सुरेन्द्र-महेन्द्र भाई! आज तो यार, बड़े खुश नजर आ रहे हो। क्या बात है ?
महेन्द्र-खुश तो मैं हमेशा ही रहता हूँ। वैसे आज मैं प्रसन्न तो बहुत हूं लेकिन तुम्हें बताऊंगा नहीं। कहीं तुमने मेरी पोल खोल दी तो………
सुरेन्द्रअरे! तुम्हें मेरे ऊपर इतना भी विश्वास नहीं है। मैं तो तुम्हारा जिगरी दोस्त हूं तुम मुझे अपने मन की बात नहीं बताओगे ?
महेन्द्र-अच्छा सुरेन्द्र! अगर ऐसी बात है तो मैं तुम्हें जरूर बताऊंगा। पहले मुझे आश्वासन दो कि तुम मेरे कार्य में बाधक नहीं साधक बनोगे। अरे मित्र! तुम मेरी बात मान लोगे तो मैं तुम्हें भी मालामाल बना दूँगा।
सुरेन्द्र-कोई लाटरी खुली है क्या ?
महेन्द्र-हाँ, लाटरी ही है, आज तो भाग्य खुल गये, बस मजा आ गया यार।
सुरेन्द्र-महेन्द्र! बताओ तो सही,शायद तुम्हारे कारण मुझे भी कुछ फायदा हो जावे।
महेन्द्र-तो सुनो भाई! आज मैं एक दुकान में घुसकर बड़ी चतुराई से सौ रूपये चुराकर लाया हूँ। चलो हम दोनों आज पिक्चर देखेंगे और होटल में खूब माल उड़ाएंगे।
सुरेन्द्र-अरे बाप रे, चोरी…। मैं तो सोच भी नहीं सकता था महेन्द्र कि तुम इतना गलत काम कर सकते हो।
महेन्द्र-तुम अभी क्या जानो इसका आनन्द। मित्र! अब कल से हम दोनों मिलकर पहले से योजना बनाकर किसी न किसी बड़े सेठ के घर में घुसकर कीमती माल चुराया करेंगे, फिर तो न तुझे किसी बात की कमी रहेगी और न मुझे।
सुरेन्द्र-न बाबा, मुझसे तो चोरी हो नहीं सकती। जानते हो महेन्द्र! चोरी करना महापाप का कारण है”
महेन्द्र-अरे यार! तुम तो मुझे उपदेश ही देने बैठ गये। मैं इसीलिए तो तुमसे बताना नहीं चाहता था। बस हो गई न दोस्ती की परख।
सुरेन्द्र-मित्र! सोचो तो सही, तुम अपने विषयों की क्षणिक शांति के लिए जिस पाप कार्य की ओर अग्रसर हो रहे हो वह तुम्हारे लिए किसी भी हालत में उचित नहीं है। चोरी किया हुआ माल कोई कितने दिन खा सकता है ?
महेन्द्र! क्या तुम्हें अपने बाहुबल पर विश्वास नहीं है।
चलो भाई! हम दोनों खूब मेहनत से कमाई करके अपने माँ—बाप को खुश करेंगे।
महेन्द्र-किन्तु जब बिना मेहनत के ही लखपति बना जा सकता है तो क्यों इस शरीर को कष्ट दिया जाये ?
सुरेन्द्र-महेन्द्र! तुम्हारी बुद्धि केसी भ्रष्ट हो गई है । कम से कम अपनी नहीं तो अपने माता-पिता की इज्जत का तो ख्याल रखो। जब कोई उनके सामने कहेगा कि सेठजी का लड़का चोर है तब उनके दिल पर क्या बीतेगी ? तुमने अंजन चोर का नाम सुना है कभी ?
महेन्द्र-हाँ, और यह भी सुना है कि वह चोरी करने के बाद भी अंजन से निरंजन बन गया, इसीलिए तो मैं भी कहता हूं कि जब पहले के लोग भी चोरी करते थे तो मुझे ही पाप क्यों लगेगा ?
सुरेन्द्र-पाप तो पाप ही है” तुम करो या कोई भी। अंजन चोर कोई जन्म से चोर नहीं था। वह तो एक राजा का लड़का था।
महेन्द्र-ऐं………. । राजा के लड़के को भला क्या कमी रही होगी जो चोरी करने लगा?
सुरेन्द्र-हां महेन्द्र! सुनो तो सही, बड़ी रोमांचक कहानी है। चोरी तो सात व्यसनों में से एक व्यसन है जो इसके चक्कर में आ जाता है वह अपने आपको भी भूल जाता है। एक राजा के ललितांग नाम का इकलौता पुत्र था। राजसी ठाठ और माँ—बाप के असीमित लाड़ ने उसे बचपन में ही बिगाड़ दिया। देखो! जब वह बालकपन में अनुचित कार्य करता था तब राजा—रानी उसे हँसी में टाल कर बढ़ावा दे देते जिससे उसका साहस बढ़ता गया और बड़ा होकर वह इतना बिगड़ गया कि सारे नगरनिवासियों को खूब परेशान करता।
महेन्द्र-फिर क्या वह चोरी करने लगा ?
