भाग—२ अर्हत् वचन, वर्ष-८, अंक—१, जनवरी १९९६ में ‘आचार्य श्रीधर एवं उनका गणितीय अवदान’ (अनुपम जैन एवं कु. ममता सिंघल) शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ था। इस आलेख में आचार्य श्रीधर के जीवन, जीवनकाल, कृतियों, धार्मिकमक मान्यता के बारे में विस्तार से विवेचन किया गया है। इस आलेख में लेखकों ने आचार्य श्रीधर पर १९९५ तक किये गये शोध कार्यों को भी सूचीबद्ध किया है। प्रस्तुत आलेख में उनकी कृतियों में निहित गणित का विवेचन किया गया है। श्रीधराचार्य (७९९ ई.) के ज्ञान का मूल स्रोत जैन परम्परा का पारम्परिक ज्ञान था, उन्होंने अपनी-अपनी प्रतिभा का उपयोग करते हुए उसे परिष्कृत, विस्तृत एवं विवेचित किया है। प्रस्तुत अध्याय में हम पाटीगणित के तत्कालीन विषयों पर बिन्दुवार चर्चा करेंगे। अनेक विषय, जिन पर श्रीधर एवं महावीर दोनों ने लेखनी चलाई है, उनको हमने लेख के भाग—३ में तुलनात्मक रूप में विस्तार से विवेचित किया है। फलतः यहाँ उनको स्पर्श मात्र किया है। अत: श्रीधर के गणितीय अवदान को सम्यक् रूप से समझने हेतु प्रस्तुत भाग—२ एवं शीघ्र प्रकाश्य भाग—३ दोनों देखना चाहिये।
अष्ट परिकर्म
पारम्परिक रूप से अष्ट परिकर्म के अन्तर्गत पाटीगणित में संकलन, व्यकलन, गुणन, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन एवं घनमूल को सम्मिलित किया जाता है। इनके पहले संख्याओं एवं स्थानमान की सूचियाँ दी जाती हैं। हम यहाँ श्रीधर की सूची प्रस्तुत कर रहे हैं। १. एक १०० १०. अब्ज १०९ २. दश १०१ ११. खर्व १०१० ३. शत १०२ १२. निखर्व १०११ ४. सहस्र १०३ १३. महासरोज १०१२ ५. अयुत १०४ १४. शंकु १०१३ ६. लक्ष १०५ १५. सरितापति १०१४ ७. प्रयुत १०६ १६. अन्त्य १०१५ ८. कोटि १०७ १७. मध्य १०१६ ९. अर्बुद १०८ १८. परार्ध १०१७ श्रीधर ने अपनी पाटीगणित एवं पाटीगणितसार में मापन पद्धतियों की भी चर्चा की है। अष्ट परिकर्मों की शृंखला में संकलन एवं व्यकलन अत्यन्त सरल है। श्रीधर ने त्रिशतिका के प्रारंभिक श्लोकों में इन परिकर्मों की चर्चा की है। संकलन एवं व्यकलन के क्रम में उन्होंने श्रेणियों के पदों को जोड़ने एवं घटाने की चर्चा की है। हम अब शेष ६ परिकर्मों की चर्चा करेंगे।
गुणन
श्रीधराचार्य ने गुणन की चार विधियों का वर्णन किया है— १. कपाट—सन्धि २. तत्स्थ ३. रूपविभाग ४. स्थानविभाग कपाट सन्धि—श्रीधराचार्य के अनुसार गुणक के नीचे कपाट सन्धि१ की भाँति गुण्य को रखकर विलोम अथवा अनुलोम विधि के अनुसार गुणक को एक—एक स्थान हटा—हटा कर क्रम से गुणा करना कपाट सन्धि विधि है। २ इस विधि की दो विशेषताएँ हैं— १. गुण्य और गुणकार के सापेक्ष स्थान और २. गुण्य के अंकों का मिटाना और उनके स्थान में गुणनफल के अंकों का स्थापन। पहली विशेषता के कारण इस विधि का नाम कपाट संधि पड़ा और दूसरी विशेषता के कारण गणित के ग्रंथों में मिलने वाले हनन, वध इत्यादि शब्दों को आविर्भाव