हेमा-बहन सरिता! अब सोलहकारण पर्व आने वाला है। पुरानी महिलायें वो ही घिसी-पिटी रूढ़ियों में फस जायेंगी। ये बेचारी अपने हित के लिये कोई नया मार्ग नहीं सोचती हैं। बस वही सोलहकारण की पूजा करना, माला फैरना और भावना सुनना। भला इसमें भी कोई धर्म होता है? धर्म तो आत्मा की चीज है। इन बाहरी आडम्बरों में धर्म कहाँ मिलेगा? बस इन्हें तो हाथ का पिसा आटा चाहिये, कुएँ का पानी चाहिये, मर्यादा का मसाला चाहिये। आत्मा की चर्चा का इन्हें भान ही नहीं है।
सरिता-बहन हेमा! तुम इनकी निन्दा मत करो! देखो! भला हम तुम जैसी पढ़ी-लिखी बहनें कोरी आत्मा की चर्चा से क्या तिर जायेंगी? जब तक कि हमारा खान-पान, रहन-सहन नहीं सुधरेगा, आत्मा की चर्चा क्या लाभ प्रदान करेगी! ये पुरानी महिलायें तो कम-से-कम एक घण्टा पूजा करती हैं। दर्शन-विशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं की जाप करती हैं और एक घण्टा मध्याह्न में सभी महिलायें मिलकर भावना सुनती हैं फिर उस पर भी घंटों चर्चा करती हैं। बहन! ये व्रत और भावनाएँ आत्मा को परमात्मा बनाने में परम सहायक हैं। कोरी आत्मचर्चा से आत्मा की सिद्धि नहीं होती है। प्रत्युत् व्रतों के करने से आत्मा की सिद्धि होती है जैसा कि सभी महापुरुषों ने किया है। हेमा-बहन, क्या इन भावनाओं के भाने से हम लोग भी तीर्थंकर बन सकते हैं? सरिता-क्यों नहीं, आज की भावना कभी न कभी तो हमारे में उन गुणों को विकसित कर सकती है और तब हम तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर सकती हैं। यद्यपि स्त्री पर्याय में तीर्थंकर प्रकृति नहीं बंधती है और न ही आज के पुरुषों को बँधेगी, क्योंकि केवली और श्रुतकेवली का पादमूल मिले बिना तीर्थंकर प्रकृति नहीं बँध सकती है। फिर भी अगले भव में कभी न कभी ऐसा मौका आ सकता है अत: भावना तो भाते ही रहना चाहिये। हेमा-इन सोलह भावनाओं के नाम क्या हैं? और उनका लक्षण क्या है? सरिता-सुनो, क्रम से मैं तुम्हें सुनाती हूँ।
दर्शनविशुद्धि-पच्चीस मल दोषरहित विशुद्ध
दर्शनविशुद्धि-पच्चीस मल दोषरहित विशुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करना। विनय सम्पन्नता-दर्शन-ज्ञान-चारित्र का तप तथा इनके धारकों की विनय करना। शीलव्रतों में अनतिचार-अणुव्रत-महाव्रतों में, गुणव्रत या समिति आदि में अतिचार नहीं लगाना। अभीक्ष्णज्ञानोपयोग-सदा जिनागम से अभ्यास में तत्पर रहना। संवेग-धर्म और धर्म के फल में अनुराग रखना। शक्तितस्त्याग-अपनी शक्ति के अनुसार आहार, औषधि, शास्त्र और अभयदान देना। शक्तितस्तप-अपनी शक्ति के अनुसार अनशन आदि तपश्चरण करना। साधुसमाधि-साधुओं का उपसर्ग आदि दूर करना। वैयावृत्य करण-आचार्य उपाध्याय आदि साधुओं की सेवा सुश्रूषा करना, उपचार करना। अर्हद्भक्ति-अर्हंतदेव की भक्ति करना। आचार्य भक्ति-आचार्य की भक्ति करना। बहुश्रुत भक्ति-प्रवचन भक्ति-जिनागम की भक्ति करना। आवश्यक अपरिहाणि-आवश्यक क्रियाओं में दोष नहीं लगाना। मार्गप्रभावना-जैनधर्म की प्रभावना करना। प्रवचनवत्सलत्व-चतुर्विध संघ में अकृत्रिम अगाध प्रीति रखना। इन सोलहकारण भावनाओं में दर्शनविशुद्धि भावना का होना बहुत जरूरी है। फिर उसके साथ दो-तीन आदि कितनी भी भावनाएँ हों, या सभी हों, तीर्थंकर प्रकृति का बँध हो सकता है। हाँ, इतनी और विशेषता है कि वह कर्मभूमि का मनुष्य हो, सम्यग्दृष्टि हो पुन: केवली अथवा श्रुतकेवली के पादमूल में इन भावनाओं के बल से विशुद्धि बढ़ाकर तीर्थंकर प्रकृति का बँध कर लेता है। हेमा-बहन! ये जैनधर्म कितना उदार है जो कि प्रत्येक जीव को धर्मचक्र के नेता-तीर्थंकर बनने तक का अधिकार दे देता है। सरिता-हाँ बहन! ये जैन पर्व इसीलिये तो आते हैं और यह सोलहकारण पर्व तो वर्ष में तीन बार आता है। भाद्रपद, माघ और चैत्र में सोलहकारण पूजा की जाती है। इन भावनाओं की उपासना की जाती है जिससे कि ये भावनाएँ अपने में अवतरित हो सके। हेमा-आज तो प्राय: सामूहिक रूप से और सर्वत्र जैन समाज में तो भाद्रपद में ही सोलहकारण, दशलक्षण, रत्नत्रय आदि व्रत करते हैं किन्तु जिनागम के अनुसार बहुत से लोग माघ और चैत्र में भी व्रत, पूजन, जाप्य आदि करते हैं। अच्छा बहन! आज मैंने इन पर्वों और भावनाओं का महत्त्व समझा है और इन व्रतों के करने से आत्मा की सिाqद्ध होती है, यह भी समझ लिया है। अत: अब मैं इन व्रतों के करने वालों को मूर्ख नहीं कहूँगी।