आचार्य श्री कुमुदेन्दु (९ वीं शदी) द्वारा रचित सिरिभूवलय अद्भुत ग्रंथ है। इस ग्रंथ का परिचय जब भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी को दिया गया तो उन्होंने इसको संसार का आठवाँ आश्चर्य बताया और इसे राष्ट्रीय महत्व का कहकर इसकी पाण्डुलिपि राष्ट्रीय अभिलेखागार में सुरक्षित करवाई। इस ग्रंथराज में १८ महाभाषाएँ तथा ७०० कनिष्ठ भाषाएँ र्गिभत हैं। अंकराशि से निर्मित यह ग्रंथ अद्वितीय सिद्धान्तों पर आधारित है, विज्ञान का भी यह अभूतपूर्व ग्रंथ है। इस ग्रंथ में बड़ा वैचित्र्य है।
इसमें २७ पंक्ति (लाइनें) और २७ स्तंभ (कालम) में ७२९ खाने युक्त कई टेबल हैं, खानों में १ से ६४ तक अंकों का प्रयोग किया गया है, अंकों से ही अलग—अलग अक्षर बनते हैं, उन अक्षरों से इस ग्रंथ के श्लोक पढ़ने के कई सूत्र हैं, उन्हें ‘‘बंध’’ कहा जाता है। बंधों के अलग—अलग नाम हैं। जैसे—चक्रबंध हंसबंध, पद्मबंध, मयूरबंध आदि। बंध खोलने की विधि का जानकार ही इस ग्रंथ का वाचन कर सकता है। इसके एक—एक अध्याय के श्लोकों को अलग—अलग रीति से पढ़ने पर अलग—अलग ग्रंथ निकलते हैं।
इसमें ऋषिमंडल, स्वयंभू स्तोत्र, पात्रकेशरी स्तोत्र, कल्याण कारक, प्रवचनसार, हरिगीता, जयभगवद्गीता, प्राकृत भगवद्गीता, संस्कृत भगवद्गीता, कर्नाटक भगवद्गीता गीर्वाण भगवद्गीता, जयाख्यान महाभारत आदि के अंश गर्भित होने की सूचना तो है ही साथ ही अब तक अनुपलब्ध स्वामी समन्तभद्राचार्य विरचित महत्वपूर्ण ग्रंथ गंधहस्ती महाभाष्य के गर्भित होने की भी सूचना है।
इसमें ऋग्वेद, जम्बूद्वीवपण्णत्ती, तिलोयपणत्ती, सूर्यप्रज्ञप्ति, समयसार तथा पुष्पायुर्वेद, स्वर्ण बनाने की विधि आदि अनेक विषय गर्भित हैं। भगवान् महावीर की दिव्यध्वनि (विशेष उपदेश) जैसे विभिन्न भाषा—भाषियों को अपनी—अपनी भाषा में सुनाई देती थी, ठीक वही सिद्धान्त इसमें अपनाया गया है, जिससे एक ही अंकचक्र को अलग—अलग तरह से पढ़ने पर अलग—अलग भाषाओं के ग्रंथ और विषय निकलते हैं।
इस पर अनुसंधान के परिणाम स्वरूप अनेक विलुप्त ग्रंथ प्रकाश में आएँगे। आज की चिकित्सा पद्धति से भी उच्च चिकित्सा पद्धति प्रकाश में आने की संभावना है, जो संपूर्ण मानव जाति को कल्याणकारी होगी। तात्कालिक ७१८ भाषाओं में निबद्ध हमारी संस्कृति उद्घाटित होगी जिसमें कई चौंकाने वाले तथ्य प्रकाश में आएँगे। कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ ने ‘सिरि भूवलय अनुसंधान परियोजना’ पर १ अप्रैल २००१ से विधिवत कार्य प्रारंभ किया है। अब तक का प्रगति विवरण इस प्रकार है
सिरिभूवलय पर अब तक अनुसंधान का प्रयत्न करने वाले मनीषियों, संस्थाओं से उनके द्वारा किए प्रयत्नों की जानकारी, संभावित सहयोगी विद्वानों के सम्पर्क, परियोजना सम्बन्धित पाण्डुलिपि आदि के अन्वेषण हेतु उक्त अवधि में डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’ (लेखक) ने चार अनुसंधान यात्राएँ की।