हुआ है कपाट—सन्धि की क्रम और उत्क्रम विधि को समझने के लिये निम्नलिखित उदाहरण सहायक हैं। क्रम (अनुलोम विधि) उदाहरण—१३५ को १२ से गुणा करो। पहले उन संख्याओं को पाटी पर निम्नलिखित प्रकार से लिखते हैं— गुणक गुण्य १३५ इसके पश्चात् गुण्य के इकाई वाले अंक (५) को गुणक के अंकों से गुणा करते हैं। इस प्रकार र्५ २ १०, ० को २ के नीचे लिखते हैं और १ को एक स्थान बायीं ओर ले जाते हैं। इसके बाद र्५ १ ५ ; इसमें (आगे ले गये अंक) १ को जोड़ने पर ६ प्राप्त होता है। (पाटी पर लिखे हुए) ५ की अब आवश्यकता न होने से उसे मिटा देते हैं और उसके स्थान में प्राप्त ६ लिख देते हैं। इस प्रकार पाटी पर अब निम्नलिखित संख्याएँ होती हैं— १२ १३६० अब गुणक को एक स्थान बायीं ओर हटाते हैं। १२ १३६० अब ३ को गुणक के अंकों से गुणा करते हैं। इसका विवरण यह है—र्३ २ ६ ; इस ६ को २ के नीचे लिखते हुए ६ में जोड़ने पर १२ प्राप्त होता है। ६ को मिटाकर उस स्थान पर २ लिख देते हैं। १ को आगे ले जाते हैं। इसके बाद र्३ १ ३ ; ३ + (आगे ले जाया गया) १ ृ ४ ; ३ को मिटाकर उसके स्थान पर १४ को फिर एक स्थान बायीं ओर हटाकर लिखते हैं। अब पाटी पर निम्नलिखित संख्याएँ होती हैं— १२ १४२० अब र्२ १ २ ; २ + ४ ६ ; ४ को मिटाकर उसके स्थान पर ६ लिखते हैं। र्१ १ १ ; को ६ के बायीं ओर लिखते हैं। अब क्रिया समाप्त हो जाने के कारण, गुणक १२ को मिटा देते हैं और पाटी पर निम्नलिखित संख्या शेष रहती है— १६२० इस प्रकार १२ और १३५ संख्याओं का ‘हनन’३ हो गया और एक नयी संख्या १६२० ‘प्रत्युत्पन्न’४ हो गई। कभी—कभी गुण्य के किसी अंक को गुणक से गुणा करने पर गुणनफल गुणक के अन्तिम स्थान से आगे निकल जाता है। ऐसी परिस्थिति में आंशिक गुणनफल का अन्तिम अंक अन्यत्र लिख लिया जाता है। १३५ को ९९ से गुणा करने पर इस बात का ध्यान रखना पड़ेगा। उत्क्रम (विलोम) विधि— यह विधि दो प्रकार से प्रयोग की जाती है—
(अ) पहली विधि में संख्याएँ निम्न प्रकार से लिखी जाती हैं— गुणक गुण्य १३५ गुणन का आरम्भ गुण्य के अंतिम अंक से होता है। इस प्रकार र्१ २ २ ; १ को मिटाकर उसके स्थान पर २ लिखा जाता है, इसके बाद र्१ १ १ ; यह १ उसके बायीं ओर लिखा जाता है। इसके बाद गुणक १२ को एक स्थान दाहिनी ओर हटाते हैं। पाटी पर अब निम्न संख्याएँ होती हैं— १२ १२३५ अब, र्३ २ ६ ; ३ को मिटाकर उसके स्थान पर ६ लिखते हैं। अब र्३ १ ३ और ३ + २ ५ ; २ को मिटाकर उसके स्थान में ५ लिखते हैं। इसके बाद गुणक को पुन: एक स्थान दाहिनी ओर हटाते हैं। पाटी पर अब निम्न संख्याएँ होती हैं— १२ १५६५ अब, र्५ २ १० ; ५ को मिटाकर उसके स्थान पर ० लिखते हैं। अब र्५ १ ५, ५ + १ ६ ; ६ + ६ १२; ६ को मिटाकर उसके स्थान पर २ रखते हैं और १ को दहाई में ले जाते हैं अर्थात् ५ में जोड़ते हैं, इस प्रकार ५ को मिटाकर उसके स्थान में ६ लिखते हैं। पाटी पर अब निम्न संख्या होती है— १६२० जो कि इष्ट गुणनफल है। दहाई में जोड़े जाने वाले अंक पाटी पर अन्यत्र लिख लिये जाते हैं और उनका जोड़ हो चुकने पर मिटा दिये जाते हैं।
