चरणों को आदि अथवा अन्त माना जा सकता है। दैहिक भूगोल का, चरण सीमा हैं, हमारे तन की शीश के ऊपर अनन्त खुला आकाश है, किन्तु चरण के लिए है पद्मावत धरा अर्थात् हमारे चरणों पर ही हमारा सम्पूर्ण शरीर टिका है। ये दो छोटे से कदम स्थूल से स्थूलतम शरीर का भार वहन करने में समर्थ है, चरणों के अभाव में शरीर अस्थिर हो जाता है। चरण आधार है हमारे तन के। अपर दृष्टिकोण से विचार तो चरण यथार्थ के प्रतीक है धरा से जुड़कर चलते हैं अर्थात् सत्य के पर्याय है। कल्पना लोक में विचरण नहीं करते, मस्तिष्क कल्पना की कुंलाचे भर सकता है, किन्तु चरण तो, आचरण है, चरित्र के प्रतिबिम्ब है, हमारी गति के प्रत्यक्षदर्शी है चरणों की चाल देखते ही मानव के गुणों का आकंलन भी तो मनोवैज्ञानिक कर लेते हैं, सुव्यवस्थित नपे—तुले पांव देखते ही पता चलता है व्यक्ति तटस्थ, विवेकी, गुणी एवं सहृदय ै, जबकि इधर—उधर रखें तिरछे—आड़े पांव तत्काल इसके विपरीत चारित्रिक उद्घोषणा करते हैं, इसीलिए तो कहा गया है कि
आगम में भी वर्णित है—
(हे जिनदेव! आपके चरण—कमल को देखने से आज मेरे दोनों नेत्र सफल हो गए हैं, हे तीन लोक के चूड़ामणि। मुझे आज यह संसार बहुत थोड़ा प्रतीत होता हैं।) आइए। आचार्य प्रवर उमास्वामीजी के सूत्र बन्दे सद्गुण लब्धये की प्राप्ति हेतु श्री—चरणों की वन्दना कर अपनी आध्यात्मिक विभूतियों के आध्यामिक गुण प्राप्त करें।।