चव्रे वशे सुरमवश्यमनन्यवश्यं पुण्यात् परं न हि वशीकरणं जगत्याम्।।२१६।।
शत्रुओं के समूह के लिए जिनकी सम्पत्ति बहुत ही भयंकर है ऐसे चक्रवर्ती भरत ने अत्यन्त भयंकर मगरमच्छों के समूह से भरे हुए समुद्र का उल्लंघन कर अन्य किसी के वश न होने योग्य मागध देव को निश्चितरूप से वश कर लिया,सो ठीक ही है क्योंकि लोक में पुण्य से बढ़कर और कोई वशीकरण (वश करने वाला)नहीं है।।२१६।।
पुण्यं जलस्थलभये शरण तृतीयं पुण्यं कुरुध्वमत एव जना जिनोक्तम्।।२१७।।
पुण्य ही मनुष्यों को जल में स्थल के समान हो जाता है, पुण्य ही स्थल में जल के समान होकर शीघ्र ही समस्त सन्ताप को नष्ट कर देता है और पुण्य ही जल तथा स्थल दोनों जगह के भय में एक तीसरा पदार्थ होकर शरण होता है, इसलिए हे भव्यजनों! तुम लोग जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे गये हुए पुण्यकर्म करो ।।२१७।।
।पुण्य ही आपत्ति के समय किसी के द्वारा उल्लंघन न करने के योग्य उत्कृष्ट शरण है, पुण्य ही दरिद्र मनुष्यों के लिए धन देने वाला हैे और पुण्य ही सुख की इच्छा करने वाले लोगों के लिए सुख देने वाला है इसलिए हे सज्जन पुरुषों ! तुम लोग जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा कहे हुए इस पुण्यरूपी रत्न का संचय करो ।।२१८।।