३ सितम्बर से ५ सितम्बर ९४ के मध्य गोपाचल दुर्ग क्षेत्र उसकी अजेयता, प्राचीनता, ऐतिहासिकता के ८ उज्जव जैन सांस्कृतिक संगम पर एक वर्कशाप कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर में आयोजित की गई थी। इस वर्कशाप में डॉ वी.एन. मुण्डी, उज्जैन का एक शोध आलेख वाचन किया गया, वे अपनी अस्वस्थता के कारण अनुपस्थित रहे थे किन्तु इस आलेख से प्रेरणा लेकर मैंने गोपाचल दुर्ग पर एक तीनमंजिली मंदिर की खोजबीन की, वह इस प्रकार है। ई. ७५ तथा ई. ११०८ के चतुर्भज विष्णु मंदिर प्रवेश द्वार पर स्थित शिलालेख जैन पुरातत्व और विरासत को प्राचीनतम इतिहास से जोड़ते हैं। इन शिलालेखों का वाचन पुराविद् कनिंघम ने १८६२ ई. में किया फिर पुन: वाचन भी कुछ समय बाद किया, पुनर्वाचन में आपने लिखा१ कि सास बहू मंदिर के उत्तर की ओर सामने वाली भूमि पर जहां अभी गरुड़ स्तंभ है जैन विद्यापीठ संघालय था इसका विस्तार ७०x३५ था, पास में एक विशालकाय जैन मंदिर था। लगभग २० अभिलेख अलग—अलग कालावधि के इस तथ्य की पुष्टि करते हैं, ये सभी १४४० से १४८५ ई. के हैं। उपरोक्त विशालकाय जिनालय के भग्नावशेष, जो वर्धमान मंदिर के नाम से सुविख्यात था, वर्तमान मेेंं सिखों के गुरुद्वारे में पीछे वाली सड़क से जाकर सिंधिया स्कूल के खेल मैदान के भीतर स्थित है। चारों ओर दीवार होने से यह स्थल स्पष्ट नहीं दिखाई देता है। इस टिप्पणी के लेखक ने अपने मित्र डा.एच.बी माहेश्वरी के साथ यह खोज यात्रा की। यह मंदिर तीन मंजिल का है तेली के मंदिर जैसा दिखता है। पहली मंजिल के गर्भगृह में जाकर देखने से पता चला कि इसके द्वार शीश पर भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति है। दूसरी मंजिल पर भगवान महावीर की मूर्ति द्वार पर शीशमय है तथा यह मंजिल कला पूर्ण है। तीसरी मंजिल अत्यन्त कलापूर्ण है। खम्बे मेहराब सभी बारीक नकाशी लिए हुए हैं। तीन मंजिल की ऊँचाई ६० फुट के लगभग है। यदि तीसरी मंजिल के ऊपर शिखर का भी अनुमान किया जाए तो धरातल से १०० फुट हो सकती है। मंदिर की स्थापत्य, वास्तुकला और नाप—जोख देखने से पता चलता है कि यह मन्दिर ४०० फुट आगे तक रहा होगा। नीचे की मंजिल बिना चूने आदि के सिर्फ शिलाओं को एक के ऊपर एक रखकर बनायी गई है। मंदिर का सिर्फ गर्भगृह ही शेष बचा है।
तीसरी मंजिल को देखना संभव नहीं, क्योंकि ऊँचाई बहुत है। दूसरी मंजिल से तीसरी मंजिल तक सीढ़ियां हैं जो टूट गई हैं। इस मंदिर की मरम्मत बाद में की गई जो संभव है गर्दे साहब ने कराई हो। गर्भगृह की मूर्तियाँ कहाँ गईं? बिना मूर्तियों का तो मन्दिर संभव नहीं। इस मंदिर का उल्लेख जैसलमेर तथा पाटण की हस्तलिखित पोथियों में भी मिलता है। महाकवि रइधू ने इनका उल्लेख अपने साहित्य में किया है। ग्वालियर दुर्ग के स्थापत्य को सुन्दर बनाने के प्रयोजन से मध्ययुग में किसी मूर्तिविहीन प्रासाद या मंदिर की कल्पना नहीं की जा सकती थी। इतनी अधिक और इतने प्रकार की मूर्तियाँ उत्तर भारत के ग्वालियर अंचल में बनाई गर्इं कि अनेक शताब्दियों तक निरन्तर तोड़े जाने के उपरान्त भी लगभग प्रत्येक शताब्दी की मूर्तियाँ कहीं न कहीं टूटी, अधटूटी या बिना टूटी मिल जाती हैं। काल और मनुष्य दोनों के प्रहार से उनका कुछ अंश बच ही निकला है। अलवर और मथुरा के जैन चौरासी मन्दिर में तोमर राजाओं के उल्लेखयुक्त मूर्तियाँ अभी भी हैं। गोपाचल गढ़ और गोपाचल नगर (ग्वालियर) दो भिन्न स्थल हैं, गढ़ के नीचे विशाल गोपाचल नगर बसा हुआ है। यह अत्यन्त विचित्र बात है कि गोपाचल गढ़ पर या गोपाचल नगर में आज कोई भी तोमरकालीन हिन्दू या जैन मंदिर अस्तित्व में नहीं है।