१. राजस्थान प्रांत—२२ से २५ अप्रैल २००१ तक राजस्थान प्रांत की शोध यात्रा की गई इसमें मुख्य रूप से जगत (गींगला) जिला उदयपुर की यात्रा जहाँ आचार्यश्री कनकनंदी जी महराज संघ सहित विराजमान थे। उन्होंने २० वर्ष पूर्व सिरिभूवलय पर अनुसंधान के प्रयत्न किए थे। उनसे उपयोगी मार्गदर्शन प्राप्त हुआ।
२. कर्नाटक प्रांत— ७ से २३ जून २००१ तक कर्नाटक प्रान्त की १७ दिवसीय अनुसंधान यात्रा की गई। यह यात्रा बहुत ही महत्वपूर्ण थी। इसमें विंशाधिक मनीषियों से भेंट व चर्चा की गई।
जिनमें श्रवणबेलगोला के भट्टारक स्वस्ति श्री चारूर्कीितजी, अरहंतगिरी के भट्टारक स्वस्ति श्री धवलर्कीित जी, मूडबिद्री के भट्टारक स्वस्ति श्री चारूर्कीित जी कनकगिरि के भट्टारक श्री भुवनर्कीित जी, प्रो. वी. एस. सव्णैया, डा. सुरेश कुमार, पं. श्री प्रभाकर आचार्य, श्री वद्र्धमान उपाध्ये, पं.ऋषभकुमार शास्त्री—श्रवणबेलगोला, डॉ. शुभचन्द्र, प्रो. एम. डी. वसंतराज—मैसूर, पं. देवकुमार शास्त्री—मूडबिद्री, ब्र. आदिसागरजी—होंमुज, श्री वीरेन्द्र हेगड़े—धर्मस्थल, श्री लक्ष्मी ताताचार्य मेलकोटले, डॉ. एच. एस. वेंकटेशमूर्ति, श्री वाय. के. जैन, श्री जिनेन्द्रकुमार, श्री ए. वाय. धर्मपाल, पं. देवकुमार शास्त्री, वैद्यश्री वासुदेव मूर्ति बैंगलौर प्रमुख थे।
श्रवणबेलगोल, मूडबिद्री और कनकगिरि के प्राचीन ताड़पत्रीय जैन शास्त्र भंडारों का भी सर्वेक्षण किया। पं. यल्लप्पा शास्त्री के पुत्र श्री ए. वाय. धर्मपाल से हम बैंगलौर में मिले, उनके पास सिरि भूवलय की कुछ सामग्री है, किन्तु उन्होंने हमारा किसी भी तरह सहयोग करने से साफ इंकार कर दिया।
३. मध्यप्रदेश— इन्दौर में संयोग प्राप्त आचार्यों, विद्वानों से प्राप्त मार्गदर्शन के अतिरिक्त ९ एवं २४ जून—२००१ को सागर (म. प्र.) की यात्रा की गई। यहाँ आचार्य श्री देवनंदी जी महाराज संघ सहित विराजमान थे। इन्होंने २० वर्ष पूर्व आचार्य कुंथुसागर जी महाराज के सान्निध्य में सिरिभूवलय को वाचन आदि का प्रयास किया था। श्री गौराबाई दिगम्बर जैन मंदिर, कटरा बाजार, सागर में मेरा सिरिभूवलय पर २४ जून को एक व्याख्यान हुआ।
४. दिल्ली व राजस्थान प्रदेश— २९ जुलाई से ४ अगस्त २००१ तक दिल्ली एवं जयपुर की शोधयात्रा की गई। दिल्ली में राष्ट्रीय अभिलेखागार का सर्वेक्षण किया। दिल्ली में आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज—लाल मंदिर, आचार्य श्री विद्यानंद जी महाराज, डॉ. सुदीप जैन—कुन्दकुन्द भारती से मिले।
यहाँ अपेक्षानुकूल मार्गदर्शन व सहयोग नहीं मिल सका। जयपुर में प्रमुख रूप से डॉ. जे. डी. जैन एवं श्री हेमन्त कुमार जैन से मिलें। इनके प्रोजेक्टर पर सिरिभूवलय पाण्डुलिपि की माइक्रोफिल्म देखी। जयपुर में डॉ. शीतलचंद्र जैन, डॉ. सनतकुमार जैन, पं. राजकुमार जैन, पं. राजकुमार शास्त्री, पं. अनूपचंद न्यायतीर्थ, डॉ. कमलचंद सोगानी, पं. प्रद्युम्न कुमार जैन आदि विद्वानों से भेंट की।
१. २४ जून २००१ को गौराबाई दिगम्बर जैन मंदिर, कटरा— सागर में आचार्य श्री देवनन्दीजी महाराज के ससंघ सान्निध्य में सिरिभूवलय पर व्याख्यान दिया।
