नाद संगीत शास्त्र का प्राण पुरुष है । यद्यपि नाद को नितांत संगीत जागतिक ही नहीं माना जाना सकता । क्योंकि यह सम्पूर्ण भुवन ही नादधिष्ठित है । पुद्गल का गुण होने से यह सर्वत्र व्याप्त होता है
पूरण गलन आदि गुणों के कारण पुद्गल को अनेक भेद वाला कहा गया है। वड्ढमाणचरिउ १०/३९/२०, विवुध श्रीधर, सम्पादक—डॉ. राजाराम जैन, प्रकाशक—जैन संस्कृति संरक्षक संघ जीवराज जैन ग्रंथमाला, पुष्प ४५ तथापि संगीत में नानाद की सविशेष उपयोगिता को स्वीकार किया गया है। यह ‘नाद’ शब्द संस्कृत—व्याकरण के ‘नद्’ धातु से निष्पन्न होता है । इसका मूल अर्थ ‘‘अव्यक्त शब्द’’ है। अव्यक्त और व्यक्त, ध्वनि के दो स्वरूप हैं। वैसे उभय योग से मिश्रित ध्वनि को ‘व्यक्ताव्यक्त’ कहकर ध्वनि के एक तृतीय भेद को और स्वीकार किया जा सकता है। अव्यक्त नाद वह माना गया है जिसमें मानवकण्ठ से उच्चार्यमाण स्वरों और व्यंजनों की अभिव्यक्ति नहीं है, जो ध्वनि मात्र है। संगीत विद्याविशारदों का कथन है कि नाद की उत्पत्ति ब्रह्मग्रन्थि से होती है । जैन साहित्य में नाद कला का आकार आधे चन्द्रमा के समान है, जैन आगम में निर्वाणधाम अर्धचन्द्राकार है यहां इसे सिद्धशिला का संबोधन मिला है। अर्धचन्द्र के बीच का बिन्दु मुक्तात्मा है। ओम् चित्त है, नि:शब्द की यात्रा में शब्द छूट जाता है इससे अंतराय टूटते हैं चेतना का ज्ञान होता है । ऋषिमंडल स्तोत्र में इनका उल्लेख है। मनुष्य शरीर में नामिस्थान को नामिसरोवर, ब्रह्मग्रंथि, नाभिद्वंद आदि अनेक नामों से अभिहित किया गया है। इस नाभिसरोवर में दिव्य कमल उत्पन्न होता है जो चतुर्मुखी ज्ञान का कारक है, अष्टदल कमल आठ कर्मों का नष्ट करने वाला है। चतुर्मुखी ज्ञान से चार घातिया कर्मों का नाश होता है । यह श्रुत शब्दावच्छिन्न है, अतएव उत्पन्नध्वंसी है, पुद्गल धर्मा है परन्तु इस भावश्रुत का अर्थ विषयावच्छिन्न है, अनादनिधन नित्य है। भगवान ऋषभदेव नानादनु हैं, नाद के प्रवक्ता हैं, नाद के सृष्टा हैं। संगीतपनिषत्सारोद्वार में वर्णन है कि नाभि के कर्मचक्र के कमल पर अग्निप्राण की स्थिति है उससे वायु की उत्पत्ति होती है उस अग्निवायु के संयोग से सिद्धध्वनि उत्पन्न होती है जो सिंहनाद से भी श्रेष्ठ होती है।
शब्द का अर्थ यह नहीं है जो हम होठों से बोलते हैं । एक शब्द तो वह होता है जिसका उच्चारण मनुष्य करता है और एक शब्द वह है जिससे मनुष्य स्वयं उच्चरित हुआ है । शब्द से ही विद्युत बनी और विद्युत से ही मनुष्य के चरण पड़े, ध्वनि में ऊर्जा समायी है । कबीर ने इसी अनहद की महिमा गाई है। अनहद में सब समाया है। यह है। मैंने ऐसे मुनिजन संत देखे हैं जो बर्फीले मौसम में भी शरीर से पसीना निकालने में समर्थ हैं इसके लिए वे उच्च ध्वनिउच्चार का प्रयोग करते हैं। ‘‘ॐ मणि पद्मेहुम’’ ‘‘ॐ आदि नाथुम’’ मंत्र का जोर से उच्चारण करते हैंं। वे बड़े तीव्र वेग के साथ सिंहनाद स्वर में उच्चारण करते हैं। निश्चित तौर पर ऐसा करने से शरीर में गर्मी पैदा होगी।