भगवान महावीर का निर्वाण ५२६ ईसा पूर्व में हुआ। उनको मोक्ष गए अब २५३० वर्ष हो रहे हैं। जैन दर्शन में यह काल भगवान महावीर का शासन काल माना जाता है। महावीर का यह शासन काल आगत चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर के केवलज्ञान प्राप्त होने तक चलता रहेगा। संसार के इस भेद-विज्ञान को जिन्होंने जाना और समझा तथा समझकर उसे अपने जीवन में उतार कर परिभाषित किया, जन-जन को उसे जानने समझने की प्रेरणा दी वह तीर्थंकर कहलाए। वह स्वयं इस भवसागर को पार कर गए तथा उनके बताए मार्ग पर चलकर अनन्त जीव सिद्धपद को प्राप्त हुए और होते रहेंगे। यहाँ विचारणीय है कि कोई दर्शन, चिंतन सभी अक्षुण्ण रह पाता है जब उसको निष्ठापूर्वक और समर्पण भाव से पालन करने वाले जन होते हैं। भगवान महावीर वर्तमान चौबीसी के अंतिम तीर्थंकर थे। उनके निर्वाण के बाद उनके दर्शन, सिद्धान्तों को अब तक जिन्होंने अक्षुण्ण रखा वह उनके श्रमण शिष्य उनकी आचार्य परम्परा कहलाई। इन २५३० वर्षों में भगवान महावीर की आचार्य परम्परा में अनेकानेक प्रभावशाली और इतिहास प्रसिद्ध आचार्य व श्रमण जन हुए हैं, उन सबका वृत्तांन्त यहाँ लिखना संभव नहीं है। इस आलेख में ईसा पूर्व से बीसवीं सदी से प्रारंभ तक हुए उन प्रमुख आचार्यों का संक्षिप्त वर्णन करने का प्रयास किया गया है जिन्होंने अपने अपूर्व ज्ञान से महावीर के परिशोधित चिन्तन को सहेज कर जिनवाणी का शाश्वत रूप प्रदान किया तथा अनेक विपरीतताओं के बाद भी महावीर के दर्शन को जीवंत बनाए रखा।
श्री यति वृषभाचार्य ने भगवान महावीर के निर्वाण के बाद केवली, श्रुत, केवली, ११ अंगधारक, दश अंग के एक देशधारक तथा आचारांग धारक आचार्यों का कथन तिलोयपण्णत्ति खण्ड दो में गाथा १४८८ से १५०४ तक विस्तार से किया है। भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्त करते ही गणधर गौतम स्वामी को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई गौतम स्वामी के मोक्ष जाते ही सुधर्मा स्वामी को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। सुधर्मा स्वामी के निर्वाण प्राप्त होने पर जम्बू स्वामी को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। जम्बू स्वामी इस भरत क्षेत्र के अंतिम केवली थे। उनके बाद कोई प्रत्यक्ष ज्ञानधारक केवली भरत क्षेत्र में नहीं हुआ। भगवान महावीर के बाद इन तीनों केवलियों का समय ६२ साल रहा। जम्बू स्वामी के मोक्षगमन के बाद इस भरत क्षेत्र से केवलियों का अभाव हो गया। इसके बाद भी श्रुतकेवलियों के रहते जिनवाणी का ग्यारहअंग और चौदहपूर्व का ज्ञान यहाँ अक्षुण बना रहा।
पांच श्रुतकेवली में क्रमश: विष्णुनन्दि, नन्दि मित्र, अपराजित, गोवर्धनाचार्य, व अन्तिम भद्रबाहुस्वामी हुए। इन सभी का काल तिलोयपण्णत्ति में १०० वर्ष का बताया गया है। अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामी के समय में कई ऐतिहासिक घटनाएं घटीं। उत्तर भारत की दुर्भिक्ष की आगत घटना को अपने निमित्त ज्ञान से जानकर उन्होंने समस्त श्रमण संघ को दक्षिण की ओर बिहार करने की सूचना भेजी। उनका आदेश प्राप्त कर अधिकांश श्रमण जन इनके ही साथ विहार कर दक्षिण भारत चले गये। फिर भी कितने ही श्रमण उत्तर में ही रह गए। वह दुर्भिक्ष के चलते अपनी चर्या निर्दोषरूप से पालन नहीं कर सके। उत्तर में रहे श्रमणजन न तो अपनी दीक्षा छेदन कर श्रावक (गृहस्थ) ही बने और न भगवान महावीर के परिपालित मार्ग पर दृढ़ रह सके। यहीं से भगवान महावीर की परम्परा दो भागों में विभाजित हो गई जिन्हें आगे दिगम्बर (मूल परम्परा) व श्वेताम्बर पंथी कहा जाने लगा। दूसरी घटना सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य का दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर अपने दीक्षा गुरु के साथ ही दक्षिण जाने की है। चन्द्रगुप्त मौर्य ऐसे अंतिम सम्राट् थे जिन्होंने जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण की, उनके बाद फिर किसी शासक, नरेश या राजा ने दीक्षा नहीं ली। अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी ने श्रवणबेलगोल में अपने शिष्य विशाखाचार्य को संघभार सौंप कर उन्हें संघ सहित बिहार की आज्ञा दी और स्वयं नवदीक्षित शिष्य चन्द्रगुप्त (मुनि प्रभासचन्द्र) को अपने पास रोककर वहीं समाधिपूर्वक मरण संकल्प किया। भद्रबाहु स्वामी के स्वर्गस्थ होने के साथ ही श्रुतकेवलियों का भी यहाँ अभाव हो गया।
श्रुतकेवलियों के अभाव के बाद परोक्ष श्रुत का भी अभाव हो गया। सम्पूर्ण द्वादशांग के ज्ञाताओं के अभाव में तब ग्यारह अंग दश पूर्व के ज्ञाता आचार्य ही रह गए। इन आचार्यों में प्रमुख हैं विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयसेन, सिद्धार्थ, घृतिसेन, विजय, बुद्धिल, गंगदेव व सुधर्म। समय चक्र आगे बढ़ रहा था और श्रुतधारा धीरे-धीरे क्षीण हो रही थी। इसी क्रम में भद्रबाहु स्वामी के समकालीन आचार्य दोलामस व कल्याण मुनि के बारे में इतिहास में प्रचुरता से वर्णन हैं। सिकन्दर के भारत पर आक्रमण के समय पंचनंद क्षेत्र (पंजाब) में तब अनेक दिगम्बर मुनिराज थे। सिकन्दर ने जब उनके विषय में सुना तो उसकी इच्छा उनसे मिलने के लिए हुई, उसने अपने अमात्य (मंत्री) ओनेसीव्रेâट्स को उन्हें सम्मान सहित लाने भेजा। उसने आचार्य दोलमस के पास आकर सम्राट् का संदेश उन्हें बताया और कहा कि उसका सम्राट् प्रसन्न होने पर उन्हें प्रचुर सेना और रत्न भेंट करेगा अत: वह सम्राट् से चलकर भेंट करें। आचार्य ने कहा कि इस सबकी उन्हें कोई आवश्यकता नहीं है और वह किसी प्रकार की इच्छा नहीं रखते, उन्हें किसी सम्राट् या रंक से क्या लेना। अपने अमात्य से यह सब जानने पर सम्राट् सिकन्दर स्वयं उनके पास पहुँचा। सम्राट् उन श्रमणजनों से अत्यन्त प्रभावित हुआ और उनसे यूनान चलने के लिए कहा। इतिहासकार मानते हैं कि कल्याण नामक मुनि सिकन्दर के साथ यूनान गये वहाँ सिकन्दर की मृत्यु यूनान पहुँचने से पूर्व वैवीलोन में हो गई। सम्राट् की इच्छानुसार यूनानी कल्याणभूमि को आदर सहित यूनान ले गये। वहाँ उन्होंने कुछ वर्षों तक धर्म प्रचार किया तथा अन्त में समाधिमरण किया। उनको राजकीय सम्मान के साथ चितापर रख कर जलाया गया। कहते हैं कि उनके पाषाण चरण एथेंस में किसी प्रसिद्ध स्थान पर बने हैं।
