‘‘परि + आ’ उपसर्ग युक्त ‘वृ’ धातु से ल्युट् प्रत्यय के योग से बने ‘पर्यावरण’ शब्द का तात्पर्य है चारों ओर का वातावरण। यह वातावरण अर्थात् पर्यावरण द्विविध है—भौतिक एवं आध्यात्मिक। भौतिक पर्यावरण अर्थात् प्राकृतिक वातावरण में भूमि, जल, वायु एवं वनस्पति आदि समाविष्ट हैं, जिनसे जीव मात्र की दैहिक आवश्यकता पूर्ण होती है। आध्यात्मिक पर्यावरण से आत्मा संतुष्ट होती है। आत्म सतुष्टि से न केवल आध्यात्मिक पर्यावरण अपितु भौतिक पर्यावरण भी शुद्ध होता है। जीव सृष्टि एवं वातावरण का पारस्परिक आकलन ही पर्यावरण हैं इस विश्वास के ह्रास के साथ पर्यावरण का ह्रास एवं प्रदूषण का प्रादुर्भाव हुआ। आज की विडम्बना यह है कि पर्यावरण और प्रदूषण अंतरंग प्रतीत होने लगे हैं। पर्यावरण प्रकृतिदत्त है। प्रदूषण के अर्थ में पर्यावरण काचिंतन विगत दो तीन दशक से ही आया है, जबकि भारतीय ऋषि, मनीषी भौतिक एवं आध्यात्मिक पर्यावरण के प्रति अत्यन्त प्राचीन काल से ही सजग थे। प्रत्यक्ष—परोक्ष रूप में उनकाचिंतन समग्र भारतीय वाङ्मय में परिलक्षित होता है।
प्राचीन भारतीय वाङ्मय
विश्व वाङ्मय के प्रथम सोपान ऋग्वेद के प्रथम मंत्र में उद्गाता ऋषि ने अग्नि में स्थित ऊर्जा और जीवन की पहचान कर उसे सर्वप्रथम स्तुत्य माना—
अर्थात् सर्वप्रथम आधान किये जाने वाले, यज्ञ को प्रकाशित करने वाले, ऋतुओं के अनुसार यज्ञ संपादित करने वाले, (देवताओं) का आह्वान करने वाले तथा धन प्रदान करने वालों में सर्वश्रेष्ठ अग्नि देवता की मैं स्तुति करता हूं। ऋग्वेद संहिता में इन्द्र वरुण, पर्जन्य, सूर्य आदि सभी प्राकृतिक तत्वों में देवत्व का आधान किया गया है। औपनिषदिक दर्शनों में पंचमहाभूतों को सृष्टि की उत्पत्ति का मूल माना और उनकी विशुद्धि पर बल दिया। सृष्टि क्रम में प्रथम उत्पत्ति आकाश की स्वीकार की गई—
तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाश: सम्भूत:।
आकाश शून्य है, अत: शुद्धि अशुद्धि से लिप्त नहीं है। शब्द इसका गुण है। अत: शब्द या ध्वनि प्रदूषित हो सकती है। आकाश तत्व से वायु और फिर अग्नि की उत्पत्ति हुई, जिसे परम पवित्र और सर्वव्यापी माना गया। जल एवं पृथ्वी अग्नि के ही परिर्वितत रूप है—
वायु में शोषक क्षमता अग्नि के ही कारण है। अग्नि धनीभूत होकर जल का रूप धारण कर लेती है। रसायन शास्त्री भी मानते हैं कि जल का मूल रूप अग्नि ही है, क्योंकि जल का आणविक प्२ध् सूत्र है। हाइड्रोजन और ऑक्सीजन दोनों ही गैस अत्यन्त ज्वलनशील हैं। जल घनीभूत होने पर पृथ्वी बना। इस दृष्टि से हम अग्नि से व्याप्त हैं। अग्नि जल की आत्मा है। समुद्र में वाडवानल का भी सम्भवत: यही रहस्य है। अथर्ववेद में जल शुद्धि विषयक अनेक मंत्र हैं। पृथ्वी के माहात्म्य स्वरूप पृथ्वी सूक्त (अथर्व—१२.१), कठोपनिषद् (कठ—५—१०) में वायु की महिमा, वृह्दारण्यकोपनिषद् (वृहद—३—९—२८) में वृक्ष वनस्पतियों में जीवनत्व का उद्घोष है। समग्र वैदिक वाङ्मय में पंचमहाभूतों की पर्यावरणीय उपयोगिता का निदर्शन है। पौराणिक साहित्य आयुर्वेद, चरक—संहिता, वास्तुशास्त्र, कौटिल्य का अर्थशास्त्र तथा स्मृति ग्रंथों में भी पर्यावरण चेतना का निदर्शन होता हैं