एक ध्वनि का लगातार उच्चारण किए जाओ तो ताप अवश्य ही उत्पन्न होगा। तानसेन का दीपक राग जगत विख्यात है। दीपक को प्रज्वलित करने का राग था यह ध्वनि की एक सिद्धहस्त पराकाष्ठा है। ग्वालियर की ध्रुपद गाय की सिद्धहस्त प्रस्तुतकर्ता मोइउद्धीन डागर बन्धु के प्रस्तुतीकरण में अनहद का नोम तोम स्पष्ट आल्हादित होता है। ध्रुपद आध्यात्म संगीत से साक्षात्कार कराने की गायन पद्धति है। संत हरिदास,बैजू, तानसेन, सदारंग, मानसेनसिंह तोमर की प्रस्तुतियाँ आज भी याद की जाती हैं। मास्को में पिछले वर्ष मनोचिकित्सकों का एक सम्मेलन हुआ जिसमें ध्वनि की छानबीन की गई। निष्कर्ष निकाले गए कि संगीत की कुछ ऐसी लयबद्धताऐं होती है जिनसे यदि मनुष्य के शरीर की लयबद्धता से समानता हो जाये तो ऐसी जुगलबंदी शारीरिक, मानसिक व्याधि निरोधक होती है। जापान का योषिहिकोहिरो चर्चित रहा है जब वह अपने मुंह से आवाज निकालता है तब तीव्र गति से चलती रेल की आवाज भी उसके सामने मंद पड़ जाती है । लोगों का दावा है कि उसकी आवाज रेलगाड़ी की आवाज से १५ गुनी जोर से होती है। ध्वनि में ऊर्जा की विशेष संभावना है। पराशब्द का श्रवण एक श्रवण भीतर ही भीतर नि:शब्द यात्रा में सुनता है यह अनाहत नाद है जो हमारी चेतना के अन्त: स्थल में केन्द्रित है ।हमारे परम श्रद्धेय मुनिगण के द्वारा ऊँ का उच्चारण और लम्बी तरंगमय लयबद्धता का आरोह जब उध्र्वगामी होता जाता है तो उत्स देता है। सारे के सारे अवयव स्पंदित होते हैं। ऊँ श्रमण परंपरा में अरिहंत वाचक है और अर्हत् मनीषा का मूल प्रतीक है।
मुनिगण श्वास की धारा के साथ—साथ ऊँ को भी जोड़ लेते हैं और उनकी श्वांस ही ओंकार बन जाती है इतनी तल्लीनता व्याख्यातीत , अर्थातीत और कालातीत हो जाती है। जिन भव्यों ने ऐसे अभिव्यक्तिपूर्ण आरोह अवरोह के स्पन्दन में ऊँ के ओंकार स्वरूप का आनंद साक्षात पाया है वे रोमांचित हुए बिना नहीं रह सके , यह एक ऋषि पुरुष का अतिशय है। विज्ञान कहता है कि पहला तल ‘बोलने’ का है। दूसरा तल ‘सोचने’ का है और तीसरा तल ‘दर्शन’ का है। चौथा तल भी होता है जिसे ध्यान का विज्ञान ‘परा’ कहता है और जब कोई व्यक्ति देखने और सुनने से भी नीचे उतर जाता है। तब उसे चौथे तल का पता चलता है और चौथे तल के पार जो जगत है वह ध्यान का जगत है ध्यान का आभामंडल तेजोवलय सप्तभंगी रूप मेें मुखरित होकर समस्त क्षेत्र विशेष में अपनी तरंगे प्रसारित कर देता है और हर प्राणी मंत्रमुग्ध हो जाता है। दिव्य शांति की निरझरिणी सभी में निनादत होने लगती है। ऐसे साधुजन धन्य है। ध्वनि एवं नाद का मनुष्यों पर ही नहीं अपितु अन्य जीव जन्तुओं, यहां तक कि वनस्पतियों पर भी व्यापक प्रभाव पड़ता है। मंगलवाद्य का नाद हर्षवृद्धि करता है तो शोक ध्वनि वाले वाद्य बजने पर मन अवसाद से भर जाता है। प्राय: समस्त संसारी जीव—मनुष्यों से वनस्पतियों तक इसका अनुभवकर हर्ष या विषाद का वेदन करते हैं । हर्षदायक नाद के द्वारा मन प्रसन्न होने से उनकी अभिवृद्धि अच्छी गति से होती है। तो खेदोत्पादक नाद से उनका विकास रुक जाता है या अत्यंत धीमी गति से होता है । इसीलिए धार्मिक, सामाजिक या पारिवारिक मंगल प्रसंगों पर शहनाई, तूर्य नादस्वरम् आदि शुभवाद्य बजाए जाते हैं, ताकि समागतों का प्रसन्नता से मन भरा रहे और कोई विघ्न बाधा उपस्थित न हो, कोई विसंवाद न उठे तथा मरण आदि प्रसंगों पर शोकधुन बजाई जाती है ताकि सुनने वाले आमोद—प्रमोद के प्रसंग छोड़कर अपने प्रियजन पुरजन के अवसान को जानकर उसके परिजनों के दुख में सहभागित्व प्रगट कर सके यह भारतीय परंपरा की एक अतिप्राचीन काल से प्रचलित वैज्ञानिक विधि है। सुधा कलश कृत संगीत निषत् सारोद्धार में नाद के प्रभाव के बारे में मनीषियों ने लिखा
