मार्ग— अंकलेश्वर पश्चिमी रेलवे के सूरत तथा बड़ौदा के मध्य स्टेशन है। स्टेशन से अंकलेश्वर ग्राम १ कि.मी. है। यह गुजरात के भड़ोंच जिले में स्थित है। अतिशय क्षेत्र—यह एक अतिशय क्षेत्र है। ग्राम में चार दिगम्बर जैन मंदिर हैंं। यहाँ भोंयरे में पार्श्वनाथ स्वामी की एक प्राचीन अतिशयसम्पन्न मूर्ति है। यह चिन्तामणि पार्श्वनाथ के नाम से विख्यात है। लोगों की धारणा है कि इस मूर्ति के दर्शन करने से समस्त चिंताएँ दूर हो जाती हैं और मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। जनता में इस मूर्ति के प्रति पैâले हुए इस विश्वास के कारण ही जैन और जैनेतर लोग मनौती मानने के लिए भारी संख्या में यहाँ आते रहते हैं। इसके कारण ही यह स्थान तीर्थक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध हो गया है। अंकलेश्वर का उल्लेख आचार्य पुष्पदंत और भूतबलि के प्रसंग में धवला आदि ग्रंथों में भी पाया जाता है। षट्खंडागम-धवला टीका भाग १, पृ.६७-७१ में जिस कथानक अथवा इतिहास के प्रसंग में अंकलेश्वर का वर्णन आया है, वह कथानक अथवा इतिहास इस प्रकार है— सौराष्ट्र देश के गिरिनगर नामक नगर की चन्द्रगुफा में रहने वाले अष्टांग महानिमित्त के पारगामी, प्रवचनवत्सल धरसेनाचार्य ने आगे अंगश्रुत का विच्छेद हो जाने की आशंका से महिमा नगरी में एकत्रित हुए दक्षिणापथवासी आचार्यों के पास एक लेख (पत्र) भेजा। लेख में लिखे गये धरसेनाचार्य के वचनों को अच्छी प्रकार समझकर उन आचार्यों ने शास्त्र के अर्थ को ग्रहण और धारण करने में समर्थ, विनय से विभूषित, उत्तम कुल और उत्तम जाति में उत्पन्न और समस्त कलाओं में पारंगत ऐसे दो साधुओं को आन्ध्रप्रदेश में बहने वाली वेणा नदी के तट से भेजा। उनके पहुँचने पर धरसेनाचार्य ने उनकी परीक्षा की और सन्तुष्ट होने पर उन्होंने शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र और शुभ वार में उन्हें पढ़ाना प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार धरसेन भट्टारक से पढ़ते हुए उन्होंने आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी के पूर्वान्हकाल में ग्रंथ समाप्त किया। धरसेनाचार्य ने ग्रंथ समाप्त होते ही उन्हें उसी दिन वहाँ से विदा कर दिया। इसी संदर्भ में धवलाकार ने लिखा है—‘‘पुणो तद्दिवसे चेव पेसिदा संतो गुरुवयणमलंघणिज्जं इदि चिंतिऊणादेहि अंकुलेसरे वरिसा कालो कओ।’’ अर्थात् उसी दिन वहाँ से भेजे गये उन दोनों ने ‘गुरु के वचन अलंघनीय होते हैं’ ऐसा विचार कर आते हुए अंकलेश्वर में वर्षाकाल बिताया। अंकलेश्वर में वर्षावास करते हुए उन दोनों मुनियों ने श्रुत के प्रचार की योजना बनायी होगी। उसी योजना के अनुसार वर्षावास के पश्चात् पुष्पदंत तो वनवास देश को चले गये और भूतबलि द्रमिल देश को। तदनन्तर पुष्पदन्त ने जिनपालित को दीक्षा देकर सत्प्ररूपणा के बीस सूत्र (अधिकार) बनाये और उन्हें जिनपालित को पढ़ाया। पढ़ाकर उन्हें भूतबलि के पास भेजा। आचार्य भूतबलि ने द्रव्य प्रमाणानुगम से लेकर शेष पाँच खण्डों की रचना की। फिर षट्खंडागम की रचना को पुस्तकारूढ़ करके ज्येष्ठ शुक्ला ५ को चतुर्विध संघ के साथ श्रुत-पूजा की, जिससे श्रुतपंचमी पर्व का प्रचलन हो गया। फिर भूतबलि ने उस षट्खंडागम को जिनपालित के हाथ पुष्पदंत के पास भेजा। पुष्पदंत उसे देखकर अत्यन्त आनंदित हुए और उन्होंने भी चातुर्वर्ण संघ सहित सिद्धान्त की पूजा की। इस प्रकार अंकलेश्वर उन महिमान्वित पुष्पदंत और भूतबलि आचार्यों की चरण-रज से पवित्र हुआ था। पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी भी ईसवी सन् १९९७ में अंकलेश्वर पधारीं और वहाँ आचार्य श्री पुष्पदंत भूतबली के संस्मरण मन में धारणकर षट्खण्डागम सूत्रों पर ‘‘सिद्धान्तचिंतामणि’’ नामक संस्कृत टीका का लेखन किया था। ज्ञातव्य यह है कि पूज्य माताजी ने सन् १९९५ में (शरदपूर्णिमा के दिन) षट्खण्डागम सूत्रों पर यह सरल संस्कृत टीका लिखना प्रारंभ किया था और सन् २००७ में (वैशाख शु. २ को) सोलहों पुस्तक की टीका लिखकर पूर्ण की है। इसी मध्य चतुर्थ पुस्तक की टीका के कुछ पृष्ठ अंकलेश्वर में लिखे थे। उपाध्याय धर्मकीर्ति ने संवत् १६५७ में चिन्तामणि पार्श्वनाथ मंदिर में यशोधर-चरित की रचना की थी। यह स्थान काष्ठासंघ और मूलसंघ के भट्टारकों का प्रभाव क्षेत्र था। इनके भट्टारक समय-समय पर आकर कुछ समय के लिए यहाँ ठहरा करते थे। यहाँ के मंदिरों में उनकी गद्दियाँ बनी हुई हैं।
