राजस्थान का उदयपुर जिला अनेकों साधुओं के जन्म से पावन रहा है। इसी शृँखला में ‘शेषपुर’ नामक ग्राम में वर्तमान पट्टाचार्य श्री १०८ अभिनंदनसागर महाराज का जन्म वि.सं. १९९९ में हुआ। माता रूपाबाई एवं पिता श्री अमरचंद जी के घर पुत्र रूप में जन्में ‘‘धनराज’’ के आगमन से मानो सचमुच धन-लक्ष्मी की वर्षा हो गई थी। दि. जैन समाज के बीसा नरसिंहपुरा जातीय जगुआवत गोत्रीय होनहार बालक धनराज की बाल्यकाल से ही धर्म के प्रति अतिशय रुचि थी अत: युवावस्था में भी इन्होंने बाल ब्रह्मचारी रहने का निर्णय किया और मुक्तागिरि सिद्धक्षेत्र पर स्वयं ही आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत तथा पाँचवीं प्रतिमा धारण कर ली। माता-पिता को सान्त्वना देकर अब ब्रह्मचारी धनराज जी त्याग की अगली सीढ़ी पर चढ़ने का प्रयास करने लगे फलस्वरूप वि.सं. २०२३, सन् १९६७ में आचार्यश्री महावीरकीर्ति जी के शिष्य मुनि श्री वर्धमानसागर जी से मुंगाणा में क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की, पुन: वि.सं. २०२५, सन् १९६९ में चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर महाराज की परम्परा के द्वितीय पट्टाधीश आचार्यश्री शिवसागर महाराज से ऐलक दीक्षा और सन् १९६९ में ही फाल्गुन शु. अष्टमी को श्री शांतिवीरनगर-महावीर जी में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर तृतीय पट्टाचार्य श्री धर्मसागर महाराज से मुनि दीक्षा लेकर ‘‘अभिनंदनसागर’’ नाम प्राप्त किया। सौम्य शांत मुद्रा, चारित्रिक दृढ़ता और ज्ञानाभ्यास की लगन के धनी मुनि अभिनंदनसागर जी ने लगभग ८ वर्षों तक उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठापित रहकर खूब धर्मप्रभावना की पुन: आचार्य श्री श्रेयांससागर जी महाराज की सल्लेखना के पश्चात् ८ मार्च १९९२ को चतुर्विध संघ ने आपको खान्दू कालोनी (राज.) में छट्ठे पट्टाचार्य पद पर अभिषिक्त किया क्योंकि चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री की निर्दोष अविच्छिन्न परम्परा में आप ही इस परम्परा के सर्ववरिष्ठ मुनिराज हैं अत: पूर्व परम्परानुसार चतुर्विध संघ द्वारा आप आचार्यपद को प्राप्त कर इस निष्कलंक आर्ष परम्परा का संरक्षण-संवद्र्धन करने में कटिबद्ध हैं।