एक गाँव में एक कुम्हार और नाई ने मिलकर एक धर्मशाला बनवाई। कुम्हार ने एक दिन एक मुनिराज को लाकर धर्मशाला में ठहरा दिया। तब नाई ने दूसरे दिन मुनि को निकालकर एक सन्यासी को लाकर ठहरा दिया। इस निमित्त से दोनों लड़कर मरे और कुम्हार का जीव सूकर हो गया तथा नाई का जीव व्याघ्र हो गया। एक बार जंगल की गुफा में मुनिराज विराजमान थे। पूर्व संस्कार से वह व्याघ्र उन्हें खाने को आया और सूकर ने उन्हें बचाना चाहा। दोनों लड़ते हुए मर गये। सूकर के भाव मुनिरक्षा के थे अत: वह मरकर देवगति को प्राप्त हो गया और व्याघ्र हिंसा के भाव से मरकर नरक में चला गया। देखो! वसतिदान के माहात्म्य से सूकर ने स्वर्ग प्राप्त कर लिया। विशेष – समंतभद्र स्वामी ने ज्ञानदान (शास्त्रदान) की जगह उपकरण दान और अभयदान की जगह आवासदान ऐसा कहा है। अत: इस उपकरण दान में मुनि-आर्यिका आदि को पिच्छी-कमण्डलु देना, आर्यिका-क्षुल्लिका को साड़ी, ऐलक-क्षुल्लक को कोपीन-चादर आदि देना तथा लेखनी, स्याही, कागज आदि देना भी उपकरणदान कहलाता है। अन्य ग्रंथों में दान के दानदत्ति, दयादत्ति, समदत्ति और अन्वयदत्ति ऐसे भी चार भेद किये गये हैं। उपर्युक्त विधि से पात्रों को चार प्रकार का दान देना सो दानदत्ति है। दीन, दु:खी, अंधे, लंगड़े, रोगी आदि को करुणापूर्वक भोजन, वस्त्र औषधि आदि दान देना दयादत्ति है। अपने समान श्रावकों को कन्या, भूमि, सुवर्ण आदि देना समदत्ति है। अपने पुत्र को घर का भार सौंपकर आप निश्चिन्त हो धर्माराधन करना यह अन्वयदत्ति है