जैन वाङ्मय
समग्र जैन वाङ्मय में पर्यावरण विषयक सूक्ष्मचिंतन व्याप्त है। इनमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति में देवत्व की नहीं अपितु जीवत्व की अवधारणा है। आचारांग सूत्र के प्रथम पांच अध्याय में षट्कायिक जीवों का सविस्तार वर्णन है। आचार्य उमास्वामि ने तत्त्वार्थसूत्र में जीव के भेद बताते हुए लिखा है—
अर्थात् संसारी जीव त्रस एवं स्थावर दो प्रकार के होते हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं वनस्पति कायिक ये पांच स्थावर (जीव) हैं। जैन वाङ्मय में जीव तत्व का सूक्ष्म, वैज्ञानिक वर्णन और वर्गीकरण किया गया है।५ जीव जातियों के अन्वेषण की चौदह मार्गणाएँ, जीवों के विकास के चौदह गुणस्थान और आध्यात्मिक दृष्टि से गुण दोषों के आधार पर जीव के भेदोपभेद का भी वर्णन किया गया है। इस तरह संपूर्ण ब्रह्माण्ड जीवत्व से ओतप्रोत है और संपूर्ण पर्यावरण एक जीवन्त इकाई है। इसके प्रति स्वत्व का और संरक्षण का भाव होना चाहिये। आचारांग सूत्र में इस भावना की अत्यन्त र्मािमक अभिव्यक्ति है। तुमंसि नाम सच्चेव जं ‘हतत्वं’ ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं ‘अज्जावेयव्वं’ ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं ‘परितावेयव्वं’ ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं ‘परिधेतव्वं’ ति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं ‘उद्देवेयव्वं’ ति मन्नसि, अंजू चेय—पडिबुद्धिजीवी, तम्हा ण हंता ण विधायए। अणुसंवेयणमप्पाणेणं, जं हंतव्वं ति ‘णाभिपत्थए’। ‘जिसे तू मारने योग्य समझ रहा है, वास्तव में वह तू ही है। जिस पर आज्ञा योग्य मानता है, वास्तव में वह तू ही है। जिसे परिताप देने योग्य समझ रहा है, वास्तव में वह तू ही है। जिसे पकड़ने योग्य समझ रहा है, वास्तव में वह तू ही है। जिन्हें प्राण ही करना चाहता है, वास्तव में वह तू ही है। प्रति बुद्ध प्रज्ञावंत ही सरल परिणामी होता है। इसलिए वह (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति एवं त्रसजीवों का) न स्वयं हनन करता है और उसका छेदन, भेदन आदि कराता है। ये सभी अनुसंवेदन संवेदनशील है। अत: इनकी सुरक्षा आवश्यक है। जो मारने योग्य, छेदन, भेदन या प्रताड़न करने योग्य है तो भी उन्हें नहीं सताते।
पंचमहाव्रत अहिंसात्मक
