श्रुत पंचमी’’ जैन संस्कृति का महापर्व है। तीर्थंकरों और गुरुओं के पर्व तो वर्ष में कई बार आते हैं किन्तु मां जिनवाणी का यह पर्व तो वर्ष में एक बार ही आता है तथा प्रतिवर्ष ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को मनाया जाता है। इसका सीधा सम्बन्ध श्रुतावतार के महनीय इतिहास से है। यह पर्व ज्ञान की आराधना का संदेश देता है, श्रुत के अवतरण, संरक्षण एवं संवद्र्धन की याद दिलाता है तथा हमारी सुप्त चेतना को जागृत करता है। संक्षेप में यह ज्ञान का पर्व है। अत: इसे हम ‘‘ज्ञान पंचमी’’ भी कह सकते हैं। जैन संस्कृति में ‘‘श्रुत’’ को पूज्यता का पद प्राप्त है। इसे श्रुत देवी/श्रुत देवता या जिनवाणी माता कहते हैं। इसे रत्नोपाधि से अलंकृत किया गया है। श्रुत का प्रभाव अनुपम है। श्रुत ज्ञान सम्यग्दर्शन का निमित्त है। इसके परिशीलन से पदार्थ के बोध के साथ ही हिताहित का ज्ञान भी प्राप्त होता है। हितानुबंधी ज्ञान से सन्मार्ग में प्रवृत्त हुआ व्यक्ति शाश्वतिक, निराकुल सुख को भी पा लेता है। सत्य तो यह है कि श्रुत देवी/श्रुत ज्ञान ही हमारा कल्याण करने वाला है, उसके आश्रय से ही केवलज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है। श्रुत ज्ञान का महत्व बतलाते हुये कहा गया है कि ‘‘ज्ञान की अपेक्षा श्रुत ज्ञान तथा केवल ज्ञान दोनों ही सदृश हैं परन्तु दोनों में अंतर यही है कि श्रुत ज्ञान परोक्ष है और केवल ज्ञान प्रत्यक्ष है।’’ पद्मनन्दी आचार्य के अनुसार ‘‘जो श्रुत की उपासना करते हैं, वे अरहंत की ही उपासना करते हैं क्योंकि श्रुत और आप्त में कुछ भी अंतर नहीं है इसलिये सरस्वती की पूजन साक्षात् केवली भगवान की पूजन है।’’ किसी कवि ने ठीक कहा है, ‘‘जिनवाणी जिन सारखी।’’ शास्त्रों में श्रुत की अपूर्व महिमा का गमन करते हुये लिखा है कि—
श्रुते भक्ति: श्रुते भक्ति: श्रुते भक्ति सदास्तु न:।
सज्जानमेव संसार वारणं मोक्ष कारणस्।।
जन्म—जरा—मृतु क्षय करै, हरै कुनय जड़रीति।
भव—सागर सौ ले तिरै, पूजौ जिन वच प्रीति।।
ऐसे महापर्व पर हमारे क्या कत्र्तव्य/उत्तरदायित्व हो जाते हैं, उनका संक्षिप्त दिग्दर्शन ही इस आलेख का विषय है।
१. हमारे पूर्वज, पूर्वाचार्यों द्वारा लिखित जिनवाणी को ताड़पत्र/भोजपत्र/कागज पर लिखकर/लिखवा कर जिनालयों में विराजमान करते रहे हैं। बड़े—बड़े शहरों से लेकर छोटे से छोटे सुदूरवर्ती ग्रामों के जिनालयों में भी उनकी पाण्डुलिपियां विद्यमान हैं, जिनमें हमारी संस्कृति, इतिहास एवं आचार—विचार की अमूल्य धरोहर सुरक्षित है। हमें चाहिये कि इस धरोहर की सुरक्षा एवं प्रचार—प्रसार के लिये इस पर्व पर हम कटिबद्ध हों। उनके पुराने वेष्टन बदल कर, प्रासुक करके, पुन: नवीन वेष्टनों में बांध कर, वेष्टन के बाहर ग्रंथ का नाम अंकित कर उन्हें सुरक्षित, सीलन रहित स्थान पर विराजमान करें।
२. कागज की पाण्डुलिपियों के दोनों ओर मजबूत कागज के पुठ्ठे लगायें तथा ताड़पत्रीय/भोजपत्रीय पाण्डुलिपियों को दोनों तरफ लकड़ी के पटिये (पटिये कुछ बड़े हों) लगाकर, वेष्टन में बांधकर अलग—अलग खानों में रखें।
