‘सारांश कर्म सिद्धान्त जैनदर्शन की आधारशिला है। रसायन शास्त्र के विद्यार्थी सुधी लेखक ने कर्म की आधुनिक विज्ञान के कार्य से तुलना कर उसे वैज्ञानिक दृष्टि से समझाया है। इस लेख से कर्म बन्ध एवं निर्जरा की प्रक्रिया को सरलता से समझा जा सकता है।जो कुछ हम काम करते हैं, उसे हम सामान्य भाषा में कर्म कहते हैं। लगभग सभी धर्म कर्म के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। कुछ लोग कर्म को भाग्य कहते हैं, कुछ लोग कर्म को एक अदृश्य शक्ति मानते हैं। कुछ लोग मानते हैं कि हमने जैसे कर्म किये हैं, वैसा ही फल हमें भगवान देता है। जैनदर्शन में कर्म की मान्यता इससे अलग है। जैनदर्शन के अनुसार इस लोग में २३ प्रकार की पुद्गल वर्गणाएं ठसाठस भरी हुई हैं। उनमें से कुछ पुद्गल वर्गणाएं कर्म रूप में बदल सकती हैं। उनको कार्माण पुद्गल वर्गणा कहा जाता है। रागी—द्वेषी जीव के मन, वचन, काय के परिस्पन्दन से ये पुद्गल कार्माण वर्गणाएँ आती हैं। जीव का कषायरूपी बल इन कार्माण वर्गणाओं को कर्म रूप में बदल देता है। ये कर्म कषाय की तीव्रता के अनुसार एक निश्चित समय तक फल देने की स्थिति में रहते हैं और उस काल मर्यादा के बाद अपना फल देकर निर्जरित हो जाते हैं। जैनदर्शन की यह धारणा विज्ञान के कार्य की परिभाषा के अनुसार है। यदि किसी वस्तु पर बल लगाने से किसी वस्तु की स्थिति में परिवर्तन हो जाता है तो विज्ञान में उस क्रिया को कार्य कहते हैं। कार्य की माप वस्तु पर लगाए गये बल और बल की दिशा में वस्तु के विस्थापन के गुणनफल के बराबर होती है। कार्य बल x बल की दिशा में वस्तु का विस्थापन जैनदर्शन के अनुसार कर्म परम पूज्य आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के समयसार की एक गाथा विज्ञान के कार्य की परिभाषा के अनुसार कर्म को परिभाषित करती है।
‘जीवन परिणाम हेदुं कम्मत्त पुग्गला परिणमंति।
पुग्गल कम्म णिमित्तं तहेव जीवो विपरिणमई।।८०।।
अर्थ — जीव का रागादि भाव कर्म रूप पुद्गल द्रव्य का निमित्त पाकर उत्पन्न होता है और पुद्गल द्रव्य में कर्म रूप परिणमन जीव के रागादि भाव का निमित्त पाकर उत्पन्न होता है। दूसरे शब्दों में जीव के रागादि भाव (कषाय) के कारण मन, वचन, काय के परिस्पन्दन से आई हुई पुद्गल कार्माण वर्गणाएं कर्म रूप में परिणत हो जाती हैं और ये कर्म आत्मा के साथ बंध को प्राप्त होते हैं। पुद्गल कार्माण वर्गणाओं का कर्म रूप में बदलना २ बातों पर निर्भर है।
(१) कषाय रूपी बल (मोहनीय कर्म का बल)
(२) मन, वचन, काय के परिस्पन्दन से कषाय के कारण पुद्गल कार्माण वर्गणाओं में विस्थापन।
(१) विज्ञान के अनुसार—कार्य = बल x विस्थापन
(२) जैनदर्शन के अनुसार— कर्म कषाय रूपी बल x पुद्गल कार्माण वर्गणाओं में विस्थापन कषाय रूपी बल x मन, वचन, काय का परिस्पन्दन कषाय रूपी बल x योग) कषायरूपी बल मन, वचन, काय का परिस्पन्दन पुद्गल पुद्गल कार्माणवर्गणा कर्म जीवात्मा कार्माण वर्गणा का विस्थापन पूज्य उमास्वामी के तत्वार्थसूत्र के अनुसार मन, वचन, काय के निमित्त से जो आत्मप्रदेशों को परिस्पंदन होता है, वह योग आस्रव है। कषाय सहित योग वाले जीवों के साम्प्रदायिक आस्रव होता है। इस आस्रव से कषाय के कारण मन, वचन, काय के परिस्पन्दन (योग) से आई हुई पुद्गल वर्गणाएं कर्म रूप में परिणत हो जाती हैं और ये कर्म कषाय के कारण आत्मप्रदेशों के साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं। कषाय रहित योग वाले जीवों के ईर्यापथ आस्रव होता है। इससे पुद्गल कार्माण वर्गणाएं आती हैं परन्तु कषाय रूपी बल के अभाव में वे कर्म रूप में परिणत नहीं हो पातीं, इसलिए वे आत्मप्रदेशों के साथ बन्ध को प्राप्त नहीं होती। पूज्य कुन्दकुन्द स्वामी ने प्रवचनसार की निम्न गाथा में बताया है कि पुद्गल कार्माण वर्गणाएं कर्म रूप होने के बाद वह कर्म रूपी रज जीवात्मा के साथ संबंध को प्राप्त होती है।
‘परिणमदि जदा अप्पा सुहम्हि आसु हम्हि राग दोस जुदो।
तं पव सदि कम्म रयं णाणा वरणदि भावे हिं।।९५।।
अर्थ — जिस समय यह आत्मा राग द्वेष भावों सहित हुआ शुभ, अशुभ भावों में परिणमन करता है, तब कर्म रूपी रज ज्ञानावरण आदि कर्म रूप में उसमें प्रवेश करता है और जीवात्मा के साथ बँध जाता है। कषाय के कारण पुद्गल कार्माण वर्गणाएँ कर्म रूप में परिणत होने के बाद वे कर्म जीवात्मा के साथ बँध जाते हैं, यही बंध है।
