देव मूर्तियों का निर्माण कार्य जैनों ने प्रारम्भ किया। उन्होंने ही सर्वप्रथम तीर्थंकर मूर्तियों का निर्माण करके धार्मिक जगत को एक आदर्श प्रस्तुत किया। उन्हीं के अनुकरण पर शिव मूर्तियों का निर्माण हुआ विष्णु बुद्ध आदि की मूर्तियों के निर्माण का इतिहास पश्चात् कालीन हैं। तीर्थंकरों के लोकोत्तर व्यक्तित्व की छाप जनमानस में गहरी रही हैं। उन्होंने प्राणी मात्र के कल्याण और उपकार के लिये जो कुछ किया, उसको बड़ी श्रद्धा एवं विनयभाव से स्वीकार किया। उनकी भक्तिभाव से पूजा करने के लिए प्रत्येक उनके चरणों का सानिध्य पाने के लिए उत्सुक एवं लालायित रहता था और उनके चरणों में अपने को समर्पित करने को व्याकुल हो उठता था। इसी तीव्र अनुभूति ने पूजा पद्धति को जन्म दिया। तीर्थंकरों के विद्यमान अवस्था में तो यह प्रत्यक्ष सम्भव रहा। परन्तु उनके निर्वाण के पश्चात् व्याकुल मन के भटकाव ने मूर्ति पूजा को जन्म दिया।
मूर्ति पूजा को दो प्रतीक रहें—
१. अदताकार, २. तदाकार।
इन दोनों प्रतीकों में सर्वप्रथम अदताकार प्रतीकोें की मान्यता सर्वप्रचलित हुई। एक बार सम्राट भरत चक्रवर्ती भगवान ऋषभदेव के दर्शन कर कैलाशगिरि से अयोध्या वापिस आए। उस समय उनका मन भक्ति भाव से ओतप्रोत था। भगवान के दर्शन की इस घटना की स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए उन्होंने कैलाश शिखर के आकार के घंटे बनवाये और उन पर भगवान ऋषभदेव की मूर्ति का अंकन कराकर इन घंटों को राजप्रसाद के दरवाजों पर लटकवा दिया। इससे प्रति समय आते जाते भगवान के दर्शन भी होते थे और घटना की स्मृति सदैव ध्यान में रहती परन्तु इससे भी संतुष्टि न होने पर कैलाशगिरि पर ७२ जिनालय बनवायें और उनमें रत्नों की प्रतिमाएं विराजमान कराई। इतिहास में यह तदाकार प्रतीक पूजा का प्रथम प्रयास रहा। त्रेसठ शलाका पुरुषों की गाथाओं में अनेकों मंदिरों के निर्माण के एवं मूर्ति प्रतिष्ठा के बारे में उल्लेख मिलता है।
विशाल मूर्ति निर्माण—
गोम्मटेश्वर द्वार के बांई ओर एक पाषाण पर शक सं. ११०२ का एक लेख कानड़ी भाषा में जो सन् ११८० ई. के लगभग वोप्पण कवि द्वारा रचा गया है। इसके अनुसार ऋषभ के दो पुत्र भरत और बाहुबलि थे। युद्ध भरत को परास्त कर दिया, परन्तु संसार से विरक्त होर उन्होंने जिन दीक्षा ले ली। घोर तपश्चरण के बाद केवल ज्ञान प्राप्त किया। भरत ने पोदनपुर में ५२५ धनुष की बाहुबलि की मूर्ति प्रतिष्ठित की। यह प्रथम सबसे विशाल प्रतिमा का उल्लेख है। कुछ समय व्यतीत होने पर मूर्ति के आस—पास की भूमि कुक्कुट सर्पों से व्याप्त हो गई एवं वहां सघन वन हो गया। वन लताओं से आच्छादित एवं वन वृक्षों से ढक जाने के कारण मूर्ति दुर्गम्य हो गई। चामुंडराय ने मूर्ति के दर्शन की अभिलाषा की ओर जाने की तैयारी की। उनके गुरू ने कहा कि स्थान दूर और अगम्य हैं। इस पर चामुंडराय ने स्वयं वैसी मूर्ति की प्रतिष्ठा करने का विचार कर लिया। सन् ९८१ ई.में मैसूर राज्य ने बाहुबलि की मूर्ति का निर्माण कराया। यह मूर्ति ५७ फुट ऊंचाई की है और इसकी गणना विशाल मूर्तियों में की जाती हैं। इसकी गणना बावनगजा में की जाती हैं। जैन परम्परा में मूर्तियों की विशालता का मापदंड बावनगजा है।
