जैनशासन की धार्मिक मान्यतानुसार प्रत्येक सतयुग (दुःषमासुषमा नामक चतुर्थकाल) में २४-२४ महापुरुष जन्म लेते हैं जिन्हें तीर्थंकर कहते हैं। इस तीर्थंकर शृंखला में अनेक बार २४ तीर्थंकर इस धरती पर पहले हो चुके हैं और आगे भविष्य में भी अनेक बार २४ तीर्थंकर होंगे जिनके जन्म सदा से अयोध्या में ही होने का वर्णन प्राचीन जैन शास्त्रों में मिलता है किन्तु ऋषभदेव से महावीर तक वर्तमानकालीन २४ तीर्थंकरों में से कुछ तीर्थंकरों (ऋषभदेव, अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ, अनन्तनाथ) का जन्म ही कालदोष से इस बार अयोध्या में हुआ तथा शेष तीर्थंकरों ने अलग-अलग नगरों में जन्म ले लिया। उन अनेक स्थानों में बिहार प्रान्त भी विशेष सौभाग्यशाली हो गया क्योंकि वह धरती २४वें तीर्थंकर महावीर के जन्म से पावन हुई। महावीर स्वामी का जीवनवृत्त निम्न प्रकार है— आज से २६०० वर्ष पूर्व (ईसा से लगभग ५९९ वर्ष पूर्व) बिहार प्रान्त के कुण्डलपुर (वर्तमान नालन्दा जिले में स्थित) नगर में राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशला (प्रियकारिणी) ने चैत्र शुक्ला त्रयोदशी सोमवार की रात्रि में तीर्थंकर शिशु को जन्म दिया था। उनका बचपन का नाम वर्धमान और दूसरा नाम वीर था। नाथवंश के राजघराने में जन्मे वर्धमान के नाना बिहार प्रान्त में ही वैशाली नगरी के राजा थे, उनके दस पुत्र थे तथा सात पुत्रियों में से सबसे बड़ी त्रिशला को वर्धमान की माँ बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। वर्तमान में कुछ आधुनिक इतिहासकार महावीर की जन्मभूमि के रूप में वैशाली के कुण्डग्राम को बताते हैं किन्तु इस विषय में प्राचीन दिगम्बर जैन आगम में बिहार प्रान्त के कुण्डलपुर नगर का वर्णन आता है कि वहाँ के राजा सर्वार्थ और रानी श्रीमती के सिद्धार्थ नामक पुत्र थे। वे युवराज सिद्धार्थ ही आगे चलकर कुण्डलपुर के महाराज सिद्धार्थ कहलाये, उनका विवाह वैशाली के राजा चेटक और रानी सुभद्रा की पुत्री त्रिशला के साथ हुआ। पुनः त्रिशला के गर्भ में जब तीर्थंकर महावीर आये तो उनके नंद्यावर्त महल के आंगन में कुबेर ने रत्नों की वर्षा की थी और चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की रात्रि को महावीर का जन्म हुआ था। श्वेताम्बर जैनों के अनुसार बिहार के ही एक ‘लिछवाड़’ ग्राम को महावीर की जन्मभूमि माना जा रहा है। कुछ श्वेताम्बर ग्रंथानुसार कतिपय शोधकर्ताओं ने वैशाली के कुण्डग्राम को भी महावीर की जन्मभूमि माना है। महावीर ने ३० वर्ष की युवावस्था में राजसुखों का त्यागकर जैनदीक्षा धारण की थी और बारह वर्ष कठोर तपस्या के बाद उन्हें कैवल्य की प्राप्ति हुई थी। श्वेताम्बर जैन साहित्य के अनुसार महावीर का यशोदा नामक राजकुमारी के साथ विवाह होना और एक पुत्री का पिता होना माना गया है। दिगम्बर जैन साहित्य ने सर्वत्र उन्हें बाल ब्रह्मचारी स्वीकार कर पंच बालयतियों (वासुपूज्य, मल्लि, नेमि, पाश्र्व और महावीर) में उनकी विशेषता बतलाई है। इन आगम ग्रन्थों में चौबीस तीर्थंकरों में से उन्नीस को विवाहित और राज्यव्यवस्था संचालित करने के कारण राजा माना है एवं पाँच तीर्थंकरों ने विवाह प्रस्ताव ठुकरा कर युवावस्था में ही दीक्षा ले ली इसलिए वे युवराज ही रहे और बालब्रह्मचारी तीर्थंकरों की गणना में आये। प्रभु महावीर अपने बारहवर्षीय दीक्षित जीवन के मध्य एक बार कौशाम्बी नगरी में गये, वहाँ वैशाली के राजा चेटक की सबसे छोटी कन्या चन्दना एक सेठानी द्वारा सताई जाने के कारण बेड़ियों में जकड़ी हुई थी। महावीर को देखते ही उसकी बेड़ियाँ स्वयं टूट गर्इं, उसके मुंडे सिर पर केश आ गये। कोदों का भात सुन्दर खीर बन गई अतः प्रसन्नतापूर्वक चन्दना ने उन्हें आहार देकर अपने सतीत्व का परिचय दिया। बाद में यही चन्दना महावीर के समवसरण की प्रमुख साध्वी (गणिनी) बनीं और इतिहास में उसकी घटना विशेष उल्लेखनीय बन गई। महावीर के जीवनकाल में एक विशेष प्रसंग भी आया है कि पूर्ववर्ती सभी तीर्थंकरों के समान केवलज्ञान होते ही उनकी दिव्यध्वनि प्रस्फुटित नहीं हुई और वे ६६ दिन तक मौनपूर्वक ही विहार करते रहे। इसमें कारण उनके शिष्य रूप गणधर का अभाव बताया गया है पुनः जब इन्द्र ने अपनी बुद्धि से एक गौतम गोत्रीय विद्वान को वहाँ उपस्थित किया तो वह महावीर के दर्शनमात्र से प्रभावित होकर ५०० शिष्यों के साथ उनके शिष्य बन गये, उनके दीक्षा धारण करते ही महावीर की दिव्यध्वनि प्रगट हो गई। वह दिन श्रावण कृष्णा एकम का था, जो आज भी जैन समाज में वीर शासन जयन्ती के रूप में मनाया जाता है। बिहार प्रान्त में राजगृही नगर में पंचपहाड़ी में एक विपुलाचल नामक पर्वत है जहाँ महावीर देशना के साक्ष्य आज भी विद्यमान हैं। पुनः ३० वर्ष तक तीर्थंकर महावीर ने अपने दिव्यज्ञान से सारे संसार को उपदेश दिया और ७२ वर्ष की आयु में कार्तिक कृष्णा अमावस के प्रभातकाल में बिहार के पावापुर नगर में उनका महानिर्वाण हो गया। जैन पुराणों के अनुसार उस दिन स्वर्ग से देवताओं ने भी आकर अंधेरी रात को दीपमालिका से जगमगा दिया था अतः तभी से वीर निर्वाण सम्वत् भारत में प्राचीन संवत्सरों में प्रचलित है। महावीर के द्वारा उपदिष्ट समस्त सिद्धान्तों को उनके गणधर शिष्य इन्द्रभूति गौतम ने ग्यारह अंग, चौदह पूर्व रूप में प्रस्तुत किया, वही क्रम परम्परा से आज तक विभिन्न ग्रन्थों में उपलब्ध हो रहा है। दिगम्बर जैन शासन ने यह श्रुतज्ञान चार अनुयोग रूप (प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग) में प्रतिपादित अंग और पूर्व का अंश माना है और श्वेताम्बर जैन मान्यता ने अंग और पूर्वरूप सभी आगम ग्रन्थों का अपने आचार्यों द्वारा लेखन स्वीकार किया है। महावीर के समवसरण में प्रविष्ट होते ही सबसे पहले इन्द्रभूति गौतम ने संस्कृत भाषा में स्तुति की थी जो चैत्यभक्ति के रूप में जयति भगवान् हेमाम्भोजप्रचार-विजृम्भिता…… इत्यादि सुन्दर पठनीय है, पुनः उन्होंने भगवान की ऊँकारमयी वाणी को श्रमण और गृहस्थों तक पहुँचाने के लक्ष्य से प्राकृत भाषा में सुदं में आउस्संतो!……… इत्यादि शिष्ट और मिष्ट भाषा का प्रयोग करके उनके आचार-विचार की बात बताई। जैन शास्त्रों के अनुसार महावीर के जन्म से लेकर निर्वाण जाने तक इन्द्र देवता और बड़े-बड़े सम्राट राजा सदैव उनकी भक्ति में तत्पर रहते थे तथा उनके व्यक्तित्व में ऐसा चुम्बकीय आकर्षण था कि पास आने वाला प्रत्येक प्राणी उनका भक्त बन जाता था। मनुष्यों की बात तो दूर, शेर और गाय जैसे प्राणी भी उनके पास आकर वैर भाव छोड़कर एक घाट पर पानी पीने लगते थे। ऐसे अहिंसामयी जैनधर्म के पुनरुद्धारक भगवान महावीर की सर्वोदयी शिक्षाएँ आज भी विश्वशान्ति के लिये महान उपयोगी हैं।