आचरण पूर्वक इस षट्कायिक पर्यावरणीय संहिता की रक्षा जैन सिद्धांतों का मूलाधार है। आचार्य उमास्वाति का सूत्र हैं—परस्परोपग्रहो जीवानाम्।अर्थात् प्रत्येक जीव एक दूसरे पर आश्रित या पूरक है। कोई जीव यदि हमारा सहायक बनता है तो उसकी सुरक्षा हमारा कर्तव्य है। यथा वृक्ष हमें शुद्ध वायु, जल, फल ईधनादि प्रदान करते हैं। अत: वृक्षों का संरक्षण और संवर्धन हमारा कर्तव्य है। वृक्षों में भूमि, वायु और ध्वनि प्रदूषण को अवशोषित करने की सामथ्र्य है। उदाहरणार्थ—भोपाल गैस त्रासदी में बड़, पीपल, इमली और अशोक जैसे घने वृक्षों के पत्ते जल गये थे। उन वृक्षों के समीपस्थ निवासरत व्यक्तियों पर गैस का प्रभाव अपेक्षाकृत कम हुआ। निश्चय ही विषैली गैस की अधिक मात्रा वृक्षों द्वारा अवशोषित की गई। पर्यावरण संरक्षण में वृक्षों की उपयोगिता एवं वृक्षारोपण के महत्व को दृष्टिगत रखते हुए पद्मपुराण में कहा गया है कि—प्रतिष्ठां ते गमिष्यन्ति यै: वृक्षा: समारोपिता:।वराङ्गरि एवं धर्मशर्माभ्युदय में वनों, उद्यानों, वाटिकाओं तथा नदी के तीरों पर भी वृक्षारोपण का वर्णन है। तीर्थंकरों की प्रतिमाओं पर अंकित चिह्न पर्यावरण संरक्षण के प्रतीक है। चौबीस तीर्थंकरों के चौबीस चिन्हों में से तेरह चिन्ह प्राणी जगत से संबंद्ध है। पशु जगत से बैल, हाथी, घोड़ा, बंदर, हिरण एवं बकरा मानव के सहयोगी रहे हैं। चकवा पक्षी समूह का तथा कल्पवृक्ष वनस्पति जगत का प्रतीक है। जलचर मगर, मछली, कछुआ और शंख का जल शुद्धि में महत्वपूर्ण योगदान है। लाल और नीलकमल अपने सौन्दर्य एवं सौकुमार्य से शान्ति और प्रेम का संदेश देते हैं। स्वस्तिक एवं कलश कल्याण के प्रतीक है। तीथर्करों के जन्म से पूर्व उनकी माताओं द्वारा देखे गये सोलह स्वप्न भी पशु जगत एवं प्राकृतिक जगत से सम्बद्ध मंगल और क्षेम के प्रतीक है। तीर्थंकरों की समवसरण सभा में भी प्रमद वन, अशोक, सप्तवर्ण, चम्पक और आम वृक्षों की व्याप्ति र्विणत है। साथ ही प्रत्येक जीव का स्थान निर्धारित है तथा सभी को तीर्थंकर वाणी सुनने का अधिकार है। प्रकृति ने न केवल वनस्पति अपितु मानव की सेवा सहायता और सुरक्षा के लिये पशु—पक्षियों की सृष्टि भी की है। जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत वराङ्गचरित, पद्मानन्द महाकाव्य, धर्मशर्माभ्युदय और चन्द्रप्रभचरित प्रभृति महाकाव्यों में गाय, भैस, बैल, घोड़ा आदि की कृषि, व्यवसाय, युद्धादि में उपयोगिता का वर्णन है। साथ ही पशु—पक्षियों के साथ दुव्र्यवहार की निन्दा तथा पशु—पक्षियों के वध के प्रति ग्लानि भाव और बलि का विरोध भी र्विणत है। पशु सृष्टि भी मानव के लिये वरदान है। गो प्रभृति जीव न केवल दुग्ध अपितु मलमूत्रादि के रूप में र्इंधन, खाद, गैस और ऊर्जा भी प्रदान करते हैं। सर्प जैसा विषैला प्राणी फसल नष्ट करने वाले कीटों को खाकर उसकी सुरक्षा तथा केचुआ जैसा क्षुद्र प्राणी मिट्टी को उर्वरा बनाता है। तात्पर्य यह है कि पर्यावरण रक्षण में प्रत्येक प्राणी का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में योगदान होता है। आधुनिक कृविज्ञानिक इसकी पृष्टि करते हैं। प्राणी और वनस्पति जगत का संरक्षण अहिंसा से ही संभव है। जैनाचार में अहिंसा अत्यन्त व्यापक अर्थ रखती है। मन, वचन और कर्म से किसी जीव की न करना ही अहिंसा है। अहिंसा को माता और विश्वरक्षक कहा है—
