जिनेन्द्र भगवान के मंदिर में जिनप्रतिमा के समक्ष खड़ा हुआ एक बालक अभिषेक भक्ति में तन्मय होकर स्तुति पढ़ रहा है— स्तुति—
दयालू प्रभू से दया मांगते हैं।
अपने दुखों की दवा मांगते हैं।।
नहीं मुझ सा कोई अधम और पापी।
सतकर्म हमने किये ना कदापी।।
किए नाथ हमने हैं अपराध भारी।
उनकी हृदय से क्षमा मांगते है।।
तभी उसका एक साथी आनन्द मंदिर में घुसते ही उसे संबोधित करते हुए कहता है—
आनन्द— अरे नादान मित्र! भगवान के सामने ये कैसी-कैसी बातें कर रहा है?
अभिषेक— (चौंककर) ऐं बातें ! कैसी बातें ? मैं तो भगवान के सामने स्तुति पढ़ रहा हूँ। मेरे पिताजी ने बतलाया है कि ये तीन लोक के नाथ भगवान हैं इनके सामने जो कुछ मांगो सो मिलता है।
आनन्द- यही तो भ्रांति है जीव की । भला वीतरागी भगवान कुछ देते भी हैं ?
अभिषेक- अरे भाई! भगवान वीतरागी हैं परन्तु हम लोग तो वीतरागी नहीं हैं । इसलिए जब उनके सामने बार-बार विनती करेंगे तभी एक दिन उन जैसा वीतरागी बन पाएंगे।
आनन्द- तब तो जिनेन्द्र भगवान के कर्तावाद को स्वीकार करना पड़ेगा जो कि जिनमत के विरुद्ध है।
अभिषेक- आनन्द! तो फिर तुम्हीं बताओ कि भगवान के सामने क्या करना चाहिए ?
आनन्द- हां, यह पूछी तुमने बात। अरे! मेरे गुरूजी ने तो बताया है कि प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा भगवान है तो फिर जब हम स्वयं भगवान हैं तो किसी से भीख क्यों मांगें ?
मैं तो मंदिर में पढ़ता हूँ-
शुद्धोऽहं,बुद्धोऽहं, नित्यनिरंजनोऽहं ।
अभिषेक— अरे वाह! यदि तुम्हीं भगवान हो तो तुम्हारी पूजा कोई क्यों नहीं करता ? ये तो सब आत्मा को धोखा देने की बातें हैं इससे कभी कल्याण नहीं हो सकता।
आनन्द- नहीं मित्र, ऐसी बात नहीं है। हमारे और भगवान में मात्र शक्ति और व्यक्ति का अन्तर है। वे अपनी आत्मा को प्रगट कर चुके हैं और हम अभी कर्मों के आधीन होकर संसार में घूम रहे हैं किन्तु वैसी ही शक्ति हमारी शुद्धआत्मा में भसी सदाकाल से मौजूद है। अरे भाई ! पूजा और भक्ति करते—करते तो अनादिकाल बीत गया, कल्याण हुआ क्या ? लगता है कि तुम्हें किसी दिगम्बर मुनि ने भड़का दिया है। ये तो क्रियाकाण्डी होते हैं, इन्हें आत्मा का भाव कहां होता है।
अभिषेक- अफसोस है मुझे ! तुम्हारी बुद्धि किसी एकान्तवादी ने भ्रष्ट कर दी है। अरे ! यदि ऐसा ही हाता तो बड़े बड़े आचार्य लोग भगवान् की स्तुति, भक्ति क्यों करते ? जानते हो आनन्द! शुद्ध, बुद्ध, नित्य, निरंजन आत्मा का ध्यान महान दिगम्बर मुनीश्वर ही कर सकते हैं जिन्होंने जीवन भर तपस्या की अग्नि में अपने को तपाया है।
इस प्रकार गप्प मारने वाले अपने को भगवान् कहने वाले लोग आज की दुनिया में भी सैकड़ों हैं। हम तुम तो आचार्य कुन्दकुन्द की भाषा में मात्र निश्चयनय से भगवान हैं किन्तु निश्चय से तो एक इन्द्रिय जीव की आत्मा में भी परमात्मा मौजूद है। इन काल्पनिक बातों को छोड़ो मित्र! तुम तो दिगम्बर गुरुओं के वचनानुसार व्यवहार क्रियाओं को करो क्योंकि ‘दाणं पूजा मुक्खो’ यह श्रावक का मुख्य कर्तव्य है। इनको किए बिना श्रावक की श्रेणी में तुम्हारा नाम ही नहीं आ सकता है। आनन्द-भाई, मैं क्या करूँ ? मेरे गुरूजी ने तो मुझे यही सिखाया है।
अभिषेक- तुम वस्त्रधारी को गुरू क्यों मानते हो ? ‘आप डूबे पांड्या ले डूबे जजमान’ वाली नीति है। तुम स्वयं सोचो आनन्द! आगम में हजारों उदाहरण भरे पड़े हैं जैसे मानतुंगाचार्य ने भक्तामर स्तोत्र रचकर ४८ ताले तोड़ दिए , धनंजय कवि ने विषापहार स्तोत्र पढ़कर बालक पर चढ़े सर्प विष को उतार दिया एवं वादिराज मुनिराज ने एकीभाव स्तोत्र की रचना करके अपने कुष्ट रोग को दूर कर लिया।
आनंद- इसका मतलब यह रहा कि भगवान् अपने भक्तों का दुःख दूर करते हैं ?
