प्रस्तुत आलेख में प्रदूषण रहित पर्यावरण, प्रदूषित पर्यावरण एवं पर्यावरण को प्रदूषण रहित बनाने में जैन धर्म के योगदान पर प्रकाश डाला गया है। आलेख प्राकृति, विकृति एवं संस्कृति इन तीन चरणों में निबद्ध है। प्रकृति— प्रकृति से तात्पर्य पर्यावरण की उस सन्तुलित एवं प्रदूषण रहित अवस्था से है, जो प्राणी की रक्षा, विकास और सुख में साधक होती है । प्रस्तुत आलेख में इसे समझाने का प्रयास किया गया है। विकृति— इस चरण में प्रदूषित पर्यावरण के घातक परिणामों को समझाने का प्रयास किया है। संस्कृति— संस्कृति से तात्पर्य प्राकृत एवं शुभ भावों से युक्त मनोभावों की शुद्धि से है। कोई सा भी प्रदूषण भावों की अशुद्धि से उत्पन्न होता है, क्योंकि मन में भावों के प्रदूषण से ही बाह्य जगत का प्रदूषण आकार ग्रहण करता है। इस चरण में पर्यावरण को प्रदूषण रहित बनाने में जैन धर्म के योगदान पर प्रकाश डाला गया है। पर्यावरण शब्द अपने आप में इतना विस्तृत है कि इसकी पूर्ण व्याख्या अपने आप में एक ग्रंथ लिखने जैसी है। प्रस्तुत आलेख में सिर्पक वायु प्रदूषण और जैन धर्म पर कुछ प्रकाश डाला गया है।
प्रकृति—प्रकृति से तात्पर्य पर्यावरण की उस सन्तुलित एवं शुद्ध अवस्था से है जो प्राणी की रक्षा, विकास और सुख में साधक है । वैज्ञानिक सर्वेक्षणों के अनुसार प्रकृति ने सूर्य के हानिकारक पराबैंगनी वकरणों से , जीव जन्तुओं की रक्षा के लिये पृथ्वी की सतह से लगभग १५ किलोमीटर ऊपर से प्रारंभ कर ६०किलोमीटर की ऊँचाई तक समतापमण्डल में ओजोन परत के रूप में एक सुरक्षा कवच बनाये है ओजोन की सघनतम परत पृथ्वी से लगभग २३ किलोमीटर ऊपर है। यह ओजोन परत पृथ्वी की जलवायु व मौसम प्रणाली को नियंत्रित करने के साथ—साथ सुरक्षा कवच का भी महत्वपूर्ण कार्य करती है। ओजोन परत सूर्य के प्रकाश में उपस्थित अत्यधिक घातक पराबैंगनी विकरणों को शोषित कर पृथ्वी तक नहीं आने देती। ओजोन परत के ठीक नीचे (पृथ्वी से १५ किलोमीटर की ऊँचाई तक) कार्बनडायआक्साइड गैस की चादर है। सूर्य प्रकाश में उपस्थित पराबैंगनी विकरणों को तो ओजोन शोषित कर लेता है परन्तु अवरक्त लाल विकरण (उष्मा किरणों)दृश्य प्रकाश के साथ हमारी पृथ्वी तक पहुँच कर पृथ्वी सतह को गर्म करती है, तथा पृथ्वी सतह गर्म होकर स्वयं अवरक्त लाल विकरणों को उत्सर्जित करती है। इन उत्सर्जित विकरणों का अवशोषण वायुमण्डल में उपस्थित कार्बनडायआक्साइड की चादर एवं जल वाष्प द्वारा कर लिया जाता है, तथा शोषित विकरणों का कुछ भाग पुन: पृथ्वी के लिए परर्वितत कर दिया जाता है। इस प्रकार कार्बनडाय ऑक्साइड की चादन पृथ्वी एवं उसके वायुमंडल के ताप में वृद्धि कर पृथ्वी एवं उसके वायुमंडल को गर्म रखने का महान कार्य करती है अन्यथा हमारी पृथ्वी इस प्रक्रिया के अभाव में ठन्डी होकर एक ठन्डा गृह बन कर रह जाती जिस पर जीवन निर्वाह अत्यधिक कठिन एवं कष्टप्रद हो जाता । पृथ्वी में कार्बनडायआक्साइड अनेक प्रक्रियाओं द्वारा उत्पन्न होती है, जैसे जीवाश्म ईधन का दहन, जीवधारियों के श्वसन आदि से तथा यह वायुमंडल से मिलती रहती है एवं इसका कुछ भाग पेड, पौधों के प्रकाश संश्लेषण द्वारा भोजन निर्माण में तथा कुछ भाग समुद्री पानी में घुलकर नष्ट होता रहता है , जिससे शुद्ध पर्यावरण के समय वायुमंडल में इसका अनुपात लगभग एक सा बना रहता है , जिससे हमारी पृथ्वी एवं इसके वायुमंडल के तापक्रम में अधिक परिवर्तन नहीं होता है। इस प्रकार प्रकृति में वायुकायिक जीवों की महत्ता प्राणक्ता एवं कार्यप्रणाली आश्चर्य चकित कर देने वाली है।
