जम्बूद्वीप से आठवाँ द्वीप नंदीश्वर द्वीप है। यह नंदीश्वर द्वीप समुद्र से वेष्टित है। इस द्वीप का मण्डलाकार से विस्तार एक सौ तिरेसठ करोड़ चौरासी लाख योजन है। इस द्वीप में पूर्व दिशा में ठीक बीचों-बीच अंजनगिरि नाम का एक पर्वत है। यह ८४००० योजन विस्तृत और इतना ही ऊँचा समवृत-गोल है तथा इन्द्रनील मणि से निर्मित है। इस पर्वत के चारों ओर चारी दिशाओं में चार द्रह हैं, इन्हें बावड़ी भी कहते हैं। ये द्रह एक लाख योजन विस्तृत चौकोन हैं। इनकी गहराई एक हजार योजन है, इनमें स्वच्छ जल भरा हुआ है, ये जलचर जीवों से रहित हैं। इनमें एक हजार उत्सेध योजन प्रमाण विस्तृत कमल खिल रहे हैं। इन वापियों के नाम दिशा क्रम से नन्दा, नन्दावती, नन्दोत्तरा और नन्दिघोषा हैं। इन वापियों के चारों तरफ चार वन-उद्यान हैं जो कि एक लाख योजन लम्बे और पचास हजार योजन चौड़े हैं। ये पूर्व आदि दिशाओं में क्रम से अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्रवन हैं। इनमें से प्रत्येक वन में वन के नाम से सहित चैत्यवृक्ष हैं। प्रत्येक वापिका के बहु मध्य भाग में दही के समान वर्ण वाले दधिमुख नाम के उत्तम पर्वत हैं। ये पर्वत दश हजार योजन ऊँचे तथा इतने ही योजन विस्तृत गोल हैं। वापियों के दोनों बाह्य कोनों पर रतिकर नाम के पर्वत हैं। जो कि सुवर्णमय हैं, एक हजार योजन विस्तृत एवं इतने ही योजन ऊँचे हैं। इस प्रकार पूर्व दिशा सम्बन्धी एक अंजनगिरि, चार दधिमुख और आठ रतिकर ऐसे तेरह पर्वत हैं। इन पर्वतों के शिखर पर उत्तम रत्नमय एक-एक जिनेन्द्र मन्दिर स्थित हैं। जैसे यह पूर्व दिशा के तेरह पर्वतों का वर्णन किया है वैसे ही दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर में भी तेरह-तेरह पर्वत हैं। उन पर भी एक-एक जिनमंदिर हैं। इस तरह कुल मिलाकर १३ ± १३ ± १३ ±१३ · ५२ जिनमंदिर हैं। जैसे पूर्व दिशा में चार वापियों के क्रम से नंदा आदि नाम हैं। वैसे ही दक्षिण दिशा में अंजनगिरि के चारों ओर जो चार वापियाँ हैं उनके पूर्वादि क्रम से अरजा, विरजा, अशोका और वीतशोका ये नाम हैं। पश्चिम दिशा के अंजनगिरि की चारों दिशाओं में क्रम से विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता ये नाम हैं तथा उत्तर दिशा के अंजनगिरि की चारों दिशागत वापियों के रम्या, रमणीया, सुप्रभा और सर्वतोभद्रा नाम हैं।
चौंसठ वन
इन सोलह वापिकाओं के प्रत्येक के चार-चार वन होने से १६ ² ४ · ६४ वन हैं। प्रत्येक वन में सुवर्ण तथा रत्नमय एक-एक प्रासाद है। उन पर ध्वजायें फहरा रही हैं। इन प्रासादों की ऊँचाई बासठ योजन और विस्तार इकतीस योजन है तथा लम्बाई भी इकतीस योजन ही है। इन प्रासादों में उत्तम-उत्तम वेदिकायें और गोपुर द्वार हैं। इनमें वन खण्डों के नामों से युक्त व्यंतर देव अपने बहुत से परिवार के साथ रहते हैं।
बावन जिनमंदिर
इस प्रकार नंदीश्वर द्वीप में ४ अंजनगिरि, १६ दधिमुख और ३२ रतिकर ये ५२ जिनमंदिर हैं। प्रत्येक जिनमंदिर उत्सेध योजन से १०० योजन लम्बे, ५० योजन चौड़े और ७५ योजन ऊँचे हैं। प्रत्येक जिनमंदिर में १०८-१०८ गर्भगृह हैं और प्रत्येक गर्भगृह में ५०० धनुष ऊँची पद्मासन जिन प्रतिमायें विराजमान हैं। इन मंदिरों में नाना प्रकार के मंगलघट, धूपघट, सुवर्णमालायें, मणिमालायें, अष्ट मंगलद्रव्य आदि शोभायमान हैं। इन मन्दिरों में देवगण जल, गंध, पुष्प, तंदुल, उत्तम नैवेद्य, फल, दीप और धूपादि द्रव्यों से जिनेन्द्र प्रतिमाओं की स्तुतिपूर्वक पूजा करते हैं। ज्योतिषी, वानव्यंतर, भवनवासी और कल्पवासी देवों की देवियाँ इन जिन भवनों में भक्तिपूर्वक नाचती और गाती हैं। बहुत से देवगण भेरी, मर्दल और घण्टा आदि अनेक प्रकार के दिव्य बाजों को बजाते रहते हैं।
