अध्यात्म—आओ वरदान, चलो चलें मंदिर।
वरदान—न भैय्या, मुझे तो स्कूल जाने की देर हो रही है। मंदिर जाने का काम छोटे बच्चों का नहीं है उसे तो हमारे मम्मी पापा करते हैं। अगर स्कूल जाने में देर हो गई तो जानते हो मैम बहुत डांटेगी।
अध्यात्म—लेकिन भगवान के दर्शन करके स्कूल जाने से विद्या खूब आती है।
वरदान-यह सब तुम्हें किसने बता दिया,भला भगवान हमारी विद्या में क्या कर देंगे ?
अध्यात्म—हां वरदान! यही तो समझने की बात है। कल मंदिर में एक मुनि महाराज जी उपदेश दे रहे थे कि प्रत्येक व्यक्ति को भगवान के दर्शन अवश्य करना चाहिए । कई लोगों ने नियम लिये, उस समय मैने भी गुरू के पास मदिर जाने की प्रतिज्ञा ले ली थी इसलिए मैं तो जाऊंगा ही, तुम्हारी तुम जानो।
वरदान—प्रतिज्ञा—प्रतिज्ञा—प्रतिज्ञा! जैन साधुओं के पास केवल प्रतिज्ञा देने के सिवाय और रहता ही क्या है ? इसीलिए तो कोई बच्चे उनके पास जाना नहीं चाहते।
अध्यात्म—अरे तो हम लोगों के नहीं जाने से साधु का क्या बिगड़ेगा ? वे तो अपनी चर्या साधना में लीन रहते हैं, कोई भक्त जब पास पहुंच जाता है तो उसे सम्बोधित करके धर्म में लगाना तो उनका कर्तव्य होता है।
वरदान—तो फिर कर्तव्य का पालन बड़ों के साथ करना चाहिए । छोटे-छोटे बच्चे इन सब बातों को क्या जानें ?
अध्यात्म—नहीं वरदान, यह तो तुम्हारा भ्रम है। अब हम छोटे नहीं हैं । देखो,बाबाजी बताया करते हैं न कि ८ वर्ष के बाद बालक मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता है। तुम सोचो तो सही ये मुनि महाराज भी तो कभी हमारे जैसे बालक ही रहे होंगे। ये भी यदि छोटेपन में इस प्रकार सोचते तो आज लोगों को उपदेश कैसे मिलता ?
वरदान—अच्छा… तो तुम्हारी भी मुनि बनने की साधना चल रही है क्या ?
अध्यात्म—यह तो भविष्य बताएगा किन्तु पहले कम से कम भगवान के दर्शन करना तो सीख लें। बात यह है वरदान, जिसका जो काम है सो करेगा ही। शराबी को चाहे कितना ही मना किया जाए कि दूसरे को शराब पीने की शिक्षा न दें किन्तु क्या वह मानता है ? जब हम उसे नहीं रोक पाते जो न जाने कितने घर और जीवन बर्बाद कर देता है तो इन महागुरुओं को जो सदैव हित का ही उपदेश देते हैं उन्हें रोकने के अधिकारी हम हो ही नहीं सकते।
वरदान—अरे बाबा,नियम देने का ढंग भी तो हो, जिसे चाहे उसे जो चाहे सो नियम दे दिया । कहीं मन्दिर ही न हो तो वह क्या करेगा ?
अध्यात्म—मंदिर जाने का नियम तो कोई खास नियम नहीं है। दरअसल में तो जैन का लक्षण आज हम लोग भूल गए हैं इसलिए गुए लोग प्रेरणा देते हैं। अरे! पहले के लोग तो प्रतिदिन दोनों टाइम मंदिर जाते थे और भगवान के सामने बड़ी कीमती-कीमती वस्तुएं चढ़ाकर दर्शन करते थे।
वरदान—क्यों ? भगवान के सामने तो ज्यादा कीमती चीजें लेकर जाना ही नहीं चाहिए। क्योंकि वहां की वीतरागता नष्ट होती है ।
अध्यात्म—यही तो बात है। आज हम तुम जैसे लोगों ने मिलकर ऐसी धारणा बना रखी है इसीलिए धर्म से विमुख होते जा रहे हैं। अरे भाई ! मैंने तो ज्ञानमती माताजी का लिखा हुआ एक उपन्यास पढ़ा है-प्रतिज्ञा! जिसमें उन्होंने कितना सुन्दर रोमांचक वर्णन किया है ; एक नारी मनोवती की दर्शन प्रतिज्ञा के बारे में।
वरदान—जिन्होंने हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप रचना बनाने की प्रेरणा दी वे ही ज्ञानमती माताजी ?
अध्यात्म—हां हां, वे ही परम विदुषी गणिनीप्रमुख आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी; जिन्होंने साधु जगत मे नारी के इतिहास को भी बदल दिया है। एक—दो नहीं तीन सौ छोटे—बड़े ग्रन्थों की रचना की है।
वरदान-तो क्या माताजी उपन्यास भी लिखती हैं ?