च मूलं विश्वाङ्गि रक्षकम्। गुणानाभाकरीभूतं धर्म बीजं जिनै: स्मृतम्।।
जैन शास्त्रों में जलशुद्धि एवं मितव्यतिता पर विशेष बल दिया है। जल का उपयोग छानकर एवं उबालकर करना श्रावकों को कर्तव्य बताया है। आज स्थान—स्थान पर एकत्रित जल में उत्पन्न दलदल, सीलन, सड़न, रोगाणुओं की उत्पत्ति, भूमि, जल और वायु प्रदूषण का बहुत बड़ा कारण अनावश्यक जल और दूषित पदार्थों को प्रवाहित करना ही है। यह असंख्य जल के जीवों कीहिंसा भी है। जैन विधि से जल शुद्धि एवं मितवययिता से ही जल प्रदूषण से मुक्ति संभव है। , सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पांच महाव्रत भौतिक एवं आध्यात्मिक, पर्यावरण की शुद्धि में सार्थक भूमिका का निर्वाह हैं। अहिंसा और सत्य परस्पर अन्योन्याश्रित है। ‘‘रत्नकरण्ड श्रावकाचार’’ में सत्य व्रत की परिभाषा इस प्रकार दी है—
स्थूलमलीकं न वदति न परान् वादयति सत्यमपि विपदे।
और हित—मित—प्रिय औरहिंसा रहित वचन बोलना चाहिये। सत्य त्याग से प्राणी िंहसक हो सकता है। असत्य भाषण से स्वच्छन्दता, घृणा, प्रतिशोध, वैर, वैमनस्य आदि दुर्भावनाएँ भी जन्म लेती हैं। सत्य से आत्मसंतुष्टि होती है और भौतिक एवं आध्यात्मिक पर्यावरण शुद्ध होता है। मन वचन और कर्म से किसी की सम्पत्ति बिना आज्ञा के न लेना और न दूसरों को देना अस्तेय या अचौर्य है। चौर्य कर्म के मूल में लोभ की प्रवृत्ति प्रबल है। व्यक्ति द्वारा वनों की अवैध कटाई व चोरी, अभयारण्यों में बाघ, हिरण, हाथी आदि पशुओं का शिकार, दूषित गैस उत्सर्जक, आधुनिक उपकरण एवं वाहनों का प्रयोग, व्यापार में मिलावट, कम तोलना रिश्वत लेना या देना स्तेयकर्म है। अस्तेय या अचौर्यव्रत पालन से व्यक्ति, समाज और देश में व्याप्त र्आिथक प्रदूषण की रक्षा संभव है। दस बाह्य परिग्रह और चौदह अंतरंग परिग्रह है। क्षेत्र, वास्तु, धनधान्य, दासी—दास, चतुष्पद पशु, आसन, शयन, वस्त्र और भांड दस परिग्रह है। वस्तुओं के भोगोपभोग की इच्छा ही परिग्रह है वस्तुओं के भोगोपभोग की इच्छा ही परिग्रह है और नि:स्पृहता अपरिहग्रह है। अत: परिग्रह परिमाण व्रत का पालन करना चाहिये। इससे आवश्यकताएँ सीमित एवं प्राकृतिक संसाधनों की बचत संभव है। अपरिग्रह को अपनाकर न केवल मनुष्य और समाज अपितु विविध देश भी सामरिक संभावनाओं को समाप्त कर परमाणु विस्फोटों से पर्यावरण की रक्षा कर सकते हैं। प्राकृतिक शोषण में जनसंख्या वृद्धि की महती भूमिका हैं जनसंख्या नियंत्रण हेतु ब्रह्मचर्य व्रत सार्थक है। ‘ब्रह्मचर्य व्रत जीवन को मर्यादित एवं मैथुन सेवन की नियंत्रित करता है आचार्य समन्तभद्र ने कहा है—
न तु परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतैर्यत, सा परदार निवृत्ति: स्वदारसंतोषनामपि।