जैन मन्दिरों का एक वर्ग गुहा मन्दिर अवश्य गोपाचल गढ़ पर बसा हुआ है तथापि अन्य सभी मन्दिर नष्ट कर दिये गये हैं। गोपाचल नगर के जैन मन्दिरों का वर्णन बाबर ने अपनी आत्मकथा में किया है, उसने लिखा है कि इन मन्दिरों में दो—दो और कुछ में तीन—तीन मंजिलें भी। प्रत्येक मंजिल प्राचीन प्रथा के अनुसार नीची नीची थी, कुछ मन्दिर मदरसों के समान थे। परन्तु प्रश्न उठता है कि वे अनेक मंजिलों के जैन मंदिर कहाँ गये? बाबर ने तो उन्हें तुड़वाया नहीं था। उन मंदिरों का स्वरूप अब खबर की आत्मकथा से ही जाना जा सकता है।
मान मन्दिर के सामने बायीं ओर कोई बहुत बड़ा जैन मन्दिर था। बाबर के गोपाचल गढ़ के सूबेदार रहीमदाद खां ने बिना बादशाह की आज्ञा के उसका अग्रभाग तुड़वा कर वहां मेहराबदार द्वार बना दिया और उसका नाम ‘रहीमदाद का मदरसा’ रख दिया। यह मन्दिर डूगरेन्द्रसिंह तोमर के समय में बना था। गढ़ के दक्षिणी भाग की ओर एक विशालकाय बहुमंजिला जैन मन्दिर और था जो तोमरों के पूर्व ही बन चुका था, इसका उल्लेख कच्छपघात राजाओं के समय का प्राप्त होता है।.बाबरनामे का यह विवरण डा. रिजवी के हिन्दी अनुवाद से है। गोपाचल गढ़ के चंदेल यशोवर्मन के शिलालेख विक्रम सम्वत् १०११ (सन् ९५४ ई.) मेें विस्मयैक निलय गिरि कहा गया है।
एपीग्राफिका इंडिकाएपिग्राफिका इंडिका, भाग—१, पृ. १२९ के अनुसार गोपाचल गढ़ कन्नौज (उ.प्र.) के प्रतापी राजा यशोवर्धन के पुत्र आमदेव ने अपनी राजधानी बनाया था। इस आमदेव ने वधभट्टसूरि का शिष्यत्व ग्रहण किया और गोपगिरि पर एक सौ हाथ लम्बा मंदिर बनवाया और उसमें वर्धमान महावीर की विशाल मूर्ति स्थापित की। वप्पभट्टचरित तथा प्रभावक चरित से भी इस अनुश्रुति की पुष्टि होती है। आमदेव के पुत्र का नाम प्रभावक चरित में दुरंक लिखा है। प्रबन्धककोष में गोपाचल का नाम, गोपगिरि भी दिया गया है।प्रभावक चरित, सिंधी जैन ग्रंथमाला, पृ.१०९ आमदेव और उसके वंशजों का जैन ग्रंथों का यह विवरण सत्य है या नहीं, इसकी परीक्षा करने का अभी कोई साधन नहीं है। डा. एस. एस.पी. पंडित ने अपनी पुस्तक ‘गौडवहो’ की प्रस्तावना में लिखा है कि आमदेव यशोवर्मन का पुत्र था। डॉ. आर. एस त्रिपाठी के मत से आमदेव प्रतिहार वंश के नागाभलोक (नागभट्ट—।।) या वत्सराज से भिन्न नहीं है। आमदेव यदि यशोवर्मन का पुत्र है तब उसका समय ७५० ई. होगा और यदि उसे प्रतिहार वत्सराज या नागभट्ट-।। को अभिन्न माना जाय तब उसका समय ७८० ई. या ८३० ई. के लगभग बैठता है।
इस प्राचीन तीन मंजिले जैन मन्दिर के गर्भगृह के मिलने से तथा इसकी पुरातात्विक/ऐतिहासिक पृष्ठभूमि स्थापित करने से शोध के जैन स्रोतों को और अधिक प्रकाश में लाया जा सकता है। हो सकता है ऊपर की मंजिल में कुछ शिलालेख भी हों जिनसे अतीत पर कुछ प्रभाव पड़े। हमारी विरासत को जैन संस्कृति के पोषक क्षत्रिय राजाओं ने हजारों वर्षों तक सरंक्षण, संवर्धन किया, वहीं हमें बड़े खेद के साथ लिखना पड़ रहा है कि हम इन अधबचे हुए अवशेषों का सूचीकरण / प्रशस्तियों / शिलालेखों का वाचन / संग्रहीकरण भी करने में असमर्थ दिखाई देते हैं। गोपाचल की जैन विरासत को संजोने के लिये पर्याप्त शोध की आवश्यकता है।