क्षेत्रदर्शन— अंकलेश्वर एक अच्छा नगर है। नगर में ४ दिगम्बर जैन मंदिर हैं—(१) चिन्तामणि पार्श्वनाथ मंदिर,(२) नेमिनाथ मंदिर, (३) आदिनाथ मंदिर, और (४) महावीर मंदिर।इनमें पार्श्वनाथ मंदिर के मूलनायक चिन्तामणि पार्श्वनाथ की प्रतिमा अतिशयसम्पन्न है। १. चिन्तामणि पार्श्वनाथ मंदिर—मंदिर के भोंयरे में चिन्तामणि पार्श्वनाथ की कत्थई वर्ण की ४ फुट १० इंच ऊँची पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। सिर के ऊपर सप्तफणावलि है। प्रतिमा का मूलवर्ण हलका गुलाबी है किन्तु प्रतिमा के ऊपर पालिश की हुई है। इस मूर्ति का भी एक इतिहास है। अंकलेश्वर से लगभग एक मील दूर रासकुण्ड नामक एक कुण्ड है। इस कुण्ड में तीन मूर्तियाँ मिली थीं—पार्श्वनाथ की, शीतलनाथ की और नन्दी की। तीनों मूर्तियों को अलग-अलग गाड़ियों में रखकर अंकलेश्वर नगर की ओर ले जाने लगे। जब पार्श्वनाथ वाली गाड़ी अंकलेश्वर नगर के मध्य वर्तमान जैन मंदिर के स्थान पर पहुँची तो गाड़ी यहाँ आकर रुक गई। बहुत प्रयत्न करने पर भी गाड़ी आगे नहीं बढ़ी, तब पार्श्वनाथ प्रतिमा को यहीं उतारकर किसी प्राचीन मंंदिर में विराजमान कर दिया। इसी प्रकार शीतलनाथ वाली गाड़ी अंकलेश्वर से ८ कि.मी. दूर सजोद जाकर अड़ गयी। तब वहीं पर शीतलनाथ का मंदिर बनवाया गया। दोनों ही मूर्ति भोंयरे में हैंं। नन्दी वाली गाड़ी उसके वर्तमान स्थान पर रुकी थी। यह आश्चर्य की बात है कि तीनों ही मूर्तियाँ चमत्कारी हैं। लोग अपनी कामनाएँ लेकर वहाँ जाते हैं। कामनाएँ पूर्ण होने के कारण ही पार्श्वनाथ मूर्ति को चिन्तामणि पार्श्वनाथ कहा जाने लगा है और अब यह मूर्ति इसी नाम से विख्यात है। इस मूर्ति की पीठिका के ऊपर कोई लेख नहीं है किन्तु रचना शैली से यह मूर्ति ७-८वीं शताब्दी अथवा इससे कुछ पूर्व की प्रतीत होती है। बायीं ओर १ फुट २ इंच ऊँची पार्श्वनाथ की श्वेतवर्ण की पद्मासन प्रतिमा है जो संवत् १५४८ में प्रतिष्ठित हुई थी। इसके प्रतिष्ठाकारक जीवराज पापड़ीवाल थे। इसके निकट धातु की एक चौबीसी है। सीढ़ी के पास एक वेदी में मूलनायक पार्श्वनाथ की १ फुट २ इंच ऊँची नौ-फणावलीयुक्त श्वेत पाषाण की पद्मासन प्रतिमा है।प्रतिष्ठाकाल संवत् १५४८ है। बायीं ओर १ फुट ८ इंच ऊँची पद्मप्रभ भगवान की श्वेत वर्ण वाली पद्मासन प्रतिमा है। लेख नहीं है। इसके बगल में १ फुट ऊँची पद्मप्रभ भगवान की एक और प्रतिमा है। दायीं ओर श्वेत पाषाण की १ फुट ७ इंच ऊँची पद्मासन प्रतिमा है किन्तु इसके पादपीठ पर लेख और लांछन नहीं है। इसके पाश्र्व में आदिनाथ भगवान की १० इंच अवगाहना वाली श्वेत वर्ण की पद्मासन प्रतिमा है। व्यवस्था— उक्त चारों मंदिरों की व्यवस्था किसी एक प्रबन्ध समिति के अंतर्गत नहीं है। महावीर मंदिर और आदिनाथ मंदिर काष्ठासंघ के हैं। इन दोनों मंदिरों का एक ट्रस्ट है। चिन्तामणि पार्श्वनाथ और शीतलनाथ मंदिर सजोद—ये दोनों मंदिर मूलसंघ के हैं। इन दोनों मंदिरों की व्यवस्था एक ही ट्रस्ट के द्वारा होती है। नेमिनाथ मंदिर नवग्रह संघ का कहलाता है। इसका एक पृथक् ट्रस्ट है। धर्मशाला—नगर में एक दिगम्बर जैन धर्मशाला है। उसमें यात्रियों के लिए आवास, नल और बिजली की सुविधा है। मेला—महावीर स्वामी के मंदिर से क्वांर वदी १ को जलयात्रा का जुलूस निकलता है। नेमिनाथ मंदिर से भाद्रपद शुक्ला १५ को एक जुलूस निकलता है। रामकुण्ड के पास मुनि-चरण बने हुए हैं। यह जलूस वहाँ जाता है।