नर्मदा के सुरम्य तट पर स्थित प्रसिद्ध जैन सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट का वैदिक परम्परा के तीर्थ एवं ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रख्यात ओंकारेश्वर से गहरा ऐतिहासिक संबंध है। नर्मदा नदी के एक तट पर सिद्धवरकूट तो नदी के दूसरे तट पर ओंकारेश्वर है। सम्पूर्ण क्षेत्र पूर्व में मांधाता के नाम से प्रख्यात था।ऐतिहासिक पौराणिक संदर्भों का विश्लेषण करते हुए इतिहास की टूटी लडियों को जोड़ने का प्रयास प्रस्तुत लेख में किया गया है।
निर्वाण काण्ड (प्राकृत) की ११ वीं गाथा में वर्णन है –
रेवा—णइए तीरे पच्छिम—भायम्मि सिद्धवर… कूडे।
दो चक्की दह कप्पे आह्ट्ठय — कोडि— णिव्वुदे वन्दे।।
इस गाथा से स्पष्ट है कि सिद्धवरकूट प्राचीन काल से जैन परंपरा में पूजित है। यहां से दो चक्रवर्ती, १० कामदेव व साढ़े तीन करोड़ मुनि मोक्ष गये हैं। यह संख्या सिद्धवरकूट के लंबे समय से जैन साधुओं और तपस्वियों की तपस्थली व मोक्षस्थली होने का संकेत देती है। नर्मदा और रेवा के संगम पर स्थित यह सिद्धक्षेत्र ऊन और बड़वानी से निकटता से जुड़ा हुआ है। यह तीनों ही स्थान निमाड़ के गौरव हैं। भारत का प्राचीनतम इतिहास नर्मदा और विंध्याचल के साथ एकमेव है। यह इतिहास अब धीरे—धीरे उजागर हो रहा है और आशा करनी चाहिए कि कई नए संदर्भ इससे उजागर होंगे। भट्टारक महेन्द्रकीर्तिजी ने सं १९३५ में स्वप्न पाकर खोज की तो उन्हें चन्द्रप्रभु भगवान की सं १५४५ की मूर्ति व वि.सं. ११(?) आदिनाथ भगवान की मूर्ति प्राप्त हुई एवं विशाल खंडित मंदिर परिसर दिखाई दिया। जीर्णोद्धार के पश्चात् सं. १९५१ में प्रतिष्ठा द्वारा यह क्षेत्र प्रकाश में आया। आज इस क्षेत्र में ओंकारेश्वर परियोजना के साथ नई हलचल पैदा हुई है। बांध व पन बिजली घर का निर्माण हो रहा है। जैन समाज को जागरुक रहना चाहिए कि वंदित स्थान को कोई हानि न पहुँचे। हमें इन नये का स्वागत तो करना ही है किंतु अपने प्राचीन तीर्थों की रक्षा के लिए भी जागरुक रहना चाहिए। जैन समाज के लिए देश सबसे पहले है किंतु धार्मिक आस्थाएँ भी समानान्तर रूप से महत्वपूर्ण हैं।
बॉध स्थल पर प्राचीन मूर्तियाँ प्राप्त हो रही हैं जो इस बात का संकेत दे रही हैं कि नर्मदा—रेवा के संगम स्थल—पर प्राचीनकाल में भी जैन परिसर था। ट्रेन से सिद्धवरकूट आने के लिए ओंकारेश्वर रोड स्टेशन पर उतरना पड़ता है। पहले इस स्टेशन व स्थान का नाम मांधाता हुआ करता था। आज भी यह स्थान पोस्ट मांधाता के नाम से जाना जाता है। यदि मांधाता नाम बना रहता तो इतिहास की गहराई में जाने में मदद मिलती। मांधाता अयोध्या का एक प्राचीन सूर्यवंशी राजा था जो दिलीप के पूर्वजों में से था। आेंकारेश्वर के प्राचीन संदर्भों में भी मांधाता का उल्लेख है। यदि मांधाता के कार्यकलापों का विवरण प्राप्त हो जाए तो सिद्धवरकूट की प्राचीनता पहचानी जा सकेगी। नर्मदा के किनारे