) धूलिसाल, तेन्दू, पाटल, जम्बू,पीपल दीर्घपर्ण, नन्दी, तिलक, आम्र, कंकेलि (अशोक,) चम्पक, प्रियंगु, वंकुल, मेषजृडा, धव और शाल। ये तीर्थंकरों के अशोक वृक्ष कहे जाते हैं। लटकती हुई मोतियों की मालाओं और घंटा समूहादिक से रमणीय पुष्पों से झुकी हुई शाखाओं वाले ये सब अशोक वृक्ष ही कहे जाते हैं। उपर्युक्त चौबीस अशोक वृक्ष ऋषभादिक तीर्थंकरों की शरीर की ऊँचाई से बाहर गुने ऊंचे शोभायमान है। आदि पुराण में लिखा है कि भगवान के समीप यह अशोक वृक्ष मरकतमणि के बने हुए हरे-हरे पत्ते व रत्नमय चित्र-विचित्र फूलो सहित था। जिसकी जड़े वज्र की बनी हुई थी। जिसका मूल भाग रत्नों से दैदीप्यमान था, जिसके पुष्प जपाकान्ति के समान पद्मराग मणियों के बने हुये थे। इस वृक्ष को इन्द्र ने सब वृक्षों में मुख्य बनाया था। अशोक वृक्ष की प्रभा से ऐसा प्रतीत होता है, कि जिनेन्द्र भगवान का आश्रय पाकर वह दैदीप्यमान हो गया हो, जिसके दर्शन मात्र से जीव का शोक दूर हो जाता है।
अशोक वृक्ष के समीप स्फटिक-पाषाण से निर्मित और उत्कृष्ट रत्नों के समूह से युक्त तीर्थंकरों का विशाल सिंहासन शोभायमान होता है। सिंहासन सर्वश्रेष्ठता का प्रतीक माना गया है, जो कि भारी ऐश्वर्य को प्रकाशमान कर रहा है। यह सुवर्ण का बना हुआ अतिशय शोभायुक्त था। वह अपनी क्रान्ति से सूर्य को भी लज्जित कर रहा था। इसी सिंहासन पर भगवान अपने महात्म्य से सिंहासन के तल से चार अंगुल ऊंचे अधर पर शोभित हो रहे हैं। रत्नमयी सिंहासन पर विराजमान तीर्थंकर भगवान की इन्द्रादि देव पूजा अर्चना करते हैं। अनेक रत्नों से जड़ा यह सिंहासन तीर्थंकर भगवान के श्रेष्ठगुणों का परिचायक है।
चन्द्र मण्डल सदृश और मुक्ता समूहों के प्रकाश से संयुक्त तीन छत्र सब तीर्थंकरों के (मस्तकों पर) शोभायमान होते हैं।यह दैदीप्यमान तीन छत्र जिनेन्द्र भगवान की तीन लोक की परमेश्वरता को प्रकट करते हैं। जिसका तीनों लोकों में साम्राज्य हो उसके ऊपर यह धारण किया जाता है। मानतुंगाचार्य कृत ‘‘भक्तामर स्तोत्र’’ के इकत्तीसवे स्तोत्र में तीन छत्र की महिमा का सुन्दर वर्णन किया गया है कि आपके शिरोपरि प्रदेश को अलंकृत करने वाले तीन छत्र आपकी त्रिलोक परमेश्वरता के उद्घोषक हैं। चन्द्रमा की भाँति सौम्य-शुभ्र, मोतियों की झालर से समृद्ध इन छत्रों ने सूर्य रश्मियों की प्रचण्डता को रोक लिया है। ऐसे छत्रत्रय भगवान की त्रिलोकवर्ती प्रभुता के जीवन्त प्रतीक है। त्रिछत्र लोगों के मन में तर्क़-वितर्क़ उत्पन्न करते हुऐ ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानों मोहरूप शत्रु को जीत लेने से इकट्ठा हुआ तथा तीन रूप धारणा कर ठहरा हुआ जिनेन्द्र भगवान का यश मण्डल हो।त्रिलोक की प्रभुता की प्रतीकात्मकता को व्यक्त करते यह त्रिछत्र भगवान की मूर्तियों व चित्रों में अलंकृत किया जाता है।