विज्ञान में यदि किसी वस्तु पर बल लगाने से विस्थापन नहीं होता तो उसे कार्य नहीं माना जाता। जैसे किसी भारी पत्थर को हटाने के लिये मजदूर बल लगा रहे हैं परन्तु पत्थर अपनी जगह से नहीं हिला तो कार्य शून्य होगा। इसी प्रकार बिना बल लगाये वस्तु में विस्थापन होता है अर्थात् बल शून्य है तो भी कार्य शून्य होगा जैसे बिना बल लगाये पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा कर रही है। इसमें कार्य होता हुआ दिखाई देता है परन्तु विज्ञान की भाषा में कार्य शून्य होगा। अर्थात् वह Workless Work होगा। इसी प्रकार जैन दर्शन में जब योगी आत्मध्यान में लीन होता है तो मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति से मन, वचन, काय तीनों के योग का निग्रह हो जाता है, योग शून्य हो जाता है। विज्ञान की तरह जैनदर्शन के कर्म की परिभाषा के अनुसार योग शून्य होने पर कर्म की स्थिति होगी। यह निष्काम कर्म ( Workless Work ) होगा। यह स्थिति संवर की स्थिति होगी क्योंकि योग शून्य होने पर कर्मों का आना रुक जायेगा, कर्म बन्ध नहीं होगा। इसी प्रकार जब योगी मोहनीय कर्म का नाश कर लेता है और ईर्यापथ आस्रव होता है। उस समय कषाय रूपी बल शून्य हो जाता है और केवल योग रह जाता है इसलिये केवल मन, वचन, काय के परिस्पन्दन से कषाय के अभाव में कार्माण वर्गणाएं आती हैं परन्तु वे कर्म रूप में परिणत नहीं होती। फलत: शून्य कर्म ( Workless Work) निष्काम कर्म की स्थिति पैदा हो जाती है। कर्म बन्ध नहीं होता। संवर की स्थिति पैदा हो जाती है।
योग मन, वचन, काय का परिस्पन्दन आत्मा पुद्गल पुद्गल कार्माण कार्माण शरीर कार्माण वर्गणा वर्गणा जीवात्मा के साथ पहले के बँधे हुए कर्मों का आत्मा से अलग होना निर्जरा कहलाता है। अवधि (स्थिति) पूरी होने पर जब कर्म फल देकर आत्मा से अलग होते हैं, उसे सविपाक निर्जरा कहते हैं। संसारी जीवों का इस निर्जरा के समय राग द्वेष भाव के कारण नये कर्मों का बन्ध भी होता है। तप आदि साधनों के द्वारा कर्मों का स्थिति से पहले ही आत्मप्रदेशों से अलग हो जाना अविपाक निर्जरा है। यह निर्जरा मोक्षमार्ग में उपयोगी है। संसारी जीव की आत्मा पर कर्म बंधन का आवरण होता है। आत्मा का समस्त कर्मबंधन से छूट जाना मुक्ति है। पुराने कर्मों के पूरी तरह नाश हो जाने (पूर्ण निर्जरा) से तथा नये कर्मों के आगमन तथा बंधन पूरी तरह रुक जाने से (आस्रव और बन्ध का अभाव तथा पूर्ण संवर से) यह स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
पूज्य आचार्य उमास्वामी ने बताया है कि कर्मों का क्षय होते ही कर्म मुक्त जीवात्मा
(१) पूर्व प्रयोग से
(२) असंग होने से
(३) बन्धन टूटने से
(४) वैसा स्वभाव होने से, [[ऊर्ध्वगम]]न से लोक के अन्त तक सिद्धशिला पर पहुँच जाता है। मुक्त जीव लोक के शिखर तक ही जा सकता है क्योंकि लोक से आगे अलोकाकाश में धर्मद्रव्य का अभाव है। कर्मों का पूर्ण अभाव हो जाने के कारण मुक्त आत्माओं का संसार में पुनरागमन नहीं होता। विज्ञान के अनुसार जब तक वस्तु में संहति है, ऊर्जा है, वह गुरुत्व बल के कारण अनन्त आकाश तक नहीं जा पायेगी। संहति, ऊर्जा शून्य होने पर गुरुत्व बल निष्प्रभावी हो जायेगा और वह अनन्त आकाश में धर्म द्रव्य (ईथर) के कारण लोक के अन्त तक चली जायेगी। जहाँ तक धर्म द्रव्य (ईथर) उपस्थित है। अलोकाकाश में धर्मद्रव्य और अधर्म द्रव्य का अभाव होने के कारण वह अलोकाकाश में नहीं जायेगी। कर्मबन्धन से मुक्त हो जाने के कारण जीवात्मा का कार्माण शरीर उससे पूरी तरह अलग हो जाता है। जीवात्मा अमूर्तिक हो जाती है। पुद्गल द्रव्य आत्मा से पूरी तरह अलग हो जाने के कारण अधर्म द्रव्य निष्प्रभावी हो जाता है और बन्धन से मुक्त जीवात्मा धर्म द्रव्य की उपस्थिति के कारण लोक के अग्रभाग सिद्धशिला तक पहुँच जाती है।
जैन कर्मसिद्धांत, विज्ञान के आलोक में, जिनेशचन्द्र जैन,
श्रुत जैन सेवा निधि न्यास, फिरोजाबाद, प्रथम संस्करण, २०१२
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