(ब)दूसरी विधि में (गुणक के अंकों द्वारा) आंशिक गुणनफल क्रम विधि से किया जा सकता है। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि आंशिक गुणनफल उत्क्रम विधि से करने की परिपाटी थी। उदाहरण—३२४ को ७५३ से गुणा करो। गुणक और गुण्य निम्न क्रम से रखे जाते हैं— गुणक ७५३ गुण्य ३२४ गुणन का आरम्भ गुणक के अन्तिम स्थान से होता है। र्३ ७ २१ ; १ को गुणक ७ के नीचे रखते हैं और २ को उसकी बायीं ओर निम्न प्रकार से— ७५३ २१ ३२४ इसके बाद र्३ ५ १५ ; ५ को गुण्य ५ के नीचे रखते हैं और १ को दायीं ओर रखते हुए १ में जोड़ देते हैं; अर्थात् १ को मिटाकर उसके स्थान में योगफल २ को लिखते हैं। अब पाटी पर निम्न संख्याएँ होती हैं— ७५३ २२५३२४ अब र्३ ३ ९, गुण्य के ३ को मिटाकर उनके स्थान में ९ को लिखते हैं— ७५३ २२५९२४ अब गुणक को एक स्थान दाहिनी ओर हटाते हैं। ७५३ २२५९२४ अब र्७ २ १४ ; ४ को ७ के नीचे वाले ५ में ओर १ को ५ के बायीं ओर के २ में जोड़ते हैं। ७५३ २३९९२४ अब र्५ २ १० ; इस १० को ५ नीचे वाले अंकों में जोड़ते हैं— ७५३ २४०९२४ अब, र्२ ३ ६ ; इस ६ को ३ के नीचे वाले २ को मिटाकर उसके स्थान में रखते हैं। ७५३ २४०९६४ इसके बाद गुणक को पुन: एक स्थान दाहिनी ओर हटाते हैं— ७५३ २४०९६४ अब ४ को क्रमानुसार गुणक के ७, ५ और ३ से गुणा करते हैं; पहले दो गुणनफलों को क्रमश: ७ और ५ के नीचे लिखी संख्याओं में जोड़ते हैं और अन्तिम को ३ के नीचे वाले ४ को मिटाकर उसके स्थान में लिखते हैं। इस प्रकार क्रम से निम्नलिखित संख्याएँ मिलती हैं— (अ) ७५३ २४३७६४ (ब) ७५३ २४३९६४ (स) ७५३ २४३९७२ यही अन्तिम संख्या २४३९७२ इष्ट गुणनफल है।
२. तत्स्थ— श्रीधराचार्य ने इस विधि का विवरण नहीं दिया है। वे केवल यही लिखते हैं कि ‘अन्य (विधि) जिसमें गुण्य स्थिर रहता है तत्स्थ कहलाती हैं।’५ यह विधि बीजीय है और इसे बीजगणित के तिर्यक् गुणन अथवा वङ्कााभ्यास के सदृश बतलाया गया है।
३. रूप—खण्ड गुणन— इस विधि के दो भेद हैं— १. गुणन के दो या अधिक ऐसे भाग करते हैं जिनका जोड़ गुणक के तुल्य होता है। इसके अनन्तर गुण्य को उन भागों से अलग—अलग गुणा करके उन गुणनफलों को जोड़ लेते हैं। २. गुणक को दो या दो से अधिक गुणनखण्डों में विभक्त करते हैं। उसके बाद गुण्य को एक—एक करके उन गुणनखंडों से गुणा करते हैं। अन्तिम गुणनफल इष्ट गुणनफल होता है।
स्थान विभाग