अध्यात्म—तुमने शायद उपन्यास से जासूसी या सामाजिक उपन्यासों को समझ लिया है। नहीं,आज हम जैसे लोगो की रुचि के अनुसार पू० माताजी ने पुराने कथा साहित्य के आधुनिक सरल शैली में छोटे-छोटे धार्र्मिक उपन्यास लिखे हैं जिन्हें पढ़कर बहुत ज्ञान प्राप्त होता हेै। जैसे—प्रतिज्ञा,परीक्षा, आटे का मुर्गा, सती अंजना, संस्कार, आदिब्रह्मा। इस प्रकार के कई उपन्यास हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप स्थल पर मिलते हैं। मैं तो जब अभी कुछ दिन पहले गया था तो ‘प्रतिज्ञा’ पुस्तक लाया था उसे पढ़ते-पढ़ते तो आंखों में आंसुओं की झड़ी बहने लगती है।
वरदान-ऐसा कौन सा वर्णन है उसमें,भैय्या मुझे भी बताओ।
अध्यात्म—वरदान, एक छोटी सी कन्या ने मुनिराज के पास नियम ले लिया कि मैं मन्दिर में प्रतिदिन गजमोती के पुंज चढ़ाकर दर्शन करूंगी, उसके बाद ही भोजन ग्रहण करूंगी।
वरदान—ओह ! तो क्या वह किसी राजा या जौहरी की लड़की थी ?
अध्यात्म—हां, थी तो सही किन्तु शादी के पास ससुराल में बड़ी दिक्कत आई। जब उसके ससुर ने उसकी प्रतिज्ञा जानी तो कोठार खोल दिये। तीन दिन के उपवास के बाद उसने गजमोती चढ़ाकर अपना नियम पूरा कर भोजन किया। लेकिन वरदान! आगे जो कुछ हुआ वह तो सुन पाना भी कठिन है ?
वरदान-क्या हुआ भैय्या ?
अध्यात्म—एक बार राजसभा में कोई बात आने पर सभी जौहरियों ने गजमोती के लिए मना कर दिया। मनोवती के ससुर ने भी मना तो कर दिया किन्तु घर में आकर बड़े चिंतित हुए और सोचने लगे—बहू आएगी वह गजमोती चढ़ाएगी जरूर, तब क्या होगा ? मुझे राजा द्वारा फांसी की सजा हो जाएगी। कांप गये सेठजी ऐसा विचार करते ही।
वरदान-इसीलिए तो मैं कहता हूं कि नियम लेने का भी कोई ढ़ंग तो होना चाहिए।
अध्यात्म—तुम्हीं नहीं वरदान! उस घर में सभी ने इसी प्रकार कह—कहकर मनोवती की प्रतिज्ञा को खूब कोसा और अन्त में निर्णयकिया कि बहू बेटे दोनों को घर से और देश से ही निकाल दिया जाए। ‘‘न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।’’ घर में बड़े ६ भाई और पिता ने कठोर हृदय करके उस बेचारे बुद्धिसेन को देश निकाला का आदेश दे दिया। माँ ने जब सुना तो वह मूर्छित हो गई और अपने बेटे—बहू का मुंह कभी न देख पाने की बात सुनकर बेहद दुखी हुई।
वरदान—क्या माँ भी उसे घर में नहीं रख सकती थी ? ओह! फिर दोनों कहाँ गए ?
अध्यात्म—माँ से उसे मिलने ही कब दिया। बस निर्णय करके सब भाइयों ने एक पत्र लिखकर दासी को देकर कह दिया कि घर में घुसने से पहले बुद्धिसेन इस पत्र को पढ़ ले । उसे पढ़ते ही बेचारा कटे पंख सा हो गया और यह भी न जान सका कि मुझे किस अपराध में ऐसा कठोर दण्ड दिया गया है। तुम्हीं सोचो भाई ! क्या हमारे जैसे लोग यह आज्ञापालन कर सकते थे ?
वरदान-चलो खैर! आज्ञा भी पालन कर लेते किन्तु बिना अपना हक और हिस्सा लिए मैं तो कभी नहीं जाता, कोहराम मचा देता सारे नगर में । बुद्धिसेन पता नहीं कैसा बेबकूफ था जो चल पड़ा खाली हाथ।
अध्यात्म—उसे तो अपने बाहुबल और भाग्य पर विश्वास था न। आखिर एक दिन सबने दर—दर की भीख मांगकर बुद्धिसेन के यहां नौकरी की।
वरदान-ऐं………यह क्या ? नौकरी……..इतनी सम्पत्ति कहां चली गई ?
अध्यात्म—यही तो विडम्बना है कर्म की। तुम उस ‘प्रतिज्ञा’ पुस्तक को पढ़कर देखो कि मनोवती ने अपना नियम नहीं तोड़ा तो जंगल में भी देवता ने मन्दिर प्रकट कर उसे गजमोती उपलब्ध करा दिये और धीरे—धीरे उसकी धर्मप्रभावना से बुद्धिसेन एक राजा बन गया। अन्त मे सारे परिवार का मिलन भी हुआ और सबने मनोवती बुद्धिसेन से क्षमायाचना की। तभी तो कहा है कि ‘‘इस क्षणिक लक्ष्मी का क्या अभिमान करना जो क्षण में राजा और क्षण में रंक बना देती है’’। जीवन में एक धर्म ही सदा अविनाशी होता है। मैं यही सोचता हूं वरदान कि मनोवती ने गजमोती चढ़ाकर भगवान के दर्शन करने का नियम लिया था तो कम से कम हम लोग चावल चढ़ाकर ही दर्शन करें।
वरदान—सही बात है। फल तो भावना से ही मिलता है। आज गजमोती किसे मिलेंगे ?
अध्यात्म—तब तो वरदान! अब तुम रोज मन्दिर जाओगे न ?
वरदान—हाँ भाई! अवश्य कोशिश करूंगा और मैं भी कोई न कोई ऐसी प्रतिज्ञा जरूर लूंगा जिसे जीवन भर निर्वाह कर सकूं।
अध्यात्म—चलो आज ही हम दोनों प्रतिदिन शास्त्र—स्वाध्याय करने का नियम गुरू से लेंगे। दोनों मन्दिर चले जाते हैं….।