भारतवर्ष में बावनगजा से प्रख्यात तीन मूर्तियों हैं—
१. सन् ९८१ ई. की चामुंडराय द्वारा प्रतिष्ठापित श्रवणबेलगोल बाहुबलि की खड़गासन प्रतिमा,
२.सन् ११६६ से १२२८ से १२८८ के बीच अर्ककीर्ति द्वारा प्रतिष्ठापित सतपुडा की चोटियां से घिरी हुई चूलगिरि (बावनगजा) आदिनाथ की खड़गासन प्रतिमा,
३.गोपागिरी (ग्वालियर) में पन्द्रहवीं शताब्दी की तोमर वंशी राजाओं के काल में प्रतिष्ठित आदिनाथ की खड़गासन प्रतिमा यहां एक बात विशेष उल्लेखनीय है कि उक्त तीनों प्रतिमाएं बावनगजा कहलाती हैं परन्तु इनमें कोई भी प्रतिमा बावनगज की नहीं हैं।
बाहुबलि की प्रतिमा ५७ फुट की, चूलगिरि (बावनगजा) की आदिनाथ की प्रतिमा ८४ फुट की है तथा गोपागिरी (ग्वालियर) की ५७ फुट की है। जैनों में २४ तीर्थंकर की ही प्रतिमा होती है, परन्तु बावनगजा की प्रतिमा इसका अपवाद है। इसका कारण यह है कि बाहुबलि इस अवसर्पिणी काल में ससबे पहले मोक्ष को प्राप्त हुए थे। बाहुबलि की प्रतिमा हर जगह खड़गासन ही पाई जाती हैं, लेकिन तीर्थंकरों की प्रतिमा पद्मासन और खड़गासन दोनों में होती हैं। अपर्सिपणी काल के प्रथम तीर्थंकर होने के कारण भारतवर्ष में सबसे विशाल प्रतिमा आदिनाथ की हैं उक्त तीनों विशाल प्रतिमाएं विन्धगिरि पर्वत श्रेणी में हैं। आदिनाथ की चूलगिरि (बडवानीकी प्रतिमा, मालव देश में और गोपगिरि (ग्वालियर) की आदिनाथ की गातव ऋषि की तपोभूमि ग्वालियर में हैं। एक नर्मदा के किनारे तो दूसरी स्वर्णरेखा नदी के किनारे हैं दोनों ही स्थान सिद्ध क्षेत्र है। चूलगिरि से इन्द्रजीत और कुंभकर्ण मुक्त हुए तथा गोपाचल (ग्वालियर) से सुप्रतिष्ठ केवली मोक्ष गये हैं। इस विवरण का आशय यह है कि तीर्थकर की विशाल प्रतिमाओं की निर्माण परम्परा, प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की प्रतिमाओं से प्रारम्भ हुई।
तीर्थकरों की विशाल प्रतिमाओं में एक पार्श्वनाथ की हैं। बाहुबलि (गोम्टेश्वर) की प्रतिमा के सामने वाले पहाड़ चन्द्रगिरि पर्वत पर सप्तफणी नाग की छाया के नीचे पाश् र्वनाथ की १५ फुट की प्रतिमा है। इस पर्वत पर यही मूर्ति सबसे विशाल हैं। सत्रहवीं शताब्दी के चिदानन्द कवि कृत मुनिवंशाभ्युदय काव्य में कथन है कि गोम्मट पाश्र्वनाथ की मूर्तियों को राम और सीता लंका से लाये थे और उन्हें क्रमश: छोटी और बड़ी पहाड़ी पर विराजमान कर पूजा करते रहे। जाते समय वे इन मूर्तियों को उठाने में असमर्थ हुए, इसी से वे इन्हे वहीं छोड़कर चले गये। किंवदन्तियाँ किसी तथ्य के आधार पर प्रचलित