अर्थात् जो पाप के भय से न स्वयं परस्त्री के समीप जाता है और न दूसरों को भेजता है, उसकी वह क्रिया परस्त्री त्याग तथा स्वदार संतोष नामक ब्रह्मचर्यव्रत है। इस व्रत का पालन न करने के परिणाम स्वरूप सामाजिक प्रदूषण फैलता है। इसका ज्वलन्त उदाहरण—आर्थिक दृष्टि से समृद्ध भोगवाद के चरम बिन्दु पर पहुँची अमेरिका का असन्तुलित सामाजिक जीवन है, जहाँ प्रति तीन में से एक नारी को जीवन में एक बार बलात्कार सदृश घृणित शोषण का शिकार होना पड़ता है। विदेशों में ही नहीं अपितु भारत में भी एड्स प्रभावित रोगियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है। इन परिस्थितियों में ब्रह्मचर्य व्रत वैयक्तिक, सामाजिक और शारीरिक पर्यावरण शुद्धिहेतु वरदान है।
अनेकान्त
जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांत अनेकान्त वाद के अनुसार वस्तु का स्वरूप अनेकान्तात्मक है। वस्तु अनेक विरोधी धर्मों का समूह रूप है। जैसे दीपक में अञ्जन, बादल में बिजली और समुद्र में वाडवानल समस्त वस्तु जाति उत्पादव्यय ध्रौव्य रूप त्रयात्मक है। एक ही वस्तु में सत् और असत् दोनों रूप विद्यमान होते हैं। इस तथ्य की पुष्टि हेतु आचार्य ज्ञानसागर ने शूकर का दृष्टान्त दिया है कि विष्ठा हमारे लिये अभक्ष्य किन्तु शूकर के लिये परमभक्ष्य है। शूकर के प्रति हमारी दृष्टि घृणित होती है किन्तु पर्यावरण शुद्धि में उसकी भूमिका महत्वपूर्ण है। परमाणु असीम शक्ति का जनक है, जिसमें निर्माण और विध्वंस दोनों ही सामथ्र्य है। इस परमाणु शक्ति का उपयोग कारखानों के संचालन हेतु विद्युत के रूप में, पृथ्वी में छिपी खनिज संपदा और तेल आदि ज्ञात करने तथा सुरंग निर्माण जैसे कार्यों में करते हुए युद्धादि में विनाश हेतु प्रयुक्त रेडियाधर्मी प्रदूषण से पर्यावरण की रक्षा करना चाहिये। इस प्रकार भक्ष्य—अभक्ष्य, घृणित—प्रशंसनीय, निर्माण—विध्वंस परस्पर विरोधी धर्म है। विश्वरक्षिका अनेकान्त दृष्टि को पर्यावरण संरक्षण के सन्दर्भ में समझना चाहिये। अनेकान्त की वचन पद्धति स्याद्वाद है। अनेकान्तवाद और स्याद्वाद में वैचारिक प्रदूषण दूर करने की सामथ्र्य है।
आचार—संहिता
श्रावक एवं श्रमण की आचार शुद्धि हेतु जैन वाङ्मय के चरणानुयोग भाग में आचार संहिता निर्दिष्ट है। अद्य पर्यन्त, कुन्दकुन्दाचार्य, आ. उमास्वामी, आ. समन्त भद्र प्रभृति ३६ श्रावकाचार उपलब्ध हैं। श्रावकाचार संहिता में श्रावक के लिये ग्यारह प्रतिमाओं का विधान है। यथा १. दर्शन प्रतिमा, २. व्रत प्रतिमा, ३. सामायिक प्रतिमा, ४. प्रौषध प्रतिमा ५. सचित्त त्याग प्रतिमा ६. रात्रिभुक्ति त्याग प्रतिमा, ७. ब्रह्मचर्य प्रतिमा ८. आरम्भत्याग प्रतिमा ९. परिग्रहत्याग प्रतिमा १०. अनुमतित्याग प्रतिमा ११. उत्कृष्ट उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा। सामान्यतया आठ मूलगुण, पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत यह श्रावक का सर्वमान्य आचार है। मद्य, मांस, मधु तथा पांच उदुम्बर फलों का त्याग ये गृहस्थ के आठ मूलगुण है। जुआ, मांस, मदिरा, वेश्या, परदाराभिलोभन चोरी एवं शिकार ये सप्त व्यसन त्याज्य है। प्रतिदिन देवपूजा, गुरुपासना, शास्त्र स्वाध्याय, संयम धारण, तपश्चरण और दान श्रावक के छ: कर्तव्य हैं।