अष्टाह्निक पर्व पूजा
इस नंदीश्वर द्वीप में प्रत्येक वर्ष आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुन मास में शुक्लपक्ष की अष्टमी से लेकर पूर्णिमा तक चारों प्रकार के देवगण आते हैं और भक्ति से अखण्ड पूजा करते हैं। उस समय दिव्य विभूति से विभूषित सौधर्म इन्द्र हाथ में श्रीफल नारियल को लेकर भक्ति से ऐरावत हाथी पर चढ़कर आता है। उत्तम रत्नाभरणों से विभूषित ईशान इन्द्र भी उत्तम हाथी पर चढ़कर हाथ में सुपाड़ी फलों के गुच्छे को लिए हुए भक्ति से वहाँ पहुँचता है। कुण्डलों से विभूषित और हाथ में आम्रफलों के गुच्छे को लिए हुए सानत्कुमार इन्द्र भी भक्ति से युक्त होता हुआ उत्तम सिंह पर चढ़कर यहाँ आता है। विविध प्रकार की शोभा को प्राप्त माहेन्द्र भी श्रेष्ठ घोड़े पर चढ़कर हाथ में केलों को लिए हुए भक्ति से यहाँ आता है। धवल हंस पर आरुढ़, निर्मल शरीर से सुशोभित और भक्ति से युक्त ब्रह्मेन्द्र उत्तम केतकी पुष्प को हाथ में लेकर आता है। उत्तम चँवर और विविध छत्र से सुशोभित और फूले हुए कमल को हाथ में लिए हुए ब्रह्मोत्तर इन्द्र भी क्रौंच पक्षी पर आरुढ़ होकर यहाँ आता है। कुण्डल और केयूर आदि आभरणों से दैदीप्यमान और भक्ति से भरित शुव्रेंद्र उत्तम चक्रवाक पक्षी पर आरुढ़ होकर सेवन्ती पुष्प को हाथ में लिए हुए यहाँ आता है। दिव्य विभूति से विभूषित, उत्तम एवं विविध प्रकार के फूलों की माला को हाथ में लिए हुए महाशुव्रेन्द्र भी तोता पक्षी पर चढ़कर भक्तिवश यहाँ आता है। कोयल वाहन रूप विमान पर आरुढ़ होकर, उत्तमरत्नों से अलंकृत शतार इन्द्र नील कमल को हाथ में लेकर भक्ति से प्रेरित हुआ यहाँ आता है। गरुड़ विमान पर आरुढ़ होकर सहस्रार इन्द्र भी अनार फलों के गुच्छों को हाथ में लेकर जिन चरणों की भक्ति में अनुरक्त हुआ यहाँ आता है। विहगाधिप (गरुड़पक्षी) पर आरुढ़ होकर पनस फल के गुच्छे को हाथ में लिए हुए आनतेन्द्र भी उत्तम दिव्य विभूति के साथ यहाँ आता है। उत्तम आभरणों से मण्डित और तुम्बरु फल के गुच्छे को हाथ में लिए हुए प्राणतेन्द्र भी भक्तिवश पद्म विमान पर आरुढ़ होकर यहाँ आता है। पके हुए गन्ने को हाथ में लेकर और विचित्र कुमुद विमान पर चढ़कर आरणेन्द्र भी विविध अलंकारों से अलंकृत हुआ यहाँ आता है। कटक, अंगद, मुकुट एवं हार से संयुक्त और चन्द्रमा के समान धवल चँवर हाथ में लिए हुए अच्युतेन्द्र उत्तम मयूर वाहन पर चढ़कर यहाँ आता है।१ (ये नाना प्रकार के मयूर, कोयल, तोता आदि वाहन बताये हैं वे सब आभियोग्य जाति के देव उस प्रकार के वाहन का रूप बना लेते हैं चूँकि वहाँ पशु-पक्षी नहीं हैं।) नाना प्रकार की विभूति से सहित अनेक फल व पुष्पमालाओं को हाथों में लिए हुए और अनेक प्रकार के वाहनों पर आरुढ़ ज्योतिषि, व्यंतर एवं भवनवासी देव भी भक्ति से संयुक्त होकर यहाँ आते हैं। इस प्रकार ये चारों निकाय के देव नंदीश्वर द्वीप के दिव्य जिनमंदिरों में आकर नाना प्रकार की स्तुतियों से दिशाओं को मुखरित करते हुए प्रदक्षिणायें करते हैं।
