जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि निश्चित नियमों के अनुसार चल रही है। आधुनिक विज्ञान का मुख्य आधार बिन्दु भी यही है । जैन दर्शन अजर—अमर आत्मा के अस्तित्व को स्वीकारता है। कई आधुनिक वैज्ञानिक भी आत्मा के अस्तित्व को स्वीकारते हैं, किन्तु अभी आत्मा की चर्चा आधुनिक विज्ञान की मुख्य धारा का विषय नहीं बनी है। इन बिन्दुओं पर चिन्तन, विश्लेषण एवं अनुसंधान प्राणीमात्र के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सकता है । इनके अतिरिक्त भी अनुसंधान हेतु कई बिन्दु मौलिक महत्व के सिद्ध हो सकते हैं । उदाहरण के रुप में यहां कुछ बिन्दुओं का उल्लेख किया जाना उपयोगी होगा।
कर्म—वर्गणा की सूक्ष्मता
सोने का एक रासायनिक परमाणु (एटम) इतना सूक्ष्म होता है कि ५००० रू. प्रति दस ग्राम की दर से एक पैसे में इतने सोने के एटम खरीदे जा सकते हैं कि यदि वे एटम विश्व की साढ़े पांच अरब आबादी में समान रूप से वितरित किए जाएं तो प्रत्येक को लगभग एक करोड़ से अधिक सोने के एटम प्राप्त होंगे। सोने के एक एटम की तुलना में हाइड्रोजन का एक एटम लगभग २०० गुना हल्का होता है । हाइड्रोजन के एक एटम की तुलना में सोडियम के पीले प्रकाश का एक कण (फोटॉन) लगभग ४४ करोड़ गुना हल्का होता है । पीले प्रकाश के इस एक कण की तुलना में ६०० मीटर तरंग दैध्र्य की रेडियों तरंगों का एक कण लगभग एक अरब गुना हल्का होता है । कार्माण वर्गणा का भौतिक उपकरणों पर प्रभाव सामान्यतया प्रकट नहीं होता है अत: कार्माण वर्गणा के कण रेडियों तरंगों के कणों से भी अत्यन्त हल्के होने चाहिए। तत्वार्थसूत्र २.३६ एवं २.३७ के अनुसार कार्माण वर्गणाएं अत्यन्त सूक्ष्म हैं। किन्तु क्या इनकी सूक्ष्मता को आंकड़ों में वर्णित किया जा सकता है ? यह एक [[अनुसन्धान]] का अच्छा विषय बन सकता है कि इनकी सूक्ष्मता का वर्णन सभी ग्रन्थों से एकत्रित करके समुचित विश्लेषण किया जाए।
क्वाण्टम प्रकृति
जैन दर्शन के अनुसार समय (ऊग्स) एवं क्षेत्र (एजाम) के खण्ड एक सीमा से आगे संभव नहीं हैं। सूक्ष्मतम समय की इकाई को एक समय कहा जाता है व सूक्ष्मतम क्षेत्र को (लोकाकाश) एक प्रदेश कहा जाता है। एक समय से कम समय यानी आधा समय या चौथाई समय आदि जैन करुणानुयोग के अनुसार संभव नहीं है। इसी प्रकार एक प्रदेश का आधा, चौथाई भाग भी संभव नहीं है। यह सामान्य विवेक बुद्धि को विचित्र लगता है। किन्तु आधुनिक विज्ञान के अनुसार विचित्र नहीं है। अनुसंधान का विषय यह हो सकता है कि क्या किसी भी रूप में आंकड़ों के द्वारा एक समय का नाप या एक प्रदेश का आयतन एवं आकार वर्णित किया जा सकता है ? यह भी विचारणीय बात है कि किस तरह ये तथ्य आधुनिक क्वाण्टम सिद्धान्त से मेल खाते हैं व किस तरह भिन्नता रखते हैं। समय से संबन्धित प्रस्तुत किया गया कार्य अत्युपयोगी हो सकता है। इस संबन्ध में अभी तक भी कई पूर्व विद्वानों ने कार्य किया है उनका लाभ भी लिया जा सकता है।
तर्क एवं विश्वास