विकृति— विकृति अर्थात पर्यावरण के असंतुलन का इतिहास, जो हिंसात्मक कलाओं का इतिहास है। जैन तत्ववेत्ताओं ने इसीलिये अहिंसा को इतना वैज्ञानिक और सूक्ष्म बनाया है कि उसमें पाँचों प्रकार के स्थावर जीवों तक की सुरक्षा का व्यापक प्रबन्धक किया गया है। एक जीव की भी हत्या कालान्तर में भयंकर हिंसक प्रतिक्रिया के रूप में सम्मुख आती है, जिसके साक्ष्य में कुछ उदाहरण का वर्णन नीचे दिया गया है ।
१. ओजोन परत अपक्षय— ओजोन परत के विनाश के लिये मुख्य रूप से उत्तरदायी क्लोरोफ्लोरो कार्बन यौगिक अर्थात सी.एफ.सी. यौगिक है। इस परिवार के कई सदस्य हैं जैसे सी.एफ.सी.—११,१२,११३,११४,११५ इनका उपयोग मुख्य रूप से वातानुकूलित संयत्रों, प्रशीतकों, छिड़कावयंत्रों में प्रणोदक दवाईयों, जीवाणु रोधक, इलेक्ट्रानिक उद्योग, ऊष्मारोधी बोर्ड बनाने में तथा फोम के निर्माण में किया जाता है । मानव निर्मित इन राशायनिक प्रदूषकों ने ओजोन के सुरक्षा कवच में छेद करके समस्त जीवों के जीवन को खतरे में डाल दिया है क्योंकि ओजोन परत में छिद्र होने से इनके द्वारा सूर्य के प्रकाश के साथ पराबैंगनी विकरण भी पृथ्वी तक पहुँचते हैं, जिनके घातक प्रभाव से त्वचा का केन्सर एवं आखों की बीमारी का भयानक रोग फैलता है। पृथ्वी के निचले वातावरण अर्थात क्षोभमण्डल में सी.एफ.सी. बिना विघटित हुऐ लगभग सौ वर्षों तक उपस्थित रह सकते हैं, तथा धीरे—धीरे यह समतापमण्डल तक पहुँच जाते हैं तथा सूर्य के प्रकाश में उपस्थित पराबैंगनी विकरणों के सम्पर्क से प्रकाशीय विघटन द्वारा इनमें से क्लोरीन परमाणु पृथक हो जाते हैं । यह क्लोरीन परमाणु ओजोन (परत में उपस्थित) अणुओं से संयुक्त होकर क्लोरीन मोनोक्साइड निर्मित करते हैं , जो अस्थाई होने के कारण विघटित हो जाते हैं तथा विघटन के फलस्वरूप आक्सीजन तथा क्लोरीन देते हैं, मुक्त हुई क्लोरीन पुन: ओजोन अणुओं से क्रिया कर क्लोरीन मोनोक्साइड बनाते हैं । इस प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती रहती है तथा क्लोरीन का एक परमाणु ओजोन के एक लाख अणुओं को नष्ट कर देता है। c.F.C. Ulltraviolet Chlorine O3+CL2 CL2+O2 2ClO CL2+O2 O3+Cl2 Cl2O+O2 इस प्रकार वायुकायिक जीवों का घातकर हम पर्यावरण को तो असंतुलित करते ही हैं, साथ में अनन्त वायुकायिक जीवों की हिंसा कर किसी देश पर अणुबम गिराने जैसे घृणित तथा निकृष्ट कार्य भी करते हैं। जैन धर्म के मूलभूत सिद्धान्त ‘‘ अहिंसा परमोधर्म’’ तथा ‘‘जियो और जीने दो’’ को हृदयंगम कर हम इन अनन्त जीवों के घात के घोरतम पाप से बच सकते हैं एवं पर्यावरण को भी शुद्ध रख सकते हैं।