चतुर्णिकाय देवों की पूजा का क्रम
पूर्वाह्न में दो प्रहर तक भक्ति से युक्त कल्पवासी देव पूर्व दिशा में, भवनवासी दक्षिण में, व्यंतर देव पश्चिम दिशा में और ज्योतिषी देव उत्तर दिशा में पूजा करते हैं। पुन: अपराह्न में दो प्रहर तक कल्पवासी देव दक्षिण में, भवनवासी पश्चिम में, व्यंतर उत्तर में और ज्योतिषी पूर्व में पूजा करते हैं। अनन्तर पूर्व रात्रि में दो प्रहर तक कल्पवासी पश्चिम में, भवनवासी उत्तर में, व्यंतर पूर्व में और ज्योतिषी दक्षिण में पूजा करते हैं। तत्पश्चात् पश्चिम रात्रि में दो प्रहर तक कल्पवासी उत्तर में, भवनवासी पूर्व में, व्यंतर दक्षिण में और ज्योतिषी पश्चिम में पूजा करते हैं। इस प्रकार ये चारों निकाय के देव अष्टमी से पूर्णिमा तक पूर्वाह्न, अपराह्न, पूर्वरात्रि और पश्चिमरात्रि में दो-दो प्रहर तक उत्तम भक्तिपूर्वक प्रदक्षिण क्रम से अपनी-अपनी विभूति के योग्य जिनेन्द्र प्रतिमाओं की विविध प्रकार से पूजा करते हैं। (वहाँ से सूर्य-चन्द्रमा अपने-अपने स्थान पर स्थिर हैं अत: वहाँ रात-दिन का विभाग नहीं है।)
पूजा विधि
सभी देवेन्द्र आदि मिलकर उन अकृत्रिम जिन प्रतिमाओं का विधिवत् अभिषेक करते हैं। पुन: जल, चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फलों से अष्टविध अर्चा करते हैं। वे देवगण अनेक प्रकार से चंदोवा आदि को बांधकर भी भक्ति से जिनेश्वर अर्चा करते हैं। इन चंदोवों में हार, चँवर और िंककणिओं को लटकाते हैं। इस प्रकार चंदोवा, छत्र, चँवर, घंटा आदि से मंदिर को सजाते हैं। ये सभी देवगण पूजा के समय मर्दल, भेरी, मृदंग, पटह आदि बहुत प्रकार के बाजे भी बजाते हैं। वहाँ दिव्य वस्त्राभरणों से सुसज्जित देवकन्यायें विविध प्रकार के नृत्य करती हैं और अन्त में जिनेन्द्र भगवान के चरित्रों का अभिनय करती हैं। सभी देवगण भी मिलकर बहुत प्रकार के रस और भावों से युक्त जिनेन्द्र देव के चरित्र सम्बन्धी नाटक को करते हैं। इस प्रकार नंदीश्वर द्वीप और नंदीश्वर पर्व की पूजा का वर्णन हुआ है। यह द्वीप मानुषोत्तर पर्वत से परे है अत: यहाँ मनुष्य नहीं जा सकते हैं केवल देवगण ही वहाँ जाकर पूजा करते हैं। वहाँ विद्याधर मनुष्य और चारणऋद्धिधारी मुनिश्वर गण भी नहीं जा सकते हैं अत: इन पर्वों में यहाँ भावों से ही पूजा कर भव्यजन पुण्य संचय किया करते हैं।
कुंडलवरद्वीप-रुचकवर द्वीप
कुंडलवर नाम से यह ग्यारहवाँ द्वीप है। इसके ठीक बीच में चूड़ी के समान आकार वाला एक कुण्डलवर पर्वत है। इस पर्वत पर चारों दिशाओं में एक-एक जिनमंदिर हैं। अत: वहाँ चार जिनमंदिर हैं। ऐसे तेरहवाँ द्वीप रुचकवर नाम का है। वहाँ पर भी ठीक बीच में चूड़ी के समान आकार वाला एक रुचकवर पर्वत है। उस पर भी चारों दिशाओं में एक-एक जिनमंदिर होने से वहाँ के भी जिनमंदिर चार हैं। इस प्रकार मानुषोत्तर पर्वत से बाहर में नंदीश्वर के ५२ ± कुण्डलवर के ४ ± रुचकवर के ४ ऐसे · ६० जिनमंदिर हैं तथा मनुष्यलोक के मानुषोत्तर पर्वत तक ३९८ जिनमंदिर हैं। ये सब ३९८ ± ६० · ४५८ अकृत्रिम, अनादिनिधन जिनमंदिर हैं। इस तेरहवें द्वीप से आगे असंख्यात द्वीप-समुद्रों में अन्यत्र कहीं भी स्वतन्त्र रूप से अकृत्रिम जिनमंदिर नहीं हैं। हाँ, सर्वत्र व्यंतर देव और ज्योतिषी देवों के घरों में अकृत्रिम जिनमंदिर अवश्य हैं, वे सब गणनातीत हैं। इन सब जिनमंदिरों को मेरा नमस्कार होवे।