पांच अणुव्रत
मन वचन काय से त्रस्त प्राणियों का रक्षण अहिंसाणुव्रत है। असत्य वचन त्याग कर धर्म के निधान स्वरूप सत्यवचन बोलना सत्याणुव्रत है। वचन, कर्म से पर सम्पत्ति को बिना आज्ञा के न लेना अचौर्याणुव्रत है। स्वभार्या के अतिरिक्त शेष समस्त स्त्रियों के साथ विषय सेवन का त्याग ब्रह्मचर्याणुव्रत है और संसार के धनधान्यादि दस प्रकार के परिग्रह का नियम परिग्रह परिमाणाणुव्रत है।
गुणव्रत —पूर्व आदि दिशाओं में नदी, ग्राम, नगर आदि स्थानों की मर्यादा निर्धारित कर जन्म पर्यन्त उससे बाहर न जाना, उस मर्यादा में लेन—देन आदि कार्यों को करना दिग्व्रत है। बिना प्रयोजन के पापारम्भों का त्याग अनर्थदण्डविरति गुणव्रत है। इन्द्रियजय हेतु भोगोपभोग की वस्तुओं का अल्पसमय अथवा जीवन पर्यन्त नियम भोगोपभोग परिमाण नामक गुणव्रत है।
शिक्षाव्रत — दिग्व्रत की सीमा के अन्तर्गत प्रतिदिन गमनागमन की सीमा का नियम ग्रहण करना देशावकाशिक नामक शिक्षाव्रत है। दुध्र्यान एवं दुर्लेश्या छोड़कर प्रात: मध्याह्न और सायंकाल तीन बार सामायिक करना सामायिक शिक्षाव्रत है। प्रत्येक मास की अष्टमी चतुर्दशी को सर्वग्रहारम्भों का त्याग कर नियम पूर्वक उपवास प्रौषधोपवास नामक शिक्षाव्रत है और अतिथि को शुद्ध चित्त से प्रतिदिन निर्दोष विधिपूर्वक आहार देना अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत है। श्रावक के ये द्वादश व्रत आचरण को संयमित, आवश्यकताओं को नियंत्रित तथा दान शील तप आदि भावनाओं को विकसित करने में समर्थ हैं। विवेक की रक्षा, सूक्ष्म और स्थूल जीवों की रक्षार्थ अष्ट मूलगुण सार्थक है। चरित्र शुद्धि सप्तव्यसन त्याग से सम्भव है। आत्मशुद्धि में षडावश्यक सहायक है।
श्रमणाचार — संहिता में श्रमण अर्थात् मुनि के पंच महाव्रत, पंच समितियाँ, पंचेन्द्रिय निग्रह, षडावश्यक एवं स्नान त्यागादि सात गुण कुल २८ मूलगुण निर्दिष्ट हैं।३५ पंचमहाव्रत अहिंसा सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पंच महाव्रत है।
पंच समितियाँ — ईर्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण और व्युत्सर्ग ये पांच समितियाँ है। सूर्यालोक रहने पर चार हाथ आगे भूमि को देखकर गमन ईर्या समिति है। हित, मित, प्रिय वचन भाषा समिति है। श्रद्धा और भक्ति पूर्वक दिये गये आहार को एक बार ग्रहण एषणा समिति है। पिच्छि कमण्डलु को सावधानीपूर्वक रखना और उठाना आदाननिक्षेपण समिति और जीवजन्तु रहित भूमि पर मल मूत्र का त्याग करना व्युत्सर्ग समिति है।
पंचेन्द्रिय निग्रह —इन्द्रियों को लुभावने लगने वाले विषयों से राग न करना तथा अशोभनीय विषयों से द्वेष न करना इन्द्रिय निग्रह है।
षडावश्यक — सामायिक, स्तुति, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग का पालन मुनियों का कर्तव्य है।