२. २५ फरवरी २००२ को दिगम्बर जैन महिला संगठन, इन्दौर, अ.भा. दि. जैन महिला संगठन, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर एवं तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ आदि के तत्वावधान में आयोजित विद्वत् संगोष्ठी में सिरिभूवलय पर शोध आलेख वाचन किया।
३. २८ फरवरी २००२ को बण्डा— सागर में आचार्य श्री विद्यासागर जी, मुनि श्री अभयसागरजी व संघस्थ साधुवृन्दों के सान्निध्य में सिरिभूवलय पर चर्चात्मक व्याख्यान दिया।
४. २१ अप्रैल २००२ को बड़वानी- में आचार्य श्री सन्मतिसागरजी, आचार्य श्री सिद्धान्तसागरजी, बालाचार्य श्री योगीन्द्रसागर जी व गणिनी र्आियका श्री विजयमती माताजी सभी के ससंघ सान्निध्य में सिरिभूवलय पर चर्चात्मक व्याख्यान दिया।
५. ३० अप्रैल २००२ को मोराजी सागर- में आचार्य श्री विरागसागर जी महाराज के ससंघ सान्निध्य में विशाल जनसमुदाय के बीच सिरिभूवलय पर विशेष व्याख्यान दिया।
आचार्य कुमुदेन्दु द्वारा केवल अंकों में रचित सर्वभाषामय अद्भुत ग्रंथ सिरिभूवलय लगभग ४०० अध्यायों की श्रुति है, किन्तु अभी तक ५९ अध्यायों की सामग्री ज्ञात है। बैंगलौर (कर्नाटक) के श्री यल्लप्पा शास्त्री ने इस ग्रंथ की पाण्डुलिपि प्राप्त कर तथा विशिष्ट विधि से बंध खोलकर इसे पढ़ने और लिपिबद्ध करने में सफलता हासिल कर ली थी।
आचार्य देशभूषण जी महाराज के सान्निध्य में शास्त्रीजी इसके हिन्दी अनुवाद के कार्य में संलग्न थे कि इनका सन् १९५७ में आकस्मिक निधन हो गया। तब तक मात्र १४ अध्यायों का हिन्दी अनुवाद हो पाया था। शास्त्री जी के निधन के बाद आगे कार्य अवरूद्ध हो गया।
तब से अनेक प्रयत्न किए गये, किन्तु किसी को अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाई, क्योंकि प्रत्येक अध्याय को पढ़ने की विधि (बंध) अलग—अलग है। मैंने बंध खोलने के अनेक प्रयत्न किए। कठिन परिश्रम के फलस्वरूप सिरिभूवलय के तीन अध्यायों के बंध खोलने में मुझे सफलता मिल गई है।
हमने इनके कुछ अंशों का कन्नड़ एवं देवनागरी पद्यमय लिपिकरण कर लिया है तथा इनमें से समयसार की प्राकृत गाथाएँ, षट्खण्डागम के कुछ गाथासूत्र, तत्वार्थसूत्र के सप्तम अध्याय के कुछ सूत्र और सर्वदोष प्रायश्चित्तविधि के कतिपय मंत्र अन्वेषित कर लिए हैं।
इस अवधि में हमने सिरिभूवलय अनुसंधान परियोजनान्तर्गत निम्नांकित कार्य सम्पन्न किए हैं–
१.श्री देवकुमार सिंह जी कासलीवाल के प्रयत्नों से प्राप्त सिरिभूवलय के अंश की माइक्रोफिल्म का तथा उसके प्रिंट कन्नड लिपि एवं भाषा में होने के कारण विगत तीन वर्षों से अव्यवस्थित तथा अवाचित थे। सर्वप्रथम हमने इस सामग्री को व्यवस्थित किया, इसकी सूची बनाई और यह जाना कि बीच—बीच के कितने अंशों की सामग्री हमें उपलब्ध है।
२. मुद्रित, फोटो स्टेट कॉपी आदि सामग्री जो कन्नड़ में थी उसे पूर्ण व्यवस्थित किया।
