ग्वालियर का प्रसिद्ध सिद्धक्षेत्र गोपाचल महाभारत काल से पूर्व ईसा पूर्व ३४०० वर्ष प्राचीन है। जैनधर्म के बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के समय से यह सिद्ध क्षेत्र अपनी गरिमा के साथ जन—जन की आत्मा के ऊध्र्वारोहण का सन्देश दे रहा है। ‘‘श्री गोपचल पर सुप्रतिष्ठ केवली मोक्ष गये हैं जो निर्वाण भूमि हैं।’’ ‘‘ सुप्रतिष्ठ केवली परिचय ‘‘मुनि सुप्रतिष्ठ गंधमादन पर्वत पर तप कर रहे थे उनके ऊपर सुदर्शन नाम यक्ष ने घोर उपसर्ग किया। मुनिराज ने उसे समतापूर्वक सहन कर लिया और आत्म ध्यान में लीन रहे । फलत: उन्हें केवलज्ञान हो गया। इन्हीं सुप्रतिष्ठ केवली भगवान के चरणों में शोरीपुर नरेश अन्धकवृष्टि और मथुरा नरेश भोजकवृष्टि ने मुनि दीक्षा ली। मथुरा नरेश भोजकवृष्णि और शौरीपुर नरेश दोनों चचेरे भाई थे। भोजकवृष्णि के तीन पुत्र— १. उग्रसेन, २. देवसेन और; ३. महासेन थे। पिता भोजकवृष्णि के बाद मथुरा का राज्य उग्रसेन को मिला। उग्रसेन का पुत्र कंस था, जिसने अपने पिता को कारागार में डाल दिया था और बाद में श्री कृष्ण ने कंस का वधकर अग्रसेन को कारागर से मुक्त किया। अन्धकवृष्णि की महारानी सुभद्रा से दस पुत्र और दो पुत्रियाँ हुई। दसों पुत्रों में समुद्रविजय सबसे ज्येष्ठ थे और वसुदेव सबसे छोटे थे। पुत्रियों के नाम कुन्ती और माद्री थे जिनका विवाह हस्तिनापुर के राजकुमार पाण्डु के साथ हुआ था। जिनसे पाँच पुत्र हुए। समुद्रविजय की महारानी शिवा देवी से नेमिनाथ तीर्थंकर का जन्म हुआ। वसुदेव की महारानी रोहिणी से बलराम और दूसरी महारानी देवकी से श्रीकृष्ण उत्पन्न हुए। दोनों भाई क्रमश: बलभद्र और नारायण थे। नारायण श्रीकृष्ण ने ही उस समय के प्रतापी सम्राट राजगृह नरेश जरासन्ध का वध किया था।’’ भारत की भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए यह स्पष्ट है कि उत्तर भारत से दक्षिण भारतज की ओर प्रयाण करने के मार्ग में गोपाचल उत्तुंग प्रहरी के समान है। उत्तर भारत से दक्षिण भारत की ओर जाने वाले व्यापारी भी गोपाचल मार्ग से जाते थे। भगवान् पार्श्र्वनाथ का बिहार इस गोपाचल पर्वत पर हुआ है। पार्श्र्वनाथ का लोक व्यापी प्रभाव —— ‘पार्श्र्वनाथ ने भारत के अनेक भागों में विहार करके अहिंसा का जो समर्थ प्रचार किया, उससे अनेक आर्य और अनार्य जातियाँ उनके धर्म में दीक्षित हुई। नाग, द्रविण आदि जातियों में उनकी मान्यता असंदिग्ध रही। वेदों और स्मृतियों में इन जातियों का वेद विरोधी व्रात्य के रूप में उल्लेख हुआ है। वस्तुत: व्रात्य श्रमण संस्कृति की जैन धारा के अनुयायी थे। इन व्रात्यों में नाग जाति सर्वाधिक शक्तिशाली थी। तक्षशिला, उध्यानपुरी, अहिक्षेत्र, मथुरा, पद्मावती, कान्तिपुरी, नागपुर आदि इस जाति के प्रसिद्ध केन्द्र थे। पार्श्र्वनाथ नाग जाति के इन केन्द्रो में कई बार पधारे।’’ इससे स्पष्ट है कि भगवान् पाश् र्वनाथ का गोपाचल पर कई बार बिहार हुआ है। वर्तमान खोज के आधार पर यह प्रमाणित हो गया है कि वर्तमान पवाया (डबरा के पास) ही पद्मावती तथा सिहौनिया ( मोरैना—अम्बाह मार्ग पर) ही कान्तिपुरी प्राचीन नगर थे और इन पर नागवंशियों का राज रहा है। इसके अलावा श्रुत केवली भद्रबाहु भी गोपाचल पर पघारे थे।४ भद्रबाहु, पाँचवे श्रुत केवली थे। इनका समाधिकाल वीर निर्माण संवत् १६२ अर्थात् ३६५ ई. पूर्व माना जाता है।गोपाचल आख्यान— ‘‘गोपाचले महादुर्गे, ग्वातिया यत्र तिष्ठते। ऋद्धि सिद्धि प्रदातारौ, ये नमन्ति दिने दिने।।’’ नाना कवि ‘‘सुखद सुभग कलिमल हरण करन सुमंगल आनि। श्री गोपाचल की कथा, सुनत सकल फलदानि।। नाना नृपति चरित्र शुभ, ग्वालियर आख्यान। सुनत सुजस जन सोख्यदा, शत्रु हरति, धनदानि।।’’ ग्वालियर का अतीत ‘‘सकल तीर्थ स्तोत्र में उल्लेख यह शुभ मिल रहा, यह ग्वालियर शुभ तीर्थ है, स्तोत्र भी यूँ कह रहा। इस ग्वालियर का विमल यश, साहित्य श् वेताम्बर कहे, महिमा अपार धरे सदा, कवि लेखनी लिख थक रहे।।’’ इस प्रकार यह गोपाचल परम पुनीत दिगम्बर जैन सिद्ध क्षेत्र है। निर्वाण भूमि होने के कारण यह सिद्ध क्षेत्र तो है ही परन्तु यह अतिशय क्षेत्र भी है।श्री कामताप्रसाद जी लिखते है ८——किन्तु ग्वालियर की विशेषता तो यह है कि इसका अवतरण एक संत के दु:ख मोचन प्रसाद और एक शासक की लोकहितकारिणी दयावृत्ति से हुआ है। कहा जाता है कि कान्तिपुरी (सिहौनिया) के शासक सूरजसेन को कुष्ट रोग था। इस रोग से वह दो वर्ष से पीड़ित था। एक बार वह आखेट हेतु गोपाचल पर आया। वहाँ ग्वातिया नाम साधु के दर्शन हुए। साधु ने गोपाचल पर बने कुण्ड के जल में स्नान करने को कहा। राजा ने कुण्ड में स्नान किया जिससे उसका कुष्ट रोग दूर हो गया। साधु के एक सूरजसेन से गोपाचल पर दुर्ग बनाने को कहा।राजा ने धन के अभाव में असमर्थता व्यक्त की। साधु ने एक बटुआ दिया जिसमें कुछ सिक्के थे। राजा ने जब तक दुर्ग बनवाया तब तक उस बटुआ में से धन समाप्त नहीं हुआ। इस दुर्ग का नाम ग्वालियर दुर्ग पड़ा और वह कुण्ड जिसके जल से कुष्ट रोग दूर हुआ सूरजकुण्ड कहलाया।’’ मुगल बादशाह बाबर गोपाचल की विशाल प्रतिमाओं को देखकर आश्चर्यचकित एवं भयभीत हुआ। उसने सैनिकों को मूर्तियों को तोड़ने का आदेश दिया। वे सैनिकों मूर्तियों नष्ट कर सके केवल अंगविहीन कर सके। परन्तु भगवान् पार्श्र्वनाथ की मूर्ति को न तोड़ सके। यह अतिशय चमत्कारी प्रतिमा का प्रभाव है। यह भारतवर्ष में अद्वितीय पद्मासन प्रतिमा है। इतनी विशाल पद्मासन प्रतिमा भारत में अन्यत्र नहीं है। इस प्रकार अनेक किवदन्तियाँ इस क्षेत्र के अतिशय के बारे में प्रचलित है। जन साधारण की धारणा है कि जो इस क्षेत्र पर किसी भावना से आता है उसकी कामना पूर्ति होती है। परन्तु वास्तविक यह है कि भगवान् पार्श्र्वनाथ की वीतरागी मुद्रा का दर्शन करने से प्राणी अपने सांसारिक मंतव्यों को भूल जाता है एवं भाव विभोर हो जाता है।
तीर्थ क्षेत्र— तीर्थक्षेत्र की एक मान्यता यह है कि जहाँ अनेक जिन मंदिरों तथा जिन प्रतिमाएँ हों, वह स्थान तीर्थक्षेत्र कहलाता है। वि.सं. १४६९ (१४१२ ई.) में कुन्दकुन्द आचार्य के प्रवचन सार की अमृतचन्द्र कृत ‘तत्वदीपिका’’ टीका की एक प्रतिलिपि वीरमेन्द्रदेव के राज्यकाल में ग्वालियर में की गई थी। उसके प्रतिलिपि काल और प्रतिलिपि स्थल के विषय में उसमें निम्नलिखित पंक्तियाँ प्राप्त होती है‘‘ विक्रामदित्य राज्ये स्मिश्चितुर्दयरेशते।। नवषष्ठया युते किनु गोपाद्रौ देवपत्तने।।’’वीरेमेन्द्र ग्वालियर के तोमर राजा (१४०२—१४२३ ई.)थे। टीका के प्रतिलिपि—कार ने उनके गढ़ गोपाद्रि को ‘‘देवपत्तन’’ कहा है। जैन तीर्थ मान्यताओं में भी ग्वालियर का उल्लेख प्रसिद्ध जैन तीर्थ क्षेत्र के रूप में हुआ है। कविवर रइधु ने लिखा है ‘‘जहि संहहि णिरंतर जिण णिणेय। पंडुर सुवण्ण धयवड—समये।।’’जहाँ पांडुर वर्ण वाली अनेक पताकाओं से युक्त जिनमंदिर निरन्तर शोभायमान रहत हैं। रहधू ने तो यहाँ तक लिखा है। ‘‘उसने (राजा डूंगरसिंह ने) अगणित मूर्तियाँ का निर्माण कराया था। उन्हें ब्रह्मा भी गिनने में असमर्थ है।’’११ इन उल्लेखों से ऐसा ज्ञात होता है कि कभी ग्वालियर की गणना प्रसिद्ध जैन तीर्थों में की जाती थी। जैनियों कायह देवपत्तन सिद्ध क्षेत्र था। परन्तु समय के थपेड़ों ने इसे भुला दिया। जैन समाज इस ओर ध्यान देगी, ऐसा विश्वास है।
सन्दर्भ
१. पं. झम्मनलाल तर्वकतीर्थ ‘‘श्री लबेंच् दि.जैन समाज का इतिहास’’ पृष्ठ—१३४ पर उद्धृत आचार्य पट्टावली।
२. हरिवंश पुराण।
३. जैनधर्म का प्राचीन इतिहास—बलभद्र जैन, पृ. ३५९ पर ‘‘भगवान पाश्र्वनाथ का लोक व्यापी प्रभाव’’।
४.श्री कामताप्रसाद जैन अलीगंज (एटा) द्वारा पं. छोटेलाल बरैया की पुस्तक ‘‘ग्वालियर का अतीत’’ की भूमिका।