श्रुतज्ञान के एक देश धारक आचार्यों में क्रमश: नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, धु्रवसेन, वंश का उल्लेख भी यतिवृषभाचार्य ने अपने ग्रंथ तिलोयपण्णत्ति में किया है। इनके बाद आचारांग अंगधारक, समुद्र, यशोधर, यशोबाहु, लोहार्य का उल्लेख है। इन सबकी कालसीमा गणधर गौतम स्वामी से आचार्य लोहार्य तक उन्होंने ६८३ वर्ष बताई है किन्तु कितने ही विद्वान् इस समय सीमा से एकमत नहीं हैं। उनका मानना है कि यह सभी आचार्य ईसा पूर्व के ही होने चाहिए। कारण अगर ६८३ वर्ष का समय स्वीकार किया जाये तो वह ईसा की दूसरी सादी तक होता है। इसके बाद के आचार्य धरसेन कुन्दकुन्द आदि का समय प्राप्त शिलालेखों आदि से पहली सदी का ठहरता है। इसी से यह समय सीमा पूर्व की मानी गई है इसका अनुमानित समय ईसा पूर्व की पहली सदी का उत्तरार्ध बताया जाता है। इस प्रकार भगवान महावीर की यह ईसा पूर्व की आचार्य परम्परा ग्रंथों में प्राप्त होती है।
आचार्य अर्हद्बली-इनका दूसरा नाम गुप्तिगुप्त भी था यह पुण्ड्रवर्धनपुर के निवासी थे और अष्टाँग महानिमित्त के ज्ञाता संघ के निग्रह-अनुग्रह करने में समर्थ आचार्य थे। इनके संघ में उस समय बड़े विद्वान् और तपस्वी श्रमण थे। आचार्य अर्हद्बली पाँच वर्षों के अंत में सौ योजन में प्रवास करने वाले श्रमणजनों को युग प्रतिक्रमण के लिए बुलाते थे। एक बार इन श्रमणों के आने पर उन्होंने पूछा कि क्या श्रमणजन आ गए तो आने वाले श्रमणों ने कहा कि हम अपने-अपने संघ के साथ आ गए। इस उत्तर से आचार्य महाराज ने अनुमान लगाया कि यह सब अपनी-अपनी पहचान पृथक् रूप से स्थापित करना चाहते हैं। तब उन्होंने जो श्रमण जिस प्रदेश से आये थे उन्हें उसी अनुरूप किसी को नन्दी, वीर, अपराजित, देव, सेन, भद्र, गुणधर, गुप्त, सिंह, चन्द्र आदि नामों से संघ स्थापित किए। आचार्य अर्हद्बली को मुनिसंघ प्रवर्तक कहा जाता है। आचार्य धरसेन जो उस समय गिरनार की कन्दराओं में निवास करते थे, उनके द्वारा आचार्य अर्हद्बली के दो योग्य कुलीन और विद्वान् युवा श्रमण अपने पास बुलाने का संदेश भेजा गया था। इस संदेश के मिलने पर उन्होंने पुष्पदन्त और भूतबली नामक अपने दो योग्यतम शिष्यों को गिरनार भेजा।
मुनि पुंंगव आचार्य धरसेन सौराष्ट्र के गिरनार पर्वत की चन्द्रगुहा नामक गुफा में निवास करते थे। यह अष्टांग महानिमित्त के पारगामी विद्वान् थे। जब इन्होंने जाना कि उनका काल समय भी अधिक नहीं है और जो ज्ञान उन्हें परम्परा से प्राप्त है वह आगे चलकर विलुप्त होता जाएगा। यह विचार कर उन्होंने अपना ज्ञान योग्य शिष्य को देकर उनके द्वारा लिपिबद्ध कराने का सुविचार किया। उन्होंने एक ब्रह्मचारी के द्वारा दक्षिण में प्रवास कर रहे आचार्य अर्हद्बली के दो योग्य श्रमणों को अपने पास बुलाने के लिए संदेश भेजा। उनकी इच्छा को समझकर आचार्यश्री ने दो योग्य श्रमण पुष्पदंत और भूतबली उनके पास भेज दिए। दोनों ने आकर उनके चरणों में विनयपूर्वक नमन कर अपने आने की सूचना दी। आचार्य धरसेन ने उन दोनों को भलीभाँति परख कर यह समझ लिया कि यह दोनों युवा श्रमण उनकी कसौटी पर पूर्णरूपेण खरे उतरे हैं। तब उन्होंने उन्हें अपने समस्त ज्ञान की शिक्षा दी और उस प्राप्तज्ञान को लिपिबद्ध करने की आज्ञा दी, जिससे यह जिनवाणी आगे सदा-सदा के लिए जीवन्त रहे। जिनवाणी का यह लेखन आचार्य धरसेन के ज्ञान और उनकी इच्छा निर्देशन से हुआ, इसलिए उन्हें श्रुत-शास्त्र का प्रणेता कहा जाता है।
देश, कुल, जाति से विशुद्ध, शब्द-अर्थ के ग्रहण, धारण करने में समर्थ यह दोनों ही श्रमण श्रेष्ठ आचार्य अर्हद्बली के शिष्य थे। दक्षिण भारत के आंध्रप्रदेश के बेणातट नगर में युग प्रतिक्रमण के समय गिरनार से आचार्य धरसेन का संदेश प्राप्त होने पर यह अपने गुरु की आज्ञा से गिरनार आचार्य धरसेन के पास आए। आचार्यश्री ने इनकी योग्यता से पूर्ण संतुष्ट होकर इन्हें शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र, शुभ वार में कर्म प्रकृति प्राभृत पढ़ाना आरंभ किया। इसके बाद दोनों श्रमणजनों ने गुरु आज्ञा से अंकलेश्वर (गुजरात) में वर्षायोग किया। वर्षायोग में इन दोनों ही आचार्यों ने रागद्वेष-मोह से रहित हो जिनवाणी का प्रचार-प्रसार किया और षट्खण्डागम की रचना की।
छ: भागों में विभाजित यह ग्रंथ (१) जीवस्थान (२) खुद्दाबन्ध (३) बंध स्वामित्व (४) वेदना (५) कर्मणा के अतिरिक्त आचार्य भूतबलि ने महाबंध नाम के छठवें खण्ड में प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध, प्रदेश बंधरूप चार प्रकार के बंध का विस्तार से वर्णन किया है। इस ग्रंथ के पूर्ण होने पर ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को इसकी भक्तिपूर्वक पूजा अर्चना की गई। उसी समय से श्रुत पंचमी पर्व प्रचलित हुआ। इस ग्रंथ की महत्ता इसलिए भी है कि इसका सीधा संबंध द्वादशांग वाणी से है।
भारतीय जैन श्रमण परम्परा में मुनि कुन्दकुन्दाचार्य का नाम भगवान महावीर तथा गौतम गणधर के बाद श्रद्धापूर्वक लिया जाता है। उन्होंने आध्यात्मिक योगशक्ति का विकास कर अध्यात्म विद्या की अविछिन्न धारा को जन्म दिया, जिसकी निष्ठा एवं अनुभूति आत्मानन्द की जनक थी। आत्म विकास की इस खोज ने जो अध्यात्म की आधारशिला है और इसी के कारण भारतीय श्रमण परम्परा का यश लोक में विश्रुत हुआ। आचार्य कुन्दकुन्द को भगवान महावीर की आचार्य परम्परा एक विशिष्ट स्थान उनकी चिन्तन धारा से प्राप्त है। विशुद्ध रत्नत्रय के पालक, क्षमागुण से युक्त, कठोर साधक सभी प्रकार की कल्मष भावनाओं से रहित, श्रमणकुलकमलदिवाकर आचार्य कुन्दकुन्द को मंगलाचरण में भगवान महावीर तथा गौतम गणधर के बाद मंगलं कुन्दकुन्दाद्यों के साथ उनके नाम को मंगलकत्र्ता माना जाता है। आचार्यश्री के लिए आगम ग्रंथों, शिलालेखों आदि में इतना अधिक लिखा गया है जिसमें उनकी महानता का सहज अनुमान हो जाता है। चारण ऋद्धि के धारक आचार्य कुन्दकुन्द के विदेह गमन के बारे में कितने ही आचार्यों ने लिखा है यहाँ हम संक्षेप में उनकी रचनाओं की चर्चा कर रहे हैं।