अभिषेक- नहीं, ऐसा कभी नहीं कहना। भगवान कुछ नहीं करते हैं, भक्त अपनी भक्ति के बल से अशुभ कर्मों को काट देता है। जैसे—साबुन से कपड़ा धोने पर उसकी गन्दगी साफ हो जाती है उसी प्रकार कर्मों से मैली आत्मा का मैल धोने का साधन भक्ति रूपी तीक्ष्ण साबुन है। अनादिकाल से इसी भक्ति के द्वारा लोगों ने निवृत्ति को प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त किया है। देखो ना! जब भक्ति से श्रीपाल का कुष्ट जैसा महारोग भी समाप्त हो गया तो उस भक्ति को कैसे नकारा जा सकता है।
आनन्द- हां, श्रीपाल के बारे में तो मैंने भी सुना है कि उनकी धर्मपत्नी मैनासुन्दरी ने मुनिराज की आज्ञानुसार सिद्धचक्र विधान किया और भगवान के अभिषेक का जल श्रीपाल एवं सभी सात सौ कुष्टियों के ऊपर डाला था उसी से सबका कुष्ट दूर हो गया था।
अभिषेक— तो फिर छोड़ो इस चक्कर को, आओ मेरे साथ करो भगवान् की भक्ति, पूजा और अपने कर्तव्य का पालन करो। ‘‘गाय के छोटे-छोटे बछड़े एक रथ में जुते हुए हैं, बछड़े उस रथ को खींच रहे हैं।’’ इसका मतलब यह बतलाया गया कि पंचमकाल में धर्म की गाड़ी को युवा पीढ़ी चलाएगी।
आज इसका फल प्रत्यक्ष में दिख रहा है कि सारे हिन्दुस्तान में कितने अल्पवयस्क मुनिराज, आर्यिका आदि बन रहे हैं । जानते हो ! वर्तमान में इन साधुओं की संख्या लगभग १५०० है और दिन—प्रतिदिन इस संख्या में वृद्धि होती जा रही है। अरे भाई,जरा तुम मुनि संघों में जाकर कुछ दिन रहकर देखो तो सही, असली भेद विज्ञान तो वहीं पर दृष्टिगत होता है। चतुर्थकाल के साधुओं से क्या कम हैं ये साधु ?
आज भी सभी साधु नग्न दिगम्बर मुद्रा में सर्दी, गर्मी, बरसात को सहन करते हैं, गृहस्थी के घर में एक बार रूखा-सूखा भोजन करते हैं, केशलोंच करते हैं। इस प्रकार सभी कुछ तो चतुर्थकाल के मुनियों के समान ही मूलगुणों का पालन करते हैं। इनके उपदेश को सुनकर जीवन में कुछ उतारा जावे तो सार भी है किन्तु जिन्होंने जीवन में कोई व्रत कभी लिया नहीं, व्रत लेने वालों की सदा निंदा की वह भला व्रती, संयमी का आदर नहीं करने वाला सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है ?