होती हैं, परन्तु कालान्तर में तथ्य भूल जाने से किंवदन्ती मात्र कल्पना रह जाती हैं। इन किंवदन्तियों का आशय प्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना प्रचीन काल से मानी जाने का संकेत हैं। दिगम्बर साहित्य में मंदिर और मूर्ति का निर्माण कर्मभूमि के प्रारंभ काल से हैं। पुरातत्व वेत्ताओं के अनुसार भारत की प्राचीनतम खड़गासन तीर्थकर मूर्ति पटना के एक नालेकी खुदाई से प्राप्त हुई हैं, जो पटना म्यूजियम में सुरक्षित हैं। इसका सिर नहीं है। कुहनी व घुटनों से खंडित है। इसकी चमकीली पालिश से इसे मौर्यकाल से पूर्व की भी (कलिंग जिन नाम की) मूर्ति हैं। मूर्तिकला के विकास की दृष्टि से कालक्रम में प्रतिमाएं मौर्यकालीन, कुषाणकालीन, गुप्तकालीन, मध्यकालीन और उत्तरकालीन भागों में बांटी जा सकती हैं। मध्यप्रदेश में पदमासन मूर्तियों की संख्या, खड़गासन मूर्तियों की अपेक्षा से ज्यादा हैं।
अतिशय क्षेत्रों पर अधिकांशत: खड़गासन प्रतिमाएं हैं। बुन्देलखण्ड में अधिकतर विशाल अवगाहना की प्रतिमायें शान्तिनाथ की हैं जो अतिशय क्षेत्रों में पाई जाती हैं, जिनके बारे में यह कहा जाता है कि यह पाड़ाशाह नामक व्यापारी ने बनवाई हैं। शान्तिनाथ की मूर्ति के साथ अरहनाथ और कुन्थुनाथ की प्रतिमा भी होती हैं। ग्वालियर किले में २० फुट से ४० फुट तक की ऊंची प्रतिमाएं हैं। खन्दार में ३५ फुट की शान्ति नाथ की प्रतिमा है। अन्य क्षेत्रों पर खड़गासन प्रतिमाएं १२ फुट से १८ फुट तक की है। ग्वालियर दुर्ग में पद्मासन प्रतिमाओं में सर्वोत्तम प्रतिमा भगवान पाश्र्वनाथ की है जो ३५ फुट ऊंची है और ३० फुट चौड़ी है। यह संसार की पद्मासन प्रतिमाओं में सबसे विशाल प्रतिमा है। इतनी विशाल मूर्ति अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं होती यह प्रतिमा भी तोमरवंश के राज्यकाल की हैं। इसी प्रकार की समता कोई दूसरी चौबीसी नहीं कर सकती हैं। तीर्थंकर की महान जनकल्याणकारी भावना, जनमानस की भक्ति पूजा—अर्चना ने विशाल प्रतिमाओं को प्रतिष्ठापित करने को प्रोत्साहित किया, वहीं भगवान महावीर के विपुलाचल पर्वत पर समवशरण में मानस्तंभ की ऊंचाई से गौतम का मान गलित होने की घटना ऊंचाई और विशालता की ओर आकर्षित करती हैं, एवं आकर्षित करती है रक्षा की उस भावना की ओर कि विष्णुकुमार मुनि के विराट स्वरूप से ही उन सात सौ मुनियों की रक्षा हो सकी जिन पर बलि राजा ने उपसर्ग किया। ये विशाल प्रतिमाएं इंगित करती हैं उस काल के विशाल आकारीय मानव की ओर, जिनकी काया ५०० धनुष की होती थीं। आत्मा का उध्र्वगमन ही तो होता हे क्योंकि यह उसका स्वभाव है। स्वभाव का उच्चपना, स्वभाव की विशालता जहां विशाल प्रतिमाओं में भाषित होती है वहीं साधनों की सम्पन्नता भी इसका कारण है जो शुभ भावों की देन हैं। ऐसे कारणों ने विशाल प्रतिमा निर्माण की परम्परा को जन्म दिया।