इस ग्रंथ में जीव, अजीव (पुद्गल) धर्म, अधर्म और आकाशरूप पांच अस्तिकाय द्रव्यों के कथन का यह प्रामाणिक ग्रंथ है। इस ग्रंथ की संस्कृत टीका आचार्यश्री अमृतचन्द्र तथा आचार्यश्री जयसेन स्वामी द्वारा की गई है।
२७५ गाथा प्रमाण यह ग्रंथ तीनस्कंध में विभाजित है। प्रथमस्कंध की ६२ गाथाओं में ज्ञान की चर्चा है। द्वितीय श्रेयतत्वस्कंध १०८ गाथा प्रमाण है तथा तीसरा श्रुत स्कंध ७५ गाथा प्रमाण है। यह अति महत्वपूर्ण कृति है।
प्राकृतभाषा की ४१५ गाथा प्रमाण दश अध्यायों में विभाजित यह जैनागम का सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इस गं्रथ में शुद्ध आत्मतत्व का प्रतिपादन किया गया है इस विषय का प्रतिपादक ग्रंथ अखिल वाङ्मय में दूसरा नहीं है। (१) पूर्वरंग (२) जीवाजीव अधिकार (३) कर्तृकर्माधिकार (४) पुण्यपापाधिकार (५) आस्रवाधिकार (६) संवराधिकार (७) निर्जराधिकार (८) बन्धाधिकार (९) मोक्षाधिकार (१०) सर्वविशुद्धज्ञानाधिका। दस अध्यायोें में विभाजित इस ग्रंथ की कई टीकाएं उपलब्ध हैं। इस समयसार गं्रथ के गाथा सूत्रों पर आचार्य श्री अमृत चन्द्र सूरि एवं आचार्य श्री जयसेन स्वामी की संस्कृत टीका (क्रमश: आत्मख्याति एवं तात्पर्यवृत्ति) बहुत प्रसिद्ध हैं। अनेक साधु एवं विद्वानों (पं. जयचंद छाबड़ा, आचार्य ज्ञानसागर महाराज, क्षुल्लक गणेश प्रसाद वर्णी, क्षुल्लक मनोहर लालवर्णी आदि) ने इनकी १-१ टीकाओं पर हिन्दी टीकाएं लिखी हैं। पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने समयसार की दोनों संस्कृत टीकाओं की ‘‘ज्ञानज्योति’’ हिन्दी टीका लिखी है जो नवविवक्षाओं को स्पष्ट करने में अतिविशिष्ट है।
प्राकृत भाषा के १८७ गाथा प्रमाण इस ग्रंथ में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के साथ तत्वों, छह द्रव्य, पंचास्तिकाय के कथन के साथ पाँच महाव्रत, पंच समिति, तीनगुप्ति, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, कायोत्सर्ग, सामायिक, परमभक्ति (छह आवश्यक) की विस्तार से चर्चा है। यह अति महत्वपूर्ण और उपयोगी रचना है। आचार्यश्री पद्मप्रभमलधारी देवकृत इसकी संस्कृत टीका है तथा पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने भी इस नियमसार ग्रंथ की ‘‘स्याद्वाद चंद्रिका’’ संस्कृत टीका-हिन्दी टीका लिखकर बीसवीं सदी में पुन: जयसेन स्वामी का स्मरण कराया है, यह विशेष पठनीय ग्रंथ है।
दर्शनपाहुड़, ३७ गाथा, सूत्रपाहुड़ २७ गाथा, चारित्रपाहुड़ ४५ गाथा, बोधपाहुड़ ६१ गाथा, भावपाहुड़ १६१, मोक्षपाहुड़, १०६ गाथा, लिंगपाहुड़ २२ गाथा, शीलपाहुड़ ४० गाथा। इन सभी पाहुड़ों में उनके विषय को विस्तार से दर्शाया गया है। इनके अतिरिक्त आचार्य कुन्दकुन्द की वारसाणुपेक्खा, दशभक्ति संग्रह में क्रमश: चौबीस तीर्थंकर, सिद्ध, श्रुत, चारित्र, योगि, आचार्य, निर्वाण, नन्दीश्वर, शान्ति, समाधि तथा पंचगुरु भक्ति आदि रचनाएं भी इनकी प्रसिद्ध हैं। आचार्य कुन्दकुन्द का कृतित्व और व्यक्तित्व इतना विशाल और श्रेष्ठ है कि उसे शब्दों में समेटना सहज कार्य नहीं है।
मूलसंघ की पट्टावली में आचार्य उमास्वामी नन्दिसंघ के पट्ट पर करीब ४० वर्ष आसीन रहे। उस समय गृद्धपिच्छाचार्य के समान समस्त पदार्थों को जानने वाला दूसरा कोई विद्वान् नहीं था। श्रवणबेलगोल, नगरताल्लुक आदि के अनेक शिलालेखों में गृद्धापिच्छाचार्य उमास्वामी का उल्लेख मिलता है। बाद के अनेक आचार्यों ने उनका अपनी रचनाओं में श्रद्धापूर्वक उल्लेख किया है। उमास्वामी की रचनाओं में उनकी एक ही रचना तत्वार्थसूत्र अपरनाम मोक्षशास्त्र एक कालजयी रचना है। जैनागम के चार अनुयोगों में से करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग का सम्पूर्ण सार उसमें निहित है। गूढ़ अर्थों को संस्कृत के सूत्रों में लिखे गए इस ग्रंथ के महत्व का अनुमान इस पर लिखी गई टीकाओं और टीका पर पुन: की गई टीकाओं से सहज में हो जाता है। दस अध्यायों में विभाजित इस ग्रंथ में क्रमश: ३३, ५३, ३९, ४२, ४२, २७, ३९, २६, ४७, ९ कुल ३५७ सूत्र हैं। इन सूत्रों के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति का उपाय से प्रारंभ कर ज्ञान, ज्ञान के भेद, जीव के भाव, भाव के भेद, जीव की उत्पत्ति के भेद, उनके उत्पन्न होने के स्थान, अजीव तत्व का कथन, उसके भेद, अशुभ आश्रव, शुभ आश्रव, बंध, निर्जरा और अंतिम अध्याय में मोक्ष तत्व का कथन विस्तार से समाहित है।
गन्ध हस्ती महाभाष्य (आचार्य समन्तभद्र अनुपलब्ध) सर्वार्थसिद्धि (आचार्य पूज्यपाद) तत्त्वार्थ राजवर्तिक (आचार्य अकलंकदेव) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार (आचार्य विद्यानंदि) तत्वार्थवृत्तिभास्करी टीका (आचार्य भास्कारनंदि) तत्त्वार्थवृत्ति (आचार्य श्रुतसागर प्रथम), तत्वार्थसुखबोधनी टीका (आचार्य अमृतचन्द्र) अर्थ प्रकाशिका (पं. सदासुखदास) पं. माणिकचंद्र जी कौन्देय की हिन्दी टीका। इन टीकाओं से ग्रंथ का महत्व सहज समझ में आ जाता है।
क्षत्रिय कुल उत्पन्न राजपुत्र आचार्य समन्तभद्र का जन्म दक्षिण भारत के उरगपुर के राजपरिवार मेंं हुआ था। उनके जन्म का नाम शान्तिवर्मा था। यह अपने समय के प्रसिद्ध तार्विक विद्वान्, कवि, वाग्मित्वादि शक्तियों के स्वामी थे। जैनधर्म में अटूट आस्था के कारण जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर इन्होंने श्रमण मार्ग चुना। तेरह प्रकार के चारित्र, अट्ठाईस मूलगुणों और उत्तरगुणों का परिपालन करने वाले यह महान तपस्वी साधक थे। कर्मोदय वश उन्हें भस्मकव्याधि का रोग हो गया, रोग की तीव्रता से बढ़ने पर उन्होंने अपने गुरु से समाधिमरण की आज्ञा चाही। निमित्तज्ञानी गुरु उनकी चर्या से परिचित थे, उन्होंने उन्हें दीक्षा छेदन कर रोग उपचार की आज्ञा दी। यह सम्पूर्ण कथन सभी जैन धर्मानुयाई भलीभांति जानते हैं। हम यहाँ उनकी रचनाओं का संक्षेप में वर्णन कर रहे हैं। उनकी तत्वार्थ सूत्र की टीका ग्रंथहस्तीमहाभाष्य अनुपलब्ध रचना है, इसके बारे में ज्ञात हुआ है कि यह आस्ट्रिया के वियाना के किसी संग्रहालय में सुरक्षित हैं। इसके अतिरिक्त देवागम (आत्ममीमांसा) स्वयंभूस्तोत्र युक्त्यनुशासन, जिनशतक तथा रत्नकरण्ड श्रावकाचार उनकी महानतम रचनाएं हैं।