३.प्रथम छमाही में हमने लगभग २०० साधुसंतों, विद्वानों, संस्थाओं से सघन पत्राचार किया, जिसके फलस्वरू इस परियोजना को गति में हम सफल हुए हैं।
४.माइक्रो फिल्म देखने के लिये पुरातत्व विभाग के डॉ. नरेश पाठक से अनुरोध किया तो उन्होंने सहर्ष प्रोजेक्टर हमें उपलब्ध करा दिया। हमने उसको ठीक करके फिल्म देखने में सफलता पा ली किन्तु रीडिंग के लिये वह उपयुक्त नहीं है क्योंकि गर्म होने से फिल्म जलने का भय है।
दो बंधों को खोल (अम्द्ग) कर ४४—४५ वर्षों से अवरूद्ध कार्य को गति देने में सफलता हासिल कर ली है।
६.माइक्रो फिल्म रीडर उपलब्ध नहीं होने से फिल्म पर से कोई कार्य किया नहीं जा सका। इसके जो प्रिंट थे बहुत अच्छे नहीं आये हैं। डॉ. शुभचन्द्रजी—मैसूर जैसे कई कन्नड़ के विद्वानों को भी हमनें प्रिन्ट दिखाये, किन्तु उन्होंने पढ़ने में असमर्थथा व्यक्त की। उनमें जो पत्र वारू हैं, हमने उन कन्नड़ पत्रों को पढ़ने का प्रयत्न किया।
७.अंकचक्रों में केवल ती अंक—चक्र ऐसे थे जो अध्याय के प्रारंभ के तथा एक दूसरे सम्बद्ध थे। ये अंकचक्र ५९ वें अध्याय के थे। इस अध्याय के बंध पढ़ने की विशिष्ट कुंजी ज्ञात कर अंकों से कन्नड़ लिपिकरण और देवनागरी लिपिकरण किया।
८.कन्नड़ आदि १४ भाषाओं के साफ्टवेअर संचालित करने के लिये मैं स्वयं कम्प्यूटर आपरेट करता हूँ। १४ लिपियों के अंक चक्र आदि निकाल कर विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत किये हैं।
९.एक बंध खोल (अम्द) कर उसका कम्प्यूटर द्वारा कन्नड़ एवं देवनागरी लिपिकरण करके उसमें ३४ भाषायें चिन्हित कर ली हैं।
१०.सिरिभूवलय में ७१८ भाषाओं होने के उल्लेखों को ध्यान में रखकर विश्व के २९० देशों एवं विश्व में प्रचलित ६०० भाषाओं की सूचना प्राप्त कर ली है।
अक्टूबर, २००१ के अन्त में सिरिभूवलय की पूर्ण पाण्डुलिपि कर ली गई है। इसमें १२५२ अंकचक्र, ५९ अध्याय हैं। इससे व्यवस्थित कार्य प्रारंभ किया जा सकता है।
सिरिभूवलय अनुसंधान परियोजना देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर के कुलपति प्रो. भरत छापरवाल, कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ के अध्यक्ष श्री देवकुमारिंसह कासलीवाल, निदेशक प्रो. ए. ए. अब्बासी, सचिव डॉ. अनुपम जैन एवं कोषाध्यक्ष श्री अजितकुमारिंसह कासलीवाल के मार्गदर्शन एवं सहयोग से गतिमान है।
कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ के अध्यक्ष श्री देवकुमारिंसह कासलीवाल विगत १३—१४ वर्षों से सिरिभूवलय को प्रकाश में लाने के लिये प्रयत्नशील रहे हैं। अप्रैल २००१ से इसका कार्य प्रारंभ हो जाने पर वे इतने वयोवृद्ध होते हुए भी कार्य की प्रगति जानने एवं अपना मार्गदर्शन प्रदान करने ज्ञानपीठ में नियमित आते हैं।
ज्ञानपीठ के मानद सचिव डॉ. अनुपम जैन, प्रबन्धक श्री अरविन्द कुमार जैन एवं पुस्तकालयाध्यक्ष श्रीमती सुरेखा मिश्रा द्वारा भी अपने स्तरानुकूल इसमें योगदान प्रदान किया जा रहा है। परियोजना के प्रारंभ में श्री दीपचन्द एच. गार्डी ज्ञानपीठ में पधारे, उन्होंने यह महत्वपूर्ण कार्य विधिवत संचालित करने के लिये ज्ञानपीठ को उत्साह एवं प्रेरणा प्रदान की।
पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी, आचार्य श्री विद्यानन्द जी, आचार्य श्री सन्मतिसागरजी, आचार्य श्री कनकनंदीजी, आचार्य श्री देवनन्दीजी, आचार्य श्री विरागसारजी, आचार्य श्री सिद्धान्तसागरजी, उपाध्याय मुनि श्री निजानन्दसागरजी, उपाध्याय श्री ज्ञानसागरजी, कर्मयोगी चारूर्कीित भट्टारकजी—श्रवणबेलगोला, भट्टारक श्री भुवनकीर्ति, भट्टारक श्री चारूकीर्ति—मूड़बिद्री, भट्टारक श्री धवलकीर्ति—अरहंतगिरी ने उत्साहवद्र्धन करते हुए आशीर्वाद प्रदान किया है। मंगलोर वि. वि. के कुलपति प्रो. एस. गोपाल ने अपनी शुभकामनायें प्रेषित की हैं।
केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री श्रीमती सुमित्रा महाजन, अ. भा. दि. जैन विद्वत् परिषद के पूर्व अध्यक्ष डॉ० रमेशचन्द्र जैन—बिजनौर, प्रो. नलिन के. शास्त्री—बोधगया, पं. श्री गुलाबचन्द आदित्य—भोपाल तथा स्थानीय विद्वानों ने इस कार्य को संचालित करने के लिये ज्ञानपीठ की सराहना की है तथा अभूतपूर्व सफलता हासिल करने के लिये हमें शुभकमानायें प्रदान की हैं।
सिरिभूवलय विविध विषयों व ७०० वे अधिक भाषाओं में होने से इस परियोजना के संचालन के लिये सर्वप्रथम सम्पन्न पुस्तकालय का होना जरूरी था जो कि ज्ञानपीठ का लगभग १०००० ग्रंथों से युक्त हमें सुलभ है। ज्ञानपीठ में संचालित प्रकाशित जैन साहित्य सूचीकरण परियोजना के माध्यम से अन्य ग्रंथ भंडारों के लगभग ४० हजार ग्रंथों की सूची भी हमें उपलब्ध है।
परियोजना संचालन हेतु आधुनिक संगणन केन्द्र (Computer Centre) कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ में स्थापित कर लिया गया है। इसमें निम्नांकित साफ्टवेयर सुविधाओं को उपलब्ध कर लिया गया है—
इसमें देवनागरी, गुजराती, पंजाबी, बंगाली, असमी, उड़िया, तमिल, कन्नड़, तेलगु, मलयालम, िंसहल, सिन्धी, अरैबिक, रसियन, संस्कृत, इंग्लिश, डाइक्रिटिकल ओर सिम्बोल के फोन्ट और लिपिकरण की सुविधा है। मुझे सिरिभूवलय के अंति (५९ वें) अध्याय का बंध खोलने में प्रथमत: सफलता हासिल हो गई थी, इसलिये इसी से कार्य प्रारंभ कर दिया था। ५९ वें अध्याय में ४० अंकचक्रों से ५९२ कन्नड़ श्लोक बनेंगे।
अब तक हमने ३८० श्लोक डिकोड कर लिये हैं, इनका देवनागरी और कन्नड लिपि में लिपिकरण कर लिया है। सभी की सहयोग की सद् इच्छायें, उत्कंठायें होते हुए भी सिरिभूवलय परियोजना का अब तक का सम्पन्न कार्य एकव्यक्तीय—कार्योपलब्ध्याश्रित है। परियोजना का पूर्ण साफल्य संस्था के संकल्प, अनुकूल वातावरण, समुचित पारिश्रमिक व उत्साहवद्र्धन और प्राचीन कन्नड़ के ज्ञाता विद्वानों की उपलब्धता पर निर्भर करेगा।
डॉ. महेन्द्र कुमार जैन ‘मनुज’
शोधाधिकारी—सिरिभूवलय परियोजना, ण्/द कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ,
५८४, म. गाँधी मार्ग, तुकोगंज, इन्दौर—४५२ ००१
अर्हत् वचन अप्रैल सितम्बर, २००२, पेज नं. १२१