[ श्री लाला छोटेलालजी कृत]
१०. एही प्रमाण कहे श्रुतमें ११. पहिले दो ज्ञान परोक्ष बताए१२. शेष प्रतक्ष से तीन रहे १३. मतिजानके नाम सु पांच जनाए।। सुमरन संज्ञा विचार लखौ भिनिबोध स् चिन्तन भेद
२३. ऋजुमति और विपुल मनपर्यय भेद कहे दो बेद कहान
२७. रूपी पुद्गल जान अरु पुद्गल रूपी जीव। थोड़ी पर्जाओं सहित जाने अवधि सदीव ॥११॥
॥ इति प्रथमोऽध्यायः ॥ छन्द विजया
२. दो विध उपशम क्षायिक नौ विध मिश्र अठारह भेद बताए। उदयिक भाव लखौ इकवीस परिनामिक त्रय भेद सु गाए ॥ १ ॥
द्रव्य अरुभाव मिलाय गिनो । १५. पंचइन्द्रीके भेदसु १६. दोयबखानो।
एक एक इन्द्री अधिक धारत ज्ञान मदीव ।। ७॥॥
३८. गुण असंख्य परदेश हैं, तैजस पहिले जान ॥ १८ ॥
२. जिन नर्कोंमें बिले कहे हैं तिनकी संख्या सुनो सुजान। प्रथम नर्कमें तीस लाख बिल दूजे लाख पचीस बखान ॥
११. हिमवन महाहिमवान निषध्या नीलसु रुक्मि शिखिरनी जानो । पूरब पच्छिम लंबे कहे पुनि क्षेत्र विभागको कारण मानो ॥
२३. गंग कुटुम्ब सहस्त्र चतुर्दश सिन्धु कतुर्दशतें दूनो।
३७. भरतक्षेत्र ऐरावत मान। और विदेह कर्मभुअ जान। देवकुरु उत्तरकुरु थान। भोग भूमि तहैं कही सुखदान ॥ २६ ॥ आयु पल्य त्रय। ३८. नर उतकृष्टि। अन्त मुहूरत जघनसु दृष्टि उत्तम भोगभूमि मनुजान । ३९. अरु तिर्यंच आयु इह मान ॥ २७ ॥
दोहा-असुर नाक विद्युत तथा, सुपर्न अग्नि रु वात। तनित उदधि अरु द्वीप दिग, दशकुमार विख्यात ॥
■ दोहा-२१. गति शरीर परिग्रह तथा, और जान अभिमान । इनमें हीन निहारिये, ऊपर ऊपर जान ॥१२ ॥ २२. लेश्या पीत सु जानियो दोय जुगलके मांहि।
३४. प्रथम आयु उतकृष्टि कहान। सो जघन्य अगलेमें जान ॥ २२॥
१४. लोकाकाश प्रदेश मांय । पुद्गल द्रव्य प्रदेश बसाय ॥ ४॥
द्रव्य स्वरूप बखान सो। ४२. परणामी कहो यह ॥१५॥
१०. दर्शनज्ञान के धारककी अरु दर्शन ज्ञान बडाई न भावै। जानत हैं गुण नीकी तरह अरु पूछैतें गुण नाहिं बतावै ।। मांगे न पोथी देय कभी विद्वान पुरुषसौं फेर सु राखै। गुणवान को निर्गुण मूढ कहै सो दर्शन ज्ञान अवर्ण बढावै ॥ ८ ॥
शक्ति समान दान तप सार। साधुपुरुषको विघन निवार ॥ १५॥
४. मन अरु वचन गुप्ति सुखकार। देख चलै अरु धेरै निहार। खान-पान विधि निरख करेय। व्रत अहिंसा पंच गिनेय ॥ ३ ॥
१६. मैथुन जान अब्रह्म सही, १७. ममताको प्रसार परिग्रह मानो ॥
तीव्र काम निज वनिता भोग। ब्रह्मचर्य अतिचार अयोग ॥ २२ ॥
३५ सचितवस्तु आहारसु देय। सचित मिलाय जुदा न करेय। वस्तु सचित्त मिलो आहार। और पुष्ट रस जानो सार ॥ ३२॥ दुखकर पचै सु भुजै नाहिं । भोगुपभोग अतिचार कहांहिं। सचितमाहिं धारी जो वस्तु। और सचित ढांकी अप्रशस्त ।॥ ३३॥
४. पहिले विधिको है जो भेद । ज्ञानावर्णी पांच विभेद। दर्शन आवर्णी नव जान। वेदनि दोय प्रकार बखान ॥ ४ ॥
इक एक भेद सौ चार चार। कुह मान लोभ माया निहार ॥ १४॥
आयुकर्म तेतीस, थिति उत्कृष्टी जानियो ॥२४॥