२. कार्बन मोनोक्साइड— यह विषैली गैस फैक्टरियों में निकलने वाली गैसों में (लगभग ३०ज्ञ्), बीड़ी सिगरेट के धुयें में, कार्बनिक पदार्थों जैसे पेट्रोल, डीजल तथा केरोसिन के अपूर्ण दहन से उत्पन्न होती हैं। मानव क्रिया कलापों में लगभग २५ करोड़ मीट्रिक टन कार्बन मोनोक्साइड प्रतिवर्ष वायुमण्डल में मिलती है । इस विषैली गैस का घातक प्रभाव बतलाने के पूर्व लाल रक्त कणिकाओं में उपस्थित हीमोग्लोबिन की संरचना पर ध्यान देना आवश्यक है। हीमोग्लोबिन आयरन घ्घ् का अष्टफलकीय आकृति वाला जटिल योगिक है। अष्टफलक के मध्य में आयरन घ्घ् उपस्थित रहता है तथा समवर्ग के चारों कोनों पर हीम (पस) समूह के नाइट्रोजन परमाणु तथा अष्टफलक के पाँचवें स्थान पर हिस्टीडीन का नाइट्रोजन जुड़ा हुआ रहता है, अष्टफलक का छठवाँ स्थान रिक्त होता है। जीव जन्तु स्वसन की क्रिया में जो आक्सीजन ग्रहण करते हैं वह अष्टफलक के रिक्त स्थान पर जुड़ जाती है तथा रक्त के साथ शरीर के विभिन्न अवयवों तक पहुँचती है। यह आक्सीजन शरीर के तन्तुओं एवं कोशिका सेलों के लिये अत्यधिक आवश्यक होने के कारण इनके द्वारा ग्रहण कर ली जाती है। इस प्रकार आक्सीजन से मुक्त हीमोग्लोबिन रक्त के साथ पुन: फैफड़ों में पहुँच जाता है। तथा आक्सीजन ग्रहण कर शरीर के विभिन्न अवयवों की ओर चला जाता हैं यह चक्र अन्तिम श्वांस तक अविरामगति से चलता रहता है। जब वायुमंडलीय वायु में कार्बन मोनोक्साइड की मात्रा में वृद्धि हो जाती है तब श्वसन में ग्रहण की हुई वायु के साथ यह भी फैफड़ों में पहुँच जाता है तथा आक्सीजन के स्थान पर कार्बन मोनोक्साइड हीमोग्लोबिन के साथ जुडकर शरीर के विभिन्न अंगों तक चला जाता है जिसके प्रभाव में मनुष्यों को सिरदर्द, आँखों के सामने तिलमिले आना तथा मिचली आने की शिकायत के साथ घुटन महसूस होती है तथा अन्त में मृत्यु हो जाती है।
३. कार्बनडायआक्साइड— यह गैस मुख्य रूप से जीवाश्म र्इंधन के दहन, फैक्ट्रियों द्वारा उत्सर्जित गैसों, प्राणियों के श्वसन द्वारा प्राप्त होती है । वायुमंडलीय कार्बनडायआक्साइड की मात्रा यदि बढ़ाकर दोगुनी कर दी जाये तब हमारी पृथ्वी के पृष्ठ ताप में लगभग ३०० सेन्टीग्रेड की वृद्धि हो जावेगी। वैज्ञानिक सर्वेक्षणों के आधार पर सन् २०५० तक हमारे वायु मंडल में कार्बनडायआक्साइड की सान्द्रता बढ़कर दो गुनी हो जावेगी। वैज्ञानिकों का मत है कि पृथ्वी के पृष्ठ ताप में १० सेन्टीग्रेड की वृद्धि हो जावे तब भोजन (खाद्यपदार्थों) के उत्पादन में अत्यधिक कमी आ जाती है।
४. सल्फरडायआक्साइड एवं नाइट्रोजनडायआक्साइड गैसें— यह दोनों गैसें मुख्यत:कोल, तेल, प्राकृतिक गैसों तथा गैसोलीन के दहन से उत्पन्न होती हैं तथा वायुमण्डलीय वायु में मिलती रहती है। वर्षा काल में जल में घुलकर तेजाब के रूप में पृथ्वी पर आकर जल तथा मिट्टी को अल्मीय बना देती हैं। इस प्रकार मानव क्रिया कलापों की निरंकुशता के कारण इनकी सान्द्रता वायुमण्डलीय वायु में निरन्तर बढ रही है। यदि वायुमण्डलीय वायु में इनकी निरन्तर बढ़ रही मात्रा पर विराम नहीं लगाया गया तब वह दिन दूर नहीं जब पृथ्वी का जल इतना अधिक दूषित हो जायेगा कि मानव उपयोग के लायक भी नहीं रहेगा। अम्लीय वर्षा एवं इन घातक गैसों के प्रभाव से ताजमहल जैसे ऐतिहासिक भवन क्षरण होने के कारण धराशायी हो जावेगें।