ईटबेड़ी (कसरावद) में भी जैन परिसर होने की संभावना व्यक्त की गई है। मोहन जोदड़ो/ सिंधु सभ्यता काल में नर्मदा घाटी में उसी प्रकार की सभ्यता के अस्तित्व का पता लगता है। इस सभ्यता में योगिक जीवन दर्शन के संदर्भ मिले हैं। सम्पूर्ण नर्मदा का बहाव क्षेत्र अपने गर्भ में इतिहास की कई अज्ञात कड़ियों को छिपाये बैठा है । एक कड़ी को यहाँ हम पहचानने का प्रयत्न करेंगे। श्री विष्णुपुराण का कथन है कि जहां से सूर्य उदय होता है और जहां अस्त होता है वह सभी क्षेत्र युवनाश्व के पुत्र मांधाता का है। मांधाता सप्त द्वीपा पृथ्वी का राज्य भोगता था। मांधाता ने शतबिन्दु की पुत्री बिन्दुमती से विवाह किया था और उससे पुरुकुत्स , अम्बरीष और मुचुकुंद नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए और उसी से उसके पचास कन्याएँ उत्पन्न हुईं। इन कन्याओं का विवाह बहुवृच सौभरी नामक महर्षि से हुआ। मांधाता के पुत्र अम्बरिष के युवनाश्व नामक पुत्र हुआ। मांधाता के पुत्र पुरुकुतस की भार्या नर्मदा नागाधिपति की बहन थी। जिनकी प्रेरणा से रसातल में जाकर पुरुकुतस ने गंधर्वों का नाश कर नागाधिपतियों की मदद की। उस समय समस्त नागराजों ने नर्मदा को यह वर दिया कि जो कोई तेरा स्मरण करते हुए तेरा नाम लेगा सर्प विष से कोई भय न होगा। इसी वंश में चक्रवर्ती सगर हुआ । इस प्रकरण में मांधाता और नर्मदा का संबंध प्रकाशित होता है।
जैन संदर्भ भी कुछ संकेत देते हैं ।
मघवा:- धर्मनाथ के तीर्थ में मघवा नामक तीसरा चक्रवर्ती हुआ । अयोध्या नरेश इक्ष्वाकुवंशी सुमित्र की महारानी भद्रा से मघवा नाम का पुत्र हुआ। वह चक्रवर्ती राजा बना। अपरिमित वैभव होते हुए भी वह भोगों में आसक्त नहीं हुआ।इसका समय भगवान धर्मनाथ के पश्चात् तथा भगवान शान्तिनाथ के पहले है। अभयघोष केवली के उपदेश से उनके मन में आत्मकल्याण की भावना जागृत हुई और वे आरंभ परिग्रह का त्याग कर सकल चरित्र के धारी हो गये और मोक्षगामी हुए। पद्म पुराण के अनुसार अयोध्या नरेश सुरेन्द्रमन्यु हुआ जिसके वंश में मांधाता हुआ मांधाता के संबंध में बताते हुए रामचंद्र वर्मा ने लिखा है। अयोध्या का एक प्राचीन सूर्यवंशी राजा जो दिलीप के पूर्वजों में से था। मघवा:- सातवें द्वापर के व्यास। क्या मघवा और मांधाता एक ही व्यक्ति थे? इस प्रश्न के पैदा होने के तीन प्रमुख कारण हैं। सौभरि ऋषि ने मांधाता की ५० कन्याओं से विवाह किया था। सौभरि ऋषि ने १२ वर्ष जल में निवास किया था।
उस जल में सम्मद नामक एक बहुत सी संतानोंवाला और अति दीर्घकाय मत्स्यराज था। उसके पुत्र—पौत्र आदि उसके आगे पीछे इधर—उधर—पुच्छ और सिर के ऊपर घूमते हुए अति आनन्दित होकर रातदिन उसी के साथ क्रीड़ा करते थे…..