इस विधि के अनुसार गुणा करने में अंक स्थापन में कई क्रमों का उपयोग किया गया है। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं— (१) १३५ (२) १२ १२ १२ (३) १३५ १३५ १२ १ ३ ५ १ २ १२ १२६० २७० ३६ ३६ १३५ ६० १६२० १६२० १६२० भागहार भाग की आधुनिक विधि का वर्णन सबसे पहले श्रीधर की त्रिशतिका में मिलता है। यह विवरण निम्नवत् है— ‘भाज्य और भाजक को तुल्य राशि से अपवर्तन करने के अनन्तर भाज्य को (एक—एक अंक करके) क्रम से विलोम विधि के अनुसार भाग देना चाहिये।’६ वर्ग/वर्गमूल वर्ग करने के सम्बन्ध में श्रीधर का कथन है—‘दो समान संख्याओं का गुणनफल वर्ग है।’७ आगे लिखा है कि— ‘अन्तिम अंक का वर्ग करके, अन्तिम अंक के दूने को शेष अंकों से गुणा करो। उन शेष अंकों को एक स्थान दाहिनी ओर हटाओ और पुन: वही क्रिया करो। वर्ग निकालने के लिये इस प्रकार शेष का एक—एक स्थान हटा—हटा कर उपर्युक्त क्रिया करना चाहिये।’ वर्गमूल निकालने की विधि का विवरण इस प्रकार दिया है— ‘(अन्तिम) विषमस्थान में (बड़ी से बड़ी संख्या के) वर्ग को हटाओ (जो घट जाये)। उसके बाद वर्गमूल के दूने को एक स्थान (दाहिनी ओर) हटा कर (नीचे की पंक्ति में) रखो और उससे (दी हुई संख्या के) शेष को भाग दो। प्राप्त लब्धि को भी नीचे की पंक्ति में रखो। उस (लब्धि) के वर्ग को (दी हुई संख्या के शेष में) घटाओ और उसके बाद लब्धि को दूना कर दो। (इस प्रकार से) प्राप्त (द्विगुणित) संख्या को पूर्ववत् एक स्थान (दाहिनी ओर) हटाकर रखो; और इससे (दी हुई संख्या के) शेष को भाग दो। अन्त में द्विगुणित संख्या को आधा कर दो। यही इष्ट मूलगुण होगा।’८ उदाहरण—५४७५६ का वर्गमूल निकालना। पहले दी हुई संख्या को लिखते हैं और सम तथा विषम स्थानों पर क्रम से क्षैतिज और ऊध्र्वाधर रेखाओं द्वारा सूचित करते हैं—यथा १—१—१ ५४७५६ अन्तिम विषम स्थान ५ में, बड़ी से बड़ी संख्या ४ घटायी जा सकती है। अत: ५ में से ४ घटाते हैं, शेष १ मिलता है। अत: ५ को मिटाकर उसके स्थान पर १ लिखते हैं। इसके बाद द्विगुणित वर्गमूल (र्२ २ ४) को एक स्थान दाहिनी ओर संख्या के नीचे रखते हैं— १—१—१ १४७५६ नीचे वाली संख्या ४ से ऊपर की संख्या १४ को भाग देते हैं; ३ लब्धि मिलती है और २ शेष बचता है। ३ को ४ दाहिनी ओर रखते हैं और १४ को मिटाकर उसके स्थान पर २ रखते हैं, इस प्रकार पाटी पर निम्न संख्याएँ हैं— —१—१ २७५६ ४३ ३ के वर्ग को ऊपर की संख्या २७ में घटाते हैं, १८ शेष बचता है। अत: २७ को मिटाकर उसके स्थान पर १८ रखते हैं। साथ ही साथ ३ को मिटाकर उसके स्थान में ३ का दूना अर्थात् ६ रखते हैं— —१—१ १८५६ ४६ अब ४६ को एक स्थान दाहिनी ओर हटाकर लिखते हैं— —१—१—१ १८५६ ४६ इसके बाद १८५ को ४६ से भाग देते हैं, ४ लब्धि मिलती है और १ शेष बचता है। ४ को ४६ के दाहिनी ओर रखते हैं और १८५ को मिटाकर उसके स्थान पर १ रखते हैं। —१ १६ ४६४ अब ४ के वर्ग को १६ में घटाते हैं, शेष ० बचता है। अतएव १६ को मिटा देते हैं। इसके बाद ४ को दूना करके रखते हैं। ४६८ यह द्विगुणित वर्गमूल है। इसको आधा करने पर २३४ मिलता है, जो इष्ट वर्गमूल है। घन/घनमूल किसी संख्या का घन ज्ञात करने के बारे में श्रीधर का वर्णन निम्न प्रकार से है— ‘अन्त्य (अर्थात् अन्तिम अंक) का घन लिखो; एक स्थान आगे, अन्त्य के वर्ग को त्रिगुणित आद्य (अर्थात् उपान्तिम अंक या पूर्व) से गुणा करके जो आये वह लिखो; (इसके एक स्थान आगे) आद्य के वर्ग को अन्त्य से और तीन से गुणा करके जो आये वह लिखो; और (इसके एक स्थान आगे) आद्या का घन भी लिखो। इस प्रकार से प्राप्त होने वाली संख्या (अन्त्य और आद्य दो अंकों से बनी हुई संख्या का) घन है।’