अध्यात्म, प्रार्थना, ध्यान और सामायिक का रोगी के ऊपर क्या प्रभाव पड़ता है, इस पर पश्चिमी जगत विशेषकर इंग्लैंड में बहुत अनुसंधान और विवेचनाएँ चल रही हैं। भारत जिस आध्यात्मिक आस्था से हजारों वर्षों से जुड़ा है, आज विश्व का ध्यान उन रहस्यों की ओर जाना शुरु हो गया है। ब्रिटेन में इस समय एक बात पर विशेष बहस चल रही है कि भारत में प्रचलित अध्यात्म आस्था और प्रार्थना जैसे—भाव—विज्ञान से रोगी के स्वस्थ होने की रफ्तार बढ़ जाती है। इस ओर वहाँ सफल परीक्षण और प्रयोग हुए हैं।
डॉ. लोरी डोसे ने अपने एक संरक्षण में लिखा है कि उन्होंने प्रार्थना की एक अजीब चिकित्सा पद्धति का अनुभव किया। उन्होंने अपने प्रशिक्षण समय का जीवन्त वृत्तान्त लिखा, जब वे टेक्सास के पाईलैण्ड मेमोरियल अस्पताल में थे। उन्होंने एक कैंसर के मरीज को अन्तिम अवस्था में देखा और उसे सलाह दी कि वह उपचार से विराम ले ले, क्योंकि उपलब्ध चिकित्सा से उसे विशेष लाभ नहीं हो रहा है। उसके बिस्तर पर बैठा हुआ कोई न कोई मित्र उसक स्वास्थ्य लाभ की प्रार्थना किया करता था। एक वर्ष के पश्चात् जब कि डॉ. लारी वह अस्पताल छोड़ चुके थे, उन्हें एक पत्र मिला कि क्या आप अपने पुराने मरीज से मिलना चाहेंगे।
१९८० में जब डॉ. लारी मुख्य कार्यकारी अधिकारी बने, उन्होंने यह निष्कर्ष दिया कि प्रार्थना से विभिन्न प्रकार के महत्वपूर्ण शारीरिक परिर्वतन घटित होते हैं। उन्होंने लिखा कि मुझे यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि वह मरीज अब भी जिन्दा है। उसके एक्स—रे का निरीक्षण करने पर पाया कि उसके फेफड़े बिल्कुल ठीक हैं। उनके दिये गये निष्कर्षों से चिकित्सा विज्ञान को नई आध्यात्मिक दृष्टि मिली और यह सुनिश्चित हुआ कि शरीर में होने वाली ‘व्याधि’ का एक प्रमुख कारण हमारी मानसिक सोच है जो ‘आधि’ के नाम से जानी जाती है। गलत सोच, मनोविकारों या मनोरोगों का कारण बनती है। इस परिप्रेक्ष्य में ‘प्रार्थना’ मन की बीमारी का सही इलाज है। अक्सर यह देखा गया है कि व्यक्ति जब ५० की उम्र पार कर जाता है उस पर मानसिक तनाव का प्रभाव जल्दी होने लगता है। चिड़चिड़ापन उसके तनाव की ही अभिव्यक्ति है। डायबिटीज बढ़ने, भूख कम लगने, कमर दर्द, आँखों की ज्योति मंद पड़ने और रक्तचाप प्रभावित होने वाली बीमारियाँ मानसिक तनाव के कारण हैं। वस्तुत: प्रार्थना में या स्तुतिगान करते समय हम उस लोकोत्तर व्यक्तित्व से जुड़ जाते हैं, जिसकी गुण स्तुति, हमारी प्रार्थना का आधार होता है।
मूल संस्कृत पाठ से भक्तामर स्तोत्र का उच्चारण करते हुए क्या हम वैसी ही ध्वनि तरंगों का निष्पादन और निर्गमन नहीं करने लगते हैं, जो आचार्य मानतुंग ने सृजित को होगी। उस समय ध्वनि तरंगों की आवृत्ति में साम्यावस्था होने से हम आचार्य मानतुंग से तादात्म्य स्थापित कर लेते हैं। केवल वाचनिक प्रार्थना रूपान्तरण नहीं कर पाती। भावों की तीव्रता या भाव सम्प्रेषण प्रार्थना का प्रमुख तत्त्व होना चाहिये। ऐसी प्रार्थना बुरे या कषायजन्य विचारों के लिये परावर्तक का कार्य करता है। बुरे विचार हमारे ऊपर आक्रमण करें, इसके पहले ही वे प्रत्यार्वितत हो जाते हैं। अत: प्रार्थना भावनात्मक परिवर्तन के लिये एक प्रबल निमित्त है। घटना १९९९ की है। केन्सर विशेषज्ञ डॉ. राबर्ट ग्राइमर रायल आर्थोपिडिक अस्पताल के अधिकारी थे। उनकी नजर एक ऐसे मरीज पर पड़ी जो हड्डियों के कैंसर से