जिनेन्द्र भगवान के आत्म-प्रकाश का द्योतक है भा-मण्डल। समवशरण की भूमि जिनेन्द्र भगवान के शरीर से उत्पन्न हुई तथा चारों ओर फैली हुई प्रभा अर्थात् भा-मण्डल से बहुत ही सुशोभित हो रही है। उस समय वह जिनेन्द्र भगवान के शरीर की प्रभा मध्यान्ह के सूर्य की प्रभा को तिरोहित करती करोड़ों देवों के तेज को दूर हटाती व जिनेन्द्र भगवान के ऐश्वर्य को प्रकट करती है। अमृत के समुद्र सदृश निर्मित और दर्पण के समन भगवान के प्रभा मण्डल में सुर, असुर तथा मानव लोग अपने सात-सात भव देखते थे। तीन भव भूतकाल के, तीन भव भविष्यकाल के और एक भव वर्तमान का इस प्रकार सात भवों का दर्शन प्रभु के प्रभा मण्डल में होता था। ‘‘भक्तामर स्तोत्र’’ के चौतीसवें श्लोक में भा-मण्डल की महिमा का वर्णन किया गया है। जिनेन्द्र भगवान के सम्पूर्ण प्रकर्ष से उदीयमान परस्पर सटे असंख्य सूर्यों की तरह शोभित भा-मण्डल की अतिशय आभा तीनों लोंकों के समस्त दीप्तिमान पदार्थों की कान्ति को तिरस्कृत करती है। करोड़ों सूर्यों के सदृश उज्जवल तीर्थंकरों का प्रभा-मण्डल जयवन्तता का प्रतीक है।
समवशरण स्थली में जिनेन्द्र भगवान के मुखरूपी कमल से बादलों की गर्जना का अनुकरण करने वाली महादिव्य ध्वनि निकलती है। भव्य जीवों के मन में स्थित मोहरूपी अन्धकार को नष्ट करती हुई सूर्य के समान सुशोभित होती है। जिसमें सब अक्षर स्पष्ट है। दिव्य ध्वनि समस्त मनुष्यों की भाषाओं और कुभाषा को अन्तर्भूत तत्वों का बोध कराती है।यह महादिव्य ध्वनि सर्वभाषा रूप का प्रतीक है। अठारह महाभाषा, सात सौं क्षुद्र भाषा तथा और भी संज्ञी जीवों की समस्त अक्षर, अनक्षरात्मक भाषायें दिव्य ध्वनि में समाहित है। तालू , दाँत, ओष्ठ और कण्ठ के व्यापार से रहित होकर एक ही समय में (एक साथ) भव्यजनों को दिव्य उपदेश देती है। जिस समय दिव्य ध्वनि खिरती है उस समय भगवान का मुख बन्द रहता है। जिनेन्द्र भगवान की स्वभावत: अस्खलित दिव्य ध्वनि तीनों संध्याकालों में नव-मुहूर्त तक निकलती है और एक योजन पर्यन्त जाती है। इसके अतिरिक्त देव इन्द्र एवं चक्रवर्ती के प्रश्नरूप अर्थ के निरूपणार्थ शेष समयों में भी निकलती है। यह दिव्य-ध्वनि भव्य जीवों को छ: द्रव्य, सात तत्व, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय का निरूपण नाना प्रकार से करती है।गणधर का अभाव होने से दिव्य -ध्वनि की प्रवृत्ति नहीं होती। दिव्य-ध्वनि चार पुरूषार्थ रूप चार फल को देने वाली है। सर्वभाषाओं में परिणित होने के स्वभाव को लिये हुये और समवशरण सभा में व्याप्त हुआ भी सम्पन्न वचनामृत प्राणियों को उसी प्रकार तृप्त करता है जिस प्रकार की अमृत पान।