संस्कृति—संस्कृति से तात्पर्य प्राकृत एवं शुभ भावों से युक्त मन या भाव शुद्धि से है । कोई सा भी प्रदूषण भावों की अशुद्धि का परिणाम होता है क्योंकि मन में भावों के प्रदूषण से ही बाह्य जगत का प्रदूषण आकार ग्रहण करता है। जैन तत्ववेत्ताओं की दृष्टि से वायु दो प्रकार की होती है सचित्त वायु तथा अचित्त वायु/ सचित्त वायु का (वायुकायिक जीवों का) स्वरूप मूलाचार में इस प्रकार कहा गया है।
अर्थात् घूमती हुई वायु, उत्कलि रूप वायु, मंडलाकार वायु, गुंजा वायु,महावायु, धनोदधि वातावलय की वायु और तनु वातवलय की वायु, वायुकायिक जीव जानो और जानकर उनका परिहार (रक्षा) करो। गोम्मटसार जीवकाण्ड के अनुसार इन वायुकायिक जीवों का आकार
मसुरंबुबिंदुसूई कला वधसण्णि हो हवे देहो। पुढ़वीयादि चउण्हं तरूवसकाया अणेयविका।।
अर्थात् वायुकायिक जीव के शरीर का संस्थान (आकार) ध्वजा (पताका) के समान एवं आयतन चतुरस्र होता है । आगे लोक को परिवेष्ठित करने वाली वायु का स्वरूप बतलाते हुए कहा है कि
अर्थात् गोमूत्र के सदृश (पीला नीला पन लिये हुए) धनोदधि, मूंग से सदृश वर्णवाला धनवात् तथा अनेक वर्णवाला तनुवात इस प्रकार के तीनों वातवलय वृक्ष की त्वचा के सदृश (लोक को घेरे हुए) हैं। इनमें से प्रथम धनोदधि वातवलय लोक का आधार भूत है इसके उपरान्त घनवात वलय तथा फिर तनु वातावलय और अन्त में निजाधार आकाश है। हमारे वायुमंडलीय वायु में आयतन के आधार पर ८०ज्ञ् नाइट्रोजन तथा २०ज्ञ् आक्सीजन है। ओजोन का रंग गोमूत्र समान (पीला, नीला पन लिये हुए) तथा संस्थान ध्वजाकार होता है। तात्पर्य यह है कि अभी भले ही यंत्रों द्वारा वायु में वायुकायिक जीवों की उपस्थिति की सिद्धि न हो पाई हो , परन्तु उपरोक्त गाथाओं में वायुकायिक जीवों के आकार तथा रंगों आदि के बारे में की गई जैनाचार्यों की सूक्ष्म विवेचना जिससे विज्ञान भी पूर्ण रूप से सहमत है, के आधार पर कहा जा सकता है कि वह दिन दूर नहीं जब वायुकायिक जीव वैज्ञानिक खोजों में भी अन्तर्भूत कर लिये जायेंगे। स्थावर जीव हों या अन्य जीव, सभी परस्पर प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से एक दूसरे के जीवन यापन में सहायक है, अत: जीव हिंसा तो दूर , जीव हिंसा का भाव तक मन में नहीं आना चाहिए। आचार्य उमास्वामी ने ग्रन्थराज तत्त्वार्थसूत्र के पांचवें अध्याय के सूत्र नं. २१ में कहा है कि परस्परोपग्रहो जीवावनाम् । आर्थात जीव परस्पर एक दूसरे का उपकार करते हैं। जयवन्त हों वे महान आचार्य जिन्होंने एक ही सूत्र के माध्यम से समस्त जीवों के कल्याण एवं शुद्ध पर्यावरण की बात कह दी।९ जीव परस्पर उपकार करते हैं कुछ उदाहरण १. जीवों द्वारा श्वसन के फलस्वरूप उत्सर्जित कार्बनडायआक्साइड वनस्पतिकाय जीवों को प्रकाश संश्लेषण द्वारा भोजन निर्माण में सहायक है। २. वनस्पतिकाय जीवों द्वारा उत्सर्जित आक्सीजन अन्य जीवों के श्वशन में सहायक है। ३. वायुकायिक जीव ओजोन सूर्य प्रकाश में उपस्थित घातक पराबैंगनी विकरणों को शोषित की पृथ्वीवासी जीवों पर महान उपकार करता है। आचार्य शुभचन्द्राचार्य को पर्यावरण प्रदूषित होगा इसका भली—भाँति ज्ञान था अत: उन्होंने जीव दया का उपदेश देते हुए ज्ञानावर्ण में कहा है कि