९ श्रीधर ने घन निकालने का एक अन्य सूत्र भी दिया है— ‘(किसी दी हुई संख्या का) घन उस श्रेढी के योग के तुल्य होता है जिसके पद, ० आदि और १ प्रचय वाली श्रेढी में अन्तिम पद को त्रिगुणित उपान्त्य पद से गुणा करके १ जोड़ देने से, बनते हैं।’१० सूत्र– ह३ ड३ (r – १) + १ श्रीधर के शब्दों में—‘तीन समान संख्याओं का गुणनफल घन होता है।’ a३ र्a र्a a घनमूल ज्ञात करने के बारे में श्रीधर द्वारा दिया गया विवरण इस प्रकार है— ‘(इकाई से आरम्भ करके क्रमश:) एक घन स्थान होता है और दो अघन स्थान होते हैं। (दी हुई संख्या के अंकों के ऊपर घन और अघन चिह्नों को अंकित करो।) (अंतिम) घन स्थान में से (सबसे बड़ी) घन संख्या घटाओ। घनमूल को तीसरे पद (अर्थात् द्वितीय अघन स्थान) के नीचे रखकर, (द्वितीय अघन स्थान को) घनमूल के वर्ग के तिगुने से भाग दो। लब्धि को (घनमूल की) पंक्ति में (घनमूल के दाहिनी ओर) रखकर उसके वर्ग को त्रिगुणित अन्त्य (घनमूल) से गुणा करके ऊपर की संख्या को घटाओ।’११ पुन: (पंक्तिवाली संख्या को घनमूल मानकर) ‘(घनमूल को) तृतीय पद (अर्थात् द्वितीय अघन स्थान) के नीचे रखो’ वाली विधि का प्रयोग करो। यही घनमूल निकालने की विधि है। इसके बाद अनेक उदाहरण दिये गये हैं।
भिन्न परिकर्म
भिन्नों के बारे में श्रीधर ने व्यापक रूप से चर्चा की है। उन्होंने भिन्नों को जोड़ने एवं घटाने के लिये निम्न नियम दिया है—‘भिन्नों को समच्छेद करके उनके अंशों को जोड़ लो। पूर्णांक का हर ०१ होता है।’१२ सम्च्छेदीकरण को महावीर ने कलासवर्णन रूप में लिया है। आपने भिन्नों के भाग के सन्दर्भ में लिखा है कि—‘‘भागहार के अंश और हरों के परस्पर स्थान परिवर्तन करने के बाद पूर्ववत् क्रिया (गुणन) करना चाहिये। अर्थात् एक भिन्न को दूसरी भिन्न से भाग देने के लिये दूसरी भिन्न के अंश और हर परस्पर परिर्वितत करके गुणा कर देना चाहिये। भिन्नों के वर्ग, वर्गमूल, घन एवं घनमूल के सम्बन्ध में आपने लिखा है कि—‘अंश के वर्ग को हर के वर्ग तथा अंश के घन को हर के घन से भाग देने पर क्रमश: (भिन्न का) वर्ग तथा घन मिलता है ; और अंश के वर्गमूल को हर के वर्गमूल से तथा अंश के घनमूल को हर के घनमूल से भाग देने पर क्रमश: (भिन्न का) वर्गमूल तथा घनमूल मिलता है।’ आपने भिन्नों को निम्नांकित ६ वर्गों में विभाजित कर उन पर विभिन्न संक्रियाओं की चर्चा की है। र्चिचत ६ भिन्नें निम्नवत् हैं—
