जैन ग्रन्थ भंडारो की समृद्धता के कारणों की चर्चा के उपरान्त इनमें संग्रहीत विज्ञान विषयक पांडुलिपियों एवं उनकी विषय वस्तु की संक्षिप्त चर्चा की गई है। जैन भंडारों में गणित, ज्यातिष, ज्योतिर्विज्ञान, आयुर्वेद, भौतिक विज्ञान, रसायन आदि विषयक पांडुलिपियां उपलब्ध है।
‘देव पूजा गुरूपास्ति: स्वाध्याय: संयम स्तप: दानं चेति गृहस्थानां, षटकर्माणि दिने दिने।।
जैन धर्म के अनुयायी जिन्हें श्रावक की संज्ञा दी जाती हैं, के दैनिक षट्कर्मों में आराध्य देव तीर्थंकरों की पूजा, निग्र्रंथ दिगम्बर गुरूओं की उपासना, स्वाध्याय, तपश् चरण एवं दान, सम्मिलित हैं इन षट्कर्मों में स्वाध्याय सम्मिलित होने के कारण श्रावकों की प्राथमिक आवश्यकताओं में परम्पराचार्यों द्वारा प्रणीत शास्त्र सम्मिलित हैं। स्वाध्याय का अर्थ परम्पराचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रंथों का नियमित अध्ययन है। फलत: जैन उपासना स्थलों (जिन मंदिरों ) के साथ स्वाध्याय के लिए आवश्यक शास्त्रों का संंकलन एक अनिवार्य आवश्यकता बन गई। प्राचीन काल में मुद्रण की सुविधा उपलब्ध न होने के कारण श्रावक प्रतिलिपिकार विद्धानों की मदद से शास्त्रों की प्रतिलिपियाँ कराकर मंदिरों में विराजमान कराते थे। जैन ग्रंथों में उपलब्ध कथानकों में ऐसे अनेक प्रसंग उपलब्ध हैं जिनमें व्रतादिक अनुष्ठानों की समाप्ति पर मंदिरजी में शास्त्र विराजमान कराने अथवा शास्त्र भेंट में देने का उल्लेख मिलता है। विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्न पंडितों को उनके अध्ययन में सहयोग देने हेतु श्रेष्ठियों द्वार सुदूरवर्ती स्थानों से शास्त्रों की प्रतिलिपियाँ मंगवाकर देने अथवा किसी शास्त्र विशेष की अनेक प्रतिलिपियाँ कराकर तीर्थयात्राओं के मध्य विभिन्न स्थानों पर भेंट स्वरूप देने के भी अनेक उल्लेख विद्यमान हैं। जैन परम्परा में प्रचलित इस पद्धति के कारण अनेक मंदिरों के साथ अत्यंत समृद्ध शास्त्र भंडार भी विकसित हुए। ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी जिसे श्रुत पंचमी की संज्ञा प्रदान की जाती है, के दिन इन शास्त्रों की पूजन, साज—संभाल की परम्परा है। अत: शास्त्र के पन्नों को क्रमबद्ध करना, नये वेष्ठन लगाना, उन्हें धूप दिखाना आदि सदृश परम्पराएं शास्त्र भंडारों के संरक्षण में सहायक रहीं। यही कारण है मध्यकाल के धार्मिक विद्वेष के झंझावातोें एवं जैन ग्रंथों का समूल रूप से नष्ट किए जाने के कई लोमहर्षक प्रयासों के बावजूद आज कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, बंगाल, बिहार आदि के अनेक मठों, मंदिरों में दुर्लभ पाण्डुलिपियों को समाहित करने वाले सहस्राधिक शास्त्र भंडार उपलब्ध हैं। जैन आचार्योें एवं प्रबुद्ध श्रावकों की साधना का प्रमुख लक्ष्य आत्मसाधना रहा है। यद्यपि जैन परम्परा