वीरकुमार-चलो चलें राजकुमार! कुछ देर पार्क में चलकर खेलकूद में ही मनोरंजन किया जाए।
राजकुमार-मुझे तो पढ़ाई करनी है वर्ना स्कूल में पिटाई होगी। वैसे भी मेरे पिताजी रोज मुझे यही शिक्षा देते है- खेलोगे कूदोगे बनोगे खराब। पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नबाब।।
वीरकुमार-यह तो ठीक है मित्र! पढ़ने लिखने से ही व्यक्ति महान बन सकता है। किन्तु हर चीज का अपना—अपना समय होता है। विद्यार्थी जीवन में जहाँ अध्ययन ही जीवन होता है, वहां शारीरिक एवं मानसिक पुष्टता के लिए खेल का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। फिर सायंकाल भोजन के पश्चात् तो अवश्य ही कुछ देर टहलना और खेलना चाहिए ताकि स्वास्थ्य ठीक बना रहे। सुनो राजकुमार! मैंने तो कल एक शास्त्र में पढ़ा कि प्राचीनकाल में एक महाज्ञानी श्रुतकेवली भद्रबाहु भी अपनी बाल्यावस्था में गोली का खेल खेला करते थे।
राजकुमार-अरे! तुम कहाँ की बात करते हो ? महापुरुषों का जीवन तो बचपन से ही महानता को लिए हुए होता है, उन्हें इन खेलों से क्या प्रयोजन।
वीरकुमार-तुम्हें विश्वास नहीं होता तो मैं तुम्हें उनका चरित्र सुनाता हूँ— पुण्ड्रवद्र्धन देश के कोटीपुर नामक नगर में सोमशर्मा नामक एक ब्राह्मण रहते थे, उनकी पत्नी का नाम श्रीदेवी था। इन दोनों के भद्रबाहु नाम का एक पुत्र था। भद्रबाहु बचपन से ही शांत और गंभीर प्रकृति के थे । उनके भव्य चेहरे को देखकर प्रत्येक व्यक्ति के मुंह से अनायास निकलता था कि यह कोई महापुरुष होने वाला है। ‘‘पूत के पांव पालने में ही नजर आ जाते हैं।’’ भद्रबाहु की बालक्रीडा में भी सदैव महानता की झलक रहती थी जब वे आठ दस वर्ष के हुए तब एक दिन की बात है कि ये अपने साथी बालकों के साथ गोलियों का खेल खेल रहे थे।
राजकुमार-अच्छा़…….. तो भद्रबाहु जैसे लोग भी बाल्यावस्था में गोली का खेल खेलते थे और बताओ उनके आगे के जीवन से कुछ सीखें।
वीरकुमार-आखिर बालक तो बालक ही रहते हैं। भद्रबाहु भी तो बाल्यावस्था में ही खेल रहे थे। अब आगे सुनो— उनके सारे मित्र अपनी—अपनी चतुराईपूर्वक गोलियों को एक पर एक रखकर दिखला रहे थे। किसी ने दो, किसी ने चार, किसी ने छह और किसी—किसी ने तो अपनी होशियारी से आठ गोलियां तक एक के ऊपर एक करके चढ़ा दीं तथा भद्रबाहु सबसे आगे बढ़ गये, इन्होंने एक साथ चौदह गोलियां एक के ऊपर एक चढ़ा दीं। सब बालक उनकी इस जीत से आश्चर्यचकित थे।
राजकुमार-अरे बाप रे! चौदह गोली। कैसे चढ़ाई होंगी ?
वीरकुमार-हाँ ! …….एक दो नहीं, पूरी चौदह। तभी घटना घटी- इस युग के चतुर्थ श्रुतकेवली श्रीगोवद्र्धनाचार्य गिरनार की यात्रा को जाते हुए इस ओर आ गए। उन्होंने भद्रबाहु के खेल की इस चतुरता को देखकर अपने निमित्तज्ञान से समझ लिया कि पांचवें होने वाले श्रुतकेवली भद्रबाहु ये ही होने चाहिये। कुछ सोचकर आचार्यश्री ने स्वयं बालक के पास जाकर उसका नाम, परिचय आदि पूछा तब उन्हें पक्का विश्वास हो गया कि ये ही पांचवें श्रुतकेवली हैं। बालक से उन्होंने कहा कि मुझे अपने घर ले चलो। इतने बड़े आचार्य के मुंह से घर चलने की बात सुनकर बालक बड़ा प्रसन्न हो गया और गुरू महाराज के साथ चल पड़ा ।
राजकुमार-अरे ! मुनि महाराज तो आहार या मन्दिर के दर्शन के सिवाय कभी किसी के घर जाते ही नहीं हैं। वे भला बिना प्रयोजन भद्रबाहु के घर क्यों चले गये ?