इनकी गणना दर्शन प्रभावक आचार्यों में की जाती है। यह अपने समय के विशिष्ट विद्वान् वादी और कवि थे, तर्वâशास्त्र में निपुण और उसके ज्ञाता थे। पूर्ववर्ती आचार्य विद्यानन्द ने इन्हें श्रेसठवादियों का विजेता और जल्पनिर्णय गं्रथ का कर्ता बताया है। इनका उल्लेख आचार्य पूज्यपाद (देवनन्दी) ने अपने जैनेन्द्र व्याकरण में किया है। इन प्रमुख आचार्यों का काल ईसा की पहली सदी से चौथी सदी तक का है।
तम्बुलूराचार्य-आचार्य गुणनन्दि के बाद में यह संभवत: चौथी शताब्दी के आचार्य थे। इन्होंने षट्खण्डागम के प्रथम पांच खण्डों में ‘चूड़ामणि’ नामक चौरासी हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखी थी।
भारतीय जैन परम्परा मेें जो लब्ध प्रतिष्ठ ग्रंथकार हुए हैं। उनमें आचार्य पूज्यपाद देवनंदि का नाम विशेष तौर पर उल्लेखनीय है। आचार्य समन्तभद्र तथा आचार्य सिद्धसेन के बाद आचार्य पूज्यपाद स्वामी को ही यह महत्व प्राप्त है। साहित्यजगत के प्रकाशमान सूर्य आचार्य देवनन्दि अपने समय के महातपस्वी श्रमण रत्न थे। इनका दीक्षानाम देवनंदि था। अपनी बुद्धि प्रखरता से यह जिनेन्द्र बुद्धि कहलाए और देवों द्वारा इनकी चरण पूजा से यह पूज्यपाद नाम से जगत प्रसिद्ध हुए। ऐसा कथन श्रवणबेलगोल के शिलालेख में अंकित है। आचार्य पूज्यपाद की रचनाएं-इनकी प्रमुख रचनाओं में सर्वार्थसिद्धि, समाधितंत्र, इष्टोपदेश, दशभक्ति, जैनेन्द्रव्याकरण, वैद्यकशास्त्र, छन्दग्रंथ, शान्त्यष्टक, सारसंग्रह और जैनाभिषेक आदि हैं। जीवन घटनाओं में प्रमुख हैं-विदेह गमन, घोरतप के कारण नयन ज्योति का चला जाना तथा शान्त्यष्टक के निर्माण और पाठ से पुन: नयन ज्योति का आना, देवताओं के द्वारा चरणों का पूजा जाना, औषधिऋद्धि की उपलब्धि, पादस्पृष्ट जल से लोहे का स्वर्ण में बदल जाना, ऐसी अनेक घटनाओं का कथन इनके विषय में ग्रंथों से प्राप्त होता है।
आचार्य आर्यमंक्षु व आचार्य नागहस्ति दोनों ही समकालीन और आचार्य परम्परा से प्राप्त कसायपाहुड़ के ज्ञाता थे। आचार्य यतिवृषभ ने दोनों गुरुओं के समीप गुणधराचार्य के कसायपाहुड़ का अध्ययन किया और उनके रहस्यों को जाना। उन सूत्र गाथाओं के आधार पर आचार्य यतिवृषभ ने छः हजार चूर्णिसूत्रों की रचना की। आचार्य वीरसेन ने उन्हें वृत्तिसूत्र का कर्ता बताया है। इनकी दूसरी रचना तिलोयपण्णत्ति है।
अहिच्छत्र निवासी यह एक ब्राह्मण विद्वान् थे। वेदांत में निपुण वहाँ के राजा के राजकाल में सहयोगी थे। कभी-कभी कौतूहलवश पाश्र्वनाथ मंदिर में भगवान की प्रशान्तमुद्रा का दर्शन करने जाते रहते थे। एक बार चारित्रभूषण नामक मुनिराज को मंदिर में देवागम स्तोत्र का पाठ करते सुना। स्तोत्र से प्रभावित हो मुनिराज से पुन: पाठ करने को कहा और उसे सुनकर कठस्थ याद कर लिया। घर आकर उनके अर्थों को समझकर जीवादिक पदार्थों का जो स्वरूप उसमें वर्णित था वह उन्हें सत्य लगा। वस्तुस्वरूप समझने पर संसार से उदासीनता बढ़ गई और दिगम्बर मुद्रा धारण कर वीतराग श्रमण बन गए। इनकी रचनाओं में ‘त्रिलक्षण कदर्शन’ तथा ‘जिनेन्द्र गुण संस्तुति’ अपर नाम मात्र केसरी स्तोत्र है।
सातवीं सदी के यह महाप्रभावी आचार्य थे। भक्तामर स्तोत्र संस्कृत के बसंततिलका छंद में ४८ काव्यों की इनकी कालजयी रचना है। प्राकृत भाषा में भयहर स्तोत्र २९ पद्यों में लिखी गई रचना है। इनको दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाओं में समान मान्यता प्राप्त है।
मान्यखेट के राजा शुभतंग के मंत्री पुरुषोत्तम के पुत्र अकलंक व निकलंक जैन जगत में ऐसे नाम हैं जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। भारत भू पर उस कल में बौद्ध धर्म राजधर्म के रूप में स्थापित हो चुका था। बौद्र्ध संघ में रहकर इन दोनों भाईयों ने बौद्ध धर्म के अध्ययन का विचार किया और अपना धर्म छिपाकर बौद्ध मठ में जाकर विद्याध्ययन करने लगे। वहाँ घटित घटना और निकलंक का बलिदान आज भी श्रद्धा से स्मरण किया जाता है तथा सदा स्मरण किया जाता रहेगा। अकलंक देव ने दिगम्बर दीक्षा ग्रहण कर जिनशासन की प्रभावना की। बौद्ध विद्वानों से अनेक बार उनके शास्त्रार्थ हुए। कलिंग देश के रत्नसंचयपुर के शास्त्रार्थ की चर्चा अनेक ग्रंथों में वर्णित है। अनेक शिलालेखों तथा ग्रन्थोल्लेखों में अकलंक देव का वर्णन मिलता है। किसी विद्वान में उनसे शास्त्रार्थ की क्षमता उस काल में नहीं थी। उस काल में उनके समान वादीश्वर और वाग्मी विद्वान दूसरा नहीं था। पूर्वाचार्यों की कितनी ही रचनाओं की टीका उनके द्वारा दी गई है। उनके ग्रंथों में प्रमुख हैं।
(१) तत्वार्थावार्तिक सभाष्य-यह तत्वार्थसूत्र पर वार्तिक शैली पर लिखा गया प्रथम ग्रंथ
(२) अष्टशती-आचार्य समन्तभद्र कृत आप्तामीमांसा (देवागम स्तोत्र) की टीका
(३) लघीयस्त्रयसविवृत्ति-प्रमाण प्रवेश, नय प्रवेश, प्रवचन प्रवेश, तीन प्रकरणों पर लिखा गया ग्रंथ है
(४) न्याय विनिश्चय सवृत्ति
(५) सिद्धि विनिश्चय
(६) प्रमाण संग्रह स्वोपज्ञ। न्याय, दर्शन, सिद्धान्त, प्रमाण, नय आदि विषयों पर लिखी गई इनकी विद्वत्ता प्रमाणित होती है। इनका काल सातवीं सदी का अन्त व आठवीं सदी का प्रारंभ माना गया है।
रविषेणाचार्य- पदमपुराण (रामचन्द्र-सीता कथानक) के रचनाकार आचार्य रविषेण सेनसंघ के विद्वान श्रमण थे। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का चरित्र इस रचना में बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया गया है। इस ग्रंथ में १२३ पर्व व श्लोक संख्या बीस हजार है।
इन्होंने अपनी रचना गद्य चित्तामणि में अपने गुरु पुष्पसेन की चर्चा वन्दना करते हुए लिखा है कि उन्होंने मुझ जैसे मूढ़ बुद्धि को एक श्रेष्ठ मुनि बना दिया। इनकी रचना क्षत्र चूड़ामणि उच्चकोटि का नीतिकाव्य है। स्याद्वाद सिद्धि और गद्य चिन्तामणि इनकी अन्य दो कृतियाँ और हैं।