स्वयं के तपश्चरण के माध्यम से कर्मों की निर्जरा कर आत्मा से परमात्मा बनने में विश्वास करती है, तथापि आत्मसाधना से बचे हुए समय में जन कल्याण की पुनीत भावना अथवा श्रावकों के प्रति वात्सल्य भाव से अनुप्राणित होकर जैनाचार्यों ने लोक—ाqहत के अनेक विषयों पर विपुल गंथ राशि का सृजन भी किया है। सम्पूर्ण जैन साहित्य के विषयानुसार विभाजन, जिसे अनुयोग की संज्ञा दी जाती है, के क्रम में निम्नवत चार वर्ग प्राप्त होते हैं।
रत्नकरण्डश्रावकाचार में लिखा है: —
प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नम:।
तदनुसार चार अनुयोगो निम्नवत् हैं—
१. प्रथमानुयोग — धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन पुरूषार्थों तथा इनके साधन करने वालों की कथाएँ महापुरूषोें के जीवन चरित्र, त्रेषठ शलाका पुरूषों एवं उनके पूर्व भवों का जीवनवृत्त, पुण्यकथाएँ आदि इसमें सम्मिलित हैं। जैसे—आदिपुराण, हरिवंश पुराण आदि।
२. करणानुयोग — इसमें लोक के स्वरूप भूगोल—खगोल, गणित, कर्म सिद्धांत, आदि की चर्चा हैं। जैसे—तिलोयपण्णत्ती, जम्बुद् दीवपण्णत्ती संगहो, गोम्मटसार जीवकाण्ड—कर्मकाण्ड, लब्धिसार, त्रिलोकसार, आदि।
३. चरणानुयोग — जसमें गृहस्थों एवं साधुओं के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि एवं संरक्षण के नियमों का वर्णन समाहित हैं। जैसे— मूलाचार, रत्नकरण्डश्रावकाचार, अनगार धर्मामृत, सागार धर्मामृत आदि।
४. द्रव्यानुयोग — इसमें जीव—अजीव आदि सात तत्वों, नव पदार्थों, षट् द्रव्यों, अध्यात्म विषयक चर्चा हैं। जैसे—पंचास्तिकाय, समयसार, प्रवचनसार, द्रव्यसंग्रह आदि। इस विभाजन से स्पष्ट है कि करणानुयोग का साहित्य, गणितीय सिद्धांतो से परिपूर्ण है। लोक के स्वरूप के विवेचन, आकार, प्रकार, ग्रहों की स्थिति इत्यादि के निर्देशन में अनेक जटिल ज्यामिति संरचनाओं, मापन की पद्धतियों का विवेचना तो मिलता ही हैं। कर्म की प्रकृतियों के विवेचन में क्रमचय—संचय राशि सिद्धांत निकाय सिद्धांत घातांक के सिद्धांत लघुगुणकीय सिद्धांत ( आदि का व्यापक प्रयोग हुआ है। अध्यात्म विषयक विवेचनों में भी अपने तर्कों की सुसंगता सिद्ध करने हेतु गणितीय प्रक्रियाओं का प्रयोग किया गया हैं। गणितीय सिद्धांतों का पल्लवन अथवा स्थापना जैनाचार्यों का साध्य नहीं रहा, किन्तु वे साधन रूप में जरूर प्रयुक्त हुए हैं। किन्तु गणित उसमें ऐसी रचपच गई कि १८ वीं शताब्दी के बहुश्रुत विद्वान पं. टोडरमलजी को गोम्मटसार की पूर्व पीठिका में लिखना पड़ा कि बहुरि जे जीव संस्कृतादिक ज्ञानते सहित हैं किन्तु गणितादिक के ज्ञान के अभाव ते मूल गंथन विषय प्रवेश न पावे हैं, तिन भव्य जीवन काजै इन ग्रंथन की रचना करी है।