भरत चक्रवर्ती छ: खण्ड की दिग्विजय करके आ रहे थे। उनका चक्ररत्नअयोध्या के बाहर ही रुक गया। मंत्रियों ने बताया कि महाराज आपके भाई आपके वश में नहीं हैं। चक्रवर्ती ने दूत को अपने अट्ठानवे भाइयों के पास भेज दिया। उन लोगों ने भगवान ऋषभदेव के पास जाकर मुनि दीक्षा ले ली। पुन: भरत ने एक दूत बाहुबली के पास भेजा। बाहुबली भी चक्रवर्ती के अधीन नहीं हुए। तब दोनों तरफ से युद्ध की तैयारियाँ हो गईं। उस समय मंत्रियों ने सोचा कि दोनों चरम शरीरी हैं। इनका तो कुछ बिगड़ेगा नहीं, व्यर्थ ही प्रजा का क्षय होगा अत: तीन प्रकार के धर्मयुद्ध निश्चित किये-दृष्टियुद्ध, जलयुद्ध और मल्लयुद्ध। भरत पाँच सौ धनुष ऊँचे थे और बाहुबली सवा पाँच सौ धनुष ऊँचे थे, अत: दृष्टियुद्ध में और जलयुद्ध में भरत हार गये। मल्ल युद्ध में भी बाहुबली ने भरत को उठाकर अपने कंधे पर रख लिया, पुन: उतार दिया। तब भरत को बहुत ही क्रोध आ गया। उन्होंने चक्ररत्न चला दिया किन्तु वह चक्ररत्न अपने गोत्रज बंधुओं का घात नहीं करता अ
त: बाहुबली की प्रदक्षिणा देकर रुक गया। उस समय सभी लोग भरत को धिक्कारने लगे। ओ हो! राज्य के लिए आप भाई को मारने लगे तथा बाहुबली की जयजयकार के शब्द आकाश में फैल गये। तत्क्षण ही बाहुबली को वैराग्य हो गया। भरत के बहुत कुछ अनुनय करने पर भी, क्षमा याचना करके वे वैलाशपर्वत पर पहुँचकर दीक्षित हो गये तथा एक वर्ष का योग लेकर ध्यान में खड़े हो गये। सर्पों ने उनके चरणों का आश्रय लेकर बामी बना लीं। लतायें योगिराज के ऊपर चढ़ गईं। चिड़ियों ने घोंसलें बना लिए। सर्प और बिच्छू आदि प्रभु के शरीर पर क्रीड़ा करने लगे। योगिराज बाहुबली को अनेक ऋद्धियाँ हो गईं, जिससे तमाम विद्याधर आदि आकर उनके दर्शन करके अपना कष्ट दूर कर लेते थे और करोड़ों मनोरथ सफल कर लेते थे।
प्रश्न-क्या बाहुबली को यह शल्य थी कि मैं भरत की भूमि पर खड़ा हूँ। जब शल्य सहित जीव मिथ्यादृष्टि होते हैं, तो उनके ऋद्धियाँ आदि कैसे हुईं?
उत्तर – नहीं, उन्हें शल्य नहीं थी। महापुराण में भगवज्जिनसेनाचार्य ने कहा है कि-उनके मन में कदाचित् यह विकल्प हो जाता था कि ‘भरत को मुझसे क्लेश हो गया है। इस विकल्प से उन्हें शुक्लध्यान नहीं हो सका था, फिर भी वे भावलिंगी मुनि थे। छठे-सातवें गुणस्थान में असंख्यातों बार चढ़ते-उतरते रहते थे, मिथ्यादृष्टि नहीं थे और न ही उन्हें शल्य थी। ।
प्रश्न-क्या आजकल पंचमकाल में सच्चे भावलिंगी मुनि होते हैं?
उत्तर – अवश्य होते हैं। जो ऐसा नहीं मानते हैं वे अज्ञानी हैं। देखो!श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने मोक्षपाहुड़ में कहा है-भरत क्षेत्र में आज के इस दु:षमकाल में साधुओं को आत्मस्वभाव में स्थित होने पर धर्मध्यान होता है। किन्तु जो यह नहीं मानते, वे अज्ञानी हैं। आज भी रत्नत्रय से शुद्ध मुनिराज आत्मा का ध्यान करके इन्द्र पद तथा लौकांतिक पद को प्राप्त कर सकते हैं और वहाँ से च्युत होकर मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं। जो आजकल सभी मुनियों को द्रव्यलिंगी मानकर, उनकी विनय नहीं करते हैं वे स्वयं मिथ्यादृष्टि हैं, ऐसा समझना चाहिए। अनंतर भरत ने जाकर बाहुबली को नमस्कार किया और पूजा की। तत्क्षण ही उनका विकल्प समाप्त हो गया। वे क्षपक श्रेणी में चढ़ गये और घातिया कर्मों का नाश कर केवली हो गये। देवों ने आकर गंधकुटी की रचना की और पूजा की। भरत चक्रवर्ती भी अनुपम सामग्री लेकर अद्भुत पूजा की थी। अनन्तर भगवान बाहुबली बहुत दिनों तक विहार करके वैलाशपर्वत से मोक्ष चले गये। भरत चक्रवर्ती ने पोदनपुर में भगवान बाहुबली की ५०० धनुष ऊँची मूर्ति विराजमान की थी। कर्नाटक प्रांत के श्रवणबेलगोल में आज से १००० वर्ष पूर्व श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के नेतृत्व में सेनापति चामुण्डराय ने ५७ फीट ऊँची अतिशय मनोज्ञ भगवान बाहुबली की मूर्ति विराजमान की है, जिसके दर्शन करके अपने जीवन को सफल करना चाहिए।