-गीता जैन, स्योहारा
भगवान महावीर का जीव पूर्व में सोलहवें स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में उत्तम इन्द्र था। वहाँ पर उसकी आयु बाईस सागर की थी, जब उसकी आयु छह महीने की रह गई और वह स्वर्ग से अवतार लेने के सन्मुख हुआ तब सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर द्वारा कुण्डलपुर नगर में राजा सिद्धार्थ के घर प्रतिदिन साढ़े सात करोड़ मणियों की भारी वर्षा होने लगी। आषाढ़ शुक्ला षष्ठी के दिन माता त्रिशला प्रसन्नचित्त होकर सतखने राजभवन के भीतर रत्नों के दीपकों से प्रकाशित होने वाले नंद्यावर्त के राजभवन में हंस के समान सफेद चादर से सुशोभित ऐसे रत्नों के बने हुए पलंग पर सो रही थी। तीन पहर बीत जाने के बाद रात्रि में मनोहर नाम का चौथा प्रहर आया तब रानी त्रिशला ने विशेष फल देने वाले सोलह स्वप्न देखे बाद में अपने मुख में एक बैल प्रवेश करते हुए देखा। सुबह उठने के बाद महारानी ने सभी स्वप्न राजा सिद्धार्थ को बताये और उनसे अपने स्वप्नों का फल पूछा। स्वप्न सुनकर महाराज ने बताया कि इसका फल अति उत्तम है, तुम्हारे गर्भ में एक महान तीर्थंकर आत्मा अवतरित हुई है जो जन्म लेकर आत्म-कल्याण करते हुए विश्व एवं प्राणीमात्र का महान कल्याण करेगी। सब इन्द्रदेव अपनी-अपनी विभूति के साथ नंद्यावर्त भवन में आये और सबने गर्भकल्याणक का उत्सव मनाया और ५६ कुमारिका देवियों को माता की सेवा के लिए नियुक्त कर दिया। देखते ही देखते नौ माह पूर्ण हो गये। शुभ चैत्र मास की शुक्ला त्रयोदशी के दिन महादेवी त्रिशला ने अलौकिक पुत्र (महावीर) को जन्म दिया। १भगवान को जन्म देकर त्रिशला ने मनुष्य और तिर्यंच सबके हृदय में गाढ़ प्रेम प्रकट कर दिया था इसलिए महारानी त्रिशला का यथार्थ नाम प्रियकारिणी भी पड़ गया। देवों के स्थान में बिना बजाये वाद्यध्वनि होने लगी। सौधर्म इन्द्र का आसन कम्पायमान हो गया। अवधिज्ञान के बल से तीर्थंकर महापुरुष के जन्म को जानकर इन्द्र ऐरावत हाथी पर चढ़कर अपने वैभव के साथ आकर कुण्डलपुर नगर की प्रदक्षिणा करके जिनबालक को लेकर सुमेरु पर्वत पर गये और वहाँ क्षीरसागर के जल से भरे हुए १००८ कलशों द्वारा पांडुक शिला पर जिन भगवान का अभिषेकोत्सव मनाया पुन: उत्तमोत्तम आभूषणों से विभूषित करके इन्द्र ने ‘‘वीर’’ और ‘‘वर्धमान’’ ऐसे दो नाम रखे और वापस लाकर माता-पिता को देकर स्वस्थान चले गये। कवि वृन्दावनलालजी ने महावीर पूजा में जन्मकल्याणक में कहा है।
‘‘जनम चैत्र सित तेरस के दिन, कुण्डलपुर कन वरना।
सुर गिरि सुरगुरु पूज रचायो, मैं पूजो भवहरना।।’’
अर्थात् चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन कुण्डलपुर में जन्म लिया तब इन्द्रों ने सुमेरु पर्वत पर जाकर अभिषेक, पूजन किया। मैं भी भवों के अंत करने के लिए आपकी पूजन करता हूँ। भगवान महावीर चन्द्रकला की भाँति बढ़ने लगे। उनकी बालसुलभ चपलता से माता-पिता को बड़ा ही आनन्द आता था। उनका शरीर का वर्ण तपाये हुए सोने के वर्ण जैसा था, धर्म की प्रतिमूर्ति सदृश जगत के धर्मगुरु थे। जब उनकी अवस्था कुछ अधिक बढ़ी तो उनके मुख से सरस्वती की भाँति वाणी निकलने लगी। उनके खेलने के लिए देव स्वयं हाथी, घोड़ा आदि का कृत्रिम रूप बना लिया करते थे। वे उनके साथ क्रीड़ा किया करते थे। उनके जीवन की अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं की चर्चाएँ हमें पुराणों से मिलती हैं। एक दिन की घटना है जब वह आठ वर्ष के थे। इन्द्र की सभा में देवों में परस्पर यह कथा चल रही थी कि इस समय सबसे शूरवीर श्री वद्र्धमान स्वामी हैं उसे सुनकर संगम नाम का देव उनकी परीक्षा के लिए आया। उस समय राजकुमार भगवान वीरनाथ अनेक राजकुमारों के साथ उद्यानवन में वृक्ष पर चढ़ने-उतरने का खेल खेल रहे थे। वहाँ पर आये उस देव ने उन्हें डराने की इच्छा से महानाग का रूप धारण किया और वह वृक्ष की जड़ से लेकर स्वंध तक बराबर लिपट गया। उसे देखकर सब बालक डर से घबड़ाकर अपने-अपने अनुसार वृक्ष से पृथ्वी पर कूदकर भाग गये परन्तु महावीर बिना डरे उस सर्प के मस्तक पर क्रीड़ा करने लगे। भगवान के समागम से संगम देव का हर्षरूपी महासागर उमड़ आया और उसने भगवान की स्तुति की तथा वीर से महावीर नाम रखा। देखते ही देखते इस प्रकार भगवान के कुमार काल के तीस वर्ष व्यतीत हो गये। मतिज्ञान के विशेष क्षयोपशम से उन्हें आत्मज्ञान प्रगट हुआ और पहले भव का जातिस्मरण हुआ। अपने पूर्व घटित घटनाओं पर विचार कर वे बड़े ही क्षुब्ध हुए। उन्हें तत्काल ही वैराग्य उत्पन्न हो गया।
‘‘हन्ता शत्रु स्व-कर्म के, वीर रसलीन।जगद् वंद्य पद कंज में, नमें भक्तिवश दीन।।’’ (महावीर पुराण)
उसी समय लौकांतिक देवों ने आकर समयानुसार उनकी स्तुति की और देवों ने आकर उनके दीक्षाकल्याणक का उत्सव मनाया। देवताओं द्वारा लाई गई पालकी ‘चन्द्रप्रभा’ में बैठकर ज्ञातृवनखण्ड को चले गये। पंचमुष्ठी केशलोंच करके मुनि दीक्षा ले ली और तपश्चर्या में लीन हो गये। दो दिन की तपश्चर्या के पश्चात् उन्होंने प्रथम आहार कूल ग्राम में राजा कूल से लिया। किसी एक दिन तपश्चरण की इच्छा से विहार करते हुए उज्जैन नगर के अतिमुक्तक नाम के श्मशान में प्रतिमायोग धारण किया। उन्हें देखकर रुद्र ने अपनी विद्या से उनके धैर्य की परीक्षा करने का विचार किया और अपनी विद्या से अंधेरा कर दिया फिर अनेक बेताल आकर मुँह फाड़कर अत्यंत भयानक रूप धारण कर अनेक तरह के लयों से नाचने लगे और कठोर शब्द, अट्टहास तथा विकराल दृष्टि से देखकर डराने लगे। उस रुद्र ने अपनी विद्या के प्रभाव से अनेक भयानक उपसर्ग किये परन्तु भगवान के चित्त को समाधि से च्युत करने में समर्थ नहीं हुआ। उस समय उसने भगवान का नाम महतिमहावीर रखा। भगवान महावीर में जितनी निर्भीकता और दृढ़ता थी, उनके हृदय में संसार के समस्त जीवों के प्रति उतनी ही वात्सल्यता भी भरी हुई थी। यही कारण है कि उनके शरीर के रुधिर का रंग श्वेत था, जो कि तीर्थंकर के जन्म के १० अतिशयों में से एक है। लोक व्यवहार में भी जब माता का हृदय अपने बच्चे के प्रति प्रेम वात्सल्य में भरा होता है तो उसके स्तन से दूध निकलता है। जब थोड़े से वात्सल्य में माता के स्तन से सफेद दूध निकलने लगता है तब तीन लोक के जीवों से वात्सल्य रखने वाले के समस्त शरीर में दूध ही दूध हो जाये तो कोई आश्चर्य नहीं। सोलहकारण पूजा में आता है-
‘‘वत्सल अंग सदा जो ध्यावै, सो तीर्थंकर पदवी पावैं।’’
भगवान महावीर ने बारह वर्ष तक तपश्चरण किया। वैशाख सुदी दशमी के दिन ऋजुकूला नदी के तट पर उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई, वे सर्वज्ञ बने। त्रैलोक्याधिपति एवं जगद्गुरु श्री महावीर ने शनै: शनै: विहार करते हुए अनेक देशों और नगरों में रहने वाले भक्त एवं श्रद्धालु भव्य जीवों को धर्मोपदेश के द्वारा ज्ञान प्रदान किया तथा मोक्षमार्ग में बाधक अज्ञानान्धकार को अपनी वचनरूपी किरणों से परास्त कर उसे आलोकमय कर दिया। इस प्रकार तीस वर्ष पर्यन्त विहार करते हुए अनेक सुन्दर फल-पुष्पों से सुशोभित पावापुरी के उपवन में वे पहुँचे। वहीं पर कार्तिक कृष्णा अमावस्या तिथि को स्वाति नक्षत्र एवं प्रात:काल के समय में भगवान को मोक्ष प्राप्त हुआ।
‘सिद्धारथ नृप नंद द्वंद दुख दोष मिटावन।
दुरित दवानल ज्वलित ज्वाल जग जीव उधारन।।
कुण्डलपुर करि जन्म जगत जिय आनंद कारन।
वर्ष बहत्तर आयु पाय सब ही दुख टारन।।’’
(सामायिक पाठ के पंचम वंदना कर्म से उद्धृत)