५ साथ ही पं. टोडरमल जी ने अपनी ‘सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका टीका) में अर्थ संदृष्टि अधिकार अलग से सम्मिलित किया है। मात्र इतना ही नहीं जैन ग्रंथों के गहन गंभीर अध्ययन हेतु गणितीय ज्ञान की अपरिहार्यता के कारण ही अनेक महान जैनाचार्यों ने स्वतंत्र गणितीय गं्रथों का भी सृजन किया है। ‘‘परियम्यसुत्तं (परिकर्म—सूत्र)७ सिद्ध भूपपद्धति टीका, ८वृहद् धारा परिकर्म के उल्लेख क्रमश: धवला, उत्तरपुराण एवं त्रिलोकसार में पाये जाते हैं। ये अपने समय के अत्यंत महत्वपूर्ण गणितीय ग्रंथ थे जो आज उपलब्ध नहीं हैं। किन्तु आचार्य श्रीधर प्रणीत ‘त्रिशतिका’ आचार्य महावीर प्रणीत ‘गणितसार’, सिंहतिलक सूरि कृत ‘गणित तिलक’ टीका ठक्करपेरू कृत ‘गणितसार कौमुद्धी’राजादित्य कृत गणित विलास, महिमोदय कृत ‘गणित साठसौ’ एवं हेमराजकृत ‘गणितसार’ हमें आज भी उपलब्ध है, जो जैनाचार्यों की गणितीय पारंगतता एवं अभिरूचि के ज्वलंत प्रमाण हैं। हेमराज कृत ‘गणितसार’ महिमोदय कृत ‘गणित साठ सौ’ तो हिन्दी भाषा में गणित विषय की अमूल्य कृतियां हैं। हिन्दी पद्य ग्रंथों में गणितीय विषय खूब पल्लवित हुए हैं। बीसवीं सदी के महान दिगम्बर जैनाचार्य आचार्य श्री विद्यासागर जी ने अपनी कालजयी कृति ‘मूकमाटी’ में गणित के नौमांक के वैशिष्टय का उल्लेख किया है।यह प्रकरण गणितज्ञों को भले ही महत्वपूर्ण न लगे किन्तु जैनाचार्यों की गणितीय अभिरूचि को तो दिखाता ही है। गणिनी ज्ञानमती माताजी ने अपनी कृतियों त्रिलोक भास्कर, जम्बूद्वीप, जैन ज्योतिर्लोक, जैन भूगोल में गणितीय विषयों को प्रमुखता से विवेचित किया है। एक प्राथमिक सर्वेक्षण में हमने पाया कि आज भी जैन शास्त्र भंडारों में ५०० से अधिक गणितीय पांडुलिपियां सुरक्षित हैं, और इनके माध्यम से हम लगभग ४० स्वतंत्र कृतियों को सूचीबद्ध कर सके हैं। ‘‘शरीर माध्यम खलु धर्म साधनं’’ वस्तुत: स्वस्थ शरीर के मिाध्यम से ही हम आत्मकल्याण हेतु तपश्चरण तथा वस्तु स्वरूप के ज्ञान हेतु आगम साहित्य का अध्ययन कर सकते हैं। फलत: संघस्थ साधुवृंदो एवं श्रावकों की अस्वस्थता की स्थिति में रोगापचार हेतु औषधियों का प्रयोग किया जाता रहा है। द्वादशांग के अंतर्गत पूर्व साहित्य के एक भेद ‘कल्याणनुवाद में आयुर्वेद की चर्चा है ५ वीं शताब्दी के महान जैनाचार्य उग्रादित्याचार्य द्वारा प्रणीत ‘कल्याणकारक’१६ जैन आयुर्वेद का सिरमौर ग्रंथ हैं। आचार्य समंतभद्र एवं अन्य अनेक आचार्यों ने आयुर्वेदिक साहित्य सृजित किया है। हमें यह स्वीकार करने में किंचित भी संकोच नहीं हैं कि जैनाचार्य द्वारा प्रणीत आयुर्वेदिक ग्रंथों एवं परम्परा के आचार्यों द्वारा सृजित आयुर्वेदिक ग्रंथों में अनेक साम्य हैं। परस्पर आदान—प्रदान भी हुए हैं, क्योंकि लक्ष्य तो दोनों का एक ही था। किन्तु ‘अहिंसा परमोधर्म:’ की उद्घोषणा करने वाले जैन धर्म के आचार्यों को प्राण रक्षा हेतु भी हिंसा स्वीकार नहीं थी। प्राणों का उत्सर्ग