आर्यनदी के शिष्य आचार्य वीरसेन सिद्धान्त के तलस्पर्शी विद्वान पाण्डित्य के धनी, गणित, ज्योतिष, न्याय, व्याकरण और प्रमाण शास्त्रों में निपुण सिद्धान्त एवं छन्द के अभूतपूर्व ज्ञाता थे। अनेक आचार्यों ने उनकी प्रतिमा की प्रशस्ति लिखी थी। षट्खण्डागम पर लिखी उनकी टीकाओें धवला, जयधवला उनके कृतित्व और ज्ञान का प्रमाण हैं। इनका काल नवमीं सदी का माना जाता है।
सेन संघ के शास्त्रज्ञ आचार्य जयसेन, हरिवंशपुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन के गुरु थे। इनका काल भी नवमीं सदी है। इनके शिष्य अमितसेन, कीर्तिषेण दोनों ही प्रभावी श्रमण आचार्य थे। उनका उल्लेख आचार्य जिनसेन ने हरिवंश पुराण में किया है।
हरिवंशपुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन सेन संघ (अपर नाम पुन्नाट संघ) के महाप्रभावी आचार्य थे। अपनी रचना हरिवंश पुराण में हरिवंश की एक शाखा यादव कुल और उसमें जन्मे दो शलाका पुरुषों का चरित्र वर्णित है। २२वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ तथा नारायण श्री कृष्ण का उन्होंने सुन्दर कथन किया है। इन्होंने अपनी रचना में पूर्ववर्ती अनेक आचार्यों और विद्वानों को स्मरण किया है। इनमें प्रमुख हैं-आचार्य समन्तभद्र, सिद्धसेन, देवनन्दि, वङ्कासूरि, महासेन, रविषेण, जयसिंह नन्दि, शान्तिषेण, कुमारसेन, जयसेन आदि प्रमुख हैं। इसी ग्रंथ के अंतिम ६६वें सर्ग में, तिलोयपण्णत्ति, धवला जयधवला की श्रुतावतार परम्परा भी वर्णित है।
धवला जयधवला के कृतिकार आचार्य वीरसेन के शिष्य आचार्य जिनसेन विशाल बुद्धि के धारक कवि, विद्वान और वाग्मी थे। आचार्य गुणभद्र ने इनके प्रति लिखा है कि जिस प्रकार हिमालय से गंगा, सर्वज्ञ के श्रीमुख से दिव्यध्वनि और पूर्व दिशा से भास्कर उदय होता है, उसी प्रकार वीरसेन से जिनसेन उदय को प्राप्त हुए। इनकी रचनाएँ ‘पाश्र्वाभ्युदयकाव्य’ अद्वितीय समस्यापूर्तिक काव्य है। ६३ शलाका पुरुषों पर लिखित ‘आदिपुराण’ जिसे महापुराण के आधार पर लिखना प्रारंभ किया था वह इनके स्वर्गवास के कारण अधूरा रह गया, जिसे इनके शिष्य गुणभद्र स्वामी ने पूर्ण किया। आदिपुराण उच्चकोटि का संस्कृत महाकाव्य है। इनके गुरु द्वारा कषाय प्राभृत के प्रथमस्कंध की जयधवला टीका जो बीस हजार श्लोक प्रमाण थी उसके शेष भाग पर चालीस हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया। आचार्य जिनसेन का काल नवमी सदी का माना जाता है।
आचार्य जिनसेन के गुरुभाई दशरथ गुरु के शिष्य तथा सिद्धान्त शास्त्र के पारगामी विद्वान थे। आचार्य जिनसेन के स्वर्गवास के बाद उनके अपूर्ण आदिपुराण को १६२० श्लोकों की रचना कर उसे पूर्ण किया। उत्तरपुराण नामक इस ग्रंथ में भगवान अजितनाथ से लेकर भगवान महावीर तक २३ तीर्थंकरों, ११ चक्रवती, नव नारायण, नव प्रतिनारायण, नव बलभद्र सहित जीवधंर स्वामी आदि विशिष्ट महापुरुषों के कथानक दिए हैं। द्वितीय रचना आत्मानुशासन में २६६ श्लोकों में आत्मा के अनुशासन का सुन्दर विवेचन है। जिनदत्त चारित्र भी इनकी ही रचना बताई जाती है।
श्री नन्दीमुनि के शिष्य उग्रादित्याचार्य महानतम् विद्वान् मुनिराज थे। इनकी २५ अधिकार में पूर्ण पाँच हजार श्लोक प्रमाण वैद्यक कृति ‘कल्याणकारक’ वैद्यक की महानतम कृति है।
गणितसार के रचियता महावीराचार्य विद्वानों में प्रथम गणितज्ञ थे। गणित के लिए उनका कथन है कि लोक में जितने भी लौकिक, वैदिक और सामयिक कार्य हैं उन सबमें गणित संख्यान का उपयोग है, कामशास्त्र, अर्थशास्त्र, गन्धर्वशास्त्र, नाट्यशास्त्र, पाकशास्त्र, आयुर्वेदिकशास्त्र, वास्तुविद्या छंद, तर्वâ व्याकरण, आदि सभी में गणित उपयोगी है। इस ग्रंथ में एक, दश, शत सहस्र से लेकर क्षोभ, महाक्षोभ तक की संख्या का उल्लेख है। अंकों के लिए शब्दों का प्रयोग किया है जैसे तीन के लिए रतन, ६ के लिए द्रव्य, सात के लिए तत्व। लघुत्तम समापवर्तक के विषय में महावीराचार्य विद्वानों में प्रथम विद्वान थे। रेखा गणित, बीज गणित और पाटी गणित की दृष्टि से यह ग्रंथ महत्वपूर्ण है। डॉ. अवधेश नारायण सिंह ने इसे ब्रह्मगुप्त, श्रीधराचार्य, भास्कर व अन्य हिन्दू गणितज्ञों के ग्रंथों से बहुत सी बातों में उनसे पूर्णत: आगे बताया गया है।
व्याकरण शास्त्र के निष्णात विद्वान जिनेन्द्र व्याकरण की टीका ‘महावृत्ति’ के रचनाकार हैं। यह जिनेन्द्र व्याकरण में ही नहीं पाणिनीय व्याकरण और पंतजलि महाभाष्य में भी अप्रत्याहत गति रखते थे।
सिद्धि विनिश्चय टीका के कर्ता आचार्य अनन्तवीर्य अकलंक वाङ्मय के महानतम विद्वान थे।
अनेकों ग्रंथों के टीकाकार व स्वग्रन्धों के रचनाकार आचार्य विद्यानंद नवमी सदी के महानतम आचार्य थे। आचार्य उमास्वामी कृत ‘तत्वार्थसूत्र’ आचार्य समंतभद्र कृत ‘देवागम’ तथा युक्त्यानुशासन पर इनकी टीकाएं तत्वार्थ श्लोकवार्तिक ‘अष्टसहस्री’ व युक्त्यानुशासनलंकार के बाद इनकी मौलिक रचनाएँ ‘विद्यानन्दमहोदय’ (अनुपलब्ध) ‘आप्तपरीक्षा’ प्रमाण परीक्षा’ ‘पत्र परीक्षा’ सत्य शासन परीक्षा, श्री पाश्र्वनाथ स्तोत्र हैं।
दशवीं सदी के अंतिम चरण के आचार्यों में योगसार के रचनाकार आचार्य अमितगति अद्वितीय विद्वान श्रमणराज थे। जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, मोक्ष के साथ-साथ चारित्र और चूलिकाधार के विवेचन के साथ इनकी रचना योगसार एक बोधगम्य ग्रंथ है।
भगवान महावीर की आचार्य परम्परा में दशवीं सदी के उत्तरार्ध के आचार्यों में आचार्य अमृतचन्द्र का नाम सूर्य किरणों के समान सदैव प्रकाशवान रहेगा। आचार्य कुन्दकुन्द की तीन महानतम कृतियों ‘समयसार’ ‘प्रवचनसार’ व पंचास्तिकाय के टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र ‘पुरुषार्थ सिद्धयुपाय’ (जिनवचन रहस्यकोष) व तत्त्वार्थसार के रचनाकार हैं।
नागसेन के शिष्य तथा तत्वानुशासन के रचयिता आचार्य रामदेव अध्यात्म के ज्ञाता विद्वान थे। २५८ संस्कृत पद्यों में लिखित ग्रंथ भाषा और विषय में अति महत्वपूर्ण ग्रंथ है।
दीक्षा गुरु बप्पनन्दी, मंचशास्त्र गुरु गुणनन्दी और सिद्धान्त शास्त्र के गुरु अभयनन्दी के शिष्य इन्द्रनन्दी ‘ज्वालिनीकल्प’ मंत्र शास्त्र के रचनाकार हैं। इनका समय दसवीं सदी का अंतिम चरण या ग्यारहवीं सदी के पूर्वार्ध का अनुमानित है।