१.भागजाति अ/ब स/द च/छ…….. प्रकार) इस प्रकार की भिन्नों को हल करने का नियम निम्न प्रकार का दिया है— ‘नीचे वाले हर से ऊपर वाले अंश को गुणा करो, (फिर) ऊपर वाले हर से नीचे; वाले हर को गुणा करो तथा (फिर) बीच के हर तथा अंश के गुणनफल को ऊपर वाले अंश में जोड़ दो।’ उदाहरण— + का मान ज्ञात करो। हिन्दू रीति के अनुसार लिखने पर २ ३ ४ ५ (इस विधि में २ ऊपरी अंश तथा ३ ऊपरी हर है। इसी प्रकार ४ नीचे वाला अंश तथा ५ नीचे वाला हर है।) अब विधि के अनुसार, ऊपर वाले अंश को नीचे वाले हर से गुणा करने पर तथा नीचे वाले हर को ऊपर वाले हर से गुणा करने पर, हमें निम्न संख्याएँ प्राप्त होती हैं— र्२ ५ १० ३ ३ ४ अर्थात् ४ र्५ ३ १५ बीच की संख्याओं के गुणनफल को ऊपरी अंश से जोड़ने पर— १० + १२ २२ २२ अर्थात् या १५ १५ १५ बीच की संख्याओं को मिटा देते हैं जिनकी अब कोई आवश्यकता नहीं है।
२.प्रभाग जाति अ / ब का स/द का च/छ का ……प्रकार श्रीधर के अनुसार—‘अंशों को अंशों से तथा हरों को हरों से गुणा करते हैं।’ उदाहरण— अ/ब का स/द का च/छ अ स च ब द छ अन्य ग्रंथकारों ने प्रभाग जाति के भिन्नों को हल करने का नियम भिन्नों के गुणन के नियम जैसा बताया है।
३.भागानुबन्ध जाति—अ + ब /स +……. प/फ + प/ फ का द / स प्रथम प्रकार की जाति के लिये श्रीधर ने कहा है—‘पूर्णांक को भिन्न के हर से गुणा कर भिन्न के अंश में जोड़ दो।’ और दूसरी प्रकार की जाति के लिये उन्होंने कहा—‘ऊपर के छेद को नीचे के छेद से; गुणा करो और ऊपर के अंश को अपने अंश से युत (नीचे के) छेद से गुणा करो।’’
४. भागापवाह जाति अ — ब /स या प/फ — प / फ का द / स — प/फ — प/ फ का द / स का त / ध भागपवाह जाति के भिन्नों को सरल करने का नियम भागानुबन्ध जाति के नियम के समान ही है, अन्तर केवल इतना है कि इसमें जोड़ने के स्थान पर घटाना पड़ता है।
५.भाग—भाग जाति—अर्थात् निम्न स्वरूप की भिन्नें— अ ब/स अथवा प / फ र / स भाग के परिकर्म को प्रर्दिशत करने का कोई चिन्ह न होने के कारण, इन भिन्नों को भी भागानुबन्ध जाति की भिन्नों की भाँति ही लिखते थे— यथा अ अथवा प ब फ स र स भाग इत्यादि क्रियाओं का ज्ञान प्रश्न से विदित किया जाता था ; उदाहरण : १ को षड्भाग भाग द्वारा सूचित करते थे। जिसका अर्थ है, ‘एक भाग का छठवाँ भाग’ अर्थात् द्वारा विभाजित।’ यह जाति सभी गणितज्ञों ने नहीं दी है। आचार्य श्रीधर और आचार्य महावीर तथा कुछ अन्य गणितज्ञों ने यह जाति दी है।
६. भागमातृ जाति—अर्थात् उपर्युक्त स्वरूपों के मिश्रण से उत्पन्न भिन्नें— महावीर ने लिखा है कि ऐसी भिन्नें २६ प्रकार की हो सकती हैं। श्रीधर ने इस जाति के अन्तर्गत निम्नलिखित उदाहरण दिया हैं १३— ‘आधा, चौथाई का चौथाई, त्रिभागभाग, अपने आधे से युक्त आधा और अपने आधे से रहित तृतीयांश को जोड़ने पर क्या धन होगा ?’ + का + + का + + — का प्राचीन भारतीय पद्धति के अनुसार यह इस प्रकार लिखा जाता है— १ १ भारतीय संकेत का अवगुण स्पष्ट है ; क्योंकि ४ ४ को + और को १—१/३ भी पढ़ सकते हैं। अतएव संकेत का यथार्थ अर्थ प्रश्न के संदर्भ से ही जाना जा सकता है। त्रैराशिक आदि त्रैराशिक का अर्थ है ‘तीन राशियाँ’ अर्थात् ‘तीन राशियों से संबंध रखने वाला नियम’। त्रैराशिक के प्रश्न का स्वरूप निम्न प्रकार का होता है— ‘‘यदि ‘प्र’ में ‘फ’ मिलता है, तो ‘इ’ में क्या मिलेगा ? यहाँ पर तीन राशियाँ हैं—‘प्र’, ‘फ’ तथा ‘इ’। भारतीय गणितज्ञ ‘प्र’ को प्रमाण, ‘फ’ को फल और ‘इ’ को इच्छा कहते हैं। ये नाम भारतीय गणित के सब ग्रंथों में मिलते हैं। कभी—कभी इन्हें ‘प्रथम’, ‘द्वितीय’ और ‘तृतीय’ (राशि) भी कहा गया है। सभी गणितज्ञों ने लिखा है कि प्रथम और तृतीय राशियाँ सदृश, अर्थात् एक जाति की होती हैं।’’ श्रीधर कहते हैं—‘(त्रैराशिक की) तीन राशियों में से प्रमाण और इच्छा, जो एक जाति की हैं, आदि और अन्त की हैं ; फल राशि, जो अन्य जाति की है, मध्य की है। मध्य और अन्तिम के गुणनफल को आदि से भाग देना चाहिये।’ उदाहरण—यदि एक पल और एक कर्ष चन्दन की लकड़ी १० पण में प्राप्त होती है तो नौ पल और एक वर्ष (चन्दन की लकड़ी) कितने में प्राप्त होगी? हल—यहाँ पर १ पल और १ कर्ष ( १ पल) प्रमाण है, १० पण फल है, और ९ पल और एक वर्ष (९ पल) इच्छा है। इन राशियों को निम्न प्रकार से लिखते हैं— १ १० ९ १ १ १ ४ २ ४ भन्नों का सवर्णन करने पर, हमें यह मिलता है— ५ २१ ३७ ४ २ ४ द्वितीय और तृतीय राशियों को गुणा करने पर और प्रथम राशि से भाग देने पर, हमें मिलता है— हरों का कोष्ठ परिवर्तन करने पर हमें यह मिलता है— २१ ५ ४ २ पण ३७ ४ ४ पुराण, १३ पण, २ काकिणी और १६ वराटक। व्यस्त त्रैराशिक त्रैराशिक का नियम बतलाने के बाद भारतीय गणितज्ञों ने लिखा है कि जब अनुपात व्यस्त हो तब त्रैराशिक की क्रिया व्यस्त रीति से रना चाहिये। श्रीधर लिखते हैं—‘त्रैराशिक व्यस्त होने पर मध्य—राशि को प्रथम राशि से गुणा करके अन्तिम राशि से भाग देना चाहिये।’ उदाहरण—आठ—आठ मुक्ताओं वाले २० हारों में से छह—छह मुक्ताओं वाले कितने हार बन सकते हैं ? न्यास ८ २० ६ १ फल — हार २६ २ ३ मिश्रानुपात मिश्रानुपात को भारतीय गणित में, प्रश्न में प्रयुक्त राशियों की संख्या के अनुसार पंचराशिक, सप्तराशिक, नवराशिक इत्यादि संज्ञाएँ दी गई हैं, जो कि कभी—कभी ‘बहुराशिक’ संज्ञक सामान्य शीर्षक के अन्तर्गत वर्गीकृत किये गये हैं। श्रीधर ने लिखा है कि—‘फल को एक पक्ष से दूसरे पक्ष में ले जाओ आर (तब सब भिन्नों के) हरों का पक्ष परिवर्तन करो। इसके बाद दोनों पक्षों की राशियों को (अलग—अलग) गुणा करो और अधिक राशियों वाले पक्ष के गुणनफल को दूसरे पक्ष की राशियों के गुणनफल से भाग दे दी। (प्राप्त लब्धि इष्ट फल है)। उदाहरण—यदि १०० (निषक) का १ महीने का ब्याज ५ (निष्क) हो, तो १६ (निष्क) का १ वर्ष का ब्याज क्या होगा ? ब्याज और मूलधन के ज्ञान से समय, तथा समय और ब्याज के ज्ञान से मूलधन भी ज्ञात करो।’’ ब्याज निकालना— प्रथम पक्ष है—१०० निष्क, १ महीना, ५ निष्क (फल) द्वितीय पक्ष है—१६ निष्क, १२ महीने, २१ निष्क दोनों पक्ष की राशियों को निम्न प्रकार से ऊध्र्वाकार कोष्ठों में लिखते हैं— १०० १६ १ १२ ५ ० ऊपर पहले पक्ष में सबसे नीचे की राशि ५, प्रथम पक्ष का फल है, दूसरे पक्ष में कोई फल नहीं है। फलों का पक्ष—परिवर्तन करने पर मिलता है— १०० १६ १ १२ ० ५ दूसरे पक्ष में राशियों की संख्या अधिक है और उसका गुणनफल ९६० है। कम राशियों वाले पक्ष की संख्याओं का गुणनफल १०० है। अतएव इष्ट अर्थात् है। प्राचीन भारतीय इसे इस प्रकार लिखते थे— फल— ४८ अर्थात् निष्क ९, निष्क भाग ५ ५ समय निकालना— इस अवस्था में दो पक्ष निम्नलिखित हैं— १०० निष्क, १ महीना, ५ निष्क और १६ निष्क, य महीना, निष्क इन्हें पहले की भाँति स्थापित करने पर मिलता है— १०० १६ १ ० ४८ ४८ ५ ५ फलों का, अर्थात् सबसे नीचे के कोष्ठों की संख्याओं का पक्षान्तर करने पर मिलता है— १०० १६ १ ० ४८ ५ ५ हरों का पक्ष—परिवर्तन करने पर मिलता है— १६ १०० ० १ ५ ४८ ५ यहाँ पर अधिक संख्याएँ पहले पक्ष में हैं और उनका गुणनफल ४८०० है। दूसरे पक्ष की संख्याओं का गुणनफल ४०० है। अत: इष्टफल है— ४८०० १२ महीने ४०० मूलधन निकालना– प्रथम पक्ष है—१०० निष्क, १ महीना, ५ निष्क द्वितीय पक्ष है—य निष्क, १२ महीने, निष्क इन्हें पूर्ववत् इस प्रकार लिखते हैं— १०० १६ १ ० ५ ४८ ५ फलों (अर्थात् सबसे नीचे वाले कोष्ठों की राशियों) का पक्ष—परिवर्तन करने पर मिलता है— १०० ० १ १२ ४८ ५ ५ हरों का पक्ष—परिवर्तन करने पर मिलता है— १०० १६ १ ० ४८ ५ ५ अधिक संख्याओं वाले पक्ष की संख्याओं के गुणनफल को कम संख्याओं वाले पक्ष की संख्याओं के गुणनफल से भाग देने पर मिलता है— ४८०० ३०० १६ निष्क
सरल समीकरण
श्रीधर ने भिन्नों की विभिन्न जातियों के सरलीकरण की प्रक्रिया एवं व्यवहार वर्ग में जीव विक्रय, भाण्ड—प्रतिभाण्ड, आदि अनेक प्रकरणों में सरल समीकरण, सरल युगपत समीकरण, अनिर्धाय रेखीय समीकरण को हल करने में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। वर्ग समीकरण श्रीधर ने सरल समीकरण के अलावा वर्ग समीकरणों का भी विवेचन किया है। श्रीधर के बीजगणित विषयक पांडित्य का भास्कर ने भी लोहा माना है। वे लिखते हैं— ब्रह्माहृयश्रीधरपद्मनाभबीजानि यस्माद्तिविस्तृतानि। आदाय तत्सारमकारि नूनं साद्युक्तियुक्तं लघुशिष्यतुष्टयै।। अर्थात् ब्रह्मगुप्त, श्रीधर एवं पद्मनाभ के बीजगणित विषयक कार्य अत्यन्त विस्तृत हैं, मैंने उनसे केवल उनका सार ही ग्रहण किया है। यह कथन श्रीधर की बीजगणित विषयक कृति की उपस्थिति एवं महत्व को दर्शाता है। पाटीगणित विषयक अपनी कृतियों में उन्होंने अपने एतद्विषयक ज्ञान का एक अंश ही प्रस्तुत किया है। यहाँ हम उनके वर्ग समीकरण विषयक लाघव को प्रस्तुत कर रहे हैं। भास्कर (११५० ई.) ने अपने बीजगणित में श्रीधर का निम्न नियम उद्धृत किया है— चतुराहतवर्ग समै रूपै: पक्षद्वयं गुणयेत। अव्यक्त वर्ग रुपैर्युक्तौ पक्षों ततो मूलम्।।