आनंद- बात यह है कि आज साधुसमाज में कुछ शिथिलताएं आ गई हैं इसीलिए हम लोगों की श्रद्धा नहीं रह गई है।
अभिषेक- आनंद! यह तो दृष्टि का फेर है। क्या चतुर्थकाल में कोई साधु शिथिलाचारी नहीं होते थे। जैसे एक मछली से सारा सरोवर नहीं गन्दा होता उसी प्रकार कुछ शिथिलाचारियों से सारा साधुसमाज नहीं बदनाम होता। फिर भैय्या! हम तो यह कहते हैं कि तुम्हीं कम से कम सौ टंच साधु बन जाओ, हम तो तुम्हारी सौ—सौ बार वन्दना करेंगे।
आनंद- अरे बाप रे! यह कैसी बला आ गई। मैं तो रात को भी खाना—पीना नहीं छोड़ पाता हूं फिर ऐसी कठिन चर्या तो सुनकर ही कांप जाता हूँ।
अभिषेक- हुआ न वही। कितना स्वार्थी संसार है। अपनी ओर नजर नहीं जाती कि हम कहां रसातल में जा रहे हैं और चल दिए गुरुओं की निन्दा करने। तुम लोगों को तो साधु चाहिए चतुर्थकाल का और स्वयं श्रावक छठे काल के बन रहे हो। सामंजस्य भला कैसे हो सकता है ? देखो आनन्द! अब तो बहुत हो चुकी बकवास। या तो सच्चे साधु बनकर दिखाओ अन्यथा वर्तमान के गुरुओं की उपासना में लग जाओ। तुम सबने इसी प्रकार की बातें कर—करके गुरूभक्त भोली जनता को बहका रखा है। कर्म सिद्धान्त को समझो और पर निन्दा से दूर रहो।
एक कवि ने भी कहा है—
‘बुरा जो देखन मैं चला, बुरा ना दीखा कोय’।
जो घट देखा आपनो, मुझसे बुरा न कोय।।
सबसे पहले हमें अवगुणों की ओर दृष्टि डालनी चाहिए। अच्छा, मैं तुमसे पूछता हूं कि बताओ तुम्हारे कितने मूलगुण हैं ?
आनन्द- मूलगुण…ऐं…क्या कहा ? कहीं श्रावकों के भी मूलगुण होते हैं । मैंने तो मुनियों के २८ मूलगुण सुने हैं।
अभिषेक- हाँ, हाँ, मुनियों के तो तुमने इसलिए सुना है कि उनके दोषों को देखते रहना है। अब सुन लो अपने मूलगुण—एक मुनि महाराज ने मुझे बतलाया था, तभी से मैं उनका पालन करता हूं। आनन्द! श्रावकों के ८ मूलगुण होते हैं। ५उदम्बर फल और ३ मकार का त्याग करना अष्टमूलगुण कहलाता है।
जैसे— मूल—जड़ के बिना वृक्ष और नींव के बिना मकान नहीं ठहरता है उसी प्रकार इन मूलगुणों के पालन किए बिना श्रावक-श्रावक नहीं कहलाता है।
आनन्द- ओह मित्र! तुम तो बड़े ज्ञानी हो। मुझे भी ये सब बातें सिखाओ, मैं अब तुमहारे साथ ही रहा करूंगा। अभिषेक-ठीक है आनन्द! भ्रांति होना कोई बड़ी बात नहीं है किन्तु सत्यता समझकर यदि उसे छोड़ दिया जाय तो कम से कम सुबह के भूले शाम को रास्ते पर आ जाते हैं। अब शायद तुम समझ गए होगे कि भगवान के सामने स्तुति,भक्ति, याचना व्यर्थ नहीं है।
देखो! कुन्दकुन्द स्वामी ने स्वयं भगवान के सामने अपने दुःखों का नाश करने के लिए कितनी याचना करते हुए कहा—
दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं ।
समाहिमरणं जिणगुणसपत्ति होउ मज्झं।।
हे भगवान! मेरे दुःखो का क्षय हो, कर्मों का क्षय हो, बोधिलाभ हो, सुगति में गमन हो, समाधिपूर्वक मरण हो और जिनगुणसंपत्ति की प्राप्ति हो।
आनन्द- हाँ, आ गया समझ में। चलो, मैं भी तुम्हारे साथ भगवान की पूजा,अर्चना करूंगा। (दोनों गुनगुनाते हुए मंदिर से घर की ओर चले जाते हैं।) दयालू प्रभू से दया मांगते हैं, अपने दुखों की ।