प्रद्युम्न चरित्र के रचयिता तथा सिंधुराज के महामात्य पर्पट द्वारा पूजित आचार्य महासेन आचार्य सेनसूरि के शिष्य थे। सिद्धान्तज्ञ, वादी, वाग्मी और कवि महासेन की यह रचना एक सुन्दर काव्य ग्रंथ है।
लोक प्रसिद्ध देवसंघ की परम्परा में नेमिदेवाचार्य के शिष्य आचार्य सोमदेव एक महान नीतिज्ञ आचार्य थे। राजा यशोधर के चरित्र पर लिखा महाकाव्य ‘यशस्तिकाचम्पू’ श्रावकधर्म परिपालन की एक महान रचना है। ‘नीतिवाक्यामृत’ राजनीति पर लिखा एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह संस्कृत साहित्य का एक अनुपम रत्न है। इनकी तीसरी रचना ‘अध्यात्मतरंगिणी’ या ध्यानविधि है।=
लघु सर्वज्ञसिद्धि तथा वृहत्सर्वज्ञ सिद्धि ग्रन्थों के रचनाकार आचार्य अनन्तकीर्ति की गुरु परम्परा का उल्लेख प्राप्त नहीं है किन्तु बाद में आचार्यों ने उनका श्रद्धा से उल्लेख किया है।
आचार्य वादिराज- पाश्र्वनाथ चरित, यशोधर चरित, एकीभाव स्तोत्र, न्याय विनिश्चय विवरण, प्रमाण निर्णय, अध्यात्माष्टक, त्रैलोक्यदीपिका के रचनाकार महानवादी, विजेता और कवि थे। चौलुक्य नरेश जयसिंह देव पूजित महानतम आचार्य थे।
चन्द्रप्रभचरित के रचनाकार आचार्य वीरनन्दि आचार्य अभयनन्दि के प्रथम शिष्य थे। १८ सर्गों में विभक्त यह रचना १६९१ श्लोक में पूर्ण हुई है।
गंगवंशीय राजा राचमल्ल के प्रधानमंत्री और सेनापति चामुण्डराय के गुरु विश्व प्रसिद्ध गोम्मटेश्वर (भगवान बाहुबली) की मूर्ति निर्माण के प्रेरणाश्रोत आचार्य नेमीचन्द महान सिद्धान्तिक विषय के ज्ञाता आचार्य थे। इनकी विद्वता उनकी कृतियों गोम्मटसार (जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड) लब्धिसार, क्षपणासार व त्रिलोकसार से परिलक्षित होती है। उनके गोम्मटसार ग्रंथ पर ६ टीकाएं बाद में आचार्यों और विद्वानों ने की हैं।
२४२७ गाथा प्रमाण जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के रचनाकार आचार्य पद्मनन्दि बलनंदि के शिष्य थे। यह ग्रंथ लौकिक, अलौकिक, गणित, क्षेत्रादि, पैमाइश और प्रमाणादि कथनों के साथ जम्बूद्वीप के सभी क्षेत्र, पर्वत, नदियों और समुद्रों का वर्णन करता है। धर्म, अधर्म के विवेक को निर्देशन करने वाली इनकी दूसरी रचना धम्म रसायण है।
आचार्य शिवकोटि की भगवती आराधना, महाकवि पुष्पदन्त के उत्तरपुराण पर टिप्पण, आचार्य रविषेण के पदम चारित को टीका एवं पुराणसार के रचनाकार मुनि श्रीचन्द्र ११वीं सदी के प्रारंभ काल के श्रमण थे। इनका अधिकांश समय धारा नगरी में व्यतीत हुआ, वही इनकी यह जिनवाणी आराधनापूर्ण हुई।
जैन न्याय के आद्यसूत्र ग्रंथ ‘परीक्षा-मुख’ के रचनाकार आचार्य माणिक्यनन्दी महाराज भोज के समकालीन एवं जैन न्याय के प्रकाण्ड विद्वान आचार्य थे। इस रचना से पूर्व सांख्य आदिक अन्य दार्शनिकों की रचनाएं तो थीं किन्तु जैनदर्शन में न्याय विषयक कोई रचना नहीं थी। इस ग्रंथ के महत्व का अनुमान बाद में हुई इसकी टीका ‘प्रमेय कमल मार्तण्ड’ तथा ‘प्रमेय रत्नमाला’ से सहज हो जाता है। आचार्य माणिक्यनन्दी के शिष्य ‘नयनन्दी’ सुंदसण चरिउ के कर्ता थे।
आचार्य माणिक्यनन्दी के शिष्य आचार्य प्रभाचन्द्र दर्शन एवं सिद्धान्त के पारगंत विद्वान् थे। धारा नगरी के अधिपति सम्राट् भोज के द्वारा बहुमान प्राप्त आचार्य प्रभाचन्द्र ने अनेक ग्रंथों की टीकाएँ की और कई दार्शनिक ग्रंथों की रचना की। इनकी रचनाओं में प्रमुख हैं, तत्वार्थ वृत्ति (सर्वार्थसिद्धि के विषय पदों का टिप्पण), प्रवचनसरोजभास्कर (प्रवचनसार टीका), प्रमेय कमल मार्तण्ड (परीक्षा मुख व्याख्या), न्याय कुमुदचन्द (लद्यीयस्त्रय व्याख्या), पंचास्तिकाय प्रदीप (पंचास्तिकाय टीका), शब्दाम्भोज भास्कर, महापुराण टिप्पण, गद्यकथा कोश (आराधना कथा प्रबंध), क्रिया कलाप टीका, रत्नकरण्ड श्रावकाचार टीका तथा समाधितंत्र टीका, दर्शन तथा सिद्धान्त ग्रंथों की यह शृंखला उनके जैन दर्शन के तलस्पर्शी ज्ञान का प्रतीक है। इनका समय काल ११वीं सदी माना जाता है।
माथुर संघ आचार्य नेमिषेण के प्रशिष्य और माधवसेन के शिष्य अमितगति द्वितीय ११वीं सदी के विद्वान् एवं महानतम आचार्य थे। इनकी रचनाओं से इनके ज्ञान का अनुमान सहज हो जाता है। सुभाषितरत्न सन्दोह, धर्म परीक्षा, उपासकाचार (अमितगति श्रावकाचार) पंच संग्रह, आराधना, तत्व भावना तथा भावना द्वात्रिंशतिका इनकी रचनाएँ हैं।
यह मंत्र-तंत्र के महान विद्वान् थे, धारवाड़ जिले की गदक तहसील के मूलगुन्द नगर के अनेक जिनालयों में इन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की, ऐसा उल्लेख वहाँ के शिलालेखोें से प्राप्त होता है। इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं-महापुराण (इसकी कनड़ी प्रति कोल्हापुर भट्टारक मठ में है) नागकुमार काव्य, भैरव पद्मावती कल्प, सरस्वती कल्प (दोनों ही संस्कृत टीकाओं के साथ प्रकाशित) ज्वालामालिनीकल्प, स्व. सेठ माणिकचन्द्र जी के ग्रंथ भण्डार में उपलब्ध, कामचण्डाली कल्प, जैन सरस्वती भवन व्यावर में उपलब्ध, सज्जन चित्त वल्लभ हिन्दी पद्यानुवाद व हिन्दी टीका सहित प्रकाशित है।
ज्ञानार्णव के रचनाकार आचार्य शुभचन्द्र ने उक्त ग्रंथ में अपनी गुरु परम्परा तो नहीं दी है किन्तु आचार्य समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक देव, जिनसेनाचार्य का स्मरण श्रद्धा से किया है। ज्ञानार्णव ग्रंथ में बारह भावना, पंच महाव्रत ध्यान आदि का विस्तृत कथन है।
अपनी रचनाओं में अपने को वीरनन्दी का शिष्य बताते हुए आचार्य पदमनन्दी ने अपने गुरु का गुणगान कई स्थानों पर किया है। आचार्य वीरनन्दी व आचार्य मेघचन्द्र के शिष्य और आचार्य प्रभाचन्द्र के गुरुभाई बताये गये हैं। आचार्य वीरनन्दी सैद्धान्तिक विद्वान् थे उन्होंने आचारसार व उसकी टीकाएं बनाई थीं। वीरनन्दी के शिष्य आचार्य पद्मनन्दी की २६ रचनाओं की विशाल शृंखला मिलती है। धर्मोपदेशामृत, दानोपदेश, अनित्यपंचाशत, एकत्त्व सप्तति, यतिभावनाष्टक उपासक संस्कार, देशव्रतोद्योतन, सिद्धस्तुति, आलोचना, सद्बोधचन्द्रोदय, निश्चय-पंचाशत, ब्रह्मचर्य रक्षावर्ति, ऋषभस्तोत्र, जिनदर्शन स्तवन, श्रुतदेवता स्तुति, स्वयंभू स्तुति, सुप्रभाताष्टक शान्तिदेव स्तोत्र, जिन पूजाष्टक, करुणाष्टक, क्रियाकाण्ड चूलिका, एकत्व भावना दशक, परमार्थ विंशति, शरीराष्टक, रनानाष्टक, ब्रम्हचर्याष्टक के रचनाकार आचार्य पद्मनन्दी का समय काल १२वीं सदी का है। आचार्य पद्मप्रभमलधारी देवी-कुन्दकुन्द के नियमसार के टीकाकार तात्पर्यवृत्ति के रचयिता आचार्य पद्मप्रभ मलधारी आचार्य वीरनन्दी के शिष्य थे। इन्होंने अपनी तात्पर्यवृत्ति टीका में अनेक आचार्यों को श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है।