सौभरि ऋषि ने विचार किया यह धन्य है जो ऐसी अनिष्ट योनि में उत्पन्न होकर भी अपने इन पुत्र—पौत्र और दौहित्र आदि के साथ निरंतर रमण करता हुआ हमारे हृदय में डाह उत्पन्न करता है। सौभरि ऋषि के हृदय में संसार बसाने की भावना जागृत हुई और गृहस्थाश्रम में प्रवेश की भावना से कन्या ग्रहण करने के लिए राजा मांधाता के पास आये। कहीं ऐसा तो नहीं कि सौभरि ऋषि नर्मदा के जल में तप करते हों।क्योंकि विशाल मत्स्य आेंकारेश्वर घाट से लगे नर्मदा में ही संभव है। उस घाट से थोड़ा हट कर मांधाता नाम से ज्ञात स्थान है । कहीं पौराणिक चक्रवर्ती मांधाता की राजधानी या उपराजधानी इसी क्षेत्र में हो। जैन संदर्भों में वर्णित चक्रवर्ती मघवा भी मांधाता के समान इक्ष्वाकुवंशी ही थे। मघवा रेवा नदी सिद्धवरकूट से तपस्या कर मोक्षगामी हुए। कथानक इस प्रकार बनता है कि द्वापर के सातवें युग में मांधाता नर्मदा के किनारे बसी एक विशाल नगरी के शासक थे। वे इक्ष्वाकुवंशी चक्रवर्ती राजा थे। नर्मदा के किनारे बसे राजा मांधाता की नगरी को ही उनके नाम से मांधाता कहा जाने लगा। मांधाता के पुत्र पुरुकुत्स ने नर्मदा क्षेत्र के बहुमुखी विकास के लिए प्रयत्न किया। यह भी पौराणिक संदर्भ है कि नागवंशी लोग गंधर्व जाति के लोगों से परास्त होकर पातालपुरी में केन्द्रित हो गये थे।
नागवंशियों ने पुरुकुत्स से अनुनय की हो कि उन्हें गंधर्वों के भय से मुक्त कराने के लिए मदद की जाए। श्री विषणुपुराण का कथन है कि नर्मदा, जिसे पुरुकुत्स की भार्या कहा गया है। वह पुरुकुत्स को रसातल में ले आयी।रसातल में पहुँचने पर उसने सम्पूर्ण गंधर्वों को मार डाला। उस समय समस्त नागराजाओं ने नर्मदा को यह वर दिया कि जो कोई तेरा स्मरण करते हुए तेरा नाम लेगा उसे सर्प विष से कोई भय नहीं होगा। नर्मदा के किनारे बसी जनजातियों में आज भी यह विश्वास प्रचलित है। इस कथानक में मनुष्य और प्रकृति (पुरुकुत्स और नर्मदा नदी) के सहयोग से रसातल पातालपुरी तक (पश्चिमांचल—खंभात की खाड़ी तक) मांधाता के साम्राज्य का विस्तार हुआ हो यह सत्य स्मृति रूप में रखने का प्रयत्न किया गया है। नर्मदा मध्यांचल की जीवन रेखा है। जिसका पुरुकुत्स ने जलमार्ग से यात्रा करते हुए गंधर्वों का वध किया हो और नागों को उनके आतंक से मुक्त कराया हो। नर्मदा को मध्य में रखकर सम्राट मांधाता ने धर्मराज्य की स्थापना की और अपने अंत समय सर्वत्यागी मुनि बनकर रेवा नदी के उस पार पहाड़ी पर आत्मा साधना की हो और वहीं से नश्वर देह त्याग मोक्षगामी हो गये हों। क्या ये मघवा थे ? संभावना के इस सेतु को हमें जीवित रहने देना चाहिए ताकि इतिहास को जोड़ा जा सके। जिस काल की यह घटना है उस समय श्रमण और वैदिक चिंतन व परम्परायें विरोधी नहीं थीं।