पुष्प वृष्टि को आनन्द व मंगल का प्रतीक माना है। पुष्प वृष्टि की सुगंधि तीर्थंकरों के गणों की सुगंधि को प्रकट करती है। जिसकी सुगंधि चारों और फैली हुई है। सन्तानक, मन्दार, सुन्दरमेरू, सुपारिजात आदि कल्प वृक्षों के पुष्पों की वृष्टि देवों द्वारा की जाती है वह ऐसी प्रतीत होती है कि मानो भगवान के दिव्य गुणों की पंक्ति ही प्रसारित हो रही।२३ झन-झन शब्द करते हुये भ्रमरों से व्याप्त एवं उत्तम भक्ति से युक्त देवों द्वारा छोड़ी हुई पुष्प वृष्टि भगवान के चरण कमलों के मूल में गिरती है।
शोभायमान अमृत की राशि के समान निर्मल और अपरिमित तेज तथा कांति को धारण करने वाले चमर भगवान के अद्वितीय प्रभुत्व को सूचित करते हैं। श्री जिनेन्द्र भगवान के अपरिमित तेज को धारण करने वाले चामरों की संख्या विद्वान लोग चौसठ बतलाते हैं। जिनेन्द्र भगवान के चौसठ चमर कहे गये है और वे ही चमर चक्रवर्ती से लेकर राजा पर्यन्त आधे-आधे होते है अर्थात् चक्रवर्ती के बत्तीस चमर, अर्द्धचक्री के सोलह, मण्डलेश्वर के आठ चमर, अर्द्धमण्डलेश्वर के चार, महाराज के दो और राजा के एक चमर होता है। अत: प्रभुत्वता के प्रतीक स्वरूप मंदिरों में प्रतिमाओं के साथ ये अलंकृत किये जाते है।
सारे लोक में कीर्ति फैलाने का प्रतीक माने गये है। दुन्दभिनाद जिनका शब्द अत्यन्त मधुर और गम्भीर था। समस्त दिशाओं के मध्यभाग को शब्दायमान करते हुए आकाश को अच्छादित कर रहे थे। ‘‘भक्तामर स्तोत्र’’ के बत्तीसवें श्लोक में दुन्दुभिनाद की महिमा का सुन्दर वर्णन किया है। कि सारा आकाश आपके कीर्ति घोषो से अनुगुंजित है दिग्व्यापी यह गम्भीर अनवरत शब्द समस्त दिशाओं में समा गया है। यह तीनों लोकों के प्राणियों को शुभ समागम की विभूति लुटाने वाला है। विषय कषायों से आसक्त जीवों को मोह से रहित होकर जिनेन्द्र भगवान की शरण में आने के लिए मानों देवों का दुन्दुभिबाजा गम्भीर शब्द करता हैं। दुन्दुभिबाजों का मधुर शब्द चित्त को आनंदित करता है। प्रत्येक अष्ट मंगल प्रातिहार्य सम्पूर्ण सुखों से भी अत्यन्त पवित्र एवं मंगलकारी सुखों के प्रतीक माने गये हैं। इनका अंकन प्रत्येक जैन मंदिरों में किसी न किसी रूप में देखने को मिलता। कुछ मूर्तियों पर ये अपने समग्र रूप में नहीं मिलते है। उदाहरण के लिये अशोक वृक्ष और पुष्प वृष्टि के अंकन चित्रों में तो हुये है, किन्तु मूर्तियों के साथ बहुत कम हुये हैं। दिव्य ध्वनि को अंकित करने का कलाकार के पास कदाचित, कोई माध्यम न था। विभिन्न कालों में मंदिरों के रूप और कला में विभिन्न परिवर्तन होते रहे, कला एकरूप होकर कभी स्थिर नहीं रही। प्राचीन काल में प्रतिमा के साथ अष्ट मंगल प्रातिहार्य का अंकन होता था, किन्तु आधुनिक काल में प्रतिमायें अलग निर्मित होती है और अष्ट मंगल प्रातिहार्य में भा-मण्डल, छत्र, चमर, सिंहासन पृथक्-पृथक् रहते है शेष चार प्रीतिहार्यों की रचना मूर्ति के पीछे दीवाल पर किसी न किसी रूप में की जाती है। शास्त्रीय दृष्टि से अष्ट मंगल प्रातिहार्य मंदिर में जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा के साथ बनाने का विधान अनिवार्य है।