सुमतिके भेद आगे कहत हो सो तौ सुघर, आगमके अनुसार सब रीति मानिये ॥ १॥
८. मोक्षमार्गतें च्युत नहिं होय। निर्जर कर्म करै दृढ सोय ॥ ११॥ बाईस परीषह इह विध जान। ९. छुधा तृषा अरु शीत बखान। उष्ण और मच्छर उपसर्ग। नगन अरति अरु इस्त्री वर्ग ॥ १२॥
१८. सामायिक व्रत त्रिकाल सुनो उत्कृष्टि घड़ी छहर सु कहाई। सब जीवविर्षं सम भाव करें तजि आरति रौद्र सु भाव लहाई॥ गुणमूल अट्ठाइस माहिं लगौ कोउ दोषसु ताहि उथापहिं ज्ञानी। छेदोपस्थापन नाम कहो लख सूत्र विचारसु या विध ठानी ॥ २० ॥ हिंसादिक त्यागमें निर्मलता परिहारविशुद्धि नाम कहायो ॥ सूक्षम साम्पराय कहु ताको भेद सु सूक्षम लोभ लहायो।
२३. दर्श ज्ञान चारित्र आचार। इनको विनय शुद्ध मनधार ॥ २८ ॥
३३. भोग अनागति कांक्षा जान। सो वह जानो आरति ध्यान ॥ ३९॥
४४. अर्थविचार पदारथ जान। व्यंजन वचन शब्द सो मान ॥ ५० ॥
४६. सम्यकदर्शनधारी मुनी। पांच प्रकार संज्ञा तिन भनी परिग्रह रहित कहे निरग्रन्थ। तिनके सुनो भेद अरु पंथ उत्तरगुण भावैं नहिं भाव। कोऊ क्षेत्रकालके भाव। व्रतकी पूरणता नहिं होय। तातें नाम पुलाक जु सोय। दृढता मूलगुणनके मांहिं। राग उपकरण शरीर कराहि। वकुशनाम जगत विख्यात। भेद कुशील लखो दो भांति। प्रतिसेवन सु कषाय कुशील। उत्तर मूल धेरै गुण शील पुस्तक शिष्य कमंडलु देह। इनमें राखै भाव सनेह ।। ५५। उत्तरगुण सु विराधन करै। प्रतिसेवन तसु नाम सु धो है अधीन संज्वलन कषाय। नाम कुशील कषाय कहाय
* अर अन्य भाव क्षय सबै होय। केवल सम्यक्त रु ज्ञान जोय ॥ २ ॥ केवलदर्शन सिद्धत्व जान। इन भेदन मोक्ष लखौ सुजान। यह जीव करमक्षयके अनंत । ऊंचेको ५. जाय सु लोक अंत ॥ ३ ॥
दोहा-तत्त्वारथ यह सूत्र है, मोक्षशास्त्र को मूल । दशाध्याय पूरण भयो, मिथ्यामतिको शूल ॥ १३ ॥ इति दशमोऽध्यायः ॥
गृद्धपिच्छ लक्षित सु लख, बन्दौं स्वामिन ईश ॥ ४। अध्या पहिले चारलौं, पहिलो जीव बखान। पंचम अध्याये विषै, पुद्गल तत्त्व बखान ॥ ५ । आश्रव छडे सातमें, अष्टम बन्ध निदान । नवमें संवर निर्जरा, दशमें मोक्ष महान ॥ ६। वर्णन सातों तत्त्वको, दश अध्याये माहिं। यथाशक्ति अवधारियो, कियो सुनो शक नाहिं ॥ ७। धारनकी जो शक्ति नहिं, सरधा करियो जान। सरधावान सु जीवडा, अजर अमर हू मान ॥ ८। तपकरना व्रतधारना, संयम शरण निहार। जीवदया व्रतपालना, अन्त समाधि सु धार ॥ ९। छोटेलाल या विध कहैं, मनवचतन निरधार। चारौंगति दुख मेटिकै, करै कर्म गति छार ॥ १०
तन औदारिक आदि हैं एक जीवलों चार। आहारक छठवें ही हो प्रमत्त के निरधार ॥ ३॥
सौ धर्मादिक सोलह कलप ब्रह्मलोक लोकान्ति । ग्रवेयकादि अकल्प है मत मन में रख भ्रांति ॥ २॥
दर्शन विशुद्धि आदि हैं षोड़श जो भी हेतु। तीर्थंकर जो नाम हैं उसके आस्त्रव हेतु ॥ ६॥
शतअरु अड़तालीस हैं उत्तर प्रकृति मान। ज्ञानावरणादिक त्रय अंतराय भी जान ॥ २॥
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