३. सम्पूर्ण ग्रंथों की सूची का एक रजिस्टर भी बनायें।
४. पाण्डुलिपियों / ग्रंथों को रखने के लिये लोहे की अलमारियों का उपयोग करें। लकड़ी की अलमारियों से ये अधिक सुरक्षित हैं।
५. वेष्टन सूती हों, रंग लाल या पीला हो। लाल रंग पर सूर्य—ताप का दुष्प्रभाव नहीं पड़ता तथा पीला रंग कीटाणु निरोधक होता है।
६. वेष्टन को कसकर बांधना चाहिए ताकि उठाने—रखने में ग्रंथ को क्षति नहीं पहुंचे।
७. आज के मुद्रण प्रधान युग में हस्तलिखित पाण्डुलिपियों की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। वे उपेक्षित होकर चूहों और दीमकों की भोज्य बन रही हैं। हमें उनका लेमीनेशन कराकर, माइक्रो फिल्म बनवाकर बिन्दु क्रमांक एक—दो के अनुसार उनकी सुरक्षा करना चाहिये।
८. यदि पाण्डुलिपियों / प्राचीन ग्रंथों की उक्तानुसार आपके यहाँ सुरक्षा व्यवस्था संभव न हो तो कृपया उन्हें किसी पाण्डुलिपि संरक्षण केन्द्र को सादर सर्मिपत कर दें ताकि वे सुरक्षित रह सकें।
९. आज के इस मुद्रण प्रधान युग में प्राचीन, हस्तलिखित पाण्डुलिपियों ग्रंथों को कोई पढ़ना नहीं चाहता, उनके पढ़ने की योग्यता भी सामान्य जनों में नहीं है, यहाँ तक कि नवीन पीढ़ी के विद्वान भी उनके पढ़ने में अरूचि एवं असमर्थता प्रकट करते हैं। ऐसी स्थिति में पाण्डुलिपि प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन हितकर होगा। इस ‘‘ज्ञान यज्ञ’’ के लिये साधु, विद्वान, श्रुतसेवी संस्थायें एवं जिनवाणी भक्त श्रेष्ठी वर्ग आगे आयें और इस ज्ञान की संचित निधि को विलुप्त होने से बचायें।
१०. इन शिविरों के माध्यम से ग्रंथागारों की पाण्डुलिपियों का सूचीकरण, प्रशिक्षण, ग्रंथों का सम्पादन तथा प्रकाशन जैसे कार्य भी सरलता से हो सकेगें।
११. प्रत्येक जिनालय में बड़ी संख्या में मुद्रित/हस्तलिखित/प्राचीन/नवीन ग्रंथ पाये जाते हैं किन्तु सुरक्षा, रख—रखाव का न तो हमें ज्ञान है और न ध्यान। फलत: ग्रंथ शीघ्र फट जाते हैं, कीड़े लग जाते हैं, चूहे कट जाते हैं, उन्हें दीमक चट कर जाती है या वे सड़ गल जाते हैं।
अत: उनकी सुरक्षा के लिये अल्पकालीन/दैनिक उपाय निम्नानुसार है—
१. पुस्तकों/ग्रंथों को सदा स्वच्छ/शुद्ध हाथों से ही उठाये एवं रखें।
२. पुस्तकों/ग्रंथों को धूलि एवं गंदगी से बचायें। उनकी साप्ताहिक, मासिक, त्रैमासिक, र्वािषक जैसे भी संभव और आवश्यक हो, सफाई की व्यवस्था करें। हमारे पूर्वजों ने श्रुतपंचमी पर्व जिनवाणी की सुरक्षा आदि के लिये ही नियत किया है। सुरक्षा भी जिनवाणी की पूजा का एक अंग है।
३. पुस्तकों / ग्रंथों के साथ जीवित मानव (जिनवाणी माता) जैसा व्यवहार करें। अत: अलमारियां पूरी बंद न करें, कुछ हवा आने दें या कभी—कभी खोल कर रखें।
४. पुस्तकों के रखने का स्थान न तो अधिक गर्म हो, न अधिक ठंडा न सीलन भरा हो, प्रासुक/निर्जंतुक हो। अत: पुस्तकों को भीतरी कक्ष में रखना चाहिये।