जीवन—मृत्यु के बीच संघर्ष कर रहा था। उसका ट्यूमर शल्य क्रिया द्वारा अलग कर दिया गया था। लेकिन जब दूसरा ट्यूमर पैदा हो गया तो मरीज मैरी सेल्फ ने मौत को ही मित्र मान लिया। वह पेशे से वैज्ञानिक थी। उसने दवा की चिन्ता छोड़कर ईश्वर की प्रार्थना के लिये अपनी आस्था जोड़ ली। समय बीतता गया और कुछ अद्भुत परिणाम हासिल हुए। स्वैन रिपोर्ट में उसका ट्यूमर कुछ घटता हुआ नजर आया। डॉ. ग्राइमर ने मैरी से इसके स्वैन रिपोर्ट में उसका ट्यूमर कुछ घटता हुआ नजर आया।
डॉ. ग्राइमर ने मैरी से इसके बारे में जानना चाहा तो उसने बड़े आत्मविश्वास से भरकर कहा—हाँ, डॉ. साहब मेडिकल इलाज से परे भी कुछ और है, अच्छा होने में मैं उसी को श्रेय देता हूँ।’ डॉ. ग्राइमर ने हंसते हुए कहा—‘मैं उसे खरीद लेना चाहता हूँ।’ ‘नहीं! वह कोई क्रय—विक्रय की वस्तु नहीं है। ईश्वर के प्रति आस्था पैदा कर सकते हैं, परन्तु उसे करोड़ों डालर में भी नहीं खरीदा जा सकता है। वस्तुत: यह वस्तु नहीं, विशुद्ध भाव है।’ ब्रिटेन के डॉक्टरों का ध्यान इस दूसरी शक्ति की ओर जाने लगा जिसे आध्यात्म शक्ति (ध्यान/प्रार्थना) की अमोघ शक्ति कह सकते हैं। वे चिकित्सा विज्ञान को अध्यात्म विज्ञान के परस्पर सह सम्बन्धों पर प्रयोगों में जुट गये। एडिनबरा यूनिर्विसटी के मेडिकल स्कूल के डॉक्टर ‘मरे’ अपने साथ बीमारी की एक्स रे रिपोर्ट और पेनिसिलीन के साथ यह जानकारी भी रखते थे कि क्या मरीज कभी प्रार्थना भी करता है ? प्राय: मरीज के मन में जो परेशानियाँ उसकी बीमारी पर हावी हैं उन्हें बाहर निकालने के लिये डॉक्टर प्रयोग करें तो इलाज का प्रभाव ज्यादा सक्रिय होने लगता है। प्रो. स्टीन राइट के अनुसार डाक्टर को पहले अध्यात्म की जरूरत है, जिससे वह मरीज को प्रभावित कर सकता है। एडिनबरा विश्वविद्यालय के चिकित्सा छात्रों ने पाठ्यक्रम निर्धारकों से मांग की कि वे चिकित्सा पाठ्यक्रमों के साथ अध्यात्म की कक्षाएँ लगायें जहाँ उन्हें विधिवत ध्यान और प्रार्थना की वैज्ञानिक पद्धति से अवगत कराया जाये। उन्हें योग विद्या के बारे में भी प्रशिक्षण दिया जाये। ध्यान और रोग से शारीरिक स्थिरता के साथ मन को एकाग्र भी किया जा सकता है।
ध्यान में किसी मंत्र या मंत्र— बीजाक्षर का विशुद्ध चिन्तन है, जो आत्म शक्ति तथा संकल्प शक्ति को बढ़ाने में सबल निमित्त है। ध्यान संवेगात्मक भावों एवं मानसिक विकारों पर नियंत्रण कर व्यक्ति को सहिष्णु एवं तनाव रहित करता है। क्रोध जैसे आवेग को ध्यान से कम करके शांत एवं स्वभाव में जीने में सहायता करता है। हमार चित्त/मन सदैव विचारों की यात्रा करते हुए बाहर दौड़ा करता है। जीवन ऊर्जा का ८० प्रतिशत भाग यों ही व्यर्थ बाहर बहकर नष्ट हो जाता है। इसे संधारित करने की क्षमता हम नहीं जुटा पाते हैं। ध्यान एवं योग से इस जीवन ऊर्जा (चैतन्य धारा) को अपने भीतर रोक सकते हैं। जैसे उत्तल लैंस (ण्दहर्ने थहे) फैली हुई प्रकाश किरणों को एक बिन्दु पर फोकस कर ऊर्जा (ऊष्मीय) का निष्पादन करता है, ऐसे ही ध्यान से विचारों का प्रवाह/या विचारों का आक्रमण रूक कर विचार—शून्य स्थिति की ओर ले जाता है। ध्यान से हमारे विचारों में विकारों का परिशोधन होता है। ध्यान है—हमारी बाह्यकायिक, वाचनिक एवं सूक्ष्म मानसिक वृत्तियों का संकुचन। जितना बाह्य प्रवृत्तियों में संकुचन या निरसन होगा, उतना ही आत्म—शुद्धि या आत्म शक्ति का विकास होता जाता है।