द्रव्य स्वभाव नयचक्र के रचयिता माइल्लधवल आचार्य देवसेन के शिष्य थे। इनका काल बारहवीं सदी का अंतिम समय बताया गया है।
कल्याणमंदिर स्तोत्र के रचयिता आचार्य कुमुदचन्द्र का श्वेताम्बर मुनि वादिसूरिदेव से गुजरात के शासक जयसिंह सिद्धराज की सभा में वि.सं. ११८१ में वाद हुआ था। यह बारहवीं सदी के आचार्य थे।
कथा कोष तथा रत्नकरण्ड श्रावकाचार के रचनाकार आचार्य श्रीचन्द आचार्य वीरचन्द्र के शिष्य थे। इनका काल भी बारहवीं सदी बताया है।
श्रीनन्दी के शिष्य नयननन्दी के शिष्य नेमिचन्द तथा नेमिचन्द के शिष्य वसुनन्दी अपने समय के विख्यात मुनिराज थे। वसुनन्दी श्रावकाचार, उपासकाध्ययन, आप्तमीमांसावृत्ति, जिनशतक टीका, मूलाचार वृत्ति और प्रतिष्ठाचार संग्रह इनकी रचनाएं हैं। सागार धर्मामृत में पं. आशाधर जी ने इनका आदरपूर्वक स्मरण किया है।
परीक्षामुख की टीका ‘परिक्षामुख पंजिका’ न्यायशास्त्र की सहज, सरल और ग्राह्य रचना है, उन्होंने आचार्य प्रभाचन्द्र की रचना को अपनी रचना में उदार चन्द्रिका की उपमा दी है और अपनी रचना को खद्योत (जुगनू) के समान बताया है।
आचार्य उमास्वामी के तत्त्वार्थसूत्र की प्रगटीकरण टीका सिद्धान्त सार संग्रह व प्रतिष्ठा प्रदीप के रचनाकार आचार्य नरेन्द्रसेन आचार्य गुणसेन के शिष्य थे।
गोम्मटसार पंजिका के रचनाकार आचार्य गिरिकीर्ति आचार्य चन्द्रकीर्ति के शिष्य थे। प्रस्तुत ग्रंथ में गोम्मटसार के सैद्धान्तिक विषय पर सुन्दर व्याख्या की गई है। ==
सुलोचना चरित्र के रचनाकार आचार्य देवसेनगणी आचार्य विमलसेन के शिष्य, समयसार, पंचास्तिकाय और प्रवचनसार पर तात्पर्यवृत्ति के रचनाकार आचार्य जयसेन, आचार्य सोमसेन के शिष्य थे। ‘क्षपणसार’ के रचनाकार मुनि माधवचन्द्र त्रैविद्य ‘शब्दचन्द्रिका’ के कर्ता मुनिसोमदेव, सुन्दर काव्य शैली में लिखित ‘चंदप्पह चरित’ के रचनाकार मुनि यशकीर्ति तेरहवीं सदी के श्रमण रत्न थे। विश्वतत्वप्रकाश, प्रमाप्रमेय, कातन्त्ररूपमाला सहित सात अनुपलब्ध कृतियों के रचनाकार भावसेन त्रैविद्यतर्क दर्शन, न्याय, व्याकरण के अपने समय के मान्य विद्वान आचार्य थे। इनका समय काल चौदहवीं सदी का बताया गया है। ‘सुकुमाल चरित्र’ के रचनाकार मुनि पूर्णभद्र मुनि गुणभद्र के शिष्य थे। गोम्मटसार जीवकांड की मन्द प्रबोधनी टीका के रचयिता अभयचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती १३वीं व १४वीं सदी के मुनिराज थे। ‘श्रंगार मंजरी’ के कर्ता सेनगण के आचार्य अजितसेन, ‘भाव त्रिभंगी’, आस्रव त्रिभंगी तथा परमागमसार के रचनाकार श्रुतमुनि चौदहवीं सदी के आचार्य हैं। इस काल में अनेक प्रभावी भट्टारक भी हुए हैं। पंद्रहवी सदी से अठारहवीं सदी तक जैन इतिहास में अनेकानेक विद्वान् भट्टारकों की चर्चा तो प्राप्त होती है किन्तु जैनाचार्यों का कथन प्राप्त नहीं होता, यह भगवान महावीर की आचार्य परम्परा का ऐसा काल खण्ड है जिसमें दिगम्बर श्रमण परम्परा मात्र दिगम्बर रूप रह गई थी। श्रमणों में अनेक प्रकार का शिथिलाचार व्याप्त हो चुका था। इस मृतपाय श्रमण धर्म को तब बीसवीं सदी के प्रारंभ में आकर नव जीवन प्राप्त हुआ जब उसे इस सदी के महान तपस्वी, निर्दोष चर्या के पालक के रूप में आचार्य शान्तिसागर जैसा श्रमण रत्न मिला। चारित्र चक्रवर्ती आचर्य शान्तिसागर जी महाराज-बीसवीं सदी के पूर्वार्ध तक लोगों में यह धारण अपना स्थान बना चुकी थी कि अब इस विषम काल में दिगम्बर मुनि हो ही नहीं सकते। दिगम्बर श्रमण तो चौथे काल में ही होते हैं। वह समय कुछ इसी प्रकार था। दिगम्बर श्रमण बनने के भाव तो मन में आते थे भव्यजन दीक्षा भी स्वयं या उस समय के वर्तमान मुनिराज से लेकर उस मार्ग पर चल पड़ते थे। समाज में व्याप्त अज्ञानता, स्वयं दीक्षार्थी की सोच उसे निर्दोष चर्या के परिपालन में बाधक बन जाती थी उस विपरीत काल में दिगम्बर श्रमणाकाश में एक नक्षत्र का उदय हुआ। कर्नाटक प्रान्त के बेलगांव जिले के चिकोडी तहसील के भोजग्राम के पाटिल श्री भीमगोड़ा की धर्मनिष्ठ भार्या सत्यवती ने अपने मातृगृह येलगुल में अषाढ़ कृष्णा ६ वि.स.१९२९ सन् १८६२ को बुधवार की रात्रि में एक बालक को जन्म दिया। इस महाभाग बालक का नाम सातगौंडा रखा गया। परिवार में सातगौंडा से बड़े आदिगौंडा, देवगौंडा व उनसे छोटे कुमगौंडा व एक कन्या कृष्णा बाई को लेकर पाँच भाई-बहिन थे। उस समय शायद किसी को यह अनुमान भी नहीं रहा होगा कि भीमगौंडा के घर में किसी बालक का नहीं अपितु इस युग के श्रमण इतिहास का जन्म हुआ है। भीमगौंडा और उनकी पत्नी धर्मनिष्ठ सद्गृहस्थ थे। उनकी जीवन चर्या एक परिशुद्ध श्रावक की चर्या थी। जीवन के अंतिम १६ वर्ष उन्होंने एक समय भोजन करके व पूर्ण ब्रह्मचर्य के साथ व्यतीत कर घर में ही समाधिपूर्वक मरण किया था। सातगौंडा का विवाह उस समय की प्रथा के अनुसार ९ वर्ष की अल्पायु में कर दिया गया था। उन्होंने पत्नी का मुंह भी नहीं देखा था कि शादी के ६ माह ही इनकी पत्नी का निधन हो गया। इसके बाद उन्होंने अपने दुबारा विवाह के लिए दृढ़तापूर्वक इंकार कर दिया। माता-पिता की मृत्यु तक सातगौंडा ने घर में रहकर व्रतीजीवन यापन किया। शास्त्र स्वाध्याय मुनिजनों की परिचर्या ही उनके जीवन का ध्येय रहा। पिता के स्वर्गवास के बाद उन्हें घर अब नहीं सुहाता था। जेठ सुदी तेरस वि.