भले हो जाये किन्तु वे एसेी किसी भी औषधि को स्वीकार नहीं थी प्राणों का उत्सर्ग भले हो जाये किन्तु वे ऐसी किसी भी औषधि को स्वीकार नहीं कर सकते थे जिसमें किंचित भी हिंसा हुई हो। यही कारण है कि जैन आयुर्वेद के ग्रंथों में दिये गये निदान काष्ठ औषधि, भस्मादि पर ही आधारित होते हैं वर्तमान में अनुपलब्ध पुष्पायुर्वेद में विभिन्न जाति के पुष्पों से निर्मित औषधियों का संदर्भ हमें प्राप्त होता है। मैंने पाया है कि जैन भंडारों में रस रत्नाकर, रस संग्रह, नाड़ी विचार आदि जैसे शताधिक ग्रंथ उपलब्ध हैं। इनमें से अधिकांश हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि में लिखे गये हैं। अत्यंत प्रचाीनकाल से ही भारत में ज्योतिष विद्या को महत्व दिया जाता रहा है। प्रारम्भ में तो गणित ज्योतिष का ही एक अंग था। जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा, दीक्षादि मंगल कार्यों के लिए शुभ मुहूर्त और स्थान का ज्ञान आवश्यक होता है और इनके ज्ञान हेतु ज्योतिष का ज्ञान अपिरहार्य है, फलत: ज्योतिष जैन साधुओं की ज्ञान साधना का अभिन्न अंग रहा है और इस आवश्यकता की प्रति पूर्ति हेतु ज्योतिष विषयक ग्रंथों का सृजन भी किया गया। अनुषांगिक रूप से शकुन विचार, रत्नपरीक्षा आदि पर भी ग्रंथ लिखे गये, ‘भद्रबाहुसंहिता’ ‘केवलज्ञान प्रश्न चूडामणि’ सदृश एवं अन्य ज्योतिष गं्रथ हमारी अमूल्य निधियां हैं। आचार्य वसुनंदि, आचार्य जिनसेन, आचार्य अकलंक, पंडित आशाधर जी कृत प्रतिष्ठापाठ आदि सभी प्रतिष्ठा पाठों में मुहूर्त विषयक प्रकरण पाये जाते हैं। जैन ग्रंथ भंडार ज्योतिष विषयक ग्रंथों से अत्यंत समृद्ध हैं। प्रतिष्ठा विषयक इन्हीं ग्रंथों में मूर्ति निर्माण हेतु पाषाण के परीक्षण आदि के बारे में भी मूल्यावान जानकारी उपलब्ध है एवं इस संदर्भ में जैनाचार्यों द्वारा किए गए उल्लेख भौमिकी (उादत्दुब्) के संदर्भ में जैनाचार्यों के ज्ञान को व्यक्त करती है। अद्यतन मुझे भूगर्भ शास्त्र या भौमिकी पर कोई स्वतंत्र ग्रंथ देखने को नहीं मिला तथापि रत्नशास्त्र विषयक कई ग्रंथ देखने को मिले हैं। आचार्य कुन्दकुन्द कृत ‘पुचास्तिकाय’ आदि ग्रंथों में षट् द्रव्यों की चर्चा के संदर्भ में काल की सूक्ष्मतम इकाई समय, क्षेत्र की सूक्ष्मतम इकाई प्रदेश एवं पुद्गल के सूक्ष्मतम अंश परमाणु को परिभाषित किया गया हैं। जघन्य और उत्कृष्ट के माध्यम से इन इकाईयोें के सीमांत मानों एवं परमाणु की गतियों की भी चर्चा हैं। वस्तुत: पुद्गल विषयक यह विवेचन सापेक्षता के सिद्वांत तथा प्रयुक्त गणित एवं भौतिकी के अनेक सिद्धांतों का आधार बने हैं। आचार्य समंतभद्र कृत ‘आप्तमीमांसा’ में जहां प्रायिकता के सिद्वांत अवक्तव्य के संदर्भ में विवेचित हैं वहीं जैन परम्परा का परमाणु द्रव्य का अविनाशी अविभाज्य अंग हैं। यह वर्तमान भौमिकी के