है द्राक्षा—पानक—मोदकादि — रस व त्यास्वादवन्हया अपि स्वर्गस्था: क्षपयान्ति कालमसिलं यस्मिन्निलीना: सुखम:।
दत्ते यत्परमं पदं जिनपतिर्देवो मदाराधित: सत्पिण्डप्रभव: स कोदपि विजयी नाद विशुद्ध सताम्।।
संगीतषनिषत् सारोद्धार, सुधाकलश २/२, गायकवाड़ ओरियण्टल सीरीज—बड़ौदा, सम्पादक—डॉ. यू.जी.शाह, १९६२ — विशुद्ध नाद का आश्चर्यजनक प्रभाव है। स्वर्ग के देवों को यद्यपि दाक्षारस, मोदक आदि मधुर रस सम्पन्न स्वादिष्ट पदार्थ उपलब्ध नहीं होते हैं तथापि वे इस नाद संगीत के मधुर आस्वादन से परितृप्त होकर अपने समय को सुखपूर्वक व्यतीत करते हैं । यह नाद परमपद देने वाला है और इससे परमदेव जिनेश्वर की आराधना की जाती है। विशुद्ध नाद का ऐसा उत्तम प्रभाव शुद्धसत्व वाले सज्जनों के पवित्र शरीर में उत्पन्न होता है इस उत्तम नाद की विजय हो। आज भी जब हम जिनमंदिर में प्रवेश करते हैं तो घण्टा की ध्वनि करते हैं जो पर्यावरण को शुद्ध कर पाप परिणामों को दूरकर भक्तिभाव को बढ़ाने वाली होती है इसी प्रकार शंखध्वनि का भी दक्षिण जैन संस्कृति में अतिविशिष्ट महत्व स्वीकार किया गया है। शंख शब्द का परिचय देते हुए शब्द कल्पदु्रमकार कहते हैं ‘‘शाम्यति अशुभयस्मादिति शंख।’’ शब्दकल्पद्रुम, भाग ५, पृष्ठ (सूरत संस्करण) इनकी व्युत्पत्ति देते हुए वे लिखते हैं ‘‘शमे:रव’’ अर्थात् शम शब्द से ‘क’ प्रत्यय होकर ‘शंख’ शब्द निष्पन्न होता है। यह सर्वविदित है कि ‘शम’ शब्द लोक में सुखशांति के लिए प्रसिद्ध है—तदनुसार जिसकी ध्वनि ‘ख’ अर्थात् आकाश में शम्—निर्मलता उत्पन्न करे वह शंख है। बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ का परिचय चिन्ह भी शंख है। आधुनिक वैज्ञानिक शोधों में भी शंख ध्वनि के द्वारा रोगोपचार की बात स्वीकार की जाती है। सन् १९२८ में जर्मनी के बर्लिन विश्वविद्यालय में शंखध्वनि पर डॉ. हर्मन जैकोवी का एक लेख प्रकाशित हुआ था जिसमें अनेक तथ्यपरक, बिना औषधियों के उपद्रव—प्रदूषण रोग ठीक करने के तरीके दिये गये थे। प्रति सैकण्ड २७ घन फुट शक्ति द्वारा शंख निनान से २२०० फुट तक क्षेत्र के ऐसे प्रदूषण को नष्ट किया जा सकता है तथा २५०० फुट तक ऐसे प्रदूषण को निस्तेज किया जा सकता है। शंखध्वनि से मलेरिया रोग भी नष्ट हो जाता है तथा मिर्गी, मूच्र्छा, घेंघा रोगों का भी निवारण इससे संभव है। नाद को उत्साह एवं पौरुष को स्फूर्त करने वाला कहा गया है यह ऊर्जा का अनवरत स्रोत है । अनाहत नाद पराविज्ञान है इस विषय में व्यापक अनुसंधान की महती अपेक्षा है। आधुनिक विज्ञान शरीर की लयबद्धता / ताजबद्धता के सूत्र खोज रहा है। शरीर के चुम्बकीय क्षेत्र को (सम) पर लाने का काम नाद का है। कबीर के शब्दों में ‘सुनता है गुरु ज्ञानी गगन से आवाज आ रही है’।