अजय-अरे अरे, मैं तो लुट गया, बरबाद हो गया। हे भगवान् ! मुझे किसी तरह तुम्हीं बचा लो।
संजय-क्या हो गया मित्र! किसी ने तुम्हें मारा है या धन चुरा लिया है ?
अजय-मैं क्या बताऊँ ? मै तो अब कहीं का भी नहीं रहा । घर जाकर माँ—बाप को क्या मुंह दिखाऊंगा।
संजय-एक बात तो बताओ अजय! तुम्हें हुआ क्या है ? मित्र को अपना दुःख बताने से अवश्य मस्तिष्क कुछ हल्का हो जाता है। हो सकता है कि मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं”
अजय-अरे भैय्या! तुम मदद क्या करोगे ? तुमने तो पहले बहुत मना किया था लेकिन मैं नहीं माना तभी तो आज मेरी यह हालत हुई है।
संजय-अच्छा तो समझ गया मैं, लगता है तुम किसी बुरे चक्कर में फंस गये थे।
अजय-हां! बुरे को ही अच्छा समझकर गया था लेकिन मेरा भाग्य ही फूट गया।
संजय-सच—सच बताओ अजय! क्या तुमने शरीब पी है या जुआ खेला है ?
अजय-सुनो मेरे मित्र ! मैंने न तो शराब पी है और न ही जुआ खेला है। लेकिन हां, एक और औरत के …………… मुझे तो शरम आती है।
संजय-अरे दुष्ट! वेश्या के पास गया था यह कह दे न । जाते शर्म नहीं आई थी, अब बताते शर्म आती है।
अजय-अरे भाई ! अब तो मुझे अधिक दुखी न करो। मैं तो खुद ही बहुत कष्ट पाकर किसी प्रकार उस नरकखाने से निकला हूं ।
संजय-मुझे तो अब तुमसे बहुत घृणा हो रही है। सोचो! जिस वेश्या के पास भंगी, चमार, लुहार, चांडाल सभी जाते हैं उसके पास तुम उनकी जूठन खाने गये थे क्या ? वेश्याएं तो एक बार किसी को अपने ऊपर आसक्त जानकर सैकड़ों प्रवंचनाओं से उसका सर्वस्व हरण कर लेती हैं पुनः उसका निरादर करके घर से निकाल देती हैं।
अजय-हाँ संजय! यही मेरे साथ भी हुआ, मेरे पिताजी ने दस हजार रुपया मुझे व्यापार करने के लिए दिया था। मैं एक दिन कई लोगों को वेश्यालय में जाते देखकर वहीं घुस गया। बस फिर क्या था ? वहाँ एक सुन्दर सी स्त्री ने मुझसे खूब प्रेमपूर्ण बातें कीं और मैं उसी के प्रेमालाप में बंध गया। मैंने उसको सारा पैसा भी दे डाला और जब उसने जान लिया कि इसके पास पैसा समाप्त हो गया है तो मुझे धक्के देने लगी। अरे मित्र! मैं तो इतना पागल हो गया उसके प्रेम में, कि लगता था उसके बिना जीवित ही नहीं रह सकता किन्तु उसने कहा कि तुम नहीं जाओगे तो मैं हाथ पैर बांधकर विष्ठागृह में डलवा दूंगी, तब मैं डर कर भाग आया।
संजय-ऐसी दुराचारिणी स्त्रियों को ही तो हमारे आचार्यों ने नरक का द्वार कहा है। वे स्वयं तो अनंत संसार में डूब ही रही हैं, अपने पास आने वाले पुरुषों को भी साक्षात् नरक का द्वार दिखाने वाली हैं। इसी प्रकार से तो चारुदत्त सेठ ने वेश्यासेवन करके अपना घोर अपमान कराया था। शास्त्रों में न जाने कितने उदाहरण भरे पड़े हैं कि यह व्यसन तो इतना बुरा है कि चोरी, जुआ,शराब सब कुछ करना आदमी इसमें सीख जाता है।
अजय-हाँ! मैं सुनता तो रहता था इन व्यसनों की बुराइयों को। लेकिन पता आज चला है कि कैसा फल भोगना पड़ता है।