प्रवचनसार की टीका में गाथा २३५ की टीका करते हुये आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि—
आगमेन तावत्सर्वाण्यपि द्रव्याणि प्रमीयन्ते,
विस्पष्टतर्कणस्य सर्वद्रव्याणम-विरुद्धत्वात् ।।
इस पंक्ति का अर्थ यह है कि, ‘ आगम द्वारा सभी द्रव्य प्रमेय (ज्ञेय) होते हैं, क्योंकि सर्वद्रव्य विस्पष्ट तर्कणा से अविरूद्ध हैं।’ दार्शनिक धरातल पर तर्क को इतना अधिक महत्व यह दर्शाता है कि जिसे हम विश्वास कहते हैं वह भी किसी अपेक्षा तर्क की सीमा में आ सकता है । इसके विपरीत भौतिक विज्ञान में, विशेष रूप से क्वाण्टम सिद्धान्त एवं सापेक्षता सिद्धान्त में, कई प्रसंग ऐसे आते हैं जहां ऐसा लगता है कि सामान्य विवेक बुद्धि से उत्पन्न तर्क असफल हो रहे हैं। यानी भौतिक विज्ञान भी तर्क की सीमा का अतिक्रमण करता हुआ प्रतीत होता है । इस प्रकार इतनी गहराई पर यह एक अनुसन्धान का विषय बनता है कि तर्क एवं विश्वास के बीच क्या कोई वास्तविक रेखा है या अज्ञानता के कारण यह रेखा नजर आती है ? किस अपेक्षा से आचार्य अमृतचन्द्र जैसे तार्विक जैनाचार्य यह लिखते हैं कि सभी द्रव्य तर्कद्वारा अविरूद्ध हैं ? इस विषय पर अधिक चिन्तन एवं विस्तृत अनुसंधान इस रूप में महत्वपूर्ण हो सकता है कि गहराई से देखने पर अध्यात्म भी विज्ञान के समतुल्य ही तर्वकसंगत है।
अन्य महत्वपूर्ण बिन्दु
आज का युवक यह जानना चाहता है कि क्या आत्मा का अस्तित्व है ? क्या स्वर्ग—नारक होते हैं ?
क्या अच्छे — बुरे कार्यों का फल मिलता है ? क्या अनेकान्तवाद आधुनिक विज्ञान द्वारा सम्मत है? मेडिटेशन (ध्यान) से संबन्धित अल्फा एवं थीटा तरंगों का विवरण, इससे स्वास्थ्य लाभ एवं आध्यात्मिक लाभ आदि का पूर्वाचार्यों ने कैसा विवरण दिया है व आज की वैज्ञानिक स्थिति क्या है ? ऐसे कई प्रश्नों के सर्वसम्मत अंतिम उत्तर चाहे हमें न मिले किन्तु इन विषयों पर पूर्वाग्रह से मुक्त होकर जन कल्याण की भावना में किया गया प्रत्येक अनुसन्धान अन्ततोगत्वा आत्मोपयोगी सिद्ध हो सकेगा। उक्त वर्णित विषयों में से कुछ विषयों पर लेखक के अन्यत्र प्रकाशित लेखों३ द्वारा भी कुछ अधिक विस्तृत विवरण देखा जा सकता है।
२. आचार्य कुन्दकुन्दद्वारा रचित ग्रंथ ‘प्रवचनसार’ की गाथा २३५ में यह बताया है कि समस्त पदार्थ विचित्र गुणपर्यायों सहित आगमसिद्ध हैं । उन्हें भी वे सन्त आगम द्वारा वास्तव में देखकर जानते हैं।
३. पारसमल अग्रवाल,
(क) इसी अंक में प्रकाशित लेख, The Existence of Soul, अर्हंत् वचन, ९ (१), अप्रैल ९७
(ख) ‘कारण— कार्य सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में कर्म सिद्धान्त एवं भौतिक विज्ञान का क्वाण्टम सिद्धान्त,’ अर्हत् वचन, ८ (१), पृ. ९— १५, जनवरी १९९६:
(ग) ‘अनेकान्तवाद एवं आधुनिक विज्ञान,’ अर्हंत् वचन, ५ (४), पृ. २२९—२४५, अक्टूबर १९९३ :
(घ) ‘स्वर्ग एवं नरक का अस्तित्व,’ तीर्थंकर वाणी, नवम्बर १९९५
पारसमल अग्रवाल आचार्य
— भौतिकी अध्ययनशाला विक्रम वि.वि., उज्जैन (म.प्र.)