सुरेन्द्र-नहीं, पहले चोरी नहीं करता था। जब सारे नगर की प्रजा उस राजपुत्र से त्रस्त हो गई तब पंचों ने जाकर राजा के सामने निवेदन किया कि हम सभी इस नगर को छोड़कर जाना चाहते हैं। राजा ने आश्चर्य से इसका कारण पूछा तो सबने कहा- अन्नदाता! आपका पुत्र हमारे घरों में घुसकर बहू-बेटियों की इज्जत लूटता है,किसी को जान से मार देता है तो किसी के मकान—दुकान जला देता है। अब हम लोग इसे सहन नहीं कर सकते।
महेन्द्र-तो क्या राजा को अपने पुत्र की हरकतें मालूम नहीं थीं ?
सुरेन्द्र-मालूम भी कैसे हों ? बेचारी प्रजा राजपुत्र से इतना डरती थी कि कभी राजा से शिकायत की हिम्मत ही नहीं पड़ी और जब पंचों ने मिलकर राजा से निवेदन किया तब राजा को बहुत दुःख हुआ। उन्होंने प्रजा को अभयदान का आश्वासन देकर महल में जाकर रानी के सामने कहा ? रानी को भी अत्यन्त कष्ट हुआ। अन्त में राजा—रानी दोनों ने मिलकर अपने लाड़ले को खूब समझाया। माता—पिता के सामने तो उसने हां—हां कर दिया किन्तु फिर राजमहल से बाहर निकलते ही अपने दुष्ट मित्रों के साथ वैसी ही हरकतें करने लगा। वही तोड़फोड़, वही लूटपाट। लोगों ने पुनः राजा से निवेदन किया अब तो राजा के क्रोध का ठिकाना न रहा। उन्होंने उसी समय पुत्र को बुलाकर देश निकाला का दण्ड घोषित कर दिया।
महेन्द्र-अरे़…. अपने ही इकलौते पुत्र को इतना कड़ा दण्ड।
सुरेन्द्र-तो क्या करते ? न्यायनीतिपूर्वक राज्य का संचालन करने वाले राजा के लिए प्रजा और पुत्र समान होते हैं। ललितांग एक बाद तो सहमा पुनः माँ के पास जाकर पिताजी को समझाने की याचना करने लगा किन्तु जब माता के सामने भी उसकी दाल नहीं गली तब दोनों को खूब गालियाँ देते हुए राज्य का त्याग कर दिया। उस राज्य में तो शान्ति हो गई किन्तु ललितांग बाहर जाकर चोरों का सरदार बन गया और उसने एक ‘‘अंजनगुटिका’’ विद्या सिद्ध कर ली जिसके द्वारा वह बड़ी आसानी से कहीं भी चोरी कर सकता था और उसे कोई देख नहीं सकता था।
महेन्द्र-अरे वाह! तो इसीलिए उसका नाम अंजन चोर पड़ गया। हे भगवान् ! मुझे भी ऐसी विद्या आ जावे तब तो मैं पूरे गांव का ही सफाया कर दूँ।
सुरेन्द्र-महेन्द्र! भावों से तुमने अपने गुणों का सफाया तो कर दिया है, गाँव का सफाया तो गांव वालों के कर्म पर निर्भर है। तुम क्या समझते हो कि अंजन चोर चोरी करते—करते ही मोक्ष चला गया।
महेन्द्र-और क्या! साफ—साफ तो कथा इसी बात को बता रही है।
सुरेन्द्र-हे भगवान् ! महेन्द्र, अभी कहानी पूरी सुनो तो सही। इसी तरह चोरी करते—करते वह एक वेश्या के चंगुल में फंस गया।
महेन्द्र-अच्छा,तब क्या हुआ ?
सुरेन्द्र-जो होना चाहिए था वही हुआ। वेश्याएं तो धन—दौलत की ही भूखी होती हैं। ललितांग-अंजन चोर ने भी अपने कला—कौशल से खूब धन, गहने, जेवर चुराकर वेश्या का घर भर दिया। एक दिन उस वेश्या ने वनक्रीड़ा को जाते हुए एक राजा की रानी के गले में वेशकीमती रत्नों का हार देखा। बस अंजनचोर से बोली-यदि तुम मेरे सच्चे प्रेमी हो तो वही हार लाकर दो। वेश्या में आसक्त अंजन चोर बेचारा अपनी जान को जोखिम में लेकर रात्रि में राजमहल में चोरी करने चला गया। हार तो आसानी से चुरा लिया परन्तु उस हार में चमक इतनी अधिक थी कि जब अंजन चोर हार को लेकर भागने लगा तब कोतवालों ने चोर-चोर कहकर सबको जगा दिया।
महेन्द्र-अरे! तुम्हीं तो कह रहे हो कि उसकी विद्या के कारण उसे कोई देख नहीं पाता था।
सुरेन्द्र-हाँ,देख तो कोई नहीं पाता था किन्तु हार की चमक के कारण कोतवाल ने अंधेरे में मशालें जला दीं। जिनके धुएं से उसकी आँखों का अंजन धुल गया और वह उस हार को वहीं छोड़कर भागा। भागते—भागते एक जंगल में एक पेड़ के नीचे विचित्र दृश्य दिखाई देता है।
महेन्द्र-कैसा दृश्य ?