५. पुस्तकों पर सूर्य की तीव्र किरणे सीधी नहीं पड़ना चाहिये इससे कागज की आयु कम हो जाती हैं मंद ताप/प्रकाश के लिये खिड़की/रोशनदान के काँचाों पर रंग करा देना चाहिये।
६. पुस्तकें को पत्थर या दीवाल से सटाकर न रखें, सीलन आ सकती है।
७. पुस्तकें रखने के स्थान पर अगल—बगल—सामने कागज लगाकर फिर पुस्तकें रखें।
८. पुस्तकें अलमारी में खड़ी रखें, एक दम ठूंस—ठूंस कर न रखें अन्यथा पुस्तकों को निकालने और रखने में असुविधा होगी। पुस्तकें रगड़ से फट सकती हैं, उनकी जिल्द उखड़ सकती हैं।
९. पुस्तकें आड़ी, एक के ऊपर एक न रखें क्योंकि बीच में से पुस्तक निकालने में असुविधा होगी।
१०. अत्यन्त महत्वपूर्ण पुस्तकों को सुरक्षित रखने के लिये पृथक से मजबूत पुट्ठे के बॉक्स बनाये जा सकते हैं।
११. ग्रंथालयों में या उनके आस—पास खाद्य पदार्थ तथा चिकनाई वाले पदार्थ नहीं होना चाहिये। मंदिरों की पुस्तकें इन पदार्थों के कारण चूहे काट जाते हैं।
१२. नीम के सूखे पत्ते अलमारियों में पुस्तकों के बीच बिछा कर पुस्तकों को दीमक, सफेद कीड़ों आदि से बचाया जा सकता है।
१३. चन्दन के बुरादे की पोटली भी अलमारी में प्रत्येक खाने में पुस्तकों की सुरक्षा हेतु रखी जा सकती है।
१४. पुस्तकों के उठाते—रखते एवं पढ़ते समय सावधानी रखें। अधिक मोटी पुस्तकें पढ़ते/खोलते समय उन्हें दोनों ओर कोई सहारा दें ताकि उनकी जिल्द सुरक्षित रहे। लकड़ी के उपकरण इस हेतु बाजार में उपलब्ध हैं।
१५. पुस्तकों पर जिल्द चढ़ाने से उनका जीवन दीर्घ हो जाता है। संक्षेप में, ग्रंथों की रचना बड़े कष्ट से की जाती है। एक र्मूित के टूटने/नष्ट होने पर उस जैसी दूसरी र्मूित बन सकती है। किन्तु एक प्राचीन ग्रंथ/पाण्डुलिपि नष्ट होने पर वैसा दूसरा ग्रंथ तैयार नहीं हो सकता। अत: इनकी यत्नपूर्वक जलवायु अग्नि मूषक तथा चोरों से रक्षा करना चाहिये। कहा भी है—
कष्टेन लिखितं शास्त्रं, यत्नेन परिपालयेत।
उदकानल चौरेभ्यो, मूषकेभ्यो हुताशनात्।।
तैलाद् रक्षेज्जलाद् रक्षेद् रक्षैच्छिथिल बंधनात्।
मूर्खहस्ते न दातव्यम् एवं वदति पुस्तकम्।।
१६. ‘‘श्रुत पंचमी’’ ज्ञान और ज्ञान के आराधकों के सम्मान का पर्व है। अत: जिन विद्वानों ने अनथक श्रम करके प्रतिकूल परिस्थितियों में रहकर भी ग्रंथों का सम्पादन, अनुवादन, लेखन, संरक्षण आदि कार्य कर मां जिनवाणी की अपूर्व सेवा की है उन्हें आज सम्मानित पुरस्कृत किया जाना चाहिये अथवा जो सरस्वती सेवक अभावों का जीवन जी रहे हैं उन्हें आर्थिक सहयोग देकर उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहिये।
१७. समाज में प्रतिवर्ष सैकड़ों पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं एवं गजरथ महोत्सवों में करोड़ों की धनराशि व्यय की जाती है।
१८. हमारी समाज में न तो श्रेष्ठियों की कमी है और न उदारदानियों की, कमी है उन्हें सही मार्ग दर्शन की। साधु समाज अपने विवेक और प्रभाव का उपयोग कर जिनवाणी के संरक्षण एवं प्रसार की अगुआई कर सकते हैं।