वीरकुमार-बिना प्रयोजन वे क्यों जाते। उनका तो बहुत बड़ा स्वार्थ था। सुनो तो सही वे किसलिये घर गये थे। जब आचार्यश्री सोमशर्मा ब्राह्मण के घर पहुचे तब अचानक इस प्रकार दिगम्बर मुनिराज को घर आया देखकर पति—पत्नी बड़े प्रसन्न हुए और गुरू की वंदना कर विनयपूर्वक उन्हें काष्ठासन पर विराजमान किया। रत्नत्रय की कुशलक्षेम पूछकर सोमशर्मा ने गुरुदेव के पधारने का कारण पूछा, तब गोवद्र्धन आचार्य ने कहा कि आप अपने सुपुत्र भद्रबाहु को मुझे दान दे दें। मैं इसे विद्वान बनाकर आपके पास भेजूंगा। यद्यपि पुत्र वियोग से उन दोनों का दिल टूट रहा था किन्तु घर आए गुरुवर्य की बात कैसे टाली जावे अतः भद्रबाहु को उनके सुपुर्द कर दिया। आचार्य ने भद्रबाहु को अपने स्थान पर लाकर खूब पढ़ाया और सब विषयों में आदर्श विद्वान् बना दिया। जब आचार्यश्री ने देखा कि भद्रबाहु एक महान विद्वान बन गया है तब उन्होंने उसे वापिस घर भेज दिया। जानते हो राजकुमार! उसे घर क्यों भेज दिया ताकि कहीं सोमशर्मा यह न समझ ले कि मेरे लड़के को बहका कर इन्होंने साधु बना लिया है।
राजकुमार-फिर घर जाकर उन्होंने शादी कर ली होगी ?
वीरकुमार-नहीं, गुरु आज्ञा का पालन करने हेतु वे घर गए तो सही,परन्तु अब तो घर मे उनका मन ही नहीं लगता था चूंकि उन्हें तो तत्वज्ञान का असली मर्म समझ में आ चुका था। उन्होंने माता पिता से अपनी दीक्षा के लिए आज्ञा मांगी और मोहासिक्त परिवार को सान्त्वना देकर गोवर्धनाचार्य के चरण सानिध्य में आ गए। शुभ मुहूर्त में जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर भद्रबाहु मुनिराज ज्ञान—ध्यान में लीन हो गए। गुरुकृपा से उन्होंने ग्यारह अंग और चौदह पूर्व का ज्ञान भी प्राप्त कर लिया और आचार्यश्री गोवद्र्धन जी के समाधिमरण के पश्चात् उनके पट्ट पर आचार्य भद्रबाहु श्रुतकेवली ही आसीन हुए थे।
राजकुमार-ये श्रुतकेवली शब्द जो तुमने कई बार प्रयोग किया है, यह क्या चीज है ?
वीरकुमार-मैंने भी थोड़ा बहुत गुरुओं के मुख से सुना है कि जो ग्यारह अंग और चौदह पूर्वों के ज्ञाता होते हैं वे ‘‘श्रुतकेवली’’ कहलाते हैं। भगवान् महावीर स्वामी का निर्वाण होने के पश्चात् ऐसे पांच श्रुतकेवली हो चुके हैं जिसमें अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी हुए हैं। वर्तमान युग में कोई भी अंगपूर्व के ज्ञाता नहीं होते हैं अतः आज श्रुतकेवली और केवली का इस भरतक्षेत्र में अभाव है। देखा राजकुमार! जिस भद्रबाहु बालक ने बाल्यावस्था में खेल—खेल में १४ गोलियां चढ़ाई थीं उन्होंने भविष्य में चौदह पूर्व का ज्ञान प्राप्त कर लिया और गुरू भी स्वयं उन्हें लेने के लिए उनके घर पहुंच गए। सत्य है, महान आत्माएं ही महात्मा के गुण की कीमत करते हैं तथा गुरुओं का अनुग्रह, अनुशासन और वात्सल्य बड़े सौभाग्य से निकट संसारी जीव को प्राप्त होता है। अन्तिम श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु के चरणों में हम सभी का बारंबार नमोऽस्तु।