अर्थात हे भव्य ! तू जीवों के विषय में अभय को दे , उनका संरक्षण कर तथा उनके साथ निर्दोष मित्रता का व्यवहार कर। त्रस और स्थावर रूप समस्त जीवलोक को तुझे अपने समान ही देखना चाहिए। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार के व्यवहार से तुझे स्वयं कष्ट होता है उस प्रकार के व्यवहार को तुझे दूसरे प्राणियों के प्रति भी नहीं करना चाहिए।
अर्थात जिस प्रकार परमाणु से दूसरा कोई छोटा नहीं है, तथा आकाश से दूसरा कोई बड़ा नहीं है उसी प्रकार जीव हिंसा से निकृष्ट दूसरा कोई पाप नहीं है, तथा अहिंसा से उत्कृष्ट कोई धर्म नहीं है। इस प्रकार जैनाचार्यों ने अहिंसा परमोधर्म: के माध्यम से जीव दया का उपदेश तो दिया ही है साथ ही परोक्ष रूप से पर्यावरण की विशुद्धि पर्यावरण की विशुद्धि का मार्ग भी प्रशस्त किया है क्योंकि जीव दया के माध्यम से ही है क्योंकि यदि वायुकायिक जीवों (ओजोनपरत) की रक्षा नहीं की गई तथा इनका घात इसी प्रकार होता रहा तब वह दिन दूर नहीं जब सूर्य के पराबैंगनी विकरणों के दूषित प्रभाव से पृथ्वी पर रहने वाले तथा इसके वायुमंडल में रह रहे जीव तो प्रभावित होगें ही परन्तु सर्वाधिक प्रभावित होने वाले जीवों में मानव जाति ही होगी। मानवता के सम्मुख उपस्थित दूषित पर्यावरण की समस्या का स्वत: अन्त हो जावेगा यदि हम निम्नांकित सूत्रों को हृदयंगम करें।
अर्थात अपनी इच्छा के अनुसार परिग्रह परिणाम करना। परिणाम किये हुए परिग्रह से अधिक परिग्रह में किसी प्रकार की बांछा नहीं रखना, ऐसा संकल्प लेना आवश्यक है कारण परिग्रह परिणाम व्रत के पालन से अधिक परिग्रह जोड़ने की बांछा पर विराम लगेगा क्योंकि अधिक परिग्रह के लालच में ही मानव तरह तरह के उद्योग स्थापित करता है । तथा यही उद्योग (फैक्टरीज) पर्यावरण को सर्वाधिक दूषित करते हैं।
अर्थात् दशों दिशाओं की सीमा निश्चित कर ऐसा संकल्प करें कि मैं इससे बाहर नहीं जाऊँगा। दिग्महाव्रत के पालन से वाहनों की आवश्यकता में कमी आवेगी जिससे पेट्रोल एवं डीजल द्वारा फैलने वाले प्रदूषण पर रोक लगेगी।
झितिसलिलदहनपवनारम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदं। सरणं सारणमपि च प्रमादचर्या प्रभावन्ते।।
अर्थात् व्यर्थ ही पृथ्वी को खोदना, पानी को बिखेरना, अग्नि को जलाना वायु को रोकना, फल—पूâल पत्ती आदि को तोड़ना, स्वयं निष्प्रयोजन घूमना और दूसरों को निष्प्रयोजन घुमाना। यह प्रमादचर्या है जो न करने योग्य है अत: नहीं करना चाहिए। प्रमादचर्यावृत के पालन से वनों की अंधाधुन्ध कटाई रूकेगी क्योंकि वनों के अभाव में पर्यावरण सर्वाधिक असंतुलित होता है। इस प्रकार यदि हम उपर्युक्त सूत्रों का अनुसरण कर आचरण करेगें तो निश्चित रूप से वह प्रात:काल की घड़ी अवश्य आयेगी जब हम पर्यावरण के प्रति संवेदनशील हो उठेगें। चहुँ ओर बढ़ती हुई प्रदूषण की समस्या विराम लेगी एवं जैन धर्म के सिद्धान्तों की अनुगूंज विश्व में प्रसारित होगी और हमारा यह कहना कि जैन धर्म एक वैज्ञानिक धर्म है प्रत्येक के मुख पर स्थिर होगा। उसी पुनीत मंगल प्रभात की प्रतीक्षा में।