संजय-अरे, फल तो इस जन्म में क्या है ? यहाँ तो किसी तरह बच तो गए लेकिन जब अगले भव में नरक में नारकियों के द्वारा गरम—गरम लोहे की पुतलियों से चिपकाए जाओगे तब वहाँ से किसी तरह भाग भी नहीं सकते। यहां के पापों से नरक में हजारों—लाखों वर्षों तक जीव रो—रोकर कष्ट भोगता है लेकिन अपनी आयु पूरी करके ही वहां से निकल सकता है।
अजय-हे भगवान् ! मुझे ऐसे कष्ट न भोगने पड़ें, मैं आपके चरणो की सौगन्ध खाकर कहता हूं कि अब कभी ऐसे कार्य नहीं करूंगा। मैंने अब इसके दुर्गुणों को देख लिया है कि वेश्या के मोह में मनुष्य अपने मां,बाप,मित्र सबको शत्रु समझने लगता हेै।
संजय-बिलकुल ठीक कहा तुमने अजय! तुम्हारी इस बात पर मुझे एक छोटा सा उदाहरण याद आ गया। एक वृद्ध महिला के पास उसका इकलौता बेटा था। पति के स्वर्गस्थ हो जाने के कारण उसने अपने बेटे को अत्यधिक लाड़—प्यार किया। उस लाड़ का फल यह हुआ कि बेटा बड़ा होकर वेश्यासेवन में निपुण हो गया। मां बेटे की हर इच्छा पूरी करने के लिए प्रतिक्षण कटिबद्ध रहती थी क्योंकि बेटे के अलावा जीवन में उसका कोई भी नहीं था इसलिए वह व्यसनों में फँसे अपने लाड़ले को रोक न सकी जबकि मां का कर्तव्य था कि उसे जबर्दस्ती उधर से हटाने की कोशिश करती किन्तु तीव्र मोह भी दुर्गति का कारण बन जाता है। वेश्या के मोहजाल में फंसा हुआ वह मां को छोड़कर उसी के पास रहने लगा। एक दिन वेश्या ने पूछा-तुम मुझे ऊपरी दिखावे से प्यार करते हो मैं तुम्हारे ऊपर कैसे विश्वास करूं ? तब युवक ने कहा-प्रिये! तुम मेरी किसी प्रकार से परीक्षा करके देख लो। मैं सच कहता हूं कि तुम्हारे बिना मैं एक क्षण भी नहीं रह सकता। एक दिन उस वेश्या ने परीक्षा के तौर पर युवक से कहा-मैं तुम्हारा वास्तविक प्रेम तभी समझ सकती हूं जब तुम अपनी मां का कलेजा निकालकर मेरे पास ले आवो।
अजय-अरे भगवान् ! कलेजा निकालने का मतलब तो यह रहा कि मां की मौत।
संजय-तो इसमें कौन सी बड़ी बात है। वेश्यासेवन के क्षणिक आनन्द के लिए तो व्यक्ति सब कुछ कर सकता है। वह भी अपनी प्रिया की खुशी के लिए मां के कलेजे को लाने के लिए निकल पड़ा। एक झोपड़ी में बेटे के वियोग में दुखित मां बैठी थी। उसके पास पहुंच कर बेटे के दिल में एक बार तो ठेस लगी-कैसे मां से ऐसी बात कहूं किन्तु उसे तो अपनी परीक्षा मे पास होने की उमंग थी अतः साहस बटोरकर मां से कहा-मां! मैं आपका कलेजा निकालकर अपनी प्रिया के पास ले जाना चाहता हूं। मां बोली-बेटा! जैसी तुम्हारी इच्छा। युवक मां का कलेजा निकालकर ले जा रहा था। थोड़ी दूर जाते ही ठोकर लगी वह गिर पड़ा, हाथ में पकड़ा हुआ खून से लथपथ मां का कलेजा एक ओर गिरा। तभी उसमें से आवाज निकली-बेटे! तुझे कहीं चोट तो नहीं लगी। बेटा सहम गया। सोचने लगा-ओह! धिक्कार है मेरे जीवन को। मेरी मां के इस टूटे दिल में अभी भी मेरे लिए कितनी ममता है।
अजय-तब तो उसने उस वेश्या का साथ छोड़ दिया होगा ?
संजय-हां अजय! छोड़ तो दिया किन्तु टूटे दिल को तो वापस उस शरीर में न जोड़ सका। यह सब बुरी संगति वेश्यासेवन के कारण ही तो हुई। इसीलिए ऋषि, मुनियों ने हम सभी को बार—बार सम्बोधित करते हुए कहा है-‘सदाचारी बनो और अपने सद्गृहस्थ के कर्तव्यों का हमेशा पालन करो, मुक्ति का मार्ग प्राप्त करने के लिए यही सरल उपाय है।’