सात गुण — स्नानत्याग, अदन्तधावन, भूमिशयन, खड़े होकर भोजन करना, एक बार भोजन करना, नग्न रहना, केशलुंचन ये मुनियों के सप्त गुण है। श्रमणाचार संहिता में स्नानत्याग, अदन्तधावन, भूमिशयन, पादगमन, ईर्या समिति पालन के मूल में क्षुद्र जीवों के प्रति अहिंसा की भावना, पंचेन्द्रिय निग्रह में निर्विकार भाव का, नग्नत्व में अपरिग्रह का सामायिक स्तुति वंदना में आत्मशुद्धि का तथा द्वादशानुप्रेक्षाओं के मनन तथा क्षमादि दस धर्म के अनुशीलन में आत्मोत्थान का चिन्तन समाहित है। इस प्रकार श्रावक एवं श्रमणाचार संहिता आचार, शुद्धि, भाव शुद्धि और अन्तत: पर्यावरण शुद्धि की ओर प्रेरित करती है।
प्रकृति निरीक्षण
पर्यावरण संरक्षण के सैद्धान्तिक पक्ष को व्यक्त करने वाले जैनाचार्यों, मुनियों एवं कवियों ने प्रकृति के सौन्दर्य को भीr निहारा है। समग्र जैन वाङ्मय में प्रकृति के सुकुमार रूपों का चित्रण, वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद आदि ऋतु वर्णन, प्रात: संध्या, रात्रि, ज्योत्सना का चित्रण, संयोग—वियोग, प्रेम—वात्सल्य, राग द्वेष, वैराग्य आदि भावों की प्रतीक एवं मानवीकरण रूप में अभिव्यक्ति, नगर, ग्राम, वन—उपवन, नदी—सरोवर, तीर्थ—पर्वत, वृक्ष—वनस्पति, पशु पक्षी आदि रूपों का वर्णन उनके सूक्ष्म पर्यावरणीय चिंतन का परिचायक है। पर्यावरण संरक्षण जैन जीवन—पद्धति का मूलाधार है, जिसने संपूर्ण ब्रह्माण्ड में जीवत्व को माना और ‘आत्मा यथा स्वस्थ तथा परस्य विश्वैक संवादविधिर्नरस्य’३६ कहकर प्रत्येक जीव की समान भाव और ‘यथा स्वयं वाच्छति तत्परेभ्य: कुर्नज्जन:’ से षट्कायिक जीवों की रक्षा अर्थात् अहिंसा का सन्देश दिया। अत: अज्ञोऽपि विज्ञो नृपतिश्च द्वत: गजोऽप्यजो वा जगति प्रसूत:। अस्यां धरायां भवतोऽधिकारस्तावान् परस्यापि भवेनन्नृसार।। अर्थात् मूर्ख हो या विद्वान, राजा हो या दास, गज हो या अज इस पृथ्वी पर जिसने भी जन्म लिया है, उसका उतना ही अधिकार है, जितना आपका अधिकार है। नित्य स्तुत्य आलोचनापाठ, सामायिक पाठ और शांतिपाठ से भी षट्कायिक जीवों के संरक्षण एवं संतुलन का स्वर उद्घोषित होता है। इस प्रकार जैन वाङ्मय में बाह्य पर्यावरण के साथ अन्त: पर्यावरण का भी सूक्ष्म विश्लेषण है। मानव का आध्यात्मिकचिंतन उसे भौतिक जगत में कर्म हेतु प्रवृत्त करता है। अत: भौतिक पर्यावरण शुद्धि के लिये आध्यात्मिक अर्थात् आत्म शुद्धि आवश्यक है। अंतशुद्धि और बाह्यशुद्धि का अनन्य संबंध है। इसके लिये अहिंसा का व्यवहार और अनेकान्त का विचार परमावश्यक है। जैन सिद्धांत एवं आचार तन शुद्धि, मन शुद्धि, और पर्यावरण शुद्धि का मार्ग प्रशस्त करते हैं जिन्हें वर्तमान पर्यावरणीय समस्याओं के संदर्भ में समझना और आचरण में समाहित करना आज की महती आवश्यकता है।
डॉ. संगीता मेहता’
म. ल. कला एवं वाणिज्य स्वशासी वाणिज्य महाविद्यालय, ग्वालियर में १९-२० फरवरी ९६ को प्रस्तुत आलेख का संशोधित रूप’
स. प्राध्यापक—संस्कृत, शा. कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय, इन्दौर। निवास Eप्/३७, स्कीम नं. ५४, इन्दौर’