सुरेन्द्र-महेन्द्र! वह देखता है कि पेड़ के ऊपर एक व्यक्ति तेज धार वाली छुरी लेकर बैठा है और नीचे भूमि पर बड़े नुकीले—नुकीले अस्त्र लगे हुए हैं। बीच में कुछ रस्सियाँ बँधी हुई हैं। अंजनचोर वहीं रुक गया। ऊपर बैठे हुए व्यक्ति से उसने पूछा कि आप क्या करने जा रहे हैं ? उन्होंने बताया कि मुझे एक सेठ ने णमोकार मंत्र बताया है कि इसे पढ़कर एक—एक रस्सी काटते जाना, जब अंतिम रस्सी कट जाएगी तब एक विद्या देवता आकर तुम्हें झेलेगी और तुम्हें आकाशगामिनी विद्या सिद्ध हो जाएगी।
महेन्द्र-अच्छा ………केवल बस ‘‘णमोकार मन्त्र पढ़ने से मनुष्य आकाश में चलने की सामथ्र्य प्राप्त कर लेता है ?
सुरेन्द्र-किन्तु उसने यह भी बताया कि यदि विद्या सिद्ध नहीं हुई तो तुम्हें नीचे के शस्त्रों पर गिरकर निश्चित ही मरना होगा। बेचारा वह व्यक्ति इसी संशय में झूल रहा था कि यदि विद्या सिद्ध नहीं हुई तो बिना कारण ही मारा जाऊंगा। बस इतने मेें ही अंजनचोर वहां पहुंचकर मंत्र सिद्धि का हेतु जानकर सोचने लगा कि मरना तो है ही। अभी कोतवालों के हाथ यदि पकड़ा गया तो मृत्युदण्ड मिलेगा ही । इससे तो अच्छा यही है कि इस विद्या को ही सिद्ध करके देख लूं। बच गया तो आकाशगमन करूंगा वर्ना मरूंगा ही तो। उसने तुरन्त पेड़ पर चढ़े व्यक्ति से कहा-तुम नीचे उतरो, मुझे मन्त्र बताओ, मैं विद्या सिद्ध करूंगा। सच मानो महेन्द्र ! उसने तो दृढतापूर्वक बैठकर णमोकार मन्त्र को पढ़कर एक—एक रस्सियाँ काटकर अन्तिम रस्सी को ज्यों ही काटा त्यों ही विद्या देवता ने आकर अधर में ही उसे झेल लिया और कहने लगी-हे स्वामी! आज्ञा दीजिए। बस उसे तो आकाशगामी विद्या सिद्ध हो गई और उस दिन अंजनचोर नहीं बल्कि वह सच्चा सम्यग्दृष्टि बन गया।
महेन्द्र-अरे यार! बेचारा अंजन चोर आखिर अपनी प्रेमिका को खुश नहीं कर पाया। बताओ तो सही विद्या सिद्ध होने के बाद फिर वह उसके पास गया या नहीं ?
सुरेन्द्र-अब भला उसे प्रेमिका के पास जाने की क्या जरूरत थी ? वह तो अपनी सिद्धिप्रिया को पहचान चुका था तभी तो वह अंजन से निरंजन बनने में सक्षम हो चुका था। अब तुम्हीं सोचो महेन्द्र! कि जब तक ललितांग ने चोरी के दोष को नहीं समझा था तब तक वह चोरी ही नहीं कई और व्यसनों में पड़कर अपने कुल की लाज को भी खो बैठा किन्तु जब उसने जिनेन्द्र भगवान् के वचनों पर श्रद्धान कर लिया तब निरंजन बन गया। मैं चाहता हूँ महेन्द्र! कि तुम भी इस चोरी नाम के व्यसन को छोड़कर जीवन में सदाचार को अपनाओ और अपने परिश्रम पर विश्वास रखो तभी अपने जीवन को ऊंचा बना सकते हो। तुम्हीं बोलो, आगे चलकर कभी अखबारों में तुम्हारे नाम की प्रसिद्धि चोर और डाकू के नाम से होगी तब तुम्हें अपने ऊपर कितना गौरव होगा ?
महेन्द्र-अच्छा हुआ सुरेन्द्र! आज तुमने इतनी सारी शिक्षायें देकर कम से कम अपने मित्र को एक व्यसन से बचा तो लिया। सुरेन्द्र-अरे वाह मेरे मित्र! मुझे तुमसे ऐसी ही आशा थी। अब मुझे तुम्हारे साथ अपनी मित्रता को अखंड रखने में कोई संकोच नहीं होगा। चलो चलें घर ….. ।