ध्यान जैन दर्शन की आत्मा है। यह चारित्र शुद्धि का अंतिम पड़ाव है। हम रोज—रोज मन्दिर क्यों जाते हैं ? वस्तुत: प्रतिमा की ध्यानस्थ मुद्रा के दर्शन से हमें अपनी मौलिकता में लौटने का सन्देश प्राप्त होता है। यह ऐसा भाव—रसायन है जो जीवन की असत् एवं वर्जनीय काषायिक प्रवृत्तियों को दूर कर जीवन—रूपान्तरण में परम सहायक बनता है। रोग के निदान में ध्यान और योग में अद्भुत क्षमता है। नार्थ केरोलिना की ड्यूक यूनिर्विसटी के डाक्टरों ने पाया कि जो लोग मन्दिर, उपासना गृह, प्रार्थना या ध्यान स्थल पर नियमित जाकर ध्यान करते हैं, वे इन स्थानों पर न जाने वाले लोगों की अपेक्षा कम बीमार पड़ते हैं। अध्ययनों से एक बात और सिद्ध हुई है कि जो लोग सप्ताह में एक या अधिक बार धर्मस्थलों/तीर्थस्थानों पर जाकर धर्म सेवा करते हैं, वे अन्य लोगों की अपेक्षा सात वर्ष अधिक जीते हैं। ब्रिटेन में ३१ अध्ययनों से एक तथ्य उजागर हुआ कि जो प्रार्थना में विश्वास रखते हैं और प्रतिदिन प्रार्थना करते हैं, वे ज्यादा प्रसन्न रहते हैं तथा मानसिक तनाव कम होने से वे शांति का अनुभव करते हैं। ब्रिटेन की ही डॉ. गिल व्हाइट का कथन है कि—‘अध्यात्म के जरिये चिकित्सा करते समय मैं उस समय तक प्रतीक्षा करती हूँ, जब तक मेरे शरीर में एक करंट सा महसूस नहीं होने लगता। मेरे हाथ मरीज के सिर व शरीर के ऊपर घूमते हैं और रोगी का मेरे मन व शरीर से ट्यूिनग हो जाती है, जिससे हमारे व मरीज के बीच ऊर्जा का संचरण होने लगता है।’
रॉयल सोसायटी ऑफ मेडिसिन के जनरल में प्रकाशित एक शोधालेख में डॉ. डिक्सन के अनुसार—‘पहले वह स्वयं अध्यात्म के जरिये ऊर्जा संचित करता है, जो उसे ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से प्राप्त होती है, फिर उसे मरीज को प्रदान करता है।’ अध्यात्म के क्षेत्र में ‘विश्वास’ या ‘श्रद्धा’ एक शक्तिशाली चीज है। यदि डॉक्टर मरीज को यह विश्वास दिलाने में सफल है कि वह अपने आराध्य के प्रति पूर्ण विश्वास रखे तो जल्दी स्वास्थ्य—लाभ ले सकेगा, ऐसे डाक्टरों की दवा ज्यादा असरकारक साबित होगी। भारत की यह विरासत, जिसका अलिखित पेटेंट अभी तक भारत के नाम ही है, भारत में क्यों उपेक्षित हो रही है ? आवश्यकता है अध्यात्म को चिकित्सा विज्ञान से जोड़कर मानवीय सेवा को धर्म से सम्बद्ध कर आध्यात्मिक प्रयोग करने की। मेरा एक निजी संस्मरण इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है जिसके द्वारा इस लेख का उपसंहार करना चाहूँगा, जो अध्यात्म और चिकित्सा की जुगलबन्दी को पुष्ट करता है। घटना २० फरवरी २००२ की है। मेरी बेटी नन्दिनी का जयपुर में एंगेजमेन्ट हुआ। वर पक्ष से सुझाव आया कि मार्च ०२ में ही शादी सम्पन्न कर ली जावे क्योंकि लड़के की माँ स्तन कैंसर से गम्भीर रूप से पीड़ित है। शायद अप्रैल तक खुशी के ये पल न देख पाये। मैंने शादी के पूर्व होने वाली समधिन श्रीमती सुमन जैन को एक लम्बा विश्वास भरा पत्र लिखा और अमुक मंत्र लिखकर जाप करने की सलाह दी। प्रार्थना में भक्तामरजी का संस्कृत पाठ पढ़ने को कहा। २५ अप्रैल २००२ को विवाह सम्पन्न हुआ और आज २ वर्ष से अधिक समय बाद भी समधिन (मेरी बेटी की सास) अपने अवशेष आयु निषेकों के साथ ज्यादा स्वस्थ होकर जी रही हैं। अध्यात्म की शक्ति जीवन में शांति का दर्पण करती है। जो अमोल विरासत है। जरूरत है एक दृढ़ विश्वास, आस्था, श्रद्धा और संकल्प की।