दोनों का नजरिया अलग—अलग था। मघवा शांतिनाथ के अंतराल में एवं भगवान धर्मनाथ के तीर्थकाल में हुए थे। मांधाता (मघवा) का काल निर्धारण करने में कुछ तथ्य मदद कर सकते हैं। मांधाता का वंश इस प्रकार चलता है— मांधाता— अम्बरीष—युवनाश्व—हारीत±पुरुकुत्स—त्रसयस्यु— अनरण्य- पृषदख—हर्यश्व—हस्त—सुमना—त्रिधन्वा—त्रय्यारूणि—सत्यव्रत (त्रिशंकु)—हरित—चञ्जु— विजय +वसुदेव— विजय से रूरूक— वृक्र— बाहु—सागर (इस ने हैहय और ताल जंघ क्षत्रियों का नाश किया) अयोध्या का चक्रवर्ती मघवा व नर्मदा किनारे का मांधाता का समन्वय कठिन हो सकता है पर असंभव नहीं—चक्रवर्ती होने के नाते अयोध्या और नर्मदा किनारे ओंकारेश्वर वाला स्थान सभी उनके मघवा या मांधाता के अधिपत्य में ही होंगे और नर्मदा तट की सुरम्यता को देखकर उन्होनें वहाँ एक नगरी बसाई हो जिसे मांधाता कहा जाने लगा हो। न हमारे पास मांधाता ग्राम का कोई प्रामाणिक इतिहास है न सिद्धवरकूट का प्राचीन इतिहास है किंतु मांधाता और मघवा इनमें विरोधाभास नजर नहीं आता है। हम प्राकृत की गाथा को भी कैसे भूल सकते हैं। भारतीय संस्कृति में नदी को जीवनदायिनी के रूप में पूजा गया है।
नर्मदा की सहायता—प्रेरणा से कहीं पुरुकुत्स—नाविक शक्ति का सहारा लेकर पश्चिम क्षेत्र (रसातल) गया हो और दानव जाति पर विजय प्राप्त की हो। दो सांस्कृतिक परम्पराएं संकेत कर रही हैं कि मांधाता और मघवा एक ही व्यक्ति होना चाहिए। यही संकेत सिद्धवरकूट के इतिहास की पुष्टि करेगा। जैन संदर्भों में वर्णित चक्रवर्ती मघवा भी मांधाता के समान इक्ष्वाकुवंशी ही थे। मघवा रेवानदी सिद्धवरकूट से तपस्या कर मोक्षगामी हुए।सिद्धवरकूट का इतिहास इसी प्रकार होना चाहिए, वह मांधाता और मघवा के समन्वय से नर्मदा घाटी के पुरातत्व से जुड़ा हुआ लगता है। पुरातत्ववेत्ता कुछ अन्य प्रमाण देंगे तो तथ्यों को स्वीकार करना अनिवार्यता होगी। किंतु जैन समाज इन संदर्भों के प्रकाश में अपने प्रकाशनों में जागरुक रहेगा तो जैन इतिहास को क्रमबद्ध करने में सहायता मिलेगी। नर्मदा और उसके किनारे पर जैनधर्म के अस्तित्व का प्रमाण विष्णुपुराण में अन्यत्र मिलता है। कथन है कि— पाराशरजी बोले— हे मैत्रेय! तदनन्तर माया मोह ने (देवताओं के साथ) जाकर देखा कि असुरगण नर्मदा के तट पर तपस्या में लगे हुए हैं। तब उसे मयूरपिच्छधारी दिगम्बर जैन मुण्डित केश माया मोह ने असुरों से अति मधुर वाणी में इस प्रकार कहा। यह सम्पूर्ण जगत विज्ञानमय है— ऐसा जानो। यह संसार अनाधार है भ्रमजन्य पदार्थों की प्रतीति पर ही स्थिर है तथा रागादि दोषों से दूषित है। इस संसार संकट में जीव अत्यंत भटकता रहता है। माया मोह ने दैत्यों से कहा था कि आप लोग इस महाधर्म को ‘अर्हत्’ इसका आदर कीजिए। अत: उस धर्म का अवलंबन करने से वे ‘आर्हत’ कहलाये। इस कथानक में परंपरागत विद्वेष की झलक हो किंतु नर्मदा के तट पर ‘अर्हत् वचन’ की प्राचीन उपस्थिति का प्रमाण तो है ही। मयूर पिच्छीधारी दिगम्बर और मुण्डित केश और उसके वचन सभी दिगम्बर मुनि की उपस्थिति को रेखांकित करते हैं। अमरकंटक से लेकर खंभात तक नर्मदा घाटी में जैन वंदित क्षेत्र अनेकों हैं।
संदर्भ स्थल:
१. कसरावद उत्खनन्— डॉ. वि. श्र. वाकणकर, उज्जैन।
२. विष्णु पुराण, अध्याय—३, अंश— ४, श्लोक— ५३, गीताप्रेस, गौरखपुर