परमाणु से बहुत अधिक सूक्ष्म हैं। भौतिकी में वर्तमान में प्रचलित परमाणु तो जैन परम्परा के स्कध हैं। विज्ञान भी वर्तमान परमाणु के अनेक खण्ड कर चुका है। आचार्य उमास्वामी ने दूसरी शताब्दी में ‘उत्पादव्ययध्रौव्य’ के रूप में द्रव्य की अविनाशिता का सिद्धांत स्थापित किया था वहीं अन्य अनेक आचार्यों की कृति में जड़त्व का नियम, स्थितिज उर्जा का नियम, उत्प्लावन का नियम एवं गति के नियम उपलब्ध होते हैं संक्षिप्त: जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत साहित्य जो कि जैन शास्त्र भंडारों में संरक्षित हैं, में ज्ञान की अनेक शाखाओं का ज्ञान निहित है। विगत ३—४ दर्शकों मे जैन शास्त्र भंडारों के सूचीकरण तथा उसमें निहित ज्ञान संपदा को प्रगट करने के कुछ प्रयास अवश्य हुए हैं, किन्तु उनमें से अधिकांश मात्र सूचीकरण तक ही सीमित रह गए हैं। स्वयं हमने लगभग ८० ऐसे सूची पत्रों की सूची तैयार की है। हम यहां कुछ जैन भंडारों की सूचियों को लिपिबद्ध कर रहे हैं—
१. जिनरत्नकोश— भाग—१, भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इंस्टीटयूट, पूना १९
२. कन्नड़ प्रांतीय ताड़पत्रीय ग्रंथ सूची— भाग—१, संकलन—पं. के. भुजबली शास्त्री,भारतीयज्ञानपीठ, दिल्ली—१९४७
३. राजस्थान के जैन शास्त्र भंडारों की ग्रंथ सूची— भाग—१—५ सं. डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल, प्रबंधकारिणी समिति, दिग. जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी, १९४९,१९५४, १९५७, १९६२, १९७२ ४. दिल्ली जैन ग्रंथ रत्नावली— संकलन—प्राचार्य कुंदनलाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली—१९८१
५. श्री जैन सिद्धांत भवन ग्रंथावली— भाग १—२, संपादक— डॉ. ऋषभचंद जैन ‘फौजदार’, जैन सिद्धांत भवन, आरा—१९८७।
६. अनेकान्त भवन ग्रंथावली, भाग १—३ अनेकान्त ज्ञान मंदिर, बीना, २००२ इसके अतिरिक्त डॉ. कस्तूरचंद कासलीवाल ने अपने शोध प्रबंध Jain Granth Bhandaras in Rajasthans में राजस्थानों के जैन ग्रंथ भंडारों में निहित ज्ञान राशि एवं उसके वैशिष्ट्य का विवेचन किया हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि जैन शास्त्र भंडारों में संग्रहीत हिन्दी वैज्ञानिक साहित्य का व्यापक रूप से सर्वेक्षण एवं मूल्यांकन किया जाये। यह मानवता के लिये तो कल्याणकारी होगा ही जैनत्व की गरिमा में भी अभिवृद्धि करेगा। इसके लिए प्रथम चरण में पांडुलिपियों का सूचीकरण एवं अगले चरण में वैज्ञानिक विषयों की पांडुलिपियों को छाँटकर उनका संरक्षण, अनुवाद करना होगा।
अनुपम जैन एवं रजनी जैन
मानद सचिव—कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, ५८४, महात्मा गाँधी मार्ग, इन्दौर—४५२००१
शोध छात्रा—कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, ५८४, महात्मा गाँधी, इन्दौर—४५२००१