स. १९७२ सन् १९१५ में श्री देवेन्द्रकीर्ति मुनिराज (देवप्पा स्वामी) से क्षुल्लक दीक्षाग्रहण कर उन्होंने गृहत्याग दिया। क्षुल्लक दीक्षा के समय उन्होंने अपने मन में संकल्प ले लिया कि वह अपनी हर चर्या आगमानुवूâल ही पूर्ण करेंगे काल दोष और अज्ञानता वश आए श्रमण परम्परा में दोषों को वह अपने अन्दर नहीं आने देंगे। पंडित प्रवर श्री सुमेरचंद जी दिवाकर ने आचार्य श्री शान्तिसागर जी का जीवन चरित्र ‘चारित्र चक्रवर्ती’ में बहुत विस्तार और प्रामाणिकता से लिखा है। क्षुल्लक अवस्था का प्रथम चातुर्मास कोगनोली में किया। उस समय उन्हें आहार आदि के लिए निर्दोष चर्या परिपालन के चलते बहुत व्यवधान झेलने पड़े। गिरनार यात्रा से वापस आकर गिरनार क्षेत्र में भगवान नेमिनाथ को साक्षी बनाकर ऐलक पद ग्रहण करने के बाद का प्रथम चातुर्मास नसलापुर में किया और वहीं वाहन त्याग का नियम लेकर पदभ्रमण का नियम लिया। फाल्गुन शुक्ला १४ वि.सं.१९७६ सन् १९२० यरनाल पंचकल्याणक के समय क्षुल्लक दीक्षा प्रदाता मुनि श्री देवेन्द्रकीर्ति से भव तारणी जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर वह दिगम्बर श्रमण बने। मुनिदीक्षा के बाद उनकी तपश्चर्या का यश पूरे देश में फैलने लगा समडोली में क्षुल्लक वीरसागर जी व नेमिसागर जी को दीक्षा प्रदान करने के अवसर पर वि.सं. १९८१ सन् १९७२ आश्विन शुक्ला ११ को चतुर्विध संघ ने उन्हें आचार्यपद से विभूषित किया। आचार्य पदारोहण के बाद पूज्य आचार्यश्री के द्वारा श्रमण परम्परा, आगम रक्षा और समाज के सुसंस्कारों के लिए जो कार्य किए गए वह आज इतिहास की धरोहर बन चुके हैं। कई सदियों तक उत्तर भारत में दिगम्बर मुनि मार्ग बंद रहा। पूज्य आचार्य शांतिसागर जी के संघ को संघपति सेठ पूनमनचंद घासीलाल जवेरी दक्षिण से तीर्थराज सम्मेदशिखरजी की यात्रा को लेकर गए तब सदियों बाद किसी दिगम्बर श्रमण संघ ने दक्षिण से बाहर निकलकर देश के दूसरे भागों में प्रवेश किया। श्री सम्मेदशिखर में पूज्य आचार्यश्री के सानिध्य में हुए पंचकल्याणक महोत्सव व उसमें एकत्रित देश के सभी भागों में पहुँचा जन समूह एक ऐतिहासिक घटना है। पं. नन्दनलाल जी शास्त्री (पं. मक्खनलाल जी मुरेना के भ्राता) जो बाद में आचार्य महाराज से दीक्षा लेकर आचार्य सुधर्म सागर बने। ये संघ में रहकर सब मुनिजनों को पढ़ाते थे, उनके प्रयासों के चलते सम्मेदशिखर से लौटकर संघ ने मध्यप्रदेश में कटनी वर्षायोग के बाद उत्तरभारत की ओर विहार किया, उत्तरप्रदेश के अनेक नगर-ग्रामों में भ्रमण के बाद संघ ने सिद्धक्षेत्र मथुरा में चातुर्मास किया। यहाँ से देश की राजधानी देहली व राजस्थान के वर्षायोग पूज्य आचार्यश्री और उनके संघ के द्वारा उत्तर भारत में विहार और भ्रमण लुप्त श्रमण परम्परा को पुनः जीवित कराने का निमित्त बने। यहाँ से बिहार कर जब संघ सन् १९३७ में गजपंथा पंचकल्याणक महोत्सव में पहुँचा तब तक पूज्य आचार्र्यश्री का भारतवर्ष के अधिकांश भाग में भ्रमणपूर्ण हो चुका था। आचार्यश्री की सम्पूर्ण चर्या आगमानुकूल थी। उनके उन्नत चारित्र का यश दिग्दिगन्त में व्याप्त हो चुका था अत: गजपंथा में उन्हें चतुर्विध संघ ने ‘चारित्र चक्रवर्ती’ पद प्रदान कर स्वयं इस पद को सम्मानित किया।
आचार्य शांतिसागर जी ने जिस समय दीक्षा ग्रहण की वह ऐसा काल था जब भारत में सदियों से श्रमण परम्परा विलुप्त हो चुकी थी। दक्षिण में वह आंशिक रूप से श्रमणाभास रूप में ही देखने को मिलती थी। उन दिनों दिगम्बर श्रमण नगर-ग्राम में अपनी यथाजात मुद्रा में प्रवेश नहीं कर पाते थे। उन्हें आहार के लिए ग्राम में जाने पर एक अधोवस्त्र कमर में लपेट कर जाना पड़ता था। आहार भी दिगम्बर श्रमणचर्या के अनुरूप नहीं मिलता था। ग्राम का उपाध्याय (दि. जैन मंदिर का पुजारी) किसी श्रावक को आहार व्यवस्था करने की कहकर उसके यहाँ साधु की आहार चर्या के समय उनके आगे चल कर निश्चित श्रावक के दरवाजे पर जाकर रुक जाता था। साधु के लिए यह संकेत था कि उसका आहार इसी घर में होना है। यह सब शास्त्र विपरीत चलन पूज्य शांतिसागर जी को स्वीकार नहीं था। उन्होंने अपनी क्षुल्लक दीक्षा के समय ही शास्त्रानुकूल चर्या का संकल्प व्यक्त कर आगमानुकूल चर्या की घोषणा की। उन्हें आहार आदि में बाधा आयेगी। आचार्य शांतिसागर जी को चेतना एवं चर्या के विलुप्त पथ को पुन: संचालित करना था अत: वह अपने संकल्प पर दृढ़ रहे, बाधाएँ आती रहीं मगर वह उन्हें नहीं झुका सकीं। दिगम्बर श्रमण भयवश अपनी राह परिवर्तित करते हैं, उन्होंने दक्षिण से निकलकर निर्भीकता से संपूर्ण देश में पद विहार कर इस सत्य को प्रमाणित किया। जिनवाणी के प्रति वह कितने समर्पित थे यह जिनवाणी के संरक्षण और उसके संवर्धन के उनके कार्य से लोक विदित है। मूडबद्री के शास्त्र भण्डार में धवला, जयधवला के ताडपत्र पर लिखे ग्रंथों को ताम्रपत्र पर खुदवाकर उन्हें चिरता प्रदान कराई। देश के अनेक शास्त्र भण्डारों के प्राचीन ग्रंथों को सुरक्षित करने की चेतना जन-जन तक प्रदान की। अकलूज (महाराष्ट्र) में राज्य सरकार के शासनादेश के अन्तर्गत वहाँ के जिलाधीश ने जब यहाँ के जैन मंदिर में ताला तुड़वाकर हरिजनों को प्रवेश करा दिया तब पूरे देश का जैन समाज उद्वेलित हो उठा। यह वाद लम्बे समय तक बम्बई हाईकोर्ट में चला, उस पूरी समयावधि में आचार्यश्री ने अन्न का त्याग कर जन-जन को धर्मरक्षा की प्रेरणा प्रदान की। आचार्य शांतिसागर जी की निर्दोष आगमानुकूल चर्या का प्रभाव इस प्रकार का था कि लोग उनके दर्शन करते ही उनके पदानुगामी बन जाते थे। इस चर्या का प्रभाव उनके दीक्षा प्रदाता मुनि, देवेन्द्रकीर्ति जी (देवप्पा स्वामी) पर भी पड़े बिना नहीं रहा था। बाद में उन्होंने भी अपनी चर्या निर्दोष बनाई। इसीलिए श्री शांतिसागर महाराज ‘‘गुरूणांगुरु’’ के रूप में प्रसिद्ध हुए हैं। इस युग के कठोर साधक के रूप में शांतिसागर जी महाराज को जाना जाता है। ३६ वर्ष के अपने मुनि जीवन में उनके २५ वर्ष ९ माह के उपवास इस मान्यता के प्रमाण हैं। वर्तमान में हमारे पूज्य श्रमणजन एवं श्रावक उन पूज्य श्री के उपकारों से उपकृत हैं कि उन्होंने अपनी साधना से उन्हें एक राजमार्ग प्रदान किया। ३६ दिन की नियम सल्लेखना ग्रहणकर यह युग पुरुष जब दिनाँक १८ सितम्बर सन् १९५५ को अपने नश्वर शरीर का त्याग कर महाप्रमाण कर गए तब पूरे देश के जैन समाज में एक रिक्तता व्याप्त हो गई थी। शान्तिसागर महाराज ने दिगम्बरत्व का खोया सत्व पुन: स्थापित किया श्रमण चर्या को पुन: स्थापित कर उसे प्रमाणिकता प्रदान की। उनके इन उपकारों को सदियाँ स्मरण करती रहेंगी।