सुधा-बहन जी! क्या रावण सदा ही परस्त्री लोलुपी रहा था या कभी उसने जीवन में सदाचार का भी अवलम्बन लिया था? अध्यापिका-नहीं, नहीं। वह केवल सीता का अपहरण करके ही अपकीर्ति का भाजन बना है। उसके पूर्व की उसके जीवन की झाँकी देखिये। इन्द्र नाम के विद्याधर राजा ने दुर्लंध्यपुर नगर में नलकूबर विद्याधर को लोकपाल बनाकर स्थापित कर दिया। यह उस समय की बात है जब रावण, चक्ररत्न को प्राप्त कर तीन खण्ड को जीतने के लिए निकला था। वह दुर्लंध्यपुर के निकट पहँुच गया। अपने स्वामी की आज्ञानुसार समयानुसार कार्य करने में कुशल नलकूबर ने आप्त जनों के साथ विचार कर नगर की रक्षा में बुद्धि लगाई। उसने सौ योजन उँचा और तिगुनी परिधि से युक्त वङ्काशाल नाम का कोट, विद्या के प्रभाव से नगर के चारों ओर खड़ा कर दिया। इधर रावण ने दण्ड वसूल करने के लिए प्रहस्त सेनापति को उस नगर में भेजा। उसने वापस आकर कहा कि हे देव! इस नगर का प्राकार उँची शिखरों से युक्त है, अजगर के समान भयंकर है और ऐसा लगता है मानों अग्नि के कणों को बरसा रहा है। इसमें वेतालों के समान भयंकर बड़े-बड़े यन्त्र लगे हैं जो कि एक योजन तक के मनुष्यों को अपनी ओर खींचकर खत्म कर देते हैं। ऐसा जानकर आप इस नगर को प्राप्त करने के लिए कोई कुशल उपाय सोचिये। उस समय वैलाश पर्वत की गुफाओं में बैठे हुए मन्त्रीगण उपाय सोचने लगे। इसी बीच में एक विशेष घटना घटित हुई।
उधर नलकूबर की उपरम्भा
उधर नलकूबर की उपरम्भा स्त्री ने जब रावण के निकट आने का समाचार सुना तब वह अपनी विचित्रमाला सखी से बोली कि-हे सखी! तुझे छोड़कर प्राणतुल्य मेरी अन्य सखी कौन है? देखो! मैं तुझे अपने मन की बात कहती हूँ। सुन, और मेरे कार्य को सिद्ध कर। बाल्यावस्था से ही मेरा मन रावण में लगा था। मैंने बहुत बार उसके रूप और गुणों की प्रशंसा सुन रखी थी। आज अकस्मात् ही अवसर हाथ लगा है। यद्यपि यह कार्य अत्यन्त निन्दनीय है तो भी उस उपरम्भा ने लज्जा को छोड़कर सारी स्थिति अपनी सखी को समझाकर रावण के पास भेज दिया। वहाँ पहँुचकर रावण को प्रणाम करके उस विचित्रमाला ने रावण से कहा कि आप क्षण भर के लिये मेरी बात का एकांत में श्रवण कीजिये। रावण ने दूती के मुख से एकान्त में बात सुनी तब अपने दोनों हाथों से दोनों कान ढक लिये। वह बहुत देर तक सिर हिलाता रहा और नेत्र सिकोड़ता रहा। सदाचार में तत्पर रावण ने परस्त्री की वार्ता सुनकर कहा कि हे भद्रे! पाप के स्थानस्वरूप यह कार्य मुझसे नहीं हो सकता है। चाहे विधवा हो, पतिसहित हो, चाहे महारूपवती हो, परस्त्री मात्र का प्रयत्नपूर्वक त्याग करना चाहिये। यह कार्य इस लोक और परलोक दोनों ही जगह विरुद्ध है तथा जो दोनों लोकों से भ्रष्ट हो गया है वह मनुष्य ही क्या? दूसरे मनुष्य की लार से पूर्ण तथा अन्य अंग से मर्दित जूठा भोजन खाने की कौन मनुष्य इच्छा करता है?
तदनन्तर रावण ने यह बात
तदनन्तर रावण ने यह बात एकान्त में विभीषण से भी कही। उस समय विभीषण ने बुद्धिमत्ता से राय दी। उसने कहा कि नीतिमान् राजा को कभी युक्ति से कार्य सिद्ध करने में झूठ भी बोलना पड़ता है। सम्भव है कि आप उस उपरम्भा की बात स्वीकार कर लेवें तो आपको नगर में बुलाने का कोई उपाय बतला सकती है। तब रावण ने उस दूती को एकान्त में बुलाकर कहा कि जाओ, उसे शीघ्र ही यहाँ ले आओ। प्रसन्न हुई उपरम्भा वहाँ आ गयी। जब काम के वशीभूत उपरम्भा रावण के निकट पहँुची तब रावण ने कहा-हे देवि! मेरी इच्छा आपके दुर्लंध्यनगर में ही रमण करने की है। तुम्हीं कहो, इस जंगल में क्या सुख है? हे देवि! ऐसा करो कि जिससे मैं तुम्हारे साथ नगर में ही रमण करूँ। स्त्रियाँ स्वभाव से ही कोमल होती हैं अत: उपरम्भा भी रावण की कूटनीति नहीं समझ सकी। उस समय उसने रावण को नगर में आने के लिये ‘‘आशालिका’’ नाम की वह विद्या दे दी जो कि नगर में प्राकार बनकर खड़ी थी तथा व्यन्तर देवों से रक्षित ऐसे बहुत से शस्त्र भी आदर से दे दिये। विद्या मिलते ही वह मायामय परकोटा दूर हो गया। तब रावण ने बड़ी भारी सेना लेकर नलकूबर से युद्ध करके उसे जीवित पकड़ लिया और इन्द्र सम्बन्धी सुदर्शन नामक चक्ररत्न भी ग्रहण कर लिया। अनन्तर उपरम्भा के निकट आने पर रावण एकान्त में उससे बोला कि हे भद्रे! विद्या के देने से तुम मेरी गुरू हो। पति के जीवित रहते तुम्हें ऐसा कहना योग्य नहीं है और नीतिमार्ग का उपदेश देने वाले मुझे तो बिल्कुल योग्य नहीं है अत: अपने पति नलकूबर में ही सन्तुष्ट होकर सुख से रहो। ऐसी बात सुनकर लज्जित हुई उपरम्भा अतीव लज्जा को प्राप्त हुई और चुपचाप चली गयी। इधर उसके पति नलकूबर को इस उपरम्भा की कोई भी बात का पता नहीं चल सका अत: वह भी पुन: रावण से सम्मान पाकर पूर्ववत् अपने नगर में रहने लगा। सुधा-बहन जी! इस कथानक से तो यह पता चलता है कि वह रावण परस्त्री के विषय में बहुत ही पापभीरू था और सदाचारी था। अध्यापिका-हाँ बेटी! फिर भी कुछ पूर्व जन्म के पाप कर्म का उदय आ जाने से उसने सीता का अपहरण किया था। देखो! फिर भी अपने नियम की सुरक्षा करते हुए उसने सीता से बलात्कार व्यभिचार करने का साहस नहीं किया था। केवल डराकर या समझाकर जैसे-तैसे वह उसे वश में करना चाहता था। अनन्तर सीता से विरक्त होकर उसने यह भी सोचा कि रामचन्द्र को युद्ध में जीतकर मैं उसकी सीता वापस कर दूँगा। इसी बीच में युद्ध में मरकर तथा प्रतिनारायण के नियोगस्वरूप भी वह नरक चला गया है। आगे यह रावण का जीव तीर्थंकर होगा, तब सीता का जीव उन्हीं तीर्थंकर का गणधर होगा, ऐसा भगवान महावीर ने बताया है। प्रिय सुधा! कर्मों की गति बहुत ही विचित्र है अत: प्रथमानुयोग ग्रन्थों का स्वाध्याय करके मन को और आचरण को पवित्र बनाना चाहिये।