अकलंक—समझ में नहीं आता निकलंक। आज कल्पदु्रम मंडल विधान की बड़ी धूम मची हुई है। यह कौन सी पूजा है आज तक तो उसका नाम कभी सुना नहीं था ?
निकलंक—हाँ भैय्या! बात तो यही है। काफी दिनों से पोस्टरों में मैं पढ़ रहा था कि जम्बू्द्वीप हस्तिनापुर में कोई कल्पद्रुम मंडल विधान होेने जा रहा है लेकिन अभी जब मैं मम्मी के साथ पू० ज्ञानमती माताजी के दर्शन करने हस्तिनापुर गया तो वहाँ सब कुछ देख सुनकर बहुत ही सन्तोष हुआ। अकलंक—अच्छा,तो क्या तुमने वह विधान करके देखा है ?
निकलंक—हाँ हाँ, अरे भाई! उसे तो देखकर इतना आनन्द आया कि घर वापस आने का मन ही नहीं कर रहा था। अकलंकतब तो तुम्हें सब कुछ पता चल गया होगा कि इस विधान में क्या—क्या होता है ?
निकलंक—हाँ, ज्यादा नहीं थोड़ा बहुत तो पता लगा ही। एक दिन पू० गणिनीप्रमुख आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने प्रवचन में बताया है कि पूजा ५ प्रकार की होती हैं—नित्यमह, आष्टाह्निक, ऐन्द्रध्वज, कल्पद्रुम और सर्वतोभद्र। भैय्या सुनो, माताजी ने यह भी बताया कि जो श्रावक लोग प्रतिदिन मंदिर में पूजन करते हैं उसे नित्यमह कहते हैं और मध्यलोक के ४५८ जिनमंदिरों के ऊपर इन्द्रगण ध्वजा चढ़ाकर जो पूजन करते हैं उसे इन्द्रध्वज कहते हैं।
अकलंक—हाँ, इन्द्रध्वज को तो खूब अच्छी तरह जानता हूं अभी पिछले ही वर्ष तो पापा ने स्वयं यह विधान किया था, बड़ा आनंद आया था। तो क्या इसी प्रकार कोई कल्पद्रुम विधान भी है ?
निकलंक—नहीं, कल्पद्रुम में ज्ञानमती माताजी ने भगवान के समवशरण की पूजाएं बनाई हैं। अरे, हस्तिनापुर में तो जैसे साक्षात् ही समवशरण बना हुआ था। कितनी सुन्दर ध्वजाएं, मानस्तम्भ, धर्मचक्र,तोरण द्वार, कल्पवृक्ष सभी धातु के बने हुए थे। बीच में गंधकुटी में चतुर्मुखी प्रतिमा विराजमान थीं। सारा मंडल मानो स्वर्ण की आभा जैसा चमक रहा था।
अकलंक—इतना सब कुछ ज्ञानमती माताजी के ज्ञान में कहाँ से आया होगा ?
निकलंक—भगवान् जाने कहां से आया। पू० माताजी तो जब इन सब चीजों का वर्णन करती हैं तो ऐसा लगता है कि मानो उन्हें साक्षात् सारी चीजें असली ही दिख रही हैं। अरे भैय्या! बताते हैं कि इस कल्पद्रुम विधान को तो चक्रवर्ती ही करते थे जितने दिन तक यह विधान करते थे उतने दिन तक किमिच्छक दान बाँटते थे।
अकलंक—लेकिन आज तो कोई चक्रवर्ती इस पृथ्वी पर है नहीं, फिर यह विधान कैसे हुआ ?
निकलंक—माताजी ने इस विधान में यह नियम बनाया है कि इस कल्पद्रुम विधान को करने के लिए वर्तमान के ही मानव में कृत्रिम चक्रवर्ती की कल्पना करकेक विधान कराया जाए और किमिच्छक दान की जगह चार प्रकार के दान बांटे जाएं। हस्तिनापुर में जो यह पाठ हुआ उसमें हमने देखा कि सारे देश के सुदूरवर्ती प्रान्तों से लोग पूज्य माताजी के सान्निध्य में इस महायज्ञ को करने आए थे। उनमें प्रथम चक्रवर्ती या सौधर्म इन्द्र बने थे टिकैतनगर (बाराबंकी, उ०प्र०) निवासी प्रद्युम्न कुमार जैन सर्राफ। यह तो इनके महान सौभाग्य की बात रही कि इस सबसे पहले इस कल्पद्रुम विधान का प्रकाशन इनके सहयोग से हुआ, तभी से इनकी प्रबल इच्छा थी कि इस महाविधान को सर्वप्रथम ही करूं। देखो भाई ! यह तो संयोग की बात है कि संपूर्ण भारतवर्ष में इस पंचमकाल में प्रथम बार तो ज्ञानमती माताजी ने इसकी रचना की और प्रद्युम्नकुमार जी ने प्रथम चक्रवर्ती बनकर यह पाठ पू० माताजी के ही सान्निध्य में करने का सौभाग्य प्राप्त किया।
अकलंक—धन्य हैं धन्य हैं वे श्रावकरत्न। अरे भाई, आज वे कृत्रिम चक्रवर्ती बने हैं तो कभी न कभी असली चक्रवर्ती भी बनेंगे। हे भगवन् ! हमारे जीवन में भी कभी ऐसा दिन आएगा क्या, जो ऐसे आयोजनों में शामिल हो सकूंगा ?
निकलंक—भगवान् तुम्हारी भावना सफल करें। भैय्या! उस विधान में मैंने देखा कि समवशरण मण्डल की चारों दिशाओं में इन्द्रगण बैठकर पूजा कर रहे थे। मंडल के सामने प्रद्युम्न कुमार जी अपने परिवार सहित बैठे थे, दूसरी ओर शिखरचंद ही हापुड़ निवासी, तीसरी ओर शांतिप्रसाद जैन सर्राफ टिकैतनगर, विमलकुमार जैन लखनऊ एवं चतुर्थ दिशा में प्रेमचन्द्र जैन, महमूदाबाद ये सभी इन्द्रगण अपने-अपने परिवार सहित बैठे थे।
अकलंक—इसका मतलब तुमने उस विधान का पूरा आनंद लिया है, अच्छा! और बताओ वहाँ क्या देखा ?
निकलंक—अरे भाई! एक बात हो तो बताऊँ। उस स्वर्ग के से वातावरण में तो पूरा दिन ऐसा निकल जाता था कि फालतू बातों का समय ही नहीं मिलता था। सुबह ५ बजे से ही मंत्रों का जाप्य होता, ६ बजे से जलयात्रा विधि, अभिषेक विधि, पूजा और विधान करने में १ बज जाता। बस पूजा से उठते ही इन्द्रगण गरीबों को प्रतिदिन भोजन कराते, उनको बर्तन बांटते, औषधि बांटते और अच्छी-अच्छी धर्म की प्रेरणास्पद पुस्तकें भी बांटी जाती थीं।
अकलंक —यह तो तुमने बड़ी नई बातें बताई। आज तक हमने विधान तो बहुत देखे लेकिन इस प्रकार से दान तो कही भी बांटते नहीं देखा।
निकलंक—कल्पद्रुम विधान भी तो कभी नहीं देखा है । जब तुम उसे देखोगे तब सारी व्यवस्था भी दिख जाएगी। यह सब तो ज्ञानमती माताजी की महिमा है। भैय्या! एक दिन पण्डितजी ने अपने प्रवचन में बताया कि पूज्य माताजी इस युग में नित्यमह, इन्द्रध्वज, आष्टान्हिक, कल्पद्रुम और सर्वतोभद्र पांचो प्रकार के विधान की रचना कर चुकी हैं। पूर्वाचार्यों ने पूजन के कई प्रकार लिख दिये और माताजी ने उन्हें सामने लाकर दिखा दिया।
अंकलक—अच्छा , तो सर्वतोभद्र विधान भी बना है ? इस विधान में क्या होगा ? निकलंक—माताजी की पूजाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि सरल भाषा में नई-नई छन्दो का प्रयोग किया है। जब संगीत से वे पूजन होती हैं तो लोग झूम उठते हैं। अंतिम दिन मैंने देखा कि एक पूजा हुई, उसमें एक हजार अघ्र्य थे और उस एक ही पूजा के अघ्र्यों में ४० प्रकार के छन्दों का प्रयोग है। विधान करने वाले लोगों को पूरा दिन बैठने पर भी कोई भूख—प्यास की बाधा ही नहीं मालूम पड़ती थी, इतने आनन्दरस में वे निमग्न रहते थे। अकलंक—यह बात तो मैंने स्वयं एक नवदेवता पूजा में अनुभव किया है। राग—रागिनी के साथ—साथ एक—एक शब्द का अर्थ हृदयंगम होता है।
निकलंक –! अब आगे जब भी हस्तिनापुर में यह विधान हो तुम मुझे भी अपने साथ जरूर ले चलना। निकलंक—ठीक है भैय्या, इस बार वहां का पोस्टर छपते ही हम लोग भी अपना नाम पहले से ही लिखकर बुकिंग करवा लेंगे।