सात व्यसनों में मदिरापान तृतीय व्यसन है जो कि प्रत्यक्ष में ही दुःख का कारण दिखाई देता है। पं. दौलतराम जी ने छहढाला में कहा है—जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहें दुखतें भयवन्त किन्तु दुःख से डरने वाले प्राणी जब स्वयं दुःखोत्पादक सामग्री एकत्रित करने में लगे हों तो भला उन्हें सुख की प्राप्ति कौन करा सकता है ? कोई नहीं। आज हम प्रत्यक्ष में देखते हैं कि सिगरेट के पैकेट पर संवैधानिक चेतावनी लिखी होती है—सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है किन्तु सिगरेट के शौकीन व्यक्ति उस डिब्बी को फाड़कर फेंक देते हैं और धुँआ छोड़ते हुए अपना शौक पूरा करते हैं। इसी प्रकार से पान मसाला के पैकेट, शराब के पाउच आदि पर भी भारत सरकार द्वारा चेतावनीपूर्ण शब्द लिखे जाने पर भी जिव्हालोलुपी जन उसकी कोई परवाह न कर उन वस्तुओं का अर्हिनश सेवन करने में लगे हैं। इससे स्पष्ट है कि व्यसन में फंसा मानव सामने आने वाले दुःखों को भी सुख मानकर उसमें फंसा रहता है। मदिरापान के व्यसनी न धर्म का साधन कर सकते हैं और न अर्थ का, वे अत्यन्त निर्लज्ज होकर केवल काम का सेवन ही अपना मुख्य कार्य समझते हैं। उन्हें माता और पत्नी का भी विवेक नहीं रहता है। शराबीजन मार्ग में बेहोश होकर गिर जाते हैं तथा कुत्ता उनके मुँह में पेशाब भी कर देता है किन्तु उन्हें कुछ भान नहीं रहता है। अधिक शराब पीने से कभी-कभी दुर्घटनाएँ भी घट जाती हैं जो निम्न पौराणिक कथानक से स्पष्ट हैं— द्वारिकापुरी में राजकुमारों ने वनक्रीड़ा को जाते हुए अत्यधिक प्यास से पीड़ित होने पर पहाड़ की कन्दराओं में सड़ रही शराब को पानी समझ कर पी लिया। जिससे उन्मत्त होकर वे नाचते-गाते हुए नगर की ओर आ रहे थे कि मार्ग में द्वीपायन मुनि को देखकर उनके ऊपर पत्थरों और खोटे, अश्लील, भण्ड वचनों की वर्षा करने लगे। इससे उन तपस्वी मुनिराज को क्रोध आ गया अतः उनके बाएं कन्धे से तेजस पुतला निकल पड़ा और समस्त द्वारिका नगरी भस्म हो गई। सभी यादव उसमें जलकर मर गए। देखो ! मात्र एक शराब के व्यसन से इतना बड़ा अग्निकांड हो गया। ऐसे न जाने कितने कांड प्रतिदिन दुनिया में घटित हो रहे हैं, कितने घर-परिवार इस व्यसन से बर्बाद हो रहे हैं किन्तु पीने वालों का ध्यान कभी इस ओर नहीं जाता। बहुत लोगों का विचार है कि शराब पीने से बल प्राप्त होता है और भोजन पच जाता है किन्तु यह विचार युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि जितने मद्यपायी हैं उनको मदिरापान करने के पश्चात् कुछ समय के लिए अंगों में पुष्टता मालूम होती है और शरीर में कुछ बल भी महसूस होता है परन्तु वह आन्तरिक और असली नहीं होता इसलिए उनका बल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। जिस प्रकार क्रोध के आवेश के समय मनुष्य में एक प्रकार की शक्ति आ जाती है और वह उस अवस्था में कुछ विशेष बल का काम कर लेता है पर नशा या क्रोध हट जाने पर कुछ नहीं रहता, वरन् उस समय असली बल भी कम हो जाता है। उसी प्रकार मद्यपान द्वारा प्राप्त बल की दशा भी है। जिस समय शराब का नशा उतर जाता है उस समय वे अपने मुंह से ही अपनी खराब दशा बताते हैं कि मेरा शरीर टूट रहा है, बिना शराब के मुझसे कोई काम नहीं हो सकता है और वह उस समय बिल्कुल निकम्मा होकर बैठ जाता है। मद्यपान से मूच्र्छा, कम्पन, भय, क्रोध, काम, अभिमान, नेत्रों में रक्त वर्ण हो जाने आदि के सिवाय अनेक रोग भी उत्पन्न हो जाते हैं तथा यह व्यसन मानसिक एवं आत्मिक उन्नति में अत्यन्त बाधक होता है। कहा भी है— यावन्न मद्यमांसादि जनस्तावदलो भुकत॓ तस्मिन्तन्मनाः स्यात् क्व जपः क्व च देवता।। अर्थात् जब तक पुरुष मांस और शराब को नहीं ग्रहण करता है तब तक उसका मन चंचल नहीं होता किन्तु जब वह इनका सेवन कर लेता है तब मन तो चंचल हो ही जाता है, फिर देवता का ध्यान और जप उससे कहाँ बन सकता है ? अर्थात् नहीं बन कसकता। अतएव जो मनुष्य अपने को धार्मिकोन्नति के पथ पर लगाकर मोखसुख के प्राप्त होने की कामना रखता है उसे मद्य—मांसादि के परिहारपूर्वक अहिंसा धर्म का प्रतिपादन करने वाले जिनधर्म को स्वीकार कर आत्मकल्याण करना चाहिये। इंग्लैण्ड के भूतपूर्व प्रधानमंत्री Glodstone ने शराब के बारे में कहा है—युद्ध, अकाल और प्लेग की तीनों इकट्ठी महा-आपत्तियाँ भी इतनी बाधा नहीं पहुँचा सकतीं, जितनी अकेली शराब पहूँचाती है। इसी प्रकार से फ्रांस के Experts ने अपनी खोज के आधार पर विचार व्यक्त किए हैं— शराब पीने से बीबी-बच्चों तक से प्रेमभाव नष्ट हो जाते हैं, मनुष्य अपने कर्तव्य को भूल जाता है, चोरी-डकैती आदि की आदत पड़ जाती है। देश का कानून भंग करने में भी उन्हें कोई डर नहीं लगता। इसके अतिरिक्त शराब पीने वालों को पेट, जिगर, तपेदिक आदि अनेक बीमारियाँ लग जाती हैं जिनसे जीवन भर छुटकारा नहीं मिल पाता। जैन सिद्धान्त के अनुसार शराब की एक बूँद में असंख्य जीव पाए जाते हैं और उसको पीने से मनुष्य हेयोपादेय के विवेक से शून्य हो जाता है जिससे उसके दोनों लोक भ्रष्ट हो जाते हैं अर्थात् इस लोक में अविश्वास का, निन्दा का पात्र बनता है एवं परलोक में नरकादि दुर्गति को प्राप्त होता है। शराब से होने वाली बुराइयों के विषय में एक लघु कथानक यहाँ प्रस्तुत है— एकचक्र नाम के नगर में विष्णु के चरण कमलों की सेवा करने के लिए भ्रमर के समान रत वेद—वेदांग का पारगामी एकपाद नाम का सन्यासी रहता था। एक दिन उस सन्यासी के मन में सम्पूर्ण पापों को नाश करने वाली गंगा में स्नान करने की इच्छा उत्पन्न हुई इसलिए वह गंगा स्नान करने के लिए अपने नगर से बाहर निकला। मार्ग में एक भयानक गहन अटवी पड़ी, उसी अटवी में भीलों का एक बड़ा भारी झुण्ड यौनमद के साथ शराब पीकर मस्त हुई विलासिनी तरुणियों के साथ माँस और सुरा का सेवन कर रहा था। वह सन्यासी उस झुण्ड में जा फंसा, तब शराब के नशे में मस्त हुए भीलों ने उसे पकड़ लिया और उससे बोले— तुझे मद्य, माँस और स्त्री में से किसी एक का सेवन करना होगा, नहीं तो तू जीते जी गंगा का दर्शन नहीं कर सकता। यह सुनकर सन्यासी सोचने लगा कि स्मृतियों में एक तिल या सरसों बराबर भी माँस खाने पर बड़ी-बड़ी विपत्तियों का आना सुना जाता है। भीलनी के साथ सम्बन्ध करने पर प्रायश्चित लेना पड़ता है, जो मृत्यु का घर है किन्तु समस्त यज्ञों के सिरमौर सौत्रामणि नाम के यज्ञ में शराब पीने की अनुमति है और लिखा है कि जो इस विधि से मदिरापान करता है उसका मदिरापान करना पाप नहीं है तथा पीढ़ी, जल, गुड, धतूरा आदि जिन वस्तुओं से शराब बनती है वे भी शुद्ध ही होती हैं। इस सब बातों का चिरकाल तक मन में विचार कर उसने शराब पी लिया, उसके पीते ही मन चंचल हो उठा। नशे में मस्त होकर उसने अपनी लंगोटी खोल डाली और मदोन्मत्त भीलनियों के साथ तालियाँ बजा-बजाकर कूदने लगा। उस समय उसकी दशा ऐसी हो गई मानो उसके शरीर में कोई भूत घुस गया है। उसने अनेक विकृत चेष्टाएं की और फिर भूख से पीड़ित होकर माँस भी खा लिया, जिससे उसे असह्य कामोद्रेक उठा और उसने भीलनियों के साथ रति क्रिया की। देखो ! एकपाद सन्यासी ने सौत्रामणि नामक यज्ञ में मदिरापान को दोष नहीं बतलाया ऐसा समझकर मदिरापान किया जिससे दुर्गति को प्राप्त हुआ। एक व्यसन के कारण उसमें अन्य दो व्यसन स्वयमेव आ गये अतः अपने को दुर्गति से बचाने की इच्छा रखने वाले प्राणियों को शराब का दूर से ही त्याग कर देना चाहिये। लोक में प्रायः देखा जाता है कि अंग्रेजी या देशी शराब पीने वाले लोग किसी न किसी रूप में उसका समर्थन ही करते हैं और धर्मगुरुओं के पास जाने में उन्हें इसीलिए डर लगा करता है। एक Inside Asia नामक पुस्तक के पृ. नं. ४८५ पर John Gunther ने लिखा है कि खोजा मुसलमानों के धर्मगुरु आगा खान शराब पीकर कहा करते थे— `Ah, he replied, you forget that wine turns to water as soon as it touches my mouth.” अर्थात् वे अपने समर्थन में कहते थे—‘‘आह ! तुम भूल जाते हो, जिस समय शराब मेरे कण्ठ में आती है तो वह जल रूप में परिवर्तित हो जाती है।’’ किन्तु व्यसन तो व्यसन ही है। उसे सेवन करने वाले महापुरुष भी पतित की कोटि में गिने गए हैं इसीलिए जैनधर्म संयम के क्षेत्र में युक्ति और सद्विचार समर्थित कथन ही करता है। वह औषधि के रूप में भी शराब पीने की अनुमति नहीं प्रदान करता है। होम्योपैथिक की अधिकांश दवाइयों में अल्कोहल की प्रधानता होने से वे अशुद्ध कहलाती हैं तथा उनमें हिंसाजन्य वस्तुएं होने से वे मांसाहार की कोटि में भी आती हैं। मनुष्यों के जीवन में सर्वप्रथम मद्य-माँस-मधु इन तीन मकारों के त्याग की प्रेरणा प्रदान की गई है जिसके बल पर ही जीवन में सदाचार का प्रवेश होता है। आज भौतिकता की चकाचौंध में मानव भले ही इन सूत्रों का मूल्यांकन करना भूल गया है फिर भी प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में उसे मानसिक शान्ति तो दुष्प्रवृत्ति के त्याग से ही प्राप्त होती है। अमेरिका की सेना के प्रमुख अधिकारी जनरल ब्राडले ने कहा था—‘‘हमारे यहाँ वैज्ञानिक तो बहुत हो गये हैं किन्तु धार्मिक लोगों की बहुत कमी हो गई है। हमने अणु के रहस्य को तो जान लिया है किन्तु आत्मा के रहस्य को नहीं जाना है। हम शान्ति की अपेक्षा युद्ध की बातें अधिक करते हैं। जीवन के स्थान पर प्राणहरण की विद्या में हम अधिक निपुण हो गये हैं।’’ तात्पर्य यह है कि पश्चिम देश का मानव भी यह अनुभव कर रहा है कि हम निज अस्तित्व को खोकर व्यसनी बन गए हैं इसीलिए सुख शान्ति हमसे दूर हो गई है, उसे प्राप्त करने हेतु जिनवाणी का स्वाध्याय एवं गुरुओं का सत्संग अत्यन्त आवश्यक है। पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी के संघ विहार से सैकड़ों— हजारों आदिवासी मदिरापान का त्याग कर सदाचारी जीवन बिताने का संकल्प ले चुके हैं। इसी प्रकार से अन्य साधु संघों के समागम से जन-जन तक अहिंसावाणी पहुचती है जो भारतदेश की प्राचीन संस्कृति का सर्वोत्तम उदाहरण है। उपर्युक्त अनेक उदाहरणों के माध्यम से हमारी बाल और युवा पीढ़ी को शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये कि कभी बुरी संगति के कारण, मित्रों की जबर्दस्ती से अथवा आधुनिक पार्टी आदि में जाने पर भी व्हिस्की, इंग्लिश वाइन, देशी शराब आदि का सेवन न करें ताकि धन हानि, स्वास्थ्य हानि, पारिवारिक कलह, भ्रष्टाचार आदि से दूर रहकर संयमित, सात्विक जीवन व्यतीत कर धर्मरक्षा में तत्पर हो सकें। इसी के द्वारा परिवार, समाज एवं देश का उत्थान संभव है।