विजया—सुनो जया! पिछले महीने जब तुम मेरे घर पर आई थीं तो औषधिदान के बारे में तुमने मुझे बताया था। अब तो मैं बिलकुल ठीक हूँ। अब मैं बराबर कुछ न कुछ औषधि अवश्य दान दिया करूँगी।
जया—अभी तो मैंने तुम्हें उसका थोड़ा-सा किस्सा ही सुनाया था।
विजया—हाँ जया, तुम बता रही थीं कि बनारस की रानी नारायणदत्ता ने बनारस नगर में वृषभसेना के नाम से दानशालायें खुलवा दीं जबकि उसके लिए वृषभसेना एक शत्रु की पत्नी थी।
जया—यह तो ठीक है किन्तु उसने तो युक्ति से काम लिया था और उसमें सफलता भी मिल गई।
विजया—तो क्या इससे उसका पति छूट गया ?
जया—सुनो तो सही, आगे की कथा मैं सुनाती हूं— थोड़े ही दिनों में इन दानशालाओं की प्रसिद्धि चारों ओर फैल गई। जो इनमें एक बार भी भोजन कर जाता वह फिर इनकी तारीफ करने में कोई कमी नहीं रखता था। कावेरी के बहुत से ब्राह्मण भी यहां भोजन करने आते थे। उन लोगों ने कावेरी वापस जाकर उन दानशालाओं की बहुत प्रशंसा की।
विजया—तो जया! क्या वृषभसेना को उन दानशालाओं के बारे में कुछ भी नहीं मालूम था ?
जया—इसी बात का पता लगाने के लिए तो नारायणदत्ता ने यह सब किया था। आखिर वृषभसेना की धाय रूपवती को कुछ ब्राह्मणों द्वारा ज्ञात हो गया कि बनारस नगरी में वृषभसेना के नाम की कई दानशालाएं चल रही हैं, तब उसे वृषभसेना के ऊपर बड़ा गुस्सा आया कि मुझसे बिना कुछ पूछे इसने बनारस में अपने नाम का प्रचार करना क्यों शुरू कर दिया ? उसने उसे उलाहना भी दिया। तब वृषभसेना ने कहा—माँ,मुझ पर तुम व्यर्थ ही नाराज होती हो। न तो मैंने कोई बनारस में दानशाला खुलवाई है और न मुझे उसका कुछ हाल मालूम है। माँ, इसका पता जरूर लगाना चाहिए कि यह सब षड्यंत्र किसके द्वारा रचा गया है ? रूपवती ने कुछ जासूसों को सच्ची हकीकत जानने के लिए बनारस भेजा तब इस बात का पता लगा कि वृषभसेना के विवाह के समय उग्रसेन ने सब कैदीयों को छोड़ने की प्रतिज्ञा की थी, लेकिन प्रतिज्ञा के अनुसार उन्होंने पृथ्वीचन्द्र को नहीं छोड़ा।
विजया — ओहो, इसलिए उसने वृषभसेना के नाम से दानशालाएं ही खुलवा डालीं ?
जया—हाँ,पत्नी को तो आखिर पति के नहीं छूटने से आकुलता होती ही, सो उसने सोचा कि इसी प्रकार युक्ति से वृषभसेना को ज्ञात कराया जाए कि तुम्हारे पति ने अपनी प्रतिज्ञा का पालन नहीं किया है। रूपवती ने यह सारा हाल वृषभसेना को बताया। तब वृषभसेना ने उग्रसेन से प्रार्थना करके उसी समय पृथ्वीचन्द्र को छुड़वा दिया। पृथ्वीचन्द्र ने इस उपकार की कृतज्ञतावश उग्रसेन और वृषभसेना का एक बड़ा सुन्दर चित्र बनवाकर उनके चरणों में झुका हुआ स्वयं का चित्र खिचवाया और वह चित्र उसने राजा उग्रसेन को भेंट किया अब पृथ्वीचन्द्र तो अपने बनारस नगर में सुखपूर्वक राज्य करने लगे। कावेरी और वाराणसी दोनों जगह अपूर्व शांति की स्थापना हो गई।
विजया—अब तो बनारस की रानी ने वृषभसेना के नाम चल रहीं दानशालायें बन्द ही कर दी होंगी ? क्योंकि उसका कार्य तो सम्पन्न हो गया ?
जया—नहीं, बन्द क्यों कर दीं। भला राजदरबार में किस बात की कमी थी और फिर अब तो रानी अपने पति को पाकर वृषभसेना के उपकार को भुला ही कैसे सकती थी ? आगे फिर एक घटना घटी— एक बार उग्रसेन ने अपने एक शत्रु मेघपिंगल पर चढ़ाई करने के लिये पृथ्वीचन्द्र को आज्ञा दी किन्तु यह क्या ? पृथ्वीचंद्र का नाम सुनकर ही मेघपिंगल कांपने लगा और युद्ध का बिगुल बजने से पूर्व ही वह उग्रसेन की शरण में आकर क्षमायाचना करने लगा। सुनो विजया! राजाओं का क्रोध और प्रसन्नता दोनों ही अवर्णनीय होते हैं। उस समय उग्रसेन महाराज ने मेघपिंगल पर प्रसन्न होकर उसे अपना सामन्त राजा बना लिया।
विजया — तुमने इस मेघपिंगल को बीच में कहां से घुसा दिया ? मुझे तो वृषभसेना के औषधिदान का फल बताओ।
जया—धीरज रखो बहन! अब यह उसी का माहात्म्य है। देखो, कितना रोमांचक है चरित्र। संसार में कर्मों की बड़ी विचित्रता है— एक दिन राजदरबार लगा हुआ था। उग्रसेन सिंहासन पर अधिष्ठित थे। उस समय उन्होंने एक प्रतिज्ञा की कि आज सामन्त राजाओं द्वारा जो भेंट आएगी वह आधी भेंट वृषभसेना को और आधी मेघपिंगल को दी जावेगी। उस दिन अधिक भेंट तो नहीं किन्तु दो बहुमूल्य सुन्दर रत्नकम्बल भेंट में आए। उग्रसेन ने अपनी प्रतिज्ञानुसार एक कम्बल मेघपिंगल को दे दिया और एक वृषभसेना के महल में भेज दिया। अब सुनो कर्मसिद्धांत—एक दिन मेघपिंगल की रानी उस कम्बल को ओढ़कर कुछ कार्यवश वृषभसेना के पास आई। संयोग की बात, वृषभसेना का कम्बल भी वहीं रखा था, वस्त्रों के उतारने, पहनने में कम्बल बदल गये और मेघपिंगल की रानी वृषभसेना का कम्बल ओढ़कर अपने घर आ गई । कुछ दिनों बाद मेघपिंगल उस कम्बल को ओढ़कर राजदरबार में चला गया। अब तो मानो तूफान आ गया। राजा उग्रसेन अपनी रानी का कम्बल मेघपिंगल के शरीर पर देखकर शंकित हो गये, उनके क्रोध का ठिकाना न रहा। देखो विजया! अकारण की राजा नाराज हो गए जबकि बेचारा मेघपिंगल इसका कोई कारण समझ न सका और राजा को क्रोधित देखकर उल्टे पैरों भागा। उसे भागते देखकर उग्रसेन का सन्देह और बढ़ता गया। उन्होंने एक ओर तो मेघपिंगल को पकड़ने आदमी भेजे और दूसरी ओर आवेश में भरे हुए महल में पहुंचे।
विजया—अरे इतनी सी बात में इतनी अधिक नाराजी ? वे तो राजा थे, अपनी रानी या मेघपिंगल से उसका कारण पूछ सकते थे ?
जया—हाँ,सब कुछ हो सकता था, लेकिन राजा को कौन समझावे ? वे तो अपनी सत्ता के मद में चूर होते हैं न। अब आप तो सब कुछ सुनकर जान ही रही हैं कि वृषभसेना और मेघपिंगल दोनों पूर्ण निर्दोष हैं तथा राजा की शंका भी निस्सार नहीं है। अब तो उग्रसेन ने वृषभसेना को समुद्र में फिकवाने का हुक्म दे दिया। बेचारी वृषभसेना कुछ समझ न सकी, अपने पूर्वकृत कर्मों का फल समझकर अपने आत्मविश्वास के बल पर समुद्र में कूद गई। ओह! उस सती के शील माहात्म्य से उसका बालबांका भी न हो सका बल्कि स्वर्ग से देवों ने आकर उसकी रक्षा की।
विजया — अब तो उग्रसेन का पारा शांत हुआ होगा ?
जया—हाँ,पारा शांत क्या, वे तो अपनी नासमझी पर बहुत पछताए और महल वापस चलने के लिए बहुत प्रार्थना की। वृषभसेना ने यद्यपि पहले यह प्रतिज्ञा की थी कि इस कष्ट से छुटकारा पाते ही मैं दीक्षा ले लूंगी किन्तु राजा के अतीव आग्रह से उसने एक बार घर जाकर दो—चार दिन बाद पुनः दीक्षा लेने का निश्चय किया। दोनों राजमहल की ओर जा रहे थे कि रास्ते में गुणधर नामक एक अवधिज्ञानी मुनि मिल गये। राजा—रानी ने विनयपूर्वक उन्हें नमस्कार किया, पुनः वृषभसेना मुनिराज से पूछने लगी— हे भगवन्! मैंने पूर्व जन्म में कौन सा पाप किया था जिसका फल मुझे भोगना पड़ा ?
मुनि बोले—पुत्रि! सुन, तुझे तेरे पूर्व जन्म का हाल सुनाता हूं। तू पहले जन्म में एक ब्राह्मण की लड़की थी, तेरा नाम नागश्री था। इसी राजघराने में तू झाडू लगाया करती थी। एक दिन मुनिदत्त नाम के महामुनि उस महल के उद्यान में एक गड्ढे में बैठे ध्यान कर रहे थे। तूने झाडू लगाते समय कहा—ओ नंगे ढोंगी! यहां से उठ जा, मुझे सफाई करने दे, आज राजा साहब इधर आने वाले हैं। मुनि ध्यान में थे, कुछ नहीं बोले। तब तेरे को बड़ा गुस्सा आया, तूने सारे महल का कूड़ा, कचरा इकट्ठा करके मुनि के ऊपर डालकर ऊपर तक ढक दिया और महल में चली गई।
विजया—ओह! यह घोर उपसर्ग ? फिर भी उसे इतना सुन्दर शरीर मिला कि जिसके स्नान जल से लोगों के रोग दूर हो जाते थे। जया—ऐसा नहीं है। बाद में उसने बहुत पश्चाताप किया और मुनि की वैय्यावृत्ति की। बात यह है कि इसी प्रकार के छोटे-छोटे निंद्य कार्य करते समय लोग नहीं सोचते हैं फिर जब उसका फल भोगना पड़ता है तब भगवान को याद करते हैं। नागश्री ने मुनि के ऊपर कूड़ा डाल दिया, मुनि आत्मा का ध्यान करते हुए अडिग रहे। जब उधर से राजा साहब निकले, कूड़े को हिलता हुआ देखकर उन्होंने उसे हटवाकर देखा तो मुनि को देखकर पूरी सफाई की और उनकी पूजा आदि की। तूने जब यह सब देखा तो बहुत दुःखी हुई। मुनि के पास जाकर तूने अपने अपराधों की क्षमायाचना की और तरह—तरह की औषधि द्वारा मुनिराज का उपचार कर उन्हें स्वस्थ किया। उस सेवा के फल से तेरे पाप कर्म की स्थिति बहुत कम रह गई।
मुनिराज बोले—बेटी! मुनि के औषधिदान के फलस्वरूप ही तू इस जन्म में धनपति सेठ की पुत्री हुई है। तूने उस औषधिदान के प्रभाव से वह सर्वौषधि प्राप्त की है जो कि तेरे स्नान जल से अनेकों रोग क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं और मुनि को कचरे से ढककर जो उन पर घोर उपसर्ग किया था, उससे तुझे इस जन्म में अपने पति राजा द्वारा झूठा कलंक लगा।
विजया—अच्छा, तो यह बात रही कि उसने मुनि को औषधिदान दिया था ?
जया—हाँ विजया! यह सब सुनकर फिर तो वृषभसेना अपने महल भी नहीं गई। वहीं गुरू के चरणों में सब मोह, ममता छोड़कर गुणधर मुनि से आर्यिका दीक्षा धारण कर ली। बहन! इस कथानक से यही शिक्षा मिलती है कि जिस प्रकार वृषभसेना ने औषधिदान देकर उसके फल को प्राप्त किया उसी प्रकार हम सभी को अपनी शक्ति के अनुसार साधुओं की वैयावृत्ति अवश्य करनी चाहिए एवं स्वप्न में भी कभी गुरुनिंदा